हिंदी मीडिया में पहली बार
प्रकाशित
तिहाड़ जेल से अफ़ज़ल गुरु का
लिया गया पहला साक्षात्कार
अफज़ल गुरु से विनोद के जोसे की
विशेष बातचीत
आप पेशेवर रूप से पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि मेरा बेटा एक
डॉक्टर बने, क्योंकि यह मेरा अधूरा
सपना है. लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए जो सबसे जरूरी मानता हूं वो यह कि वो निर्भय
हो. मैं चाहता हूं कि वो अन्याय के खिलाफ बोले और मुझे उम्मीद है कि वो ऐसा करेगा.
आखिर मेरे बेटे और बीबी से बेहतर अन्याय को कौन जान सकता है...अनुवाद- अजय प्रकाश
और विश्वदीपक
तिहाड़ जेल में करीब 4.30 बजे मेरी मुलाकात की बारी आई. एक
वर्दीधारी ने मेरा ऊपर से नीचे तक परीक्षण किया. जब मेटल डिटेक्टर चीं-चीं की आवाज
करने लगा तब मुझे बेल्ट, स्टील की
घड़ी और चाबियों को निकालने के लिए कहा गया. उस वक्त ड्यूटी में तैनात तामिलनाडु
स्पेशल पुलिस का वह जवान मेरी जाँच के बाद संतुष्ट लग रहा था. अब मुझे अंदर जाने
की इजाजत दे दी गई थी. ये चौथी बार था जब तिहाड़ सेंट्र्ल जेल के अति खतरनाक वार्ड
के जेल नंबर तीन में जाने के लिए सुरक्षा जांच की गई थी. मैं उस वक्त मोहम्मद अफजल
से मिलने जा रहा था, जो उस दौर की चर्चाओं में सर्वाधिक था.
मैं एक ऐसे कमरे में दाखिल हुआ, जहां कई क्यूबिकल बने हुए थे. एक मोटा कांच
और लोहे की सलाखें कैदियों को मुलाकातियों से अलग करती थीं. दीवार पर चस्पां एक
माइक्रोफोन के जरिए मुलाकाती और कैदी एक दूसरे के संपर्क में आते थे. हालांकि
माइक्रोफोन की आवाज घटिया थी. मुलाकाती और कैदी को एक दूसरे की बात समझने के लिए
दीवार से कान लगाना पड़ता था. मैंने देखा कि क्यूबिकल से दूसरी ओर मोहम्मद अफजल
पहले से ही खड़ा था. उसके चेहरे पर गरिमा और शांति की झलक थी. दुबली पतली काया,
नाटे कद और जेब में रेनाल्ड का पेन रखे हुए अफजल की उम्र उस वक्त
पैंतीस के आसपास रही होगी.
अफजल ने उस दिन सफेद कुर्ता पायजामा पहन रखा था.बेहद
विनम्रता से भरी हुए एक स्पष्ट आवाज ने मेरा स्वागत किया- 'कैसे हैं श्रीमान.'मैंने
कहा, “अच्छा हूं”. क्या मुझे बदले में मौत के दरवाजे पर खड़े
उस इंसान से भी यही सवाल पूछना चाहिए. कुछ देर के लिए मैं सोच में पड़ गया,
लेकिन अगले ही पल मैंने पूछ ही लिया. “शुक्रिया! मैं एकदम ठीक
हूं”-- उसने जवाब दिया. अफजल से मेरी ये मुलाकात उस दिन करीब एक घंटा और (पंद्रह
दिन के अंतराल के बाद) दूसरी मुलाकात तक चली. हम दोनों को पूछने और जानने की जल्दी
थी. मैं लगातार अपनी छोटी डायरी में लिखता रहता था. उसे देखकर ऐसा लगा जैसे वो
दुनिया से बहुत कुछ कहना चाहता था. लेकिन बारंबार वो लोगों से अपनी बात न कह पाने
की असहायता जाहिर करता था. पेश है उससे बातचीत के अंश -
एक अफजल के कई चेहरे हैं. मैं किस अफजल से मिल रहा हूं?
