गैरकानूनी
गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए)
शासक वर्ग जब जब देश की सुरक्षा का जोर शोर से राग अलापता
रहा है तब तब देश की जनता अधिक असुरक्षित व दमन की सर्वाधिक शिकार होती रही है।
देश के आधुनिक इतिहास की यह विड़ंबना ही है कि औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने लूट
व कब्जा को बनाए रखने के लिए जिन दमनकारी कनुनों का निर्माण किया और अमल किया और
उन्हीं की नीति पर चलते हुए 1947 में सत्ता हासिल करने वाले शासक वर्ग ने
‘राष्ट्र’ की सुरक्षा के नाम पर न केवल इन दमनकारी कानूनों को जारी रखा, साथ ही उसे और अधिक कठोर बनाते हुए बड़े
पैमाने पर उसमें अमल किया। आज भी जब कोई अनायास कह उठता है कि गुलामी का दौर बेहतर
था तो उसका मंतव्य गुलाम बनना नहीं बल्कि अनुभव से उपजी वह तिक्तता है जो रोजमर्रा
के जीवन में राजकीय आतंक से हासिल होता है। भारतीय संविधान में शुरूआत में कुल 395
धाराएं थीं। अंग्रेजी राज के भारत सरकार अधिनियम 1935 के 250 विधान को संविधान की
धाराओं का हिस्सा बना लिया गया। भारतीय दंड संहिता, अपराध
निवारक संहिता, पुलिस अधिनियम 1861 व प्रेस व सुरक्षा
अधिनियम को पूरी तरह अपना लिया गया। भूमि अधिग्रहण अधिनियम1894, सुरक्षात्मक गिरफ्तारी अधिनियम व भारतीय शाासन सुरक्षा कानून को हूबहू
अपना लिया गया। 15 अगस्त 1942 को अंग्रेजी शाासन ने कुख्यात सैन्य बल विशेषाधिकार
अध्यादेश देश पर लागू किया। इसे ही नेहरू की कांग्रेस सरकार ने 1958 में सैन्य बल
विशेषाधिकार अधिनियम(एफप्सा) के रूप में पारित कराया। दमनकारी कानूनों की यह
निरंतरता शाासक वर्ग के चरित्र को उद्घाटित करता है जो लूट व शाोशण के लिए
साम्राज्यवाद के साथ न केवल आर्थिक व राजनीतिक गठजोड़ को बनाए हुए है साथ ही
कानूनगत प्रक्रिया को औपनिवेशिक परंपरा के साथ साम्राज्यवाद की चौहद्दी में जा
बैठा है। 1947 से अब तक केन्द्र के स्तर पर कुल 27 व राज्य के स्तर पर 15 विशेष
सुरक्षा कानूनों का निर्माण हुआ है। कुल चौसठ साल में औसतन डेढ़ साल से भी कम समय
में इस तरह के कानून पास होते रहे। ये सारे कानून केंद्र व राज्य स्तर पर ‘अपराध’
की विभिन्न किस्मों से निपटने के लिए बने। मसलन, पूर्वोत्तर
की राष्ट्रीयताओं का दमन करने, भाषागत राज्यों के निर्माण की
मांग को कुचलने, किसान-मजदूर आंदोलनों को खत्म करने, कम्युनिस्ट व नक्सल और जनांदोलनों के आंदोलन का दमन करने आदि के लिए इन
कानूनों को निर्माण किया गया। ये कानून न केवल औपनिवेशिक कब्जा व लूट की नीति को
ही और अधिक मजबूत करने के रूप मंे पारित होते रहे साथ ही इन्होनें भारतीय समाज की
सांस्कृतिक वैविध्यता को रौंदते हुए हिंदूवादी प्रभुत्व की नीति को नियामक के रूप
में बनाए भी रखा। दलित, आदिवासी, धार्मिक
अल्पसंख्यक समुदाय को इन कानूनों के तहत शिकार बनाकर उन्हें दोयम दर्जे की स्थिति
में रहने के लिए मजबूर किया गया।
1947 से 1975 के बीच में कुल 12 विशेष कानून पास हुए। इसमें
से 6 कानून 1958 तक पारित हो चुके थे। 1947 से 1958 के बीच पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताएं
मुक्ति के लिए सशत्रा संघर्ष में उतर चुकी थी। यही वह समय है जब तेलगांना में
किसान आंदोलन सशक्त सशत्रा संघर्ष करते हुए जनांदोलनों को नई राह दिखा रहा था। 1962 से 1972 के बीच चार विशेष कानून पारित किये गए। इस दौरान भारत के साथ चीन व
पाकिस्तान के तीन युद्ध हुए। 1972 से 1975 के बीच दो और 1975 से अब तक 15 विशेष
कानून पारित किए गए। 1975 से 1977 तक आपातकाल लागू था जिसके तहत पूरा देश ही
फासिस्ट दमन के साए तले रहा। एक के बाद एक पारित होने वाले कानूनों से हरएक अग्रिम
कानून अधिक दमनकारी व अधिक विस्तारित होता गया। 1967 में पारित डिस्टर्ब एरिया
एक्ट व गैर कानूनी निरोधक
अधिनियम एफप्सा के प्रावधानों को अपने भीतर समाहित किया और
साथ ही एफप्सा को लागू करने में सहायक की भूमिका का निर्वाह भी किया।। ऐसी ही
भूमिका सुरक्षात्मक गिरफ्तारी अधिनियम 1950 की बनी। बंगाल, बिहार,
आंध्र प्रदेश, पंजाब आदि राज्यों में नक्सलबाड़ी के बाद उठ खड़े हुए क्रांतिकारी
कम्युनिस्ट आंदोलन व उनके नेतृृत्व में चल रहे किसान आंदोलन व उनके संगठनों के दमन
के लिए इन विशेष कानूनों का इस्तेमाल हुआ। प्रगतिशील व जनवादी अधिकार के लिए चल रहे संघर्षों व मजदूर आंदोलन और
ट्रेड यूनियनों को तोड़ने के लिए इन्हीं कानूनों का सहारा लिया गया। भारतीय
सुरक्षा अधिनियम 1962 व आंतरिक सुरक्षा अनुरक्षण अधिनियम 1971(मीसा) का प्रयोग
किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी व आम लोगों के जनवादी संघर्षों और विरोधी दलों की दावेदारी को
तोड़ने में किया गया। हजारों लोगों को जेलों में ठूस दिया गया। एनकाउंटर के नाम पर
हजारों लोगों को मार देने का सिलसिला शुरू हुआ। 1964 से 1972 के बीच बंगाल में
पुलिस ने हजारों युवा व कम्युनिस्ट आंदोलनकारियों को या तो एनकाउंटर में मार डाला
या उन्हें गायब कर दिया। रेलवे और संगठित क्षेत्र के जुझारू मजदूर, नेतृत्व व ट्रेड यूनियन आंदोलन के नेताओं का दमन बर्बरता से किया गया।
छात्र आंदालनों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी और एनकाउंटर की नीति से दबाया गया।
कवि लेखक पत्रकार तक को मुठभेड़ में मार डाला गया। सैकड़ों लोगों को लिखने के कारण
जेल में डाल दिया गया। आज भी इस दमन की तकलीफें जिंदा हैं। 1980 में सत्ता वापसी
के साथ ही इंदिरा सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1980 पारित किया। 1985 से 1995 तक आंतकवादी व विध्वंसक निरोधक अधिनियम(टाडा) का कुख्यात दौर चला। 1997 से
2002 तक पोटो व 2002 से 2004 तक पोटा के तहत भाजपा नेतृृत्व की सरकार ने विशेषकर
मुस्लिम समुदाय, आदिवासी व क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलनों
के दमन का अभियान चलाया। इसी दौरान 1980 से 1985 के बीच में राज्य स्तरीय विशेष
दमनकारी कानूनों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। 1986 में आंध्र प्रदेश में
कुल 6 विशेष कानून पास हुए जिसमें से एक कानून परिवहन को नुकसान पहुंचाने व जमीन
पर कब्जा करने को लेकर था। 1985 में समाज विरोधी गतिविधि अधिनियम पारित हुआ। 1990
के दशक में एमकोका-1999 केन्द्र के दमनकारी कानूनों के समकक्ष स्थापित हुआ। छत्तीसगढ़
विशेष सुरक्षा अधिनियम 2005 केंद्र द्वारा पारित यूएपीए अध्यादेश के सारे
प्रावधानों को समाहित करते हुए पारित हुआ।
1947 से 2004 के बीच दो ऐसे मौके आए जब आरएसएस व उससे
संबद्ध संगठनों को प्रतिबंधित किया गया। दोनों ही बार चंद समय के बाद यह प्रतिबंध
हटा दिया गया। इस अपवाद को छोड़कर प्रतिबंधित संगठनों में राष्ट्रीयता की मुक्ति
की लड़ाई लड़ रहे संगठनों, धार्मिक
अल्पसंख्यक समुदाय के संगठन, कम्युनिस्ट पार्टी व उसके जन
