असम में बोडो आदिवासी बहुल इलाकों में भड़की हिंसा के बहाने
सांप्रदायिक राजनीति फिर उफान पर है। मीडिया की खबरों और रपटों में इस हिंसा को असम
के हिंदुओं के विरुद्ध घुसपैठिया मुसलमानों के आक्रमण बताकर पूरे देश में मुसलमान विरोधी
शरणार्थी विरोधी माहौल तैयार किया जा रहा है जो बेहद खतरनाक है। मूल समस्या आदिवासी
बहुल इलाकों में संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर और संविधान के तहत पांचवी व छठी अनुसूचियों
में आदिवासियों के हक हकूक को दशकों से नजरअंदाज किये जाने की है। पर माहौल ऐसा बनाया
जा रहा है कि एक तरफ मुसलमानों को इस दंगे के लिए एकतरफा जिम्मेवार बनाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ बोडो आदिवासियों की स्वयात्तता
और जल जंगल जमीन के हकहकूक को खारिज करने की साजिश हो रही है। राजनीति न मुसलमानों
के पक्ष में है और न आदिवासियों के हक में। हिंदुओं के हक में भी नहीं। यह तो आगामी
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नये सिरे से कोशिश है, जिससे न सिर्फ असम बल्कि पूरे देश में जल जंगल जमीन से बेदखली और कॉर्पोरेट
वर्चस्ववादी राज कायम रह सकें। वैसे भी असम समस्या कभी हिंदू मुसलमान सांप्रदायिक समस्या
नही रही है। बल्कि हमेशा इसे सांप्रदायिक रंग देकर हकीकत को रफा दफा किया जाता रहा
है। हमने मेरठ और उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों के महीनों दंगों की आग में जलते देखा
है। किसी खास इलाके में योजनाबद्ध ढंग से हिंसा हो और उसपर काबू पाने की कोशिश ही न
हो, बल्कि दंगों की आग भड़काने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति हो,
यही दंगों की असलियत है, जो सत्ता प्रायोजित सत्ता
संचालित होती है।
नब्वे के दशक में हमने अपनी लंबी कहानी उनका मिशन में दंगों
के भूगोल का पोस्टमार्टम किया था कि कैसे उद्योग धंधों, आजीविका और कारोबार से आम लोगों को बेदखल करने
और कारोबार में वर्चस्व बनाने के लिए सुनियोजित तरीके से दंगे कराये जाते हैं। सिर्फ
मेरठ ही नहीं, उत्तर प्रदेश के दूसरे छोटे बड़े शहरों कानपुर,
इलाहाबाद,वाराणसी, आगरा,
अलीगढ़, मुरादाबाद, बरेली,
फिरोजाबाद और अन्यत्र हम सबने इसे प्रत्यक्ष देखा है। राम जन्म भूमि
आंदोलन के दरम्यान देश भर में सांप्रदायिकता के उफान से बाजार का भूगोल बदल गया और
कारोबार से आम लोगों, ख़ासकर कमजोर तबके को बेखल कर दिया जाता
रहा। सांप्रदायिक उन्माद से ही बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज कायम करने में मदद मिली
है। गुजरात में यही प्रयोग वैज्ञानिक तरीके से हुआ, जहां अनुसूचियों
और पिछड़ों के हिंदुत्व के पैदल सेना मे तब्दील हो जाने से पूरे राज्य में कारपोरेट
राज कायम हो गया है और इसी उपलब्धि पर नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्रित्व पर दावा है।
१९६० के दंगों में पीड़ितों के बीच मेरे दिवंगत पिता ने काम
किया था कामरुप, कछार,
नौगांव समेत उपद्रवग्रस्त इलाकों में। १९८० के असम छात्र आंदोलन में
भी जनसंख्या का बदलता हुआ चरित्र सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। पिताजी शरणार्थियों के राष्ट्रीय
नेता रहे हैं और हमारा उनसे हमेशा विवाद इस बात को लेकर रहा है कि वे अल्पसंख्यक होने
की मजबूरी में क्यों जीते हैं। जबकि शरणार्थियों की इसी असुरक्षा बोध की वजह से उनका
वोट बैंक बतौर इस्तेमाल होता है। शुरू से शरणार्थी समस्या सुलझाने की भारत सरकार या
राज्य सरकारों की कोई कोशिश नहीं रही है। इसके लिए न कोई राजनीतिक और न राजनयिक प्रयास
किये गये। जिससे पूरे देश में यह समस्या प्रबल हो गयी। जान बूझकर आदिवासी इलाकों में
शरणार्थियों की आबादी बसाने की नीति अपनायी गयी ताकि विकास के बहाने और मानविक कारण
दर्शाते हुए पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों के हक हकूक खत्म कर दिया
जाये। प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकारों को भारत सरकार मानती
ही नहीं है। इसके उलट आदिवासी इलाकों में तमाम प्राकृतिक संसाधन औद्योगिक घरानों,
बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट तत्वों के हवाले कर दिया गया। प्रतिरोध
करने वाली आबादी को सर्वत्र अलगाववादी उग्रवादी नक्सली माओवादी कहा जाता रहा। बंगाल,
झारखंड, ओड़ीशा, मध्य प्रदेश,
आंध्र, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र,
उत्तरप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड,
महाराष्ट्र गुजरात में इसका अंजाम हम देख रहे हैं , जहां आदिवासी भूगोल के विरुद्ध राष्ट्र ने युद्ध छेड़ा हुआ है। आदिवासी क्षेत्रों
में 5 वीं , 6 वीं अनुसूचि का स्वायत्तता नहीं होने के कारण जल
जंगल और जमीन से बेदखल होना पड़ रहा है।
गौरतलब हो कि ब्रिटिशकाल में स्वायत्तता, स्वतंत्रता और जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए
देशभर में बार बार आदिवासी विद्रोह होते रहे। सत्तावर्ग ने इस इतिहास के मद्देनजर आदिवासियों
के जल जंगल के हक हकूक को मंजूर नहीं किया
है और न आदिवासी इलाकों में भूमि सुधार लागू करने की कोई पहल की है। और तो और,
देशभर के ज्यादातर आदिवासी गांवों को राजस्व गांव की मान्यता नहीं है।
उनकी मिल्कियत दखल पर आधारित है। एक बार गांव छोड़ते ही आदिवासी हमेशा के लिए अपनी
जमीन, अपने घर गांव से
बेदखल हो जाते हैं। आदिवासी इलाकों में युद्ध परिस्थियियां बनाया रखना सत्ता के बिल्डर
प्रोमोटर कारपोरेट माफिया वर्ग की सोची समझी रणनीति है, ताकि
आदिवासियों की बेदखली को उनके अलगाव का फायदा उठाते हुए जायज ठहराया जा सकें। समरस
हिंदुत्व बहिष्कार और अस्पृश्यता जाति व्यवस्ता
की बुनियाद पर खड़ा है, जहां समता, समान
अवसर और न्याय का निषेध है। इस समरस हिंदुत्व में आदिवासियों को समाहित करने का अभियान
का नतीजा गुजरात नरसंहार तक सीमाबद्ध नहीं है, असम की हिंसा और
मुसलमानों के खिलाफ, शरणार्थियों के विरुद्ध दिनोंदिन तेज होते
प्रचार अभियान और ध्रूवाकरण की राजनीति से साफ जाहिर है।
पूर्वोत्तर में जहां ब्रिटिश राज के दौरान मिजरम, मेघालय, नगालैंड,
अरुणाचल और असम के तमाम आदिवासी इलाके अनुसूचित क्षेत्र रहे हैं जहां
सरकारी कारिंदों, फौज और दूसरे समुदायों के प्रवेश की मनाही थी।
आजादी के बाद इन इलाकों में अनुसूचित क्षेत्र वाली पाबंदी खत्म कर दी गयी और विकसित
समुदायों को वहा कारोबार करने की, रिहायश की छूट दे दी गयी। पांचवीं
और छठी अनुसूचियों के तहत मिलने वाले अधिकारों से भी आदिवासी वंचित कर दिये गये। जब
इन इलाकों में, खासतौर पर भारत में विलय के बाद मणिपुर में स्वायत्ता
और आत्म निर्णय के अधिकार की मांग प्रबल होती गयी, तो पूरे पूर्वोत्तर
में विशेष सैन्य अधिकार कानून लागू कर दिया गया। १९५८ से यह कानून लागू कर दिया गया
और पिछले बारह साल से इरोम शर्मिला इसके विरुद्ध आमरण अनशन पर है। जो लोग बोड़ो आदिवासियों
को हिंदू बताकर मुसलमानों के खिलाफ घृणा अभियान छेड़ रहे हैं, उन्हें आदिवासियों की स्वायत्तता की मांग अलगाववादी और उग्रवादी लगती है और
वे इसके विरुद्ध सलवा जुड़ूम और सैनिक दमन की नीति अपनाने से बाज नहीं आते। विशेष सैन्य
कानून भी जारी रखने के वे पक्षधर हैं। इनका एकमात्र ध्येय आदिवासियों को हिंदू बनाकर
हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील करने की है, उनको उनके हक हकूक
बहाल करने से कोई मतलब नहीं है। तमाम वनवासी कल्याण कार्यक्रम दरअसल आदिवासियों के
विरुद्ध कारपोरेट अश्वमेध यज्ञ के ही कार्यक्रम हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद
14(4), 16(4), 46, 47, 48(क), 49, 243(घ)(ड), 244(1), 275,
335, 338, 339, 342 तथा पांचवी अनुसूची के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के राजनैतिक,
आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक विकास जैसे कल्याणकारी
योजनाओं के विशेष आरक्षण का प्रावधान तथा राज्य स्तरीय जनजातीय सलाहकार परिषद की बात
कही गई है परंतु इसे अब तक लागू नहीं कर पाना वाकई सरकार के लिए चिंता का विषय है।
यह सर्वविदित है कि आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाधनों से सरकार को अरबों