क्या वाकई ऐसा है. जहां तक मेरा सवाल है मैं एक ही अफजल को
जानता हूं. और वो मैं ही हूं. दूसरा अफजल कौन है. (थोड़ी चुप्पी के बाद) अफजल एक
युवा है, उत्साह से भरा हुआ है, बुद्धिमान और आदर्शवादी युवक है.नब्बे के दशक में जैसा कि कश्मीर घाटी के
हजारों युवक उस दौर की राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित हो रहे थे वो (अफजल) भी हुआ.
वो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का सदस्य था और सीमा पर दूसरी ओर चला गया था. लेकिन
कुछ ही सप्ताह बाद वो भ्रम का शिकार हो गया और उसने सीमा पार की और वापस इस तरफ आ
गया. और एक सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करने लगा, लेकिन
सुरक्षा एजेंसियों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. वो मुझे बार-बार उठाते रहे.
प्रताड़ित करके मेरा भुर्ता बना दिया, बिजली के झटके दिए गए,
ठंडे पानी में जमा दिया गया, मिर्च सुंघाया
गया...और एक फर्जी केस में फंसा दिया गया. मुझे न तो वकील मिला, न ही निष्पक्ष तरीके से मेरा ट्रायल किया गया. और आखिर में मुझे मौत की
सजा सुना दी गई. पुलिस के झूठे दावों को मीडिया ने खूब प्रचारित किया और सुप्रीम
कोर्ट की भाषा में जिसे देश की सामूहिक चेतना कहते हैं वो मीडिया की ही तैयार की
हुई है. देश की उसी सामूहिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए मुझे मौत की सजा सुनाई
गई. मैं वही मोहम्मद अफजल हूं, जिससे आप मुलाकात कर रहे हैं.
(फिर थोड़ी देर की चुप्पी के बाद बोलना जारी) मुझे शक है कि
बाहर की दुनिया को इस अफजल के बारे में कुछ भी पता है या नहीं. मैं आपसे ही पूछना
चाहता हूं कि क्या मुझे मेरी कहानी कहने का मौका दिया गया? क्या आपको भी लगता है कि न्याय हुआ है?
क्या आप एक इंसान को बिना वकील दिए हुए ही फांसी पर टांगना पसंद
करेंगे?बिना निष्पक्ष कार्रवाई के, बिना
ये जाने हुए कि उसकी जिंदगी में क्या कुछ हुआ? क्या लोकतंत्र
का यही मतलब है?
क्या हम आपकी उस जिंदगी के बारे में बात करें जो केस शुरू
होने से पहले थी?
वो दौर कश्मीर में भयानक उथल पुथल का था, जब मैं बड़ा हो रहा था. मकबूब भट्ट को सूली
पर चढ़ाया जा चुका था. स्थिति काफी विस्फोटक थी. कश्मीर के लोगों ने शांति के
रास्ते से चुनाव लड़कर कश्मीर का मसला सुलझाने की कोशिश की थी. कश्मीर मसले के
अंतिम समाधान के लिए, कश्मीर के लोगों की भावनाओं को बयान
करने के लिए मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट बनाया गया था. लेकिन दिल्ली में बैठी सरकार
एमयूएफ को मिल रहे समर्थन से भयभीत हो गई थी. और इसका अंजाम ये हुआ कि लोगों ने
चुनाव में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. लेकिन जिन नेताओं ने चुनाव में भारी मतों से जीत
हासिल की उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उनका अपमान किया गया और उन्हें जेल में डाल
दिया गया. इसी घटना के बाद उन्हीं नेताओं ने हथियार बंद संघर्ष का आह्वान किया. हजारों