संगठन, ट्रेड यूनियन, दलित व
आदिवासियों के संगठन ही मुख्य रहे हैं। भारतीय सुरक्षा अधिनियम और मीसा के तहत
कांग्रेस नीत सरकार ने बड़े पैमाने पर विरोधी राजनीतिक दल व नेतृत्व, कम्युनिस्ट आंदोलनकारियों-कार्यकर्ताओं, मजदूर संगठन
व उसके नेतृत्वों को गिरफ्तार किया गया। टाडा के तहत केंद्रिय गृहमंत्रालय के
अनुसार लगभग 52,268 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 24 अगस्त 1994
को गृह राज्य मंत्री ने यह संख्या 67,000 बताया। इन गिरफ्तार
लोगों में से 8,000 लोगों पर केस चला। इसमें से 725 लोगों को
सजा दी गई। 59,509 लोगों को यूं ही गिरफ्तार कर लिया गया था।
इसमें से 50,000 हजार लोगों पर जानबूझकर इसके तहत गिरफ्तारी
की गई थी। 2001 में एक बार फिर टाडा के तहत पुलिस ने गिरफ्तारों की संख्या 77,500 बताई गई। यह अनुमान लगाया गया कि अभी भी 3,000
लोग इसके तहत जेल में हैं। एक अन्य रिपोर्ट में सन् 2000 में यह संख्या 4,958 बताई गई है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि टाडा की अवधि समाप्त हो
जाने के तीन साल बाद भी असम में 1,000 लोग टाडा के तहत बंद
थे। उपरोक्त में से 1,384 के मामले अभी तय होने हैं। 1994 के
नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटीज के रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में टाडा के तहत
गिरफ्तार कुल 432 में से 409 अल्पसंख्यक समुदाय के थे। पंजाब में सिख व महाराष्ट्र
में दलित, मुस्लिम, प्रगतिशील व
कम्युनिस्ट आंदोलनकर्मी व कार्यकर्ता और ट्रेड यूनियन नेतृत्व व मजदूर गिरफ्तार
हुए थे। आंध्र प्रदेश व बिहार में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के कार्यकर्ता,
किसान व आदिवासी समुदाय व दलित आंदोलन से जुड़े लोगों की गिरफ्तारी
हुई। असम व कश्ष्मीर में राष्टीयता की लड़ाई लड़ने वालांे को टाडा के तहत गिरफ्तार
किया गया। गुजरात में मजदूर आंदोलन कर्मी व दलित आंदोलन से जुड़े लोगों को शिकार
बनाया गया। 1995 में टाडा के लागू रहने की अवधि समाप्त होने के बावजूद इसके तहत
केस बंद नहीं हुए। राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन के रिपोर्ट व इसके तहत गिरफ्तारी व
सजा में हुए घपले की सच्चाई बाहर आने के बावजूद बिहार के जहानाबाद जिले के टाडा
कोर्ट ने 21 जुलाई 2003 को पूरी धांधली व न्याय के न्यूनतम नैतिकता की धज्जी
उड़ाते हुए क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के 26 कार्यकर्ताओं को आजीवन कारावास
दिया। जबकि 6 लोगों को केस न चल पाने के चलते जेल में ही रहने दिया गया क्योंकि
गिरफ्तारी के समय उनकी उम्र 12 से 15 वर्ष थी। टाडा के तहत वहां किशोरों पर केस
चलाने का कोई कोर्ट ही नहीं था। बारा केस में कुल आठ लोगों को टाडा के तहत मौत की
सजा दी गई।
देश में धुर दक्षिणपंथी व फासिस्ट हिंदू साम्प्रादायिक
ताकतों का असर 1990 के बाद से तेजी से बढ़ा। ये ताकतें कांग्रेस, भाजपा दोनों ही थी। माकपा व क्षेत्रिय दलों
ने इनका सक्रिय समर्थन भी किया। इन ताकतों ने सत्ता की ताकत का इस्तेमाल खुलकर धार्मिक
अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिम समुदाय, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट
आंदोलनों व जनसंघर्षों, आदिवासी व सामाजिक कार्यकर्ताओं के
खिलाफ किया। इन्होंने अंतराष्ट्रीय स्तर पर अमेरीकी साम्राज्यवाद व इजराइल के साथ
एकजुटता जाहिर करते हुए आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में उतरने की घोषणा किया।
अंतराष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय व मध्यपूर्व एशिया के देशों के खिलाफ अमेरीकी
साम्राज्यवादी युद्ध के साथ एकजुटता के नाम पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम-पोटा लाया
गया। नवंबर 2000 में बनी मलीमथ कमेटी ने अपने ‘अपराध निवारण व्यवस्था सुधार कमेटी’
के तहत अप्रैल 2003 में दिये गये रिपोर्ट में बताया, ‘आतंकवाद
वैश्विक समस्या है’ व 1967 में सिनाई युद्ध में मध्यपूर्व के देशो की हार के बाद
से ही वहां यह ‘क्रोध व बेचैनी बढ़ते हुए समसामयिक आतंकवादी लहर की तरह’ उभर आया
है। ‘वैश्विक आतंकवाद के साथ पाकिस्तान का संबंध’ व ‘भारत के साथ उसका अघोषित
युद्ध’ के चलते भारत को इस आंतकवाद अर्थात ‘इस्लामी आतंकवाद’ से खतरा है। इस
रिपोर्ट ने सुझाव दिया था कि ‘आतंरिक सुरक्षा’ के ‘अंतर्राष्ट्रीय पक्ष’ को भी
ध्यान में रखते हुए आतंकवाद से निपटने के लिए ‘स्थाई वैधानिक व्यवस्था बनाई जानी
चाहिए। इस कमेटी के रिपोर्ट व सुझावों के साथ साथ अमेरीका में बने आंतकवाद विरोधी
कानून पैट्रियाट व संयुक्त राष्ट्र में पास किये गये आंतकवाद विरोधी प्रस्तावों का
वह खाका सामने प्रस्तुत था जिसे लेकर भाजपा नेतृत्व की सरकार व आड़वाणी और अरूण
जेटली जैसे फासिस्ट नेता काफी उत्साहित थे। यह उनके फासिस्ट मंसूबों के लिए एक
अनुकूल माहौल था। संसद पर हमला की घटना के साथ ही वैश्विक आतंकवाद व देशी आतंकवाद
के बीच के सूत्र को एक कर देने का रास्ता खुल गया। कश्ष्मीर व मुस्लिम समुदाय का
मामला वैश्विक आंतकवाद के खांचे में डाल दिया गया। नतीजन भारतीय राजनीति में
फासिस्ट हिंदूत्व की राजनीति का नंगा नाच सामने आया। 24 अक्टूबर 2001 को आतंकवाद
निरोधक
अध्यादेश-पोटो को लाने के साथ ही 23 संगठनों को प्रतिबंधित
कर दिया गया। जिसमें से दस पूर्वोत्तर की राष्ट्रीयताओं में काम कर रहे संगठन थे।
चार सिख समुदाय से जुड़े संगठन, दो
मुस्लिम समुदाय के संगठन थे। लिट्टे व साथ ही पहली बार जम्मू कश्मीर के संगठनों को
प्रतिबंध के दायरे में लाया गया। 5 दिसंबर 2001 को माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर व
सीपीआई एमएल- पीपुल्सवार व उनसे जुड़े संगठनों को प्रतिबंधित किया गया। 21 जुलाई
2002 को प्रतिबंधित संगठनों की संख्या 32 हो गई। बाद में अखिल भारतीय नेपाली एकता
समाज को प्रतिबंधित किया गया। यह प्रतिबंध गैरकानूनी निरोधक अधिनियम 1967 को
दरकिनार कर किया गया जिसके तहत सरकारी गजेट में घोषणा के तीन महीने तक प्रतिबंध को
चुनौती देने की उक्त संगठन को अधिकार होता है। पोटो को राज्य के स्तर पर गजेट में
घोषणा किये बिना ही लागू करने का सिलसिला गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने किया।
गोधरा की घटना के बाद वहां मुस्लिम समुदाय के लोगों की मनमानी गिरफ्तारी की गई।
वहां पोटा के तहत कुल 287 गिरफ्तारी में से एक सिख व विशेष मुस्लिम समुदाय के लोग
थे। 2002 में भाजपा, आरएसएस व अन्य हिंदूवादी संगठनों ने
संगठित रूप से मुस्लिम समुदाय की संपत्ति का लूटपाट, कब्जा,
बर्बादी, आगजानी व सामूहिक हत्या, बलात्कार को अंजाम दिया। लगभग 2500 मुसलमान मारे गए। पांच लाख बेघर हो गए।
लगभग 2000 करोड़ की संपत्ति का नुकसान पहुंचाया गया। जाहिरातौर पर ये हिंदूवादी
