Monday, December 27, 2010

अदालतें कर रही हैं न्याय का शिकार

न्याय के इस खेल में "साक्ष्य" एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है...
-अंजनी कुमार  

यह संयोग था कि मैं उस दिन पीयूडीआर की शनिवार बैठक में उपस्थित था। हरीश रायपुर में विनायक सेन पर चल रहे मुकदमे के बारे में बता रहे थे। सरकारी वकील विनायक सेन को माओवादी और उनका समर्थक सिद्ध करने के लिए यह तर्क पेश कर रहा था कि उनके घर से मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कैपीटल’ तथा माओ की किताबें मिलीं हैं। इन पुस्तकों में पूंजीवाद को ध्वस्त करने की खतरनाक बातें लिखी गई हैं।

सरकारी वकील ने इस केस के कुछ और भी ब्यौरे दिए। उस समय मेरे मन में यह उधेड़बुन चलती रही कि जज ने सरकारी वकील के इतने लचर तर्कों को तरजीह देकर क्यों सुना होगा। मन में ये सवाल यह जानते हुए भी उठा कि न्याय की उम्मीद करना एक जुए के खेल जैसा है, जिसमें विनायक सेन के मामले में हम हार गए। दरअसल, न्याय के इस खेल में हम थे भी कहां! न्याय तो जज को करना था।

कुछ-कुछ ऐसा ही हर जगह चल रहा है। हम अपने पक्ष में साक्ष्य और गुनहगार न होने की दावेदारी पेश कर रहे हैं, जबकि जज की चाहत ही कुछ और बन रही है। मसलन, इसी से कुछ मिलता-जुलता एक और मुकदमा उत्तराखंड में चल रहा है। वहां जब सरकारी वकील ने देहरादून जेल में बंद प्रशान्त राही के खिलाफ यह दलील दी कि उनके पास से लैपटाप मिला है,तब जज ने पूछा कि उसमें क्या-क्या बातें हैं,इसका लिखित ब्यौरा दो। जब वकील ने लैपटाप की बातों को मौखिक और लिखित रूप से पेश कर पाने में अक्षमता दिखाई तब जज ने कोर्ट में ही सरकारी वकील पर विरोधियों से मिल जाने, पैसा खाकर साक्ष्यों को खत्म करने जैसे तमाम आरोप जड़ दिए।

प्रशांत राही मामले में जज के रवैए के कारण मुझे अभी से न्याय की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। ऐसे हजारों मामले हो सकते हैं,जहां पहले से ही न्याय की उम्मीद नहीं रहती और देश में ऐसे सैकड़ों मामले हैं जहां आमजन भी पहले से जानता है कि न्याय क्या होने वाला है। न्याय के इस खेल में साक्ष्य एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है। मसलन,बाबरी मस्जिद का मामला। जहां न्याय में लिखा जाता है कि राम के पैदा होने का साक्ष्य पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वह है...।

बाबरी मस्जिद मामले में केस जमीन पर मालिकाना दावेदारी का है,जबकि न्याय जमीन के विभाजन के रूप में मिलता है। अफजल गुरू मामले में तो सारा मामला ही ‘लोगों की इच्छा’ पर तय कर दिया गया। वह भी आजीवन सजा नहीं, बल्कि सजाए मौत। साक्ष्य की पेशी जज की चेतना में ब्रिटिशकाल के 1870, 1872 या 1876 इत्यादि से कोई रूपाकार ग्रहण करेगी या फिर आधुनिक काल की आस्था और इच्छा से इसे तय करना सचमुच कठिन होने लगा है। यह बात लिखते हुए मुझे बरबस राजस्थान में एक दलित महिला के बलात्कार तथा तमिलनाडु में एक दलित बस्ती को जलाने व लोगों को मार डालने से संबधित केस और न्याय की बातें ध्यान में आ रही हैं।

दोनों ही मामलों में जज इस बात पर जोर देता है कि सवर्ण कैसे दलित स्त्री को छू सकता है, जबकि वह अछूत है। एक अछूत की बस्ती में सवर्ण कदम क्यों रखेगा? महाराष्ट्र के खैरलांजी की घटना को जज ने दलित उत्पीड़न की घटना मानने से ही इन्कार कर दिया और मुंबई हाईकोर्ट ने तो मजदूरों के हड़ताल और बोनस के मसले पर अपने न्याय में संवैधानिक देय अधिकारों को भी समय के साथ संशोधित करने पर जोर देते हुए उनकी मांग को ही खारिज कर दिया।

विनायक सेन मामले में जज के न्याय का आधार है गवाह अनिल सिंह,जो कि पीयूष गुहा से जब्त किए गये पत्रों के समय के हालात से जुड़े साक्ष्य का प्रत्यक्षदर्शी है। अनिल सिंह कपड़े का व्यापारी है,जिसने बताया कि पीयूष गुहा को 6 मई 2007 को पुलिस ने स्टेशन रोड से पकड़ा और उसके पास के बैग से तीन पत्र मिले। यह व्यक्ति ही एकमात्र स्वतंत्र गवाह है जिसके बयान पर न्याय की तकरीर निर्णय में बदल गई।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में जांच अधिकारी बीबीएस राजपूत ने अपने एफीडेविट में बताया है कि पीयूष गुहा होटल महिन्द्रा से पकड़े गए। सरकारी वकील ने होटल के मैनेजर और रिसेप्शनिस्ट को इस साक्ष्य के रूप में जज के सामने पेश किया कि विनायक सेन ने तीनों पत्र पीयूष गुहा को उसी होटल में दिए थे। हालांकि कोर्ट में दोनों ने इस बात को अस्वीकार किया। यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि ये पत्र दो साल पुराने हैं, जबकि उसकी लिखावट ताजा थी और पत्र कहीं से भी फोल्ड नहीं थे।