युवाओं ने हथियार बंद विद्रोह का रास्ता चुना. झेलम मेडिकल कॉलेज, श्रीनगर में मैंने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ दी. मैं उन लोगों में से भी
था, जिन्होंने जेकेएलएफ के सदस्य के तौर पर सीमा पार की थी,
लेकिन जब मैंने देखा कि पाकिस्तान के नेता भी कश्मीर के मसले पर उसी
तरह का (दोहरा) रवैया रखते हैं जैसे भारत के तो मैं भ्रम का शिकार हो गया. कुछ
सप्ताह बाद मैं वापस आ गया. मैंने सुरक्षा कर्मियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
मुझे बीएसएफ ने आत्मसमर्पण किए हुए आतंकी का सर्टिफिकेट भी दिया. मैंने अपनी
सामान्य जिंदगी शुरू कर दी. मैं डॉक्टर तो नहीं बन सका लेकिन मैं दवाओं का डीलर
जरूर बन गया. इसके बदले में मुझे कमीशन मिलता था. (हंसी)
अपनी छोटी सी ही कमाई के सहारे मैंने एक स्कूटर खरीद ली और
मैंने शादी भी कर ली. इस दौरान एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जब राष्ट्रीय राइफल्स और
एसटीएफ के जवानों ने मुझे प्रताड़ित न किया हो. अगर कश्मीर में कहीं भी आंतकी हमला
होता तो वो नागरिकों को पकड़ते और उन्हें प्रताड़ित करते. मुझ जैसे आतंकवादियों ने
जिसने समर्पण कर दिया था, उनकी स्थिति
तो और भी खराब थी. वो हमें कई हफ्तों के लिए बंद कर देते, झूठे
केस में फंसा देने की धमकी देते और हम तभी छूटते जब हम उन्हें घूस के रूप में मोटी
रकम देते. मेरे साथ तो ऐसा कई बार हुआ है. 22 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर राम मोहन
रॉय ने तो मेरे गुप्तांगों तक में करंट लगवाया. कई बार मुझसे वो लोग उनके पखाने और
कैंपस तक साफ करवाते थे. हुमहामा में मौजूद एसटीएफ के प्रताड़ना शिविर से बचने के
लिए तो मैंने बकायदा एक बार सुरक्षा कर्मियों को घूस तक दिया था. डीएसपी विनय
गुप्ता और दविंदर सिंह की देख रेख में मुझे प्रताड़ित किया गया. प्रताड़ित करने
में माहिर इंस्पेक्टर शांति सिंह ने एक बार मुझे तीन घंटे तक प्रताड़ित किया. और
वो तब तक ऐसा करता रहा जब तक मैं एक लाख बतौर घूस देने के लिए तैयार नहीं हो गया.
रकम पूरी करने के लिए मेरी पत्नी ने अपने जेवर बेच दिए. मुझे अपनी स्कूटर भी बेचनी
पड़ी. जब मैं प्रताड़ना शिविर से बाहर निकला तब तक मैं मानसिक और आर्थिक रूप से
टूट चुका था. छह महीने तक मैं घर के बाहर नहीं निकल सका क्योंकि मैं अंग भंग हो
गया था. मैं अपनी पत्नी के साथ बिस्तर पर भी नहीं जा सकता था क्योंकि मेरे
गुप्तांगों को बिजली के झटके दिए गए थे. इसके इलाज के लिए मुझे दवाईयां खानी
पड़ी...
(जब अफजल ये सब बता रहा था तो उसके चेहरे की शांति भंग हो
चुकी थी. ऐसा लगता था जैसे उसके पास मुझे बताने के लिए ज्यादा से ज्यादा बातें हैं, लेकिन मेरे टैक्स के पैसे से चलने वाली
सुरक्षा एजेंसियों की प्रताड़ना की इतनी कहानियां सुनने मैं असमर्थ था. मैंने बीच
में ही उसे टोक दिया...)
अगर आप केस के बारे में बात कर सकें तो बताएं...वो कौन सी
घटनाएं थीं, जिनके बाद संसद पर हमला
हुआ ?