संगठन प्रतिबंधित नहीं हुए बल्कि आज भी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के प्रहरी बने हुए
हैं। इसी तरह सिमी व जम्मू कश्मीर के संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर मनमानी गिरफ्तारी,
एनकाउंटर के सिलसिले को चलाया गया। महाराष्ट्र में दलित व मुस्लिम
समुदाय के खिलाफ इस कानून का प्रयोग किया गया। पोटा के तहत सर्वाधिक 3200
गिरफ्तारी झारखंड में हुई जिसमें 12 साल के बच्चे से लेकर 81 साल के बजुर्ग तक
शामिल थे। गिरफ्तार लोगों में से अधिकंाश आदिवासी थे। उन पर नक्सल होने का आरोप
लगाया गया था। तमिलनाडु व उत्तर प्रदेश में मुस्लिम, दलित व
नक्सल लोगों के साथ साथ विरोधी पार्टियों को सबक सिखाने के लिए भी प्रयोग किया
गया। इस कानून के तहत संसद हमले पर चलाए गए केस में पुलिस का मनमानापन, सरकार व उस पर काबिज राजनीतिक पार्टी की संदेहास्पद भूमिका, न्यायालय की तथ्यान्वेषण व अल्पसंख्यक धर्म के प्रति अवस्थिति का खुलासा
इतना साफ तौर पर उभरकर आया कि यह केस आज भी बहस का विषय बना हुआ है। उपरोक्त
प्रवृत्तियां ही इतनी तेजी से बढ़ी हैं जहां राज्य, प्रशासन
व न्याय और सत्ता पर काबिज राजनीतिक पार्टी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। यह
कानूनी रूप में यूएपीए के नाम से आया है। बिनायक सेन के केस में खुलकर सामने आया
है उससे अधिक यह रोजमर्रा अपनी कार्यवाइयों व गिरफ्तारियों में बार बार दिख रहा
है।
गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम(यूएपीए) अर्थात असहमति
पर सजा ए मौत भी
भारतीय विधि-विधान में यूएपीए न्यूनतम नागरिक अधिकारों व आम
मानवाधिकारों का हनन है। यह आंतरिक सुरक्षा व आतंकवाद के ताने बाने से जिस राजनीति
को जन्म देता है उसमें असहमति का निषेध है। प्रशासनिक कार्रवाई का अर्थ गिरफ्तारी
या एनकाउंटर है। यह कांग्रेस राज की देन है जिसने पोटा की खामियों पर काफी हो
हल्ला मचाया था और 21 सितंबर 2004 को इसे रद्द करने के अध्यादेश के साथ ही गैर
कानूनी अधिनियम 1967 के संशोधित अध्यादेश को पेश किया। यह दोनों ही सदन में पारित
हो गए। इस तरह पोटा की जगह को यूएपीए 2004 ने ग्रहण किया। यह पोटा व यूएपीए-1967
के प्रावधानों के साथ साथ अपने पूर्ववर्ती दमनकारी कानूनों को भी अपने भीतर समाहित
करते हुए सामने आया। पहली बार इस कानून के दायरे में वैश्विक आतंकवाद से निपटने के
कानूनी प्रावधान को लाया गया। इस कानून का प्रयोग राज्य व केंद्र की सरकार जितनी
व्यापकता व सुक्ष्मता से कर रही है वह अभूतपूर्व है। कारपोरेट जगत की खुली लूट के
पक्ष में इस कानून का प्रयोग सरकारों ने पूरी क्षमता से किया है। छत्तीसगढ़ की
भाजपा सरकार से लेकर पं. बंगाल के वाम मोर्चे की सरकार ने इस कानून का प्रयोग ‘विकास’
के नाम पर लोकतंत्र की न्यूनतम मान्यताओं को धता बताते हुए किया है। मसलन, प. बंगाल की वाम मोर्चे की सरकार ने इस
कानून का प्रयोग उसी तरह किया जिस तरह गुजरात की मोदी सरकार ने पोटो का प्रयोग
सरकारी गजेट में समाहित व घोषित किए बिना ही किया था। इस प्रावधान के तहत जुलाई
2010 तक प्रतिबंधित संगठनों की संख्या 35 थी।
भाजपा के नेतृत्व की एनडीए सरकार के खिलाफ मोर्चेबंदी में
पोटा व जनता पर आम दमन एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। शााइनिंग इंडिया के आर्थिक विकास
के मॉडल के खिलाफ जन केंद्रित विकास के मॉडल पर जोर दिया गया था। मानवाधिकार
संगठनों से लेकर वाम मोर्चा व उससे जुड़े संगठन, बुद्धिजीवियों और गैर सरकारी संगठनों ने फाासिस्ट हिन्दूत्व तानाशाही के
खिलाफ सत्ता बदल का अभियान चलाया। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में आयी सरकार ने
जिन आर्थिक, वैधानिक व राजनैतिक नीतियों का अनुकरण किया उससे
पिछली सरकार के दमन के सिलसिले को कई गुना ज्यादा बढ़त मिली। यूएपीए संयुक्त
प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के वास्तविक चेहरे को ज्यादा उभार कर लाया। पोटा में
उल्लेखित ‘आतंकवादी गतिविधि’ के साथ ‘गैरकानूनी गतिविधि’ जोड़कर यूएपीए के दायरे
को जनता के आम प्रतिरोध व अभिव्यक्ति के आम रूप तक ले आया गया। टाडा में आतंकवादी
गतिविधि का अर्थ सरकार, जनता या उसके हिस्से को, सामंजस्यता को भंग करने के लिए बम इत्यादि का प्रयोग था। पोटा में यह देश
की एकता, अंखडता, संप्रभुता और जनता
में भय बनाने के लिए बम, डाइनामाइट या दूसरे विस्फोटक,
ज्वलनशील पदार्थ, जैव हथियार वे इसके प्रयोग
की मंशा के रूप में चिन्हित हुआ था। यूएपीए 2008 में टाडा, पोटा
के उपरोक्त प्रावधान के साथ ‘विदेश के किसी भी देश में’ जोड़ा गया। साथ ही आतंकवाद
के उपरोक्त साधनों का प्रयोग या ऐसा करने की मंशा या देश व दुनिया के किसी भी देश
की एकता, अखंडता, संप्रभुता, सुरक्षा को भंग करने की मंशा को भी आतंकवादी गतिविधि माना गया। ‘आतंकवाद
को सहयोग’ करने के मुद्दे पर टाडा के तहत वह लोग दोषी माने गयेे जिन पर आतंकवादी
गतिविधियों में शाामिल, शामिल होने की कोशिश, षडयंत्र करने, सलाह देने, इसे
आगे बढ़ाने, भड़काने, जानबूझकर सहयोग
करने और इस गतिविधि को जानते हुए भी छुपाने, बढ़ाने या उसका
प्रयास करने का आरोप तय होने से होता था। पोटा में उपरोक्त प्रावधानों में
आतंकवादी गतिविधि की प्रकिया में किसी भी तरह से शामिल होने, आतंकवादी संगठन व व्यक्ति और उसकी कार्यवाई को स्वैच्छिक या जानबूझकर
सहयोग देने या छुपाने, ऐसे संगठन या व्यक्ति की संपत्ति या
उसके फंड से संपत्ति को रखना, हासिल करना और आंतकवाद के
खिलाफ गवाह, गवाही के इच्छुक व्यक्ति को हिंसा या गलत तौर
तरीकों से रोकना जैसे अन्य प्रावधान के आरोप जोड़ दिये गए। यूएपीए में पोटा के
उपरोक्त प्रावधानांे को बनाए रखा गया और सजा की अवधि को आजीवन कारवास तक बढ़ा दिया
गया और साथ ही इसमें कानूनन तय आर्थिक दंड को जोड़ दिया गया। 20028 में इसमें 16ए
सेक्शन जोड़ा गया। इसके तहत न्यूक्लियर हथियारों के प्रयोग को संदर्भित किया गया।
2008 में ही इसके सेक्शन 17 को संशोधित कर आतंकवादी गतिविधियों के लिए देश या
दुनिया के किसी भी देश में परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर आर्थिक सहयोग करने, कराने या इसका प्रयास करने के प्रावधान को लाया गया। इसमें यह उल्लेखित
किया गया कि यह फंड भले ही प्रयुक्त हुआ हो या नहीं हुआ हो, अपराध
माना जाएगा। टाडा में जहां आतंकवादी गतिविधि से होने वाले जान-माल के नुकसान के
अनुरूप सजा का प्रावधान किया गया था। पोटा में इसके पांच प्रावधान में से चार के
तहत सजा को आजीवन कारावास व इसके एक प्रावधान में मौत की सजा के रूप में ढ़ाल दिया
गया। यूएपीए 2008 के तहत इसके दस प्रावधानेां में सजा की अवधि, दंड को किया गया। यहां छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005 में दर्ज
