पतियों द्वारा
एक़तरफा तरीके से छोड़ी गई हर औरत की ज़िंदगी दयनीय है. ऐसी औरतें अपने ससुराल और
मायके दोनों जगह मुश्किलों का सामना करती हैं.
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध राष्ट्रवादी मुस्लिम महिला संघ ने जून,
2016 में भारत के सर्वोच्च
न्यायालय में एक याचिका दायर की. यह याचिका ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ को संहिताबद्ध करने के लिए दायर की गई थी.
इसका मकसद खासतौर
पर बहुविवाह, तीन तलाक़ और तत्काल
तलाक़ जैसी प्रथाओं पर रोक लगाना था. अक्टूबर महीने में कोर्ट ने इन मुद्दों पर
भारत सरकार से विचार और सिफारिशें मांगीं.
इस पर सरकार की
तरफ से जवाब आया कि पिछले 65 वर्षों में
मुस्लिम समुदाय में सुधार न होने की वजह से आज मुस्लिम औरतें ‘सामाजिक और आर्थिक तौर पर बेहद नाज़ुक स्थिति
में’ खड़ी हैं.
बिना वक़्त गंवाए
24 अक्टूबर को प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने तथाकथित ‘तीन तलाक़ की
प्रथा’ की आलोचना की. उत्तर
प्रदेश के बुंदेलखंड में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमारी माताओं और बहनों के साथ धर्म या संप्रदाय
के नाम पर कोई अन्याय नहीं होना चाहिए.’
पहली नज़र में
लगता है कि भारत के मुसलमानों के लिए यह एक खुशी का क्षण है क्योंकि भाजपा और इसका
सांस्कृतिक प्रतीक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मुस्लिम औरतों की दशा सुधारना चाहते
हैं.
ये निश्चित तौर
पर इस बात का भी संकेत है कि एक दिन मुस्लिम पुरुषों की दशा में भी सुधार होगा.
क्या कहते हैं
आंकड़े
लेकिन 2011 के भारत की जनगणना के आंकड़ों के सहारे किए गए
थोड़े से शोध ने हमारी ख़ुशी छीन ली.
यह विश्लेषण
निम्नलिखित सवाल उठाता है : क्या भारत में मुस्लिम औरतों की स्थिति सचमुच में उतनी
ही ख़राब है जितनी मोदी सरकार, आरएसएस और इसकी
संतानें दावा कर रहे हैं?
क्या मुस्लिम
औरतें सामाजिक और आर्थिक तौर पर ‘बेहद नाज़ुक
स्थिति’ में हैं- जैसा कि सुप्रीम
कोर्ट में सरकार की तरफ से दिए गए हलफनामे में बताया गया है?
और अपनी हिंदू,
ईसाई और दूसरे धार्मिक संप्रदायों की औरतों की
तुलना में उनकी स्थिति कैसी है?
चूंकि न तो
सरकारी हलफनामे में, न ही
प्रधानमंत्री के भाषण में इस दावे के पक्ष में कोई विश्वसनीय आंकड़ा पेश किया गया,
इसलिए असली स्थिति जानने के लिए जनगणना के
आंकड़ों पर नज़र डालना उपयोगी होगा.
हमने वास्तविक
स्थिति जानने के लिए जनगणना के सी3 टेबल– ‘धार्मिक समुदायों और लिंग के हिसाब से वैवाहिक
स्थिति-2011’ के आंकड़ों का
विश्लेषण किया है.
हमारा मुख्य
निष्कर्ष यह है कि भारत की मुस्लिम औरतों की स्थिति दूसरे धार्मिक समूहों की औरतों
की तुलना में कहीं बेहतर नज़र आती है.
उदाहरण के तौर पर
वैवाहिक संबंधों में रहने वाली औरतों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा मुस्लिमों में 87.8 प्रतिशत है, जबकि हिंदुओं में यह 86.2 प्रतिशत, ईसाइयों में 83.7 और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों में 85.8 प्रतिशत है.
विधवा औरतों का
सबसे कम प्रतिशत मुसलमानों में 11.1 प्रतिशत है,
जबकि हिंदुओं में यह 12.9, ईसाइयों में 14.6 और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों में 13.3 प्रतिशत है.
इस बात की
संभावना है विधवा पुनर्विवाह की संस्कृति मुस्लिम औरतों को दूसरे धार्मिक समुदायों
की तुलना में ज़्यादा पारिवारिक सुरक्षा प्रदान करती है.
अलग की गईं और
त्याग दी गईं (छोड़ी गईं) औरतों का सबसे कम प्रतिशत भी मुस्लिमों में (0.67 प्रतिशत) है, जबकि हिंदुओं में यह 0.69, ईसाइयों में 1.19 और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों में 0.68 प्रतिशत है.
इसी जनगणना के
आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि मुस्लिमों और ईसाइयों में अपेक्षाकृत ज़्यादा
औरतें तलाक़शुदा हैं- क्रमशः 0.49 प्रतिशत और 0.47 प्रतिशत.