आखिरकार एसटीएफ कैंप में (प्रताड़ना के बाद) मैं ये सीख
चुका था कि आप चाहे एसटीएफ का सहयोग करें या विरोध आप या आपके परिवार वालों को
परेशान होना ही है. मेरे पास शायद ही कोई विकल्प था. डीसीपी दविंदर सिंह ने मुझसे
कश्मीर में कहा कि तुम्हें दिल्ली में एक छोटा सा काम करना है. ये उसके लिए
"छोटा सा काम" था. दविंदर सिंह ने मुझे कहा कि मुझे एक आदमी को दिल्ली
लेकर जाना है और उसके लिए किराए का ठिकाना खोजना था. मैं उस आदमी से पहली बार मिला
था. चूंकि वो कश्मीरी नहीं बोल रहा था, इसलिए मुझे लगा कि वो आदमी बाहरी था. उसी ने मुझे बताया कि उसका नाम
मोहम्मद था. (पुलिस ने मोहम्मद की पहचान संसद पर हमला करने वाले पांचों
आतंकिवादियों के नेता के अगुवा के तौर पर की है. पांचों आतंकवादी हमले में मारे गए
थे.) जब हम दिल्ली में थे, तब मुझे और मोहम्मद दोनों को
दविंदर सिंह फोन करता था. मैंने नोटिस किया कि मोहम्मद दिल्ली में कई लोगों से
मिलता था. जब उसने एक कार खरीद ली तब उसने मुझे उपहार के तौर पर 35 हजार रुपये
दिए. इसके बाद मैं ईद का त्यौहार मनाने कश्मीर चला गया. जब मैं श्री नगर बस स्टैंड
से सोपोर रवाना होने वाला था, तब मुझे गिरफ्तार कर लिया गया
और परिमपोरा थाने ले जाया गया. वहां मुझे प्रताड़ित किया गया. इसके बाद वो लोग
मुझे एसटीएफ हेडक्वार्टर ले गए और वहां से मुझे दिल्ली लाए. दिल्ली पुलिस के
स्पेशल सेल के प्रताड़ना शिविर में मैंने उन लोगों को वो सब कुछ बताया जो मोहम्मद
के बारे में मुझे पता था. लेकिन वो लोग मुझे ये मनवाने पर अड़े थे कि मेरा चचेरा
भाई शौकत, उसकी पत्नी नवजोत और एसएआर गिलानी के साथ मैं ही
संसद हमले का जिम्मेदार था.
वो चाहते थे कि ये बात मैं पूरी दृढ़ता से मीडिया के सामने
कहूं. हालांकि मैंने इसका विरोध किया. लेकिन मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था. मेरा
परिवार उन लोगों की गिरफ्त में था. मुझसे सादे कागज में दस्तखत कराए गए और कहा गया
कि मुझे मीडिया से बात करनी है. मुझसे जबरन वही बातें कहलवाई गईं जो पुलिस मुझे
पहले से ही रटा चुकी थी. इसमें संसद पर हमले की जिम्मेदारी लेना भी शामिल था. जब
एक पत्रकार ने मुझसे एसएआर गिलानी के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि वो निर्दोष
है. तब एसीपी राजबीर सिंह भरी मीडिया के सामने चिल्ला उठा. वो लोग मुझसे इस बात के
लिए नाराज थे कि मैंने उनकी सिखाई हुई बातों से अलग भी कुछ कह दिया था. उस वक्त
राजबीर सिंह ने पत्रकारों से गिलानी को निर्दोष ठहराने वाली मेरी बाइट न चलाने के
लिए भी कहा था.
अगले दिन राजबीर सिंह ने मुझे मेरी बीबी से बात करने की
इजाजत दी. साथ ही उन्होंने धमकी भी दी कि अगर तुम अपनी बीबी का जीवित देखना चाहते
हो तो हम जैसा कहते हैं वैसा करो. ऐसे में मेरे सामने एक ही विकल्प था कि मुझपर
लगाये गये आरोपों को मैं स्वीकार कर लूं. दिल्ली स्पेशल सेल की टीम ने मुझसे यह भी
कहा कि जैसा हम चाहते हैं तुम आरोपों को उसी तरह स्वीकार कर लेते हो तो तुम्हारे
मुकदमे को हम कमजोर कर देंगे और मुझे जल्द ही रिहा कर दिया जायेगा. उसके बाद वे
मुझे कई उन जगहों और बाजारों में ले गये जहां से मोहम्मद ने सामान खरीदे थे. इन
सबको बाद में पुलिस ने सबूत बतौर पर पेश किया.
मैं कह सकता हूं कि जब दिल्ली पुलिस संसद हमले के मुख्य
साजिशकर्ता को पकड़ने में नाकाम रही, तो उसने अपना मुंह छुपाने के लिए मेरा इस्तेमाल किया और मैं बलि का बकरा
बना. पुलिस ने लोगों को मूर्ख बनाया. लोगों को आज भी नहीं पता कि संसद पर हमले की
योजना किसकी थी. मैं पहले एक मामले में कश्मीर एसटीएफ की जाल में फंसाया गया और
फिर उसी का दोहराव दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने किया.
मीडिया लगातार उस टेप को प्रसारित कर रहा है, पुलिस अधिकारी पुरस्कृत हो रहे हैं और मैं
मौत का सजायाफ्ता.