गैरकानूनी गतिविधि के दायरे का उल्लेख महत्वपूर्ण होगा। इस अधिनियम के तहत
‘व्यक्ति या संगठन की ऐसी कोई भी कार्यवाई जो चाहे शब्दों के बोलने या लिखने या
ऐसा प्रयोग जिससे विदित होता हो कि इससे जन व्यवस्था, शांति
व समरसता को खतरा या जोखिम बनता हो, हस्तक्षेप या हस्तक्षेप
की संभावना बनती हो, प्रशासनिक कानून या संस्थान या व्यक्ति
के कार्यकलाप में हस्तक्षेप या हस्तक्षेप की संभावना बनती हो, राज्य या केंद्र सरकार के कानूनी ताकत या उसके जन सेवा में आपराधिक
कार्यवाही या उसके प्रर्दशन से बाधा बनती हो, हिंसा आतंकवाद
अव्यवस्था डर अफरातफरी फैलाने हथियार प्रयोग करने या परिवहन को नुकसान पहुंचाने की
कार्यवाही या उसमें भागीदारी, कानून व्यवस्था के प्रति
अवमानना को बढावा देने आदि की कार्यवाई गैर कानूनी गतिविधि के तहत चिन्हित किया
गया है। यह शब्दावली यूएपीए में आतंकवादी गतिविधि के समानार्थक के रूप में प्रयोग
किया गया है। इसके तहत संगठन का अर्थ व्यक्तियों का समूह, संयोजन
या जुटान है। यूएपीए के तहत यदि केंद्र सरकार को लगता है कि कोई भी संगठन या जुटान
जो आतंकवादी संगठन से अलग तरह का हो सकता है, जो औपचारिक हो
या न हो, जो आतंकवादी गतिविधि में लिप्त हो या ऐसी गतिविधि
के प्रति दिलचस्पी व्यक्त करता हो गैरकानूनी व आतंकवादी संगठन है और उसे यह कानूनी
प्रावधान के सेक्शन चार के तहत राज्य उसे सीधा गैरकानूनी प्रतिबंधित संगठन घोषित
कर सकती है। इसकी सूचना सरकारी गजेट के माध्यम से या सीधे तौर पर पेश कर सकती है।
यूपीए 1967 में प्रतिबंध की घोषणा, गजेट में जिक्र व इसे
चुनौती की अवधि तीन महीने थी। केंद्र सरकार को यह छूट दी गई कि जनहित में
प्रतिबंधित संगठन के तथ्यों को जाहिर न करे। पोटा के तहत धारा 18-2 के तहत केंद्र
सरकार किसी संगठन को प्रतिबंध से मुक्त कर सकती थी। यूएपीए के तहत भुक्तभोगी के
अपील को इसका हिस्सा सरकारी पुनरीक्षण के नाम पर बनाया गया। पर इसका नतीजा साफ है
कि न तो ऐसी अपील सामने आ पाएगी और न ही सरकार उक्त संगठन का पुनरीक्षण के लिए
किसी तरह बाध्य होगी। यदि उस संगठन के पक्ष में इस तरह के माहौल या अपील बनाने की
कोशिश हो भी तो वह ‘आतंकवाद व गैरकानूनी गतिविधि’ के विशाल दायरे में एक अपराधी
घोषित हो जाएगा। यूएपीए 2008 के तहत आतंकवादी संगठन की गतिविधि को सहयोग, सहयोग की मंशा को आतंकवादी गतिविधि माना गया जिसके चलते सजा आजीवन कारावास,
या दस साल की जेल, व आर्थिक दंड या कारावास व
आर्थिक दंड दोनों ही दिया जाएगा। यह एक बार फिर याद कर लेना जरूरी है कि
‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का दायरा आतंकवादी गतिविधि, गैर कानूनी
कार्यवाही के माध्यम से फैलकर ‘अंतराष्ट्रीय’ फलक तक जाता है। इसके तहत भारतीय दंड
विधान में उल्लेखित देशद्रोह, देश के खिलाफ षडयंत्र आदि
अमूर्त प्रावधान की मारक क्षमता एकदम चरम पर पहुंच जाती है। इस संदर्भ में बिनायक
सेन का मामला एक उदाहरण बन चुका है। 14 अपै्रल 2011 को सुप्रीम कोर्ट में जमानत
हासिल करने की सुनवाई और जमानत देने की प्रक्रिया में जज का यह निर्णय कि
सहानुभूति के आधार पर देशद्रोह का मामला तय नहीं हो जाता, से
यूएपीए 2008 में उल्लेखित न तो ‘मंशा’ के प्रावधान को चुनौती मिलती है और न ही
राजनीति व संगठन के दायरे में असहमति का मसला हल होता है। यूएपीए 2004 व 2008 में
पोटा के कुख्यात तथ्य संग्रहण की प्रक्रिया में इलेक्ट्रानिक संचार साधनों से
हासिल तथ्यों का अभियुक्त के खिलाफ प्रयोग के तरीके केा जारी रखा जो भारतीय साक्ष्य
अधिनियम 1872, भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 1885 व सूचना तकनीक
अधिनियम 2000 के अनुकूल हो। इससे हासिल तथ्यों को दूरूस्त करने या वैधानिक
पुनरीक्षण करने के लिए रिव्यू कमेटी की नियुक्ति को वैकल्पिक बना दिया गया है जो
राज्य व केंद्र सरकार की इच्छा पर निर्भर करेगा। यूएपीए 2004 के सातवें अध्याय में
विविध के नाम पर अपराध न्याय विधान(सीआरपीसी) के गिरफ्तारी, जमानत,
निरूद्ध करने की प्रक्रिया के अपवाद को समाहित किया गया। इसके तहत
किसी भी आरोपी को आरोप तय न हो पाने व साक्ष्य न उपलब्ध हो पाने के आधार पर
‘संज्ञेय मामले’ में बिना मुकद्मा चलाए जेल में 180 दिन रख जा सकता है। इसी तरह
पुलिस के केस डायरी या सीआरपीसी के 173वें विधान के आधार पर बनाए गए रिपोर्ट पर
आरोपी के जमानत को कोर्ट रद्द कर सकता है। इस प्रक्रिया में आरोपी को पुलिस रिमांड
पर लेकर पूछताछ करने के लिए लगातार मांग रख सकती है। जेल के माहौल व पूछताछ की
प्रक्रिया के चलते आरोपी किन हालातों से गुजर सकता है इसका नमूना संसद हमले के
मामले में पुलिस की भूमिका में देखा जा सकता है। उस समय तिहाड़ जेल में
‘राष्ट्रवादी’ माहौल बनाया गया और आरोपियों पर घातक हमले कराए गए, उनके धार्मिक विश्वास पर ठेस पहुंचाया गया और लगातार मानसिक शारीरिक
उत्पीड़न किया गया। पुलिस रिमांड लेकर थर्ड डिग्री की यातना, सादे कागज पर हस्ताक्षर और आरोप की स्वीकृति आदि के साक्ष्य सामने रहे
हैं। इन सारी यातनाओं से गुजरते हुए एस ए आर गिलानी का अंततः निर्दोष साबित हो
जाने के बावजूद वह एक घातक सजा को वह भुगतकर ही बाहर आ सके। जाहिरातौर पर यह न्याय
की मूल अवधारणा का ही निषेध है जो न भारतीय संविधान के अनुकूल है और न ही
अंतराष्ट्रीय न्यायालय के मानदंड के अनुरूप है।
आपरेशन न्याय हंट अर्थात यूएपीए का दमनकारी रूप
प्रत्येक चुनाव के साथ सरकार का रूप रंग बदले या न बदले पर
दमनकारी कानूनों का रूप रंग व ढ़ग जरूर बदलता रहा है। हर एक सरकार एक लक्ष्य के
साथ इन कानूनों के प्रयोग का परिप्रेक्ष्य लेकर आती है और उसे ही जोर शाोर से लागू
करती है। कांग्रेस की कथित वामपंथ समर्थित सरकार अल्पसंख्यक व नक्सल आंदोलन के दमन
का विरोध व भाजपा सरकार की नीति की आलोचना करते हुए केंद्र व राज्यों में 2004 में
सत्ता में आई। इसने पूर्ववर्ती सरकार के धुर प्रतिक्रियावाद को भी पीछे छोड़ दिया।
आंध्र प्रदेश व प. बंगाल, छत्तीसगढ़ व
झारखंड में केंद्र के पूर्ण सहयोग से जो अभियान जारी हुआ उसने इन शाासक वर्गों के
पिछले क्रूर कारनामों को भी पीछे छोड़ दिया। अपने पूर्ववर्ती दमनकारी कानूनों की
तरह यूएपीए के तहत एक निश्चित समूह, समुदाय, जनांदोलन व संगठनों को निशाना बना गया है। मुसलमान, आदिवासी,
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी व संगठन, राष्ट्रीयता
आंदोलन के साथ साथ मीसा के बाद पहली बार योजनाबद्ध तरीके से जनपक्षधर बुद्धिजीवी,
मानवाधिकार संगठन, पत्रकार, पर्यावरणविद आदि को इसका शिकार बनाया गया। छत्तीसगढ़, केरल, प.बंगाल, झारखंड,
दिल्ली, गुजरात, उत्तर
प्रदेश, हरियाणा, मणिपुर में यूएपीए का
प्रयोग खुलकर किया गया। छत्तीसगढ़ में यूएपीए को पहले दौर में सलवा जुडुम के साथ
