इस देश में नेहरू-गांधी खानदान की लम्बी परम्परा है. देश के एक तिहाई सड़कें इस खानदान के लोगों के नाम पर होंगी. कई अकादमियां और लम्बे चौड़े बजट वाले ट्रस्ट भी हैं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, तक की जन्म तिथि और पुण्य तिथि को कांग्रेसी उत्सव की तरह मनाते हैं. और तो और अब तो राजमाता सोनिया गांधी और
युवराज राहुल बाबा के जन्मदिन भी त्यौहार की तरह मनाये जाते हैं. एक कांग्रेसी सज्जन ने तो प्रियंका गांधी और उनके बच्चों की तारीफ़ भी एक किताब में लिख डाली. लेकिन कांग्रेसी उन फ़िरोज़ गांधी को याद नहीं करते जिनके कारण इस खानदान को “गांधी” उपाधि मिली. उसका कारण साफ़ है. फ़िरोज़ गांधी ही पहले शख्स थे जिन्होंने कांग्रेस शासनकाल में हो रहे घोटालों की पोल खोली थी और सता और पूंजीपतियों के गठजोड़ को उजागर किया था. बिजेन्दर त्यागी जाने माने फोटो पत्रकार हैं. उन्हें कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का अनुभव है. नॉर्थ ब्लॉक में चलने वाले सत्ता संघर्ष को उन्होंने बहुत न ज़दीक से देखा है। पांच दशक की पत्रकारिता के दौरान राजदरबार में उन्होंने जो जो देखा उसे हम हस्तक्षेप डॉट कॉम पर आपके साथ साझा कर रहे. आइये आज पढ़ते हैं फ़िरोज़ गांधी को नमन के साथ उनसे जुड़े कुछ संस्मरण ……….
भाषा की दृष्टि से यदि हम पंडित जवाहर लाल नेहरू के जमाने यानि उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल का विश्लेषण करते हैं तो स्वयं नेहरू भी जिस हिन्दी भाषा का प्रयोग करते थे वास्तव में वह हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी जुबान थी। उर्दू भाषा का प्रयोग आम आदमी करता था उसी कारण उसे हिन्दुस्तानी जुबान यानि भाषा कहते थे। यहां तक कि शासकीय प्रबंधन अदालतों और राजस्व यानि पटवारी, तहसीलदार भी तहसीलों में इसी जुबान का प्रयोग करते थे। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हिन्दुस्तानी जुबान में जब तकरीरें यानि भाषण करते थे वह अपनी भाषा अंग्रेज़ी भाषा की भांति बोलते थे। उदाहरण के तौर पर नेहरू जी- ‘‘हम चाहते हैं हिन्दुस्तान को खुशहाल देश बनाना। पंडित जी ने हम के बाद में अंग्रेजी की भांति क्रिया या virb का प्रयोग किया। यानि हिन्दुस्तानी भाषा को भी अंग्रेजी पैटर्न पर बोलते थे क्योंकि उन्हें आधुनिक हिन्दी नहीं आती थी और न ही उन दिनों इसका आम प्रचलन था।
संसद की कार्यवाही, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के संवाद भी छापने की अनुमति नहीं थी। संसद में हिन्दू कोड बिल पर चर्चा हुई, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के इस पर अलग-अलग विचार थे। पत्रकार और बुद्धि जीवी आपस में इस पर चर्चा करते थे परन्तु कोई भी छापने को तैयार नहीं था। उस समय उर्दू यानि हिन्दुस्तानी जुबान के एक पत्रकार सी.एल. भारद्वाज थे उनका पूरा नाम चिरंजी लाल भारद्वाज था। उन्होंने इस मतभेद की खबर को अपने समाचार पत्र में छपवा दिया। यह खबर छपते ही हंगामा हो गया फिर यह खबर अन्य समाचार पत्रों की सुर्खियां बन गयी और दुनिया की एजेन्सियों ने इसे प्रमुखता से छापा फिर कुछ-कुछ लोग ऐसी खबरें छापने लगे थे परन्तु उन्हें हर समय अपनी गिरफ्रतारी का भय बना रहता था।
उस जमाने में दैनिक मिलाप उर्दू में एक स्तम्भकार फिक्र तोंसवी होते थे उनका एक कॉलम ‘‘प्याज के छिलके’’ होता था। हर अखबार पढ़ने वाला फिक्र तौंसवी की तारीफ करता था और उसे जिज्ञासा रहती थी कि तौंसवी साहब ने आज क्या लिखा है। हमारे घर पर गांव में डाक से उस समय मिलाप अखबार आता था हम लोगों को उर्दू नहीं आती थी। कुछ मोहल्ले के बच्चे और नौजवान फिक्र तौंसवी के लेख को हमारे पिताजी से सुनते थे।