आपको अबतक कानूनी मदद क्यों नहीं मिल सकी?
मुझे कभी मौका मिलता तब तो. मैंने ट्रायल के छह महीने तक
अपने परिवार वालों को नहीं देखा. और जब एक बार सुनवाई के दौरान पटियाला कोर्ट में
देखा भी, तो बहुत कम समय के लिए. मुझे कोई नहीं मिला
जो मेरे लिए एक अदद वकील का इंतजाम करता. इस देश में किसी को भी कानूनी अधिकार
पाने का मौलिक हक है, इस उम्मीद से मैंने चार वकीलों को नाम
बताया, जिनसे मुझे उम्मीद थी कि वह मेरा केस लड़ सकते हैं.
लेकिन एसएन ढिंगरा ने बताया कि सभी चार वकीलों ने मेरा मुकदमा लड़ने से इनकार कर
दिया है. मेरे लिए अदालत ने जो वकील नियुक्त किया, वह मुकदमे
की सुनवाई के दौरान कुछ पेंचीदे दस्तावेज पेश करने लगीं, वह
भी मुझसे पूछे बिना कि मामले का सच क्या है? उन्होंने मेरे
मुकदमे की ठीक से पैरवी नहीं की और मेरी पैरवी छोड़ इस मामले के दूसरे आरोपी का
मुकदमा लड़ने लगीं. फिर अदालत ने एक एमीकस क्यूरी (अदालत का मददगार) की नियुक्ति
की, जो मेरा बचाव नहीं करते थे, बल्कि
इस मामले में अदालत को मदद देते थे. मेरे लिए नियुक्त एमीकस क्यूरी मुझसे कभी नहीं
मिले. उन्होंने मुझसे हमेशा एक दुश्मन की तरह बर्ताव किया, वे
बेहद सांप्रदायिक थे. मैं कह सकता हूं कि ट्रायल की स्थिति में मेरा पक्ष सिरे से
रखा ही नहीं गया.
इस मामले की सच्चाई यही है कि ऐसे संवदेनशील केस में पैरवी
के लिए एक वकील नहीं था. किसी मुकदमे में वकील के न होने का क्या मतलब होता है, यह कोई भी समझ सकता है. अगर सरकार मुझे
फांसी पर ही लटकाना चाहती है तो ऐसे लंबी उबाऊ कानूनी प्रक्रिया का मेरे लिए कोई
मतलब नहीं है.
आप दुनिया से क्या अपील करना चाहते हैं?
मेरे पास कुछ खास अपील करने को नहीं है. मुझे जो कहना है वह
भारत के राष्ट्रपति को भेजी याचिका में कह दिया है. मैं सिर्फ सीधी सी बात यह कहना
चाहता हूं कि अंधराष्ट्रवाद और गलत समझदारी के फेर में पड़कर अपने ही देश के
नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को नहीं छीनना चाहिए. इस मामले के दूसरे आरोपी
एसएआर गिलानी (अब बरी) की उस बात को मैं याद दिलाना चाहता हूं, जब उन्हें ट्रायल कोर्ट ने फांसी की सजा
मुकर्रर की. उन्होंने कहा था, शांति, न्याय
से बहाल होती है. जहां न्याय नहीं है वहां शांति नहीं होगी.’ कुल मिलाकर मैं भी
यही कहना चाहता हूं. अगर वह चाहते हैं तो मुझे फांसी पर लटका दें, लेकिन याद रखें कि यह भारतीय न्यायिक और राजनीतिक तंत्र पर एक काला धब्बा
होगा.
जेल में आपकी क्या स्थिति है?
मुझे अत्यधिक निगरानी के बीच अकेले एक कालकोठरी में रखा गया
है. मैं अपनी कालकोठरी से दोहपर में बहुत कम समय के लिए बाहर आ पाता हूं. रेडियो, टेलीविजन की मेरे लिए मनाही है. यहां तक कि
मुझे अखबार फाड़कर पढ़ने को दिया जाता है. अखबारों में मेरे बारे में जो खबर छपती
है, उसे पूरे तौर पर फाड़ दिया जाता है.
भविष्य की अनिश्चितता के बीच समाज को लेकर आपकी मुख्य
चिंताएं क्या हैं?