लागू किया गया। इसका संशोधित 2008 रूप आपरेशन ग्रीन हंट के साथ लागू किया जा रहा
है। इसी तरह सरकारी गजट में जिक्र किए बिना ही प.बंगाल सरकार ने नंदीग्राम और बाद
में लालगढ़ और आपरेशन ग्रीन हंट के दौरान शहर व ग्रामीण क्षेत्र में दमन के लिए
प्रयोग किया गया। यही स्थिति झारखंड की है। केरल की वामपंथी सरकार ने इसका प्रयोग
आदिवासी व मुसलमान समुदाय के खिलाफ नायाब तरीके से की रही है। केरल के अब्दुल
नासिर मदनी जो पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष हैं, को
कर्नाटक पुलिस ने 17 अगस्त 2010 को बंगलूरू ब्लास्ट केस में यूएपीए के तहत
गिरफ्तार किया। उनके साथ 22 अन्य लोगों को भी इसी मामले में गिरफ्तार किया गया।
इसके पहले उन्हें कोयटंबूर ब्लास्ट केस में 1998 में गिरफ्तार किया गया था। उन पर
कोई आरोप तय नहीं हो पाया। इस बीच उन्हें दस साल जेल में बिताना पड़ा। मदनी केरला
के कोलाम जिले के एक मस्जिद में इमाम हैं व एक अच्छे वक्ता के रूप में जाने जाते
हैं। 1992 में बाबरी मस्जिद ढ़हाने के बाद केरल में कई मुस्लिम संगठनांे के साथ
उनके संगठन को भी प्रतिबंधित किया गया। उन्होंने मुसलिम दलित व पिछड़ा समुदाय को
केंद्रित कर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया। इससे वहां वाम, कांग्रेस व मुस्लिम लीग को चुनौती मिली। 2007 से 2010 के बीच पहले
कांग्रेस व मुस्लिम लीग, बाद में सीपीएम ने उनके साथ चुनावी
गठजोड़ बनाने व तोड़ने के बाद उन्हें ‘आतंकवादी व कट्टरपंथी’ के रूप में प्रचारित
करना शुरू किया। 2009 में उनकी पत्नी सोफिया को 2005 के बस जलाने के जुर्म में
गिरफ्तार किया गया। मदनी की गिरफ्तारी जिन लोगों की गवाही के आधार पर हुई उसमें से
योगानंद आरएसएस का सदस्य है। दूसरा गवाह जोसे वर्गीज ने कर्नाटक पुलिस के खिलाफ
प्राथमिक न्यायालय में मामला दर्ज कराया कि उस पर पुलिस दबाव डालकर मदनी के खिलाफ
बयान दर्ज कर रही है। तीसरा गवाह रफीक एक मजदूर है, ने कोर्ट
को बताया कि उसे यातना देकर मदनी के खिलाफ साक्ष्य देने के लिए बाध्य किया गया। बाद
में खुद आरएसएस का कार्यकर्ता योगानंद ने खुलेआम बयान दिया कि दरअसल वह मदनी को
पहचानता ही नहीं था। बहरहाल, सिमी, कश्मीर
और मुस्लिम आंतकवाद का पुलिस व राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने जिस तरह का ताना बाना
बुना है उससे मुस्लिम समुदाय का दमन, उनके राजनीतिक भागीदारी
को सीमित करने और समुदाय की दावेदारी को कंुद करना ही आसान हो गया। यह राजनीति
महाराष्ट्र व गुजरात में अधिक खुले रूप में प्रयुक्त होता रहा है। यह प्रक्रिया
निरतंर जारी है। लगता है गुजरात का प्रयोग राष्ट्रीय शक्ल ले रहा है।
प.बंगाल में यूएपीए के तहत पीपुल्स मार्च के बांग्ला
संस्करण के संपादक स्वपन दासगुप्ता को गिरफ्तार किया और जेल में देखभाल के न्यूनतम
जरूरत की आपूर्ति न कर माकपा सरकार ने उन्हें मार डाला। यूएपीए के दमन के वे पहले
शहीद घोषित हुए। बंगाल की वाम सरकार ने अवैधानिक तरीके से इस अधिनियम को लागू किया-
इसे न तो सरकारी गजेट में उल्लेखित किया गया, न किसी एक दैनिक अखबार में प्रकाशित किया गया और न ही इसके लिए विशेष
कोर्ट की स्थापना किया गया। इस सरकार ने पुलिस संत्रास विरोधी जन कमेटी(पीसीपीए),
बंदी मुक्ति कमेटी, मतंागनी महिला समिति जैसे
संगठनों को सीपीआई- माओवादी का संगठन घोषित कर छत्रधर महतो, हिमाद्री
राय, कल्पना मेइती आदि सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया।
गिरफ्तार लोगों को न्यूनतम बंदी अधिकार से भी वंचित रखा गया। सोमा मांडी के मामले
में पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर महीनों तक अपने कब्जे में रखा और कोर्ट में कानून के
तहत पेश नहीं किया। महीने भर बाद उसे सीपीआई-माओवादी पार्टी व उसके नेतृत्व,
पीसीपीए के खिलाफ माहौल बनाने, बयान देने के
लिए पुलिस ने उसका प्रयोग किया। इस दौरान पुलिस ने महिला उत्पीड़न से निपटने के
संदर्भ में विशाखा दिशानिर्देश का भी खुलेआम उलघंन किया। वाम मोर्चे की सरकार ने
गैरकानूनी साहित्य के रूप में मार्क्स एंगेल्स लेनिन स्टालिन माओ चे ग्वेरा रोमेन
रोलेण्ड मानिक बंधोपाध्याय की पुस्तकों को चिन्हित किया। सितंबर 2010 तक यूएपीए के
तहत गिरफ्तार लोगों की संख्या 39 थी। सितंबर 2010 तक पीसीपीए के मारे गए सदस्यों
की संख्या 40 से उपर थी। तृणमूल कांग्रेस के मारे गए सदस्यों की संख्या अलग से है।
दिसंबर के अंत में पीसीपीए द्वारा जारी रिपोर्ट में सीपीएम के हथियारबंद गिरोह
हरमद वाहिनी के कैंप की संख्या 86 थी जो राज्य पुलिस व केंद्र से भेजी गई
अर्द्धसैनिक बलों के साथ मिलकर हत्या व गिरफ्तारी को अंजाम देने में अग्रिम भूमिका
का निर्वाह किया। आपरेशन ग्रीन हंट के दौरान मुठभेड़ के एक ऐसे सिलसिले को शुरू
किया गया जो 1970 के दशक के दमन की याद को ताजा कर दिया। सीपीएम के पार्टी काडर व
उनकी हरमद वाहिनी के नेतृत्व में राजनीतिक असहमती की हत्या का जो अभियान शुरू किया
उसमें यूएपीए और आपरेशन ग्रीन हंट की भूमिका से वहां एक फासिस्ट आतंक की जमीन
तैयार हुई है।
गुजरात में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ दमनकारी कानूनों का
प्रयोग जारी रहा। वहां यूएपीए के तहत 14 ट्रेड यूनियन के नेता व सीपीआई एमएल-जनशक्ति
के सदस्यों व एनजीओकर्मी को गिरफ्तार किया गया। पंजाब में भारतीय किसान
यूनियन-क्रांतिकारी के सुरजीत फूल, क्रांतिकारी पेंडू मजदूर यूनियन के संजीव कुमार को पुलिस ने यातना दिया व
उन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया। दल खालसा के दलजीत सिंह बिट्टू व जसपाल सिंह
मांझापुर को यूएपीए के तहत 27 अगस्त 2009 को गिरफ्तार किया गया। पंजाब में आज भी
किसान आंदोलन व सिख समुदाय की पहचान का आंदोलन दमन के बावजूद लगातार बना हुआ है।
उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक सीमा आजाद को सामाजिक कार्यकर्ता
विश्वविजय के साथ उस समय गिरफ्तार किया गया जब वह दिल्ली विश्व पुस्तक मेले से
वापस इलाहाबाद जा रही थी। सीमा आजाद पीयूसीएल-यूपी की पदाधिकारी हैं। उन्होंने
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर बड़े पैमाने चल रहे मुसलमान युवाओं की
गिरफ्तारी व यातना देने के खिलाफ तथ्यान्वेषण कर उसकी रिपोर्ट छापी और साथ ही
‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के खिलाफ सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। इस परियोजना के तहत
हजारों किसानों की जमीन छीनने और औने पौन दाम पर कारपोरेट जगत के लोगों को देने का
कार्यक्रम है। सीमा आजाद व विश्वविजय के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकद्मा दर्ज हुआ।
इसके साथ ही 6 अन्य लोगों को माओवादी होने के आरोप में यूएपीए के तहत गिरफ्तार
किया गया। उत्तर प्रदेश में आतंकवादी गतिविधि के नाम पर केवल संदेह के आधार पर इस