उसी जमाने में एक पत्रकार मिलखी राम होते थे जिनका उस समय पुलिस और पत्रकार जगत में नाम था। परन्तु उन्हें शुरू से पीने का शौक था। उन दिनों वह प्रताप अखबार में काम करते थे। मैं जिस जमाने की बात कर रहा हूं उस जमाने में प्रताप के सम्पादक के. नरेन्द्र हुआ करते थे। हालांकि के नरेन्द्र आर्य समाजी परिवार से थे परन्तु उन्हें भी शराब पीने का शौक था। उनके कार्यालय में शराब की पेटी रखी रहती थी। मिलखी राम जी उनसे रात के समय पुलिस से सम्पर्क करने के लिए के. नरेन्द्र के कमरे की चाबी ले लेते थे क्योंकि टेलीफोन तो सम्पादक के ही कमरे में था। के. नरेन्द्र के कमरे में हुक्का भी रखा रहता था। मिलखी राम जी शराब की बोतल उठाते उसमें से अपने आप पीते और अपने साथ कुछ लोगों को बैठाकर पिलाते थे। जब बोतल खाली हो गयी तो हुक्के से निकाल कर उसका पानी बोतल में भर देते थे यह कार्यक्रम काफी दिनों तक चला। के. नरेन्द्र तो घर जाने से पहले नियमित रूप से पीते थे। एक दिन उन्होंने बोतल खोली उस दिन उसमें शराब की जगह हुक्के का पानी मिला वह तो शराब समझकर पीने लगे जब उन्हें गले में परेशानी हुई और उसका स्वाद कसैला निकला तो इस बात की जांच हुई तो पता चला कि उनके बाद रात में मिलखी राम जी का दरबार लगता है। उनके साथ तो गढ़वाली चपरासी तक भी बैठकर पीते हैं। यह हुक्के का पानी भी उन्हीं का मिलाया होता था।
जब बात पकड़ में आ गयी तो फिर के. नरेन्द्र ने उन्हें अपने कमरे की चाबी देना बन्द कर दिया। फिर पुलिस वाले उन्हें शराब लाकर देने लगे। हालांकि उनके कई शिष्य थे परन्तु उनमें ए.आर. विग और विद्यारत्न प्रमुख थे। इसीलिए इन दोनों की पुलिस में अच्छी पैठ बन गयी थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी देश में पार्लियामेंट्री व्यवस्था हो, चाहे प्रशासनिक व्यवस्था हो, पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल 1947 से 1957 तक लगभग देश में वही ढर्रा चलता रहा। कहने को तो हम आजाद हो गये थे परन्तु प्रशासनिक व्यवस्था में जैसा आज कुछ सुधर हुआ है, वैसा नहीं था। संसद में विभिन्न मुद्दों पर बहस होती थी। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी का एक छत्र राज था। भारतीय जनसंघ के 2-4 सांसद थे। उधर लेफ्रट पार्टी यानि सीपीआई के भी इतने ही सदस्य थे। परन्तु उनका नियंत्रण तो मास्को से होता था वह भारत की इस प्रजातांत्रिक प्रणाली से प्रभावित नहीं थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री को सोवियत गणराज्य मास्को स्थित सरकार को पत्र लिखा कि आप अपने समर्थकों से कहें कि भारत के इस प्रजातांत्रिक व्यवस्था में हिस्सा लें और चुनाव लड़े। मास्को सरकार ने अपने कम्युनिस्ट समर्थकों को पत्र लिखा कि अब आप देश के प्रजातांत्रिक व्यवस्था में हिस्सा लेकर चुनाव लड़ें। इस प्रकार पहली बार 1957 में केरल में पहली बार निम्बूदारी पाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी उसमें प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के भी कुछ सदस्य थे।
1957 तक संसद की कार्यवाही समाचार पत्रों में नहीं छपती थी क्योंकि संसद की कार्यवाही को छापने की आज्ञा नहीं थी। 1957 में पंडित जवाहर लाल नेहरू के अकेले दामाद फ़िरोज़ गांधी रायबरेली से चुनाव जीतकर आये थे। तत्कालीन वित्तमंत्री संसद में बिरला उद्योग समूह के घपलों, सरकार के करों में चोरियों पर चर्चा का जवाब दे रहे थे। परन्तु दूसरे दिन किसी भी समाचार पत्र ने वित्तमंत्री की किसी भी बात को जो उन्होंने संसद में बोला था, किसी भी समाचार पत्र के किसी भी पन्ने पर देखने को नहीं मिली। उस बात पर सांसद फ़िरोज़ गांधी तिलमिला गये। उन्होंने संसद में उठकर कहा- अध्यक्ष जी मैं जनता का प्रतिनिधि हूं। जनता ने मुझे चुना है। जनता को इस संसद में जो होता है उसके बारे में जानना चाहती है। इसलिए मैं उसके लिए जनता को जवाबदेह हूं। परन्तु संसद के कार्यकलापों को समाचार पत्र नहीं छापते क्योंकि उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है। यदि वह यहां की कार्यवाही छापेंगे तो पुलिस उन्हें पकड़कर जेल भेज देगी।