आरोप है कि है यह पत्र माओवादी नेता नारायण सान्याल ने जेल से लिखा और इसे विनायक सेन ने पीयूष गुहा तक पहुंचाया। नारायण सान्याल और विनायक सेन की जेल में मुलाकात के दौरान हमेशा जेल अधिकारी मौजूद रहे। प्रत्येक पत्र को कड़ी जांच के बाद ही जारी किया गया। कोर्ट में भी आधे दर्जन जेल अधिकारी पेश हुए और उनके बयानों का निहितार्थ षडयंत्र रचने और पत्र पार कराने के आरोप का अस्वीकार किया जाना था।

नारायण सान्याल व विनायक सेन के बीच गहरा संबंध साबित करने के लिए नारायण सान्याल के मकानमालिक को पेश किया गया। मकानमालिक ने अदालत को बताया कि विनायक सेन के कहने पर ही उसने सान्याल को मकान दिया और जनवरी 2006तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा। इस मुकदमे में नारायण सान्याल को माओवादी सिद्ध करने के लिए सरकारी वकील ने कुछ दलीलें पेश की हैं। पहला,नारायण सान्याल ने अपने पत्र में संबोधन के तौर पर ‘कामरेड विनायक सेन’ लिखा है। सरकारी वकील के अनुसार ‘कामरेड उसी को कहते हैं जो माओवादी है।’

दूसरा, माओवादियों ने एक पुलिस अधिकारी को बंधक बनाकर यह मांग रखी कि माओवादी क्षेत्र से सीआरपीएफ को हटाया जाये। यही मांग पीयूसीएल भी कर रहा है। इससे यह दिखता है कि पीयूसीएल माओवादियों का हितैषी संगटन या सहयोगी मोर्चा है।’ तीसरा,विनायक सेन के घर से पीपूल्स मार्च व माओ की संग्रहित रचनाएं मिलीं। चौथा, कोर्ट में सरकारी वकील ने बहुत से पत्र व्यवहार को प्रस्तुत करते हुए बताया कि इनके आईएसआई से खतरनाक संबंध हैं। इस आईएसआई का खुलासा यह है : इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट। यह संस्था दलित, आदिवासी, स्त्री, बच्चों, अल्पसंख्यकों के विभिन्न पहलुओं पर शोध व उनके विकास के लिए विभिन्न तरह से सक्रिय रहती है।

इन सारी दलीलों पर जज की दलील काफी भारी साबित हुई और जो अपनी संरचना की वजह से निर्णायक भी साबित हुई और विनायक सेन अपराधी करार दिये गये। विनायक सेन को इस केस में घसीटने के पीछे मूल कारण उनका 'सलवा जूडूम' के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का माहौल बनाने व छत्तीसगढ़ में निर्णायक प्रतिरोध के लिए लोगों को खड़ा करना था।

सलवा जूडूम के तहत 700 गांवों को उजाड़ दिया गया। लगभग एक लाख लोगों को शरणार्थी बना दिया गया। हजारों लोगों को जेल में ठूंसा गया। अकेले जगदलपुर जेल में ही लगभग ढ़ाई हजार लोग नक्सली होने के आरोप में जेल में बंद हैं। हत्या, बलात्कार, आगजनी का नंगा नाच जिस तरह सलवा जूडूम के नाम पर शुरू हुआ, उससे तो आज खुद सरकार ही मुकर जाने के लिए बेताब दिख रही है और अब आपरेशन ग्रीन हंट को आगे बढ़ाया जा रहा है।

ऑपरेशन ग्रीन हंट छत्तीसगढ़ के साथ छह राज्यों में और फैला दिया गया है। इसका अर्थशास्त्र है कॉर्पोरेटाइजेशन। कारपोरेट की खुली लूट। टाटा व एस्सार ने सलवा जूडूम को चलाने में खुलकर हिस्सेदारी की। अब पूरा कारपोरेट सेक्टर व उसका संगठन,उसकी सरकार व न्यायपालिका खुलकर भागीदारी में उतर रही हैं। यह बिडम्बना नहीं बल्कि क्रूर सच्चाई है कि कारपोरेट सेक्टर की आपसी लड़ाई में वेदांता का एक पंख कतरकर राहुल गांधी को नियामगिरी व आदिवासियों का ‘सिपाही’ घोषित कर दिया जाता है, आदिवासी महिलाओं के साथ मार्च पास्ट कराया जाता है। वहीं आदिवासी समुदाय के मूलभूत जीवन के अधिकार के पक्ष में मांग उठाने वाले एक डाक्टर को,जो उनके बीच जीवन गुजारते हुए गरीबों और बीमारों की सेवा करता है उसे ‘देशद्रोही’ घोषित कर दिया जाता है।

ऐसा लगता है अब समय आ चुका है कि न्याय के नए पाठ के साथ शब्द का अर्थ-विमर्श भी बदल दिया जाय। यहीं से यह स्वीकार किया जाय कि इस कारपोरेट राज में देश की 90करोड़ आबादी देशद्रोही है...न्याय के चौखट पर जाकर मुहर लगवाने का इंतजार क्यों करना है ....जिस गति से देशद्रोह के मुकदमे बढ़ रहे हैं उससे कल हम या आप कोई भी हो सकता है देशद्रोह का अभियुक्त ...सजा ए आजीवन ... या सजा ए मौत ...



साभार: जनज्वार

3 comments:

  1. sohraaaab bhayai bilkul shi or sch khaa is saahsik lekhn ke liyen bdhaayi. akhtar khan akela kota rajsthan .

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  2. बहुत ही सटीक लिखा है शोहराब भाई ।

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