अन्य धार्मिक
अल्पसंख्यकों में यह आंकड़ा 0.33 प्रतिशत और
हिंदुओं में 0.22 प्रतिशत है.
हिंदुओं में तलाक़ लेने की प्रथा का परंपरागत तौर पर अस्तित्व नहीं रहा है.
किसी भी उम्र में
विवाह के बंधन में बंधने वाली कुल 34 करोड़ महिलाओं में 9.1 लाख तलाक़शुदा
हैं और इनमें 2.1 लाख मुस्लिम
हैं.
कुरान पाक़ में
तलाक़ की प्रक्रिया स्पष्ट तौर पर लिखी गई है, जो कि तीन तलाक़ के खिलाफ है. विशेष परिस्थितियों में तीन
तलाक़ अपवाद की तरह होते हैं न कि रिवाज़ की तरह. तलाक़ मनमर्जी का मामला नहीं है.
अलगाव और
मेल-मिलाप की कोशिशों के नाकाम हो जाने के बाद पुरुष और स्त्री दोनों को एक
प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है जिसकी मियाद कम से कम तीन महीने (या तीन मासिक
धर्म चक्र) की होती है.
इसके पीछे दो
तर्क हैं : पहला तो यह कि अगर वाह औरत मां बन सकती है, तो यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह गर्भवती नहीं है. और अगर
वह गर्भवती है, तो बच्चे की
परवरिश का इंतज़ाम किया जा सके.
दूसरा कारण है कि
दोनों पक्ष रहने के लिए जगह की तलाश कर सकें और वे सड़क पर न छोड़ दिये जाएं. इसके
अलावा पारदर्शी मेल-मिलाप के लिए, पति और पत्नी,
दोनों के परिवारों से एक-एक मध्यस्थ को भी
नियुक्त किया जाना चाहिए.
और आखिर बात,
दोनों पक्षों को अलगाव के दौर में अपना कदम
वापस लेने और शादी को बरकरार रखने का अधिकार दिया गया है.
आगे बात करें,
तो इस्लाम दो तरह के तलाक़ की बात करता है- एक ‘खुला’, जिसकी पहल पत्नी कर सकती है और दूसरा ‘तलाक़’ जिसकी पहल पति कर सकता
है.
तीन तलाक़ पति
द्वारा पहल किए गए तलाक़ का एक रूप है. अगर पति अपनी बीवी को तलाक़ देता है,
तो उसे बीवी को मेहर चुकाना अनिवार्य है.
मेहर निकाह के
वक्त तय की गई वह रकम है जिसे दूल्हा, दुल्हन को अदा करने का वादा करता है, या अदा करता है. हर निकाह के इक़रारनामे में मेहर की रकम का साफ ज़िक्र होता
है.
अगर बीवी खुला
चाहती है, तो उसे मेहर पर से अपना
हक़ छोड़ना पड़ता है क्योंकि निकाह को निरस्त करने की पहल उसकी तरफ से की गई होती
है.
इस लेख के लेखकों
ने इस्लामी न्यायशास्त्र में विशेषज्ञता रखने वाले और हैदराबाद शहर में खुला या
तलाक़ को अंजाम देने का अख्तियार रखनेवाले ‘दारुल कज़ा’ (पारिवारिक
न्यायालय) के चार क़ाज़ियों से बातचीत की.
गौरतलब है कि
निकाह कराने की शक्ति शहरभर में मौजूद कई क़ाज़ियों के पास होती है, लेकिन खुला या तलाक़ के मामले का निपटारा सिर्फ
ये चार क़ाज़ी ही कर सकते हैं.
एक क़ाज़ी से पता
चला कि पिछले सात वर्षों में उसके सामने ‘तीन तलाक़’ के सिर्फ दो
मामले आए. एक दूसरे क़ाज़ी, जो पिछले 15 वर्षों से फैसले दे रहे हैं, ने तलाक़ के 160 मामले निपटाए थे, जिनमें 130 खुला के मामले
थे, 21 सामान्य तलाक़ के मामले
थे और सिर्फ 9 मामले तीन तलाक़
के थे.
छोड़ी गई-
परित्यक्त औरतों का हाल
हालांकि यह साबित
करने के लिए पक्के आंकड़े नहीं हैं, लेकिन ज़बानी
साक्ष्य बताते हैं कि तीन तलाक़ के मामले विरले होते हैं.
और ऐसे
दुर्भाग्यपूर्ण मामलों में जहां तीन तलाक़ की घटना घटी है, यह देखा गया है कि समुदाय के लोग पीड़ित के पक्ष में मजबूती
से खड़े रहे हैं और उसे फिर से बसाने की कोशिश की है.
इसके अलावा,
यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत का सर्वोच्च
न्यायालय शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार वाले मामले के फैसले में पहले ही तीन
तलाक़ को ग़ैर-क़ानूनी ठहरा चुका है.