रुपए के राजस्व की प्राप्ति होती है या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार के आय के
स्रोत इन आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध वन संसाधन तथा खनिज संसाधन ही हैं, परंतु इस राजस्व का कितना प्रतिशत हिस्सा उन अनुसूचित क्षेत्रों के राजनैतिक,
सामाजिक व आथिक विकास में खपत किया जाता रहा है। संस्कृति के नाम पर
उन पर ब्राहम्णवादी संस्कृति थोपी जा रही है। आदिवासी की परंम्परागत धर्म संस्कृति
एवं भाषा को जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश रची जा रही है। आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से षडयंत्र के तहत बेदखल किया जा रहा है।
हैरानी की बात है कि धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकतें
भी असम की समस्या को महज हिंदू मुसलिम समस्या मानते हैं, वर्चस्ववादी साजिश को बेनकाब करने में उनकी
भी कोई रुचि नहीं हैं, क्योकि इनकी अगुवाई करनेवाले लोग भी अंततः
सत्तावर्ग से हैं। संयुक्त राष्ट्र, जिनेवा द्वारा आदिवासी अधिकारों
के प्रति विश्व स्तर पर जागरूकता के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से 9 अगस्त को ‘विश्व
आदिवासी दिवस’ के रूप में घोषित किया गया है। यहां आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कई
कानून बनाए गए कई योजनाएं बनाई गईं परंतु आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश में आदिवासियों
की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका है। भारत देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी
हितों को ध्यान में रखकर संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने हेतु अपने ऐतिहासिक फैसले
में सौ प्रतिशत आरक्षण को असंवैधानिक मानने से इंकार कर दिया तथा गत् 5 जुलाई 2011
को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के विरुद्ध शुरू किए गए सलवा-जुड़ूम
अभियान में आदिवासियों को विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के तौर पर शामिल किए जाने
के मामले को असंवैधानिक माना है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आदिवासियों के लिए एक बड़ी
राहत के रूप में देखा जा सकता है। पांचवी अनुसूची में शामिल देश के कई राज्यों में
पंचायत, नगरीय चुनावों में संविधान का पालन नहीं किया जा रहा
है। निर्वाचित राज्य सरकारें आदिवासी हितों का संरक्षण न कर मूल निवासी आदिवासियों
के अधिकारों का हनन करती देखी जा सकती है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि अनुसूचित
क्षेत्रों का औद्योगीकरण करने की अनुमति संविधान नहीं देता। आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने
राज्य शासन के एम.ओ.यू. को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि अनुसूचित क्षेत्र की आदिवासी
भूमि पर उद्योग लगाना असंवैधानिक है। आदिवासी संरक्षण और विकास के प्रति संविधान दृढ़
संकल्पित है किंतु केन्द्र व राज्य सरकारें संसाधनों के दोहन के नाम पर लगातार औद्योगीकरण
को बढ़ावा दे रही है। संविधान के अनुच्छेद 350ए में स्पष्ट निर्देश था कि प्रत्येक
राज्य और उस राज्य के अंतर्गत प्रत्येक स्थानीय सत्ता भाषाई अल्पसंख्यक समूहों के बच्चों
को उनकी मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी। किंतु आज तक आदिवासी बच्चों
को उनकी भाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था नहीं की गई है।
भारतीय संविधान की
5 वीं एवं 6 वीं अनुसूचि जिसमें आदिवासियों की जमीन के कानूनी अधिकार बहाली की है जो
स्वशासन के अधिकार के अंतर्गत है। आदिवासियों के इस मौलिक अधिकार से 63 वर्षों बाद
भी उन्हें वंचित रखा गया है।
बोडो इलाकों और देश का बाकी आदिवासी इलाकों की जमीनी हकीकत क्या
है, इसे जानने समझने के लिए एक केस स्टडी
पेश है। सैन्य बलों ने ऐसे कई गाँवों में आदिवासी लोगों को इसी प्रकार हफ्तो-हफ्तों
तक अपने ही गाँव में बंधक बनाकर रखा. नित्यकर्म तक उन्हें घर में ही करने को मजबूर
होना पड़ा. वृद्ध जो नहीं भाग सके, उनको इतना पीटा गया कि उनकी
मौत तक हो गयी…