हां, बहुत सारी
चीजों से मेरे सरोकार जुड़े हुए हैं. भारत की विभिन्न जेलों में कश्मीर से ताल्लुक
रखने वाले लोग बिना वकीलों के, बगैर ट्रायल के बंद हैं.
उन्हें कोई कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है. कश्मीरी नागरिकों की हालत भी इससे अलग
नहीं है. घाटी अपने आप में एक खुली जेल है. हर रोज फर्जी मुठभेड़ की खबरें आती
रहती हैं, लेकिन यह सिर्फ कुछेक उदाहरण भर हैं. कश्मीर के
पास सबकुछ है, मगर आप उसे एक शिष्ट समाज के रूप में देखना ही
नहीं चाहते. कश्मीरी नागरिक यंत्रणाओं-प्रताड़नाओं के बीच जीते हैं, उन्हें मुश्किल से न्याय मिल पाता है.
इन सबके अलावा और भी बहुत सारी बातें मेरे दिगाम में आती
हैं. विस्थापित हो रहे किसानों की समस्या और दिल्ली में सील कर दिये गये
दुकानदारों की हालत भी मुझे परेशानन करती हैं. देश में बहुत तरीके से अन्याय हो
रहे हैं, जिन्हें देखा जा सकता है, चिन्हित किया जा सकता है, लेकिन इसके खिलाफ कुछ किया
नहीं जा सकता. कल्पना नहीं कर सकते कि कितने हजारों लोगों की जिन्दगी, उनके परिवार इसकी जद में आ रहे हैं. ये तमाम चीजें मुझे परेशान करती हैं.
थोड़ा सोचते हुए-
दुनिया में हो रहे भूमंडलीय विकास के बारे में भी मैं सोचता
हूं. मैंने सद्दाम की फांसी के बारे में सुना तो मुझे बहुत दुख हुआ. ये सोचकर
स्तब्ध रह गया कि क्या अन्याय इतना सरेआम और बेशर्मी से किया जा सकता है. दुनिया
की महान सभ्यता ‘मेसोपोटामिया’ की भूमि ईराक, जिसने हमें साठ मिनट का घंटा दिया, चौबीस घंटे और
360 डिग्री का ज्ञान दिया उसे अमेरिका ने धूल-धूसरित कर दिया. अमेरिका तमाम
सभ्यताओं और मूल्यों को नष्ट कर रहा है. आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका का यह तथाकथित
युद्ध सिर्फ नफरत फैलाने और तबाही के लिए है.
आजकल आप कौन सी किताबों को पढ़ रहे हैं?
मैंने हाल ही में अरूंधति रॉय की किताब पढ़ी हैं. अब में
सात्र का अस्तित्ववाद का सिद्धांत पढ़ रहा हूं. जेल की लाइब्रेरी में बहुत कम और
साधारण किताबें हैं. इसलिए मैंने एसपीडीपीआर (सोसायटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़
डिटेंनिज एंड प्रिजनर्स राइट) के सदस्यों से किताबों के लिए अपील की है.
एसपीडीआर आपके समर्थन में एक अभियान है न?
जी हाँ. उन हजारों लोगों का मैं तहेदिल से शुक्रिया अदा
करना चाहता हूं जो मुझ पर हो रहे अन्याय के खिलाफ खड़े हैं. इनमें वकील, छात्र, लेखक, बुद्धिजीवी और समाज के अन्य तबकों के तमाम लोग शामिल हैं. मेरी गिरफ्तारी
दिसंबर 2001 के कई महीनों बाद तक मुझे लगता रहा कि शायद मेरे मामले में न्यायप्रिय
लोग खड़े नहीं होंगे. लेकिन जब एसएआर गिलानी को इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय
ने बरी कर दिया तो लोगों ने पुलिसिया कहानी पर सवाल उठाने शुरू कर दिये. जैसे-जैसे
लोगों को इस कहानी का झूठ पता चला वे न्याय के पक्ष में खड़े हो आवाज उठाने लगे.
अब लोग मेरे पक्ष में खुलकर आ रहे हैं और कह रहे हैं कि अफजल के साथ अन्याय हुआ
है. यही सच भी है.
आपके परिजन मुकदमे को लेकर विरोधाभासी बयान दे रहे हैं?