कानून के तहत युवाओं को गिरफ्तार किया गया है। महाराष्ट्र में यूएपीए का प्रयोग
विविध स्तर पर जारी है। 15 अक्टूबर 2006 को चंद्रपुर पुलिस ने दानिश बुक्स प्रकाशन
की सुनिता को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। वह बाबा साहेब अंबेडकर के दीक्षा
दिवस के अवसर पर वहॉ पुस्तक प्रदर्शनी के साथ थीं। ज्ञात हो कि इस अवसर पर वहंा
हजारों हजार लोग आते हैं। सुनिता आतंकवादी गतिविधि बढ़ाने वाली पुस्तक बेचने का
आरोप लगाया गया। इन पुस्तकों में शहीद भगत सिंह की रचनाओें का संकलन, बीडी शर्मा, क्लारा जेटकिन, चे
ग्वेरा, ली ओनेस्टो, बाबूराम भट्टाराई
व प्रगतिशील लेखकों का साहित्य था। 2011 के मध्य में चंद्रपुर से वापसी के दौरान
प्रसिद्ध दलित लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर ढ़ावले को महाराष्ट्र पुलिस ने
माओवादी होने के आरोप में यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया। सुधीर ढ़ावले
महाराष्ट्र के उन बहुचर्चित नामों मे से एक है जो दलित पैंथर आंदोलन से आया। वह
समाज में बराबरी व जनवाद के लिए निरंतर सक्रिय रहे है। 1970 के उत्तरार्द्ध के
महाराष्ट्र के छात्र आंदोलन से निकलकर आए सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पिछले
तीन सालों में हुई यूएपीए के तहत गिरफ्तारी की चर्चा आज भी वहां की मुख्यधारा के
दैनिक अखबार व पत्र पत्रिकाओं का हिस्सा है। महाराष्ट्र में मुसलमान समुदाय के
लोगों की गिरफ्तारी का सिलसिला आज भी जारी है। दिल्ली में नारी मुक्ति सभा की
अन्नू व मेहनतकश मजदूर मोर्चा के गोपाल मिश्रा की गिरफ्तारी यूएपीए के तहत हुई।
इसके पहले यहॉ कोबाड गांधी की गिरफ्तारी हो चुकी थी और जिसे लेकर मीडिया व
राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा बनी रही कि विचारधारा व पार्टी को अपराध की
श्रेणी में डालना उचित नहीं है, वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था
से असहमति आतंकवाद की श्रेणी नहीं हो सकता, आदि आदि। हरियाणा
में वामपंथी छात्र, किसान, मजदूर व
सांस्कृतिक संगठनों व उसके कार्यकताआंे को लक्ष्य बनाकर हमला किया गया। पिछले चार
सालों में यूएपीए सहित देशद्रोह के तहत 30 से उपर गिरफ्तारी हुई और उन्हें भयानक
यातनाएं दी गईं। जनसंगठनों को अघोषित तौर पर प्रतिबंधित कर दिया गया। मणिपुर के
पर्यावरण कार्यकर्ता एम अशीनकुमार सिंह को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम व यूएपीए के
तहत 27 अप्रैल 2010 को गिरफ्तार किया गया। आशिन कुमार सिंह केइबुल लेमजाओ नेशनल
पार्क फोरम के सचिव हैं व थांगा कल्याण कमेटी के उपाध्यक्ष हैं। मणिपुर में
प्रकृति का दोहन व नदी परियोजनाओं की विशाल योजनाएं लागू हो रही हैं। रिपोर्ट के
अनुसार यदि ये सारी परियोजनाएं लागू हो जाएं तो वहां का पर्यावरण व जनजीवन तबाह हो
जाएगा। जाहिरातौर पर कारपोरेट की लूट में ये कानून हथियार की तरह प्रयुक्त हो रहे
हैं। उत्तराखंड में सीपीआई-माओवादी व उसके संगठन के सदस्य होने के आरोप पत्रकार व
सामाजिक कार्यकर्ता प्रशान्त राही की गिरफ्तारी चर्चा में रही। प्रशांत राही ने
उत्तराखंड राज्य निर्माण में सक्रिय भुमिका निभायी थी। वहां जन संगठन से जुड़े
कार्यर्ताओं की गिरफ्तारी से राजकीय आतंक का माहौल बना। उत्तराखंड से निकलने वाली
पत्रिका ‘नागरिक’ के संपादक व उसके पाठकों को पुलिस व खुफिया विभाग ने घर-घर
पूछताछ कर उन्हें माओवादी समर्थक घोषित करने का माहौल बनाया धमकाया। झारखंड में
पोटा के तहत सर्वाधिक गिरफ्तारी हुई थी। वहां यूएपीए के तहत गिरफ्तारी की गति पहले
जैसी ही चल रही है। मुठभेड़ हत्या और गिरफ्तारी का इतिहास इस राज्य के अस्तित्व
में आने के साथ ही जारी है। विस्थापन जन विकास आंदोलन के राज्य संयोजक दामोदर,
आरडीएफ के उत्पल यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए व ग्लैडसन डुंगडुंग
को गिरफ्तार करने की धमकी के साथ ही मानवाधिकार संगठनों व कार्यकर्ताओं को राज्य
सरकार ने संदेश दिया कि वह आगे दमन के राह पर आगे बढ़ेगी। झारखंड पुलिस ने 30
अक्टूबर 2010 को एक मुठभेड़ के दौरान तीन बच्चियों को माओवादी होने के आरोप में
गिरफ्तार किया। उन पर यूएपीए, आर्म्स एक्ट व एक्सप्लोसिव
एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। छह सदस्यों की टीम ने इस मामले की छानबीन से
पाया कि गिरफ्तारी के समय स्कूल के रिकार्ड के अनुसार दो की उम्र 14 साल व एक की
16 साल है। ये बच्चियॉ रांची से 40 किलोमीटर दूर उलिहातू गांव की निवासी है जो
बिरसा मुंडा के गांव के रूप में जाना जाता है। पुलिस ने कोर्ट में दोनों की उम्र
18 साल से उपर बताकर खुलेआम कानून का उल्लंघन किया। पुलिस ने उनके पास से नक्सल
साहित्य और इंसास राइफल, 28 पैकेट एक्सप्लोसिव पैकेट,
कार्टराइज की बरामदगी दिखाई है। मुठभेड़ में ‘उग्रवादियों’ द्वारा
150 राउंड गोली चलाने का दावा किया गया। पुलिस ने अन्य 11 लोगों पर नामी बेनामी
मुकदमा दर्ज किया जिसमें यूएपीए से लेकर आर्म्स एक्ट तक के प्रावधानों को आधार
बनाया गया। जांच टीम की रिपोर्ट के अनुसार ये बच्चियां नजदीकी स्कूल की नियमित
छात्राएं हैं। यह स्कूल के अध्यापक व आंकड़ों से साफ है। ये अपने एक अध्यापक के
साथ हाकी का मैच देखने गई थीं और रात में अपने नजदीकी रिष्श्तेदार के यहां मेहमानी
के लिए रूकीं। गांव के लोगों ने बताया कि उन्हें पुलिस ने 30 अक्टूबर की सुबह आकर
घर से उठाकर ले गई। पुलिस ने न केवल इन बच्चियों को यातना देकर सादे कागज पर
हस्ताक्षर कराए साथ ही गांव के लोगों को मारा पीटा व साथ ही एक शिक्षक को उपरोक्त धाराओं
के तहत गिरफ्तार किया। इसी रिपोर्ट में झारखंड में बच्चों पर चल रहे जुल्म के कुछ
तथ्यों को भी सामने रखा गया। 19 मार्च 2009 को सारामगोडा के जंगल में सिर्का गांव
के चार बच्चों पर महुआ बिनते समय पुलिस ने गोली चलाकर एक बच्चे को मार डाला और दो
को बुरी तरह घायल कर दिया। तमार, बुंडू जैसे कुछ इलाकों में
पुलिस ने लड़कियों को केवल स्कूल ड्रेस या साड़ी पहनने का फरमान जारी किया व
सलवार-कमीज पहनने पर गिरफ्तार कर इन्हें पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया ताकि वे तेज
गति से भाग न सकें। गढ़वा के भंडारिया में सीआरपीएफ की गतिविधि के चलते पढ़ने वाली
लड़कियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई। इसी तरह 50 स्कूलों में सीआरपीएफ के
कैंप होने के चलते और कुछ आईटीआई संस्थानों को टाटा को सौंप देने के चलते नेतरहाट
में पढ़ाई करने वाले बच्चों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई। ठीक यही स्थिति लातेहर
में लड़कियों के आवासीय स्कूलों में सीआरपीएफ के कब्जे के चलते घटित हुई है।
छत्तीसगढ़ में यूएपीए व छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा अधिनियम 2005 के प्रयोग की स्थली