उन्होंने आगे कहा इसलिए मैं इस संसद से मांग करता हूं कि संसद में ऐसे घरानों की कर चोरियों के बारे में बताया जाता है तो ऐसी खबरें जनता को पता चलनी चाहिए। सभा में सांसदों ने मेजें थपथपाकर फ़िरोज़ गांधी के इस बयान को सराहा। लोगों की आकांक्षाओं को देखते हुए फ़िरोज़ गांधी संसद में एक प्राइवेट मेंबर बिल लाए जिसमें खबरें छापने पर पत्रकारों की सुरक्षा और संसदीय कार्यवाही को छापने की आजादी हो।
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ऐसा बिल संसद में आने देना नहीं चाहते थे किन्तु स्पीकर ने इस बिल पर संसद में बहस करने की अनुमति दे दी। पूरे दिन बहस चली। फिर इसे कन्सलटेटिव एडवाजरी को विचार के लिए भेज दिया गया। यह प्राइवेट बिल उनकी सहमति से फिर संसद में आ गया। अगले दिन इस पर संसद में फिर बहस चली। उसके बाद इस बिल में थोड़ा परिवर्तन किया गया। तदनुसार पत्रकारों को संसद कार्यवाही को लिखने की स्वतंत्रता मिली। यानि सांसद के प्रश्न का जो मंत्री का लिखित जवाब या मंत्री ने संसद में बोला है और संसद की कार्यवाही में नोट किया गया। उसे छापने की आजादी का बिल पास हो गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस पर अवाक रह गये थे। यह बिल Parliamentry Prociding Protection Bill 1957 के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार से पत्रकारों को संसद की कार्यवाही को समाचार पत्रों में छापने की इजाजत संसद से मिल गयी। इसीलिए आज जो संसद में होता है वह फ़िरोज़ गांधी के प्रयासों का नतीजा है कि जनता भी संसद में होने वाली बहसों-निर्णयों को समाचार पत्रों, रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों व टीवी के माध्यमों से जान जाती है।
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लेखक बिजेन्दर त्यागी देश के जाने-माने फोटोजर्नलिस्ट हैं. पिछले चालीस साल से बतौर फोटोजर्नलिस्ट विभिन्न मीडिया संगठनों के लिए कार्यरत रहे. कई वर्षों तक फ्रीलांस फोटोजर्नलिस्ट के रूप में काम किया और आजकल ये अपनी कंपनी ब्लैक स्टार के बैनर तले फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हैं. ”The legend and the legacy: Jawaharlal Nehru to Rahul Gandhi” नामक किताब के लेखक भी हैं विजेंदर त्यागी. यूपी के सहारनपुर जिले में पैदा हुए बिजेन्दर त्यागी मेरठ विवि से बीए करने के बाद फोटोजर्नलिस्ट के रूप में सक्रिय हुए. वर्ष 1980 में हुए मुरादाबाद दंगे की एक ऐसी तस्वीर उन्होंने खींची जिसके असली भारत में छपने के बाद पूरे देश में बवाल मच गया. तस्वीर में कुछ सूअर एक मृत मनुष्य के शरीर के हिस्से को खा रहे थे. असली भारत के प्रकाशक व संपादक गिरफ्तार कर लिए गए और खुद विजेंदर त्यागी को कई सप्ताह तक अंडरग्राउंड रहना पड़ा. विजेंदर त्यागी को यह गौरव हासिल है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लेकर अभी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें खींची हैं. वे एशिया वीक, इंडिया एब्राड, ट्रिब्यून, पायनियर, डेक्कन हेराल्ड, संडे ब्लिट्ज, करेंट वीकली, अमर उजाला, हिंदू जैसे अखबारों पत्र पत्रिकाओं के लिए काम कर चुके हैं.
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