यह भी ध्यान में
रखना चाहिए कि तलाक़शुदा मुस्लिम औरतें इंडियन पीनल कोड के अलावा मुस्लिम वुमंस
एक्ट और प्रोटेक्शन ऑफ़ वुमन फ्रॉम डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट (घरेलू हिंसा से महिलाओं
की सुरक्षा अधिनियम), 2005 के तहत न्याय पा
रही हैं.
इस पृष्ठभूमि में
देखें, तो तीन तलाक़ को मुस्लिम
महिला समुदाय के सशक्तीकरण के लिए बड़ा मुद्दा बनाने की आरएसएस, भाजपा और यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी की
उत्सुकता कई सवालों को जन्म देती है.
इसकी जगह उन्हें
समाज के हर हिस्से से ताल्लुक़ रखनेवाली 4.3 करोड़ विधवा महिलाओं की चिंता करनी चाहिए. उन्हें
पुनर्विवाह करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए और/या उन्हें अपना जीवन चलाने के
लिए कार्यक्रमबद्ध वित्तीय मदद मुहैया कराने की ओर ध्यान लगाना चाहिए.
भारत में
तलाक़शुदा औरतों की संख्या भी दस लाख के करीब है, जिन्हें सामाजिक और सरकारी मदद की जरूरत है. इतना ही नहीं,
अलग की गई और छोड़ी गई महिलाओं का मुद्दा भी तीन
तलाक़ के मुद्दे से कहीं ज़्यादा गंभीर है.
पिछली जनगणना के
मुताबिक भारत में कुल 23 लाख अलग की
गई-परित्यक्त औरतें हैं, जो कि तलाक़शुदा
औरतों की संख्या के दोगुने से ज़्यादा है.
20 लाख ऐसी हिंदू
महिलाएं हैं, जिन्हें अलग कर
दिया गया है या छोड़ दिया गया है. मुस्लिमों के लिए यह संख्या 2.8 लाख, ईसाइयों के लिए 90 हजार, और दूसरे धर्मों के लिए 80 हजार है.
एक़तरफा तरीके से
अलग कर दी गई हर औरत का जीवन दयनीय है, भले ही वो राजा भोज की पत्नी हो या गंगू तेली की. उन्हें अपने ससुराल और मायके
दोनों जगहों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
ससुराल वाले उनके
साथ इसलिए नहीं आते, क्योंकि उनके
बेटे ने उसे छोड़ दिया है और मायके में उनकी अनदेखी इसलिए होती है क्योंकि परंपरागत
तौर पर उन्हें पराया धन समझा जाता है, जिसकी ज़िम्मेदारी किसी और की है.
वे फिर से शादी
या परिवार शुरू नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें कानूनी तरीके से तलाक़ नहीं दिया गया
है. इनमें से ज़्यादातर सामाजिक और आर्थिक तौर पर बेहद कठिन परिस्थितियों में अपना
जीवन गुज़ार रही हैं.
साथ ही उनका
दूसरों द्वारा उनके शोषण का ख़तरा भी बना रहता है. वे अपने पति के साथ रहना चाहती
हैं, बस उनके बुलाने भर का
इंतज़ार कर रही हैं.
43 वर्षों से अपने
पति के साथ नहीं रह रहीं जशोदा बेन मोदी ने 24 नवंबर, 2014 को कहा था कि ‘अगर वे एक बार भी मुझे बुलाएं तो मैं उनके साथ
चली जाऊंगी’. लेकिन उनके पति
ने कभी जवाब नहीं दिया. छोड़ी गई महिलाओं को भारत में पासपोर्ट बनवाने में भी
दिक्कतें पेश आती हैं.
उदाहरण के तौर पर
2015 में जशोदाबेन ने
पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था, लेकिन उनका आवेदन
इस आधार पर ख़ारिज कर दिया गया था कि ‘उनके पास न तो शादी का कोई प्रमाण-पत्र था न ही पति के साथ कोई साझा हलफनामा
ही था’. उन्होंने इसके लिए काफी
संघर्ष किया. आखिरकार उन्हें अपने पति के पासपोर्ट के ब्यौरे के लिए एक आरटीआई
लगानी पड़ी.
जो भी तीन तलाक़
का भुलावा देकर मुस्लिम महिलाओं की हालत सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें देश की 24 लाख छोड़ दी गई औरतों की तकलीफों की भी जानकारी होनी चाहिए.
मोदी ने कहा कि ‘धर्म और समुदाय के नाम पर हमारी मांओं और बहनों
के साथ किसी किस्म का अन्याय नहीं होना चाहिए’.
क्या मोदी इन
छोड़ी गई औरतों के सवाल को नहीं उठाएंगे, इस तथ्य के बावजूद कि इनमें सबसे ज़्यादा संख्या, करीब 19 लाख, हिंदू महिलाओं की है और उनकी तकलीफों की बात
करने से कोई राजनीतिक फायदा नहीं होने वाला?
Best
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