बनी हुई है। इसके तहत सीपीआई-माओवादी पार्टी के खिलाफ खुला अभियान तो चल रहा है।
छत्तीसगढ़ की सरकार ने आदिवासीयों के जनसंगठनों से लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं
को खुलेआम निशाना बनाए हुए है। सरकार ने अरूंधती राय, नंदिनी
सुंदर, प्रशांत भूषण, हिमांशु कुमार,
स्वामी अग्निवेश आदि पर केस दर्ज करने की धमकी देकर आंतक का माहौल
बनाया है। बिनायक सेन पर जिस तरह आरोप गढ़ा गया और नीचली अदालत में उन्हें सजा
सुनाई गई वह न्याय के अध्याय का सबसे काला अध्याय है। पियूष गुहा, नारायण सान्याल, ए वर्ल्ड टू विन के हिंदी संस्करण
के संपादक असित सेन को दी गई सजा न्याय के किसी भी चौखटे का उल्लंघन है। छत्तीसगढ़
के जेलों में पत्रकार से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता, आम
आदिवासी से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता यूएपीए व छत्तीसगढ़ विशेष सुरक्षा अधिनियम के
तहत जेल में बंद है। उड़िसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक में इन दमनकारी कानूनों के तहत
गिरफ्तारी का सिलसिला एक बंद घेरे की तरह जारी है। आमतौर पर गिरफ्तार लोगों पर एक
साथ कई राज्यों, जिलों व पुलिस स्टेशनों में मुकद्दमें दर्ज
किये जाते हैं जिससे कि उसके छूट पाने की आशा ही खत्म हो जाए और बिना आरोप तय हुए
ही उसे सालों जेल की सलाखों के पीछे बंद रखा जाय। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार
सीपीआई माओवादी पार्टी के सितंबर 2004 से सितंबर 2010 के बीच 1586 सदस्य पुलिस
मुठभेड़ में शहीद हुए। जबकि गिरफ्तार लोगोें की संख्या इसकी दो गुनी से ज्यादा है।
जाहिर है कि यूएपीए, राज्य स्तरीय कानून और एनकाउटंर की नीति
से इस पार्टी का नुकसान काफी ज्यादा है। इसी तरह जन संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार संगठन, आदिवासी, दलित, मुसलमान व
अल्पसंख्यक समुदाय, राष्ट्रीयताओं के संगठन व कार्यकर्ताओं
पर इन प्रावधानों का प्रयोग भारतीय समाज के उन तबकों पर हो रहा है जिसके बिना
लोकतंत्र का अर्थ क्रूर तानाशाही ही हो सकता है। यह तानाशाही पिछले साल के अंत में
गृहमंत्रालय द्वारा जारी उस नोटिफिकेशन में उभरकर आई जब सिविल सोसायटी व बौद्धिक
तबके व मध्य वर्ग को राज्य की आलोचना के जुर्म में यूएपीए के तहत मुकद्दमा चलाने
की धमकी दी गई थी।
जिसके जिक्र से बच रही है सरकार
इन दमनकारी कानूनों की परिभाषा के अनुसार कोई व्यक्ति या
संगठन आतंकवाद की श्रेणी में दर्ज हो जाता है जिसकी गतिविधि से, लोग या इसका एक हिस्से में डर व्याप्त होता
है, धार्मिक भाषाई नस्लीय या क्षेत्रिय या जातिगत या
समुदायों के बीच की समरसता टूटती हो या उस पर गलत असर पड़ता हो, कानूनगत सरकार पर डराकर दबाव डाल जाता हो, भारत की
संप्रभुता एकता अखंडता को खतरा बनता हो, आदि।
आरएसएस, विश्व
हिंदू परिषद, बजरंग दल व खुद भाजपा और अन्य हिंदूत्ववादी
संगठनों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर आज तक गुजरात, मध्यप्रदेश,
राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक व महाराष्ट्र, उड़िसा आदि राज्यों में
वैचारिक, सांगठनिक योजना के साथ हथियारबंद, विस्फोटक सामग्री कर प्रयोग कर मुसलमान, इसाई व दलित
लोगों का सामूहिक नरसंहार को बीसीयों बार अंजाम दिया है। राज्य की मशीनरी व उसके
सदस्यों का प्रयोग कर अंतराष्ट्रीय समझौते के तहत चलने वाली टेªन समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट कर 70 से अधिक लोगों, जिसमें पाकिस्तान के नागरिक अधिक थे, को मारकर देश
की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया। इन संगठनों को उपरोक्त परिभाषा के तहत नहीं लाया
गया। मालेगांव से लेकर हैदराबाद की जामा मस्जिद व अजमेर शरीफ में विस्फोट कराने वाले
ये संगठन यदि आतंकवाद की श्रेणी में नहीं आ पाते हैं और कथित तौर पर इस पर चुप्पी
बनी रहती है तो निश्चय ही इसमें मुख्य मामला दलाल भारतीय शाासक वर्ग के चरित्र से
जुड़ता है जिसके लिए उपरोक्त परिभाषा का अभिप्राय आतंकवाद से नहीं बल्कि उस असहमति
से है जो राजनीति में जनवाद, बराबरी, आजादी
और अपनी हिस्सदारी चाहता है।
प.बंगाल में सीपीएम ने हरमद वाहिनी के नाम से हथियारबंद
संगठन बना रखा है। आई बी की रिपोर्ट के अनुसार इनके पास अत्याधुनिक हथियार व
नियमित संचालन की व्यवस्था है। पीसीपीए के रिपोर्ट के अनुसार इसके 86 कैंप हैं।
खुद आईबी ने तीन जिलों में 27कैंप को उल्लेखित किया है। यह विरोधी पार्टियों, संगठनों के सदस्यों को मार डालने के काम
में लंबे समय से लगा हुआ है। आदिवासी लोगों की हत्या, नंदीग्राम
व लालगढ़ में किसानों की हत्या के मामले में इसकी भूमिका जगजाहिर है। न तो कंेद्र
व न ही राज्य सरकार ने इन रिपोर्टों को तरजीह दी बल्कि दोनों ने ही उसे बढ़ावा
दिया। छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम के चलते बस्तर के आदिवासी समुदाय के नृजातीय
अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो गया और लगभग एक तिहाई आबादी को शरणार्थी में बदल
दिया गया। यह अभियान अब भी जारी है। महाराष्ट्र में शिव सेना की भूमिका जगजाहिर
है। यहां मुख्य बात इन संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की मांग नहीं है बल्कि राज्य के
आतंकवाद व प्रतिबंध की राजनीति के वास्तविक चरित्र को समझने व सही राजनीति व मांग
को सामने रखने की है। आतंकवाद निरोधक कानून अब तक देश की प्रगतिशील धारा का दमन,
अल्पसंख्यक व राष्ट्रीयताओं का दमन, दलित व
आदिवासी की बेदखली और देश में उठ रहे असहमति के स्वर को दबाने का ही काम करते रहे
हैं। इसलिए मुख्य मसला भले ही दिखने में कार्यपद्धति, विचार
व हिंसा-अहिंसा का लगता हो परंतु अपने सारतत्व में यह दलाल बुर्जुआ शासक वर्ग की
लूट, शासन और राजनीति को बनाए रखने की ही है। जैसे जैसे यह
संकट में घिरता है वैसे वैसे वह कानूनों को कड़ा व दायरे को व्यापक बनाता जाता है
और अपने संगठनों को और अधिक खुली छूट जारी करता रहता है। वस्तुतः कानूनी मसला
राजनीति की जरूरतों और आर्थिक हितों से तय होता जाता है। संकट जितना तेज होता है
तीन पक्षों कानून, राजनीति व अर्थ व्यवस्था के बीच को फासला
उतना ही कम होता जाता है। चरम स्थिति में न तो रूल ऑफ लॉ होता है और न ही लोकतंत्र
का स्पेस और न ही लोगों के जीवन जीने के न्यूनतम आर्थिक आधार। यह फासिज्म होता है
जो साम्राज्यवाद के दौर में निरंतर घटने वाली परिघटना है। और इसी के साथ जन
विद्रोह व जनवाद की नई व्यवस्था की दावेदारी की परिघटना भी उतनी ही गति से सामने
आती है। एक मुकम्मल बदलाव एक व्यापक व कठिन संघर्षों से निकलकर ही आता है। देश के
भीतर दमन के बावजूद जनवादी शक्तियां निरंतर मजबूत होते हुए आगे बढ़ रही हैं।
जनवाद की लड़ाई ही विकल्प है.
जब भी सरकार के बारे में बात होती है तो इसके तीन आधारों को
जोड़कर ही इसे समझा जाता है, विधायिका,
कार्यपालिका और न्यायपालिका। यह राज्य की संरचना है जो अन्य सहयोगी
संरचनाओं के साथ मिलकर मजबूत और क्रियाशील होती है। विधायिका वोट देने से बनती है,
कार्यपालिका सेना, पुलिस और कलम घसीटों से
चलती है और न्यायपालिका इन दोनों के द्वारा बनाए गये नियमों, धाराओं, विधान-संविधान के अनुसार चलती है। इस सरकार
पर जो काबिज होता है उसकी सरकार होती है और उसी के हितों को पूरा करती है। 1947
में सत्ता हस्तांतरण मुख्यतः विधायिका यानी संसद व विधान सभाओं में हुआ। बाकी न तो
सेना, पुलिस, कलम घसीट डीएम, एसडीएम, तहसीलदार बदला और न ही न्याय की प्रणाली और
न ही विधि-विधान। इसी को कहते हैं गोरों की जगह काले अंग्रेज आ गए, जिसकी चिंता शहीद भगत सिंह व क्रांतिकारी लोगों को थी। इसे राज्य की
संरचना कहते हैं। यह संरचना दिल्ली की सरकार से गांव के पंचायत तक फैली हुई है। यह
संरचना अपने रोजमर्रा के कामकाज में आम लोगेंा को लगातार मारती रहती है। मसलन,
मामूली कर्ज के चलते पिछले दस साल में दो लाख किसान मारे गए। वहीं
टाटा, अंबानी के कर्ज को सरकार माफ भी करती है और उन्हें
इज्जत भी बख्शती है। किसान पर कर्ज दस हजार हो तो उसे बैंक वाले पुलिस दरोगा के
सहारे टांग कर जेल में डाला दिया जाता है जबकि इन्हीं बैंको की जब कर्जदारी दो साल
पहले बढ़ी तों मनमोहन की सरकार ने डेढ़ लाख करोड़ एक दिन मुफ्त में दे दिया। हर
साल लगभग पॉंच लाख करोड़ रुपए की छूट टाटा अंबानी को यूं ही मिल जाती है। नतीजन जो
सरकार की इस संरचना के तहत ही जनता के मद में पैसा आना चाहिए वह छीन लिया जाता है।
इससे मंहगाई, भूख बेकारी आदि बढ़ता जाता है। बाजार पैसा है
लेकिन एक छोटे से घेरे में घूमता रहता है। इसे संरचनागत दमन कहते हैं। इस दमन से
हर साल लाखों लोग मर जाते हैं। लोग निराश हताशा व अनुभाविक तरीके से सूत्रबद्ध
करते हैं कि यह व्यवस्था ही ऐसी है जहां आदमी का कोई मोल नहीं है। आदमी यानी आमजन।
क्योंकि खासजन तो आपस में हंस बोलकर पैसा बांट लेते हैं और निहायत भ्रष्ट ईमानदार
भी बने रहते हैं। इसमें न्यायपालिका भी सक्रिय भूमिका निभाती है। देश की जेलें
इन्हीं गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों से भरी हुई है। यह मजदूरों को निर्देश देती है कि हड़ताल मत
करो। धनिकों को लूट की छूट देती है।
जब इस संरचना के संचालक, उस पर काबिज व इससे पलने वाले शाासक वर्ग को लगता है कि उसे जनता से उतना
नहीं मिल रहा है जितना वे चाहते हैं और कि जनता विद्रोह पर उतारू हो रही है तो वे
अपनी संरचनाओं को हथियारबंद तरीके से संगठित कर दमन के लिए कूच करने लगते हैं। वे
संसद- विधानसभाओं में कानून, अध्यादेश व आमसहमति का निर्माण
करते हैं, अपनी पार्टियों व संगठनों को तैयार करते हैं,
सेना-पुलिस व प्रशासन की लामबंदी कर कूच करने का आदेश देते हैं और
कानून आदि को नए पैटर्न पर ढ़ालकर न्यायधीशों को कोर्ट कचहरी के मोर्चे पर लगा
देते हैं। मीडिया प्रचार की सक्रिय भूमिका में आ जाता है और सहमति बनाने व असहमतों
को पछाड़ने का दौर शुरू हो जाता है। यह देश की संप्रभुता, अखंडता,
एकता व सुरक्षा के नाम पर किया जाता है। सरकार बताती है कि खतरा
भीतर व बाहर दोनों से है। और फिर युद्ध की घोषणा परोक्ष अपरोक्ष दोनों ही रूप में
शुरू हो जाती है। अपने देश में 1972 के बाद से सरकारें देश की सीमा के भीतर जनता
के खिलाफ युद्ध लड़ रही है। आज देश के चौथाई हिस्से में सेना-अर्द्धसेना देश के
सबसे गरीब लोगों के खिलाफ युद्ध लड़ रही है। युद्ध का कारण बहुत साफ है। उसे
मजदूरों के श्रम की लूट चाहिए। उसे किसानों की मुफ्त में फसल व खेत चाहिए। दलित
लोगों का परपंरागत व्यवसाय चाहिए और सामंती काल जैसा ही उनके श्रम की लूट चाहिए।
आदिवासियों का जल जंगल जमीन व उनकी रिहाइशों के नीचे दबा खनिज चाहिए। उन्हें
महिलाओं का सौंदर्य शरीर व मुफ्त का श्रम चाहिए जिसे वे बाजार में बेच सकें।
उन्हें बच्चों के नर्म हाथ व कच्ची आंख चाहिए कि उनके घरों में हीरे की चमक,
कालीन की खूबसूरती और घर की सफाई बनी रहे। इस लूट कब्जा शोषण की
व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। न्यायधीश न्याय
की धज्जी उड़ाते हैं। सेना-पुलिस दुनिया के सबसे गरीब लोगों को शत्राु घोषित कर
गोली मारती है। संसदीय पार्टियां हथियारबंद गिरोहों से नरसंहारों को अंजाम देती
हैं। और संसद मसखरी के अड्डों में तब्दील हो जाता है जहां प्रति मिनट के हिसाब से
कानून, अध्यादेश और प्रस्ताव पारित होने लगता है। जहां
घूसखोरी और भ्रश्टाचार का खुलेआम नाच होने लगता है और इसे एक हास्य दृश्य की तरह
पेश किया जाता है। मसखरों की जमात सक्रिय हो जाती है। इस पूरी संरचना में लोकतंत्र
का ‘एक व्यक्ति एक वोट’ का सिद्धांत मौत के जनाजे में प्रेमगीत गाने जैसा हो जाता
है।
देश के नाम पर देश की जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले इस
शासक वर्ग की आम गतिविधयों पर यदि हम सरसरी नजर डाले तब भी इनकी देश की जनता ही
नहीं देश की भावना के खिलाफ कारस्तानियां आए दिन छपती रहती हैं। यह उपरी तबका देश
की संपदा व पैसा लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं। स्विस बैंक में तो इनका
अकूत पैसा जमा है। ये बड़े पैमाने पर विदेशों में जमीन मकान खरीदकर अपने परिवारों
को बसा रहे हैं। अपने बच्चों को वहीं पढ़ा रहे है। देश का पैसा विदेशी कंपनियों
में या उनके साथ गठजोड़कर लगा रहे हैं। कारण, उन्हें अपने देश से डर लग रहा है। उन्हें अपने ही देश पर भरोसा नहीं है।
वे अमेरीका व विदेशी कंपनियों व उनकी सरकारों से गठजोड़कर सुरक्षित हो जाना चाहते
हैं। इसके बदले वे देश को मरूस्थल और जनता को चूहांे से भी बदतर जीवन में डाल देने
के लिए तैयार हैं। उन्हें देश में उभर रहे जन संघर्र्षों से डर लग रहा है।
जनसंघर्षों से उपज रही उन राजनीतिक जन व्यवस्थाओं से डर लग रहा है जो शक्ल लेते
हुए खड़ा हो रही है। वे डर रहे हैं कि जनता पत्थर से भी लड़ने लगी है, तीर कमान हाथ में लेने लगी है। वे डर रहे हैं कि आम जन की जिंदगी को बचाने
के लिए गांव गांव तक डाक्टरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं,
छात्रों, और युवाओं के हाथ सक्रिय हो रहे हैं।
वे डर रहे हैं कि अर्थशास्त्री, राजीतिविज्ञानी और ढ़ेर सारे
बुद्धिजीवी दार्शनिक मूर्तन-अमूर्तन में चल रही शोषणकारी व्यवस्था की प्रासंगिकता
पर सवाल खड़ाकर नई जनव्यवस्था के दार्शनिक पहलू की जरूरत व अनिवार्यता को
उद्दघाटित कर रहे हैं। जनसंघर्षों में पकते हुए राजनीतिक पाटिर्यों का अविर्भाव हो
रहा है जो एक जनवादी व्यवस्था के कार्यक्रम के साथ विकल्प के रास्ते को साफ व
प्रशस्त कर रही हैं। वे डर रहे हैं कि जनता की आजादी की आजादी की आकांक्षा अपराजेय
गति से बढ़ती जा रही है।