मेरी बीबी लगातार कह रही है कि मुझे गलत ढंग से फंसाया गया
है. उसने बहुत नजदीक से देखा है कि एसटीएफ मुझे किस तरह यंत्रणा देती थी. एसटीएफ
ने मुझे कभी चैन से जीने नहीं दिया. मेरी बीबी यह भी अच्छी तरह जानती है कि इस
मामले में मुझे किस तरह फंसाया गया. वह चाहती है कि मैं अपने बेटे गालिब को अपनी
आंखों के सामने बढ़ते हुए देखूं. मेरे एक बड़े भाई भी हैं जो बखूबी जानते हैं कि
एसटीएफ ने किस तरह मुझे दबाव में रखा और वे लगातार इसका विरोध करते रहे हैं. लेकिन
अब वो मेरे मामले में कोई अलग बयान दें तो मैं क्या कह सकता हूं?
देखिये, कश्मीर
में जो काउंटर इनसर्जेंसी के नाम पर ऑपरेशन किये जा रहे हैं उसने बहुत गंदा स्वरूप
ले लिया है, जो भाई को भाई और पड़ोसी को पड़ोसी के खिलाफ
खड़ा कर रहा है. अपने गंदे इरादों से वे एक समाज को तोड़ रहे हैं. जहां तक मेरे
समर्थन में किये जा रहे अभियानों का सवाल है तो मैंने सिर्फ एसपीडीपीआर से ही
सहयोग की अपील की है और उन्हें ही अधिकृत मानता हूं. यह संस्था एसएआर गिलानी और
कार्यकर्ताओं के एक समूह द्वारा चलायी जाती है.
अपनी बीबी तबस्सुम और बेटे गालिब के बारे में सोचते हैं तो
दिमाग में क्या ख्याल आते हैं?
हमारी शादी का यह दसवां साल है, जिसमें से आधा मैंने जेल में बिताया है.
इससे पहले भी कई बार भारतीय सुरक्षाबलों ने कश्मीर में मुझे उठाया और पीड़ित किया.
तबस्सुम मेरी शारीरिक और मानसिक यंत्रणाओं से बखूबी वाकिफ है. यंत्रणा कैंपों से
लौटने के बाद कई बार मेरी हालत खड़े होने लायक नहीं रहती थी. शारीरिक प्रताड़ना के
दौरन मेरे लिंग पर तक बिजली के झटके दिये जाते थे. तबस्सुम ने हमेशा मुझे जीने का
साहस दिया. हम लोग एक दिन भी चैन से नहीं रहते थे. हालांकि यह कहानी सिर्फ मेरी
नहीं, तमाम कश्मीरी जोड़ों की है. कश्मीरी घरों में भय का
बने रहना जीवन का सबसे प्रभावी अहसास है. बच्चा हुआ तो हम बहुत खुश थे. हमने अपने
बच्चे का नाम महान गजलकार मिर्जा गालिब के नाम पर रखा. हमारा सपना था कि हम गालिब
को बढ़ता हुआ देखें. मैं बहुत कम समय उसके साथ बिता पाया. गालिब के दूसरे जन्मदिन
के बाद मुझे पुलिस ने फंसा लिया.
अपने बेटे को आप किस रूप में बढ़ता हुआ देखना चाहते हैं?
अगर आप पेशेवर रूप से पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि वो एक
डॉक्टर बने, क्योंकि यह मेरा अधूरा
सपना है. लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए जो सबसे जरूरी मानता हूं वो यह कि वो निर्भय
हो. मैं चाहता हूं कि वो अन्याय के खिलाफ बोले और मुझे उम्मीद है कि वो ऐसा करेगा.
आखिर मेरे बेटे और बीबी से बेहतर अन्याय को कौन जान सकता है.
अगर कश्मीर समस्या के बारे में पूछें तो आप इसका क्या हल
देखते हैं?
सबसे पहले सरकार को कश्मीरी आवाम के प्रति संवेदनशील होना
होगा और कश्मीर का वास्तविक प्रतिनिधित्व करने वालों के साथ वार्ता करनी चाहिए.
भरोसा कीजिये कश्मीर का वाजिब प्रतिनिधित्व करने वाले ही समस्या का हल निकाल सकते
हैं. लेकिन अगर सरकार काउंटर इनसर्जेंसी के टैक्टिस के तौर पर शांति वार्ता का
नाटक करेगी तो इस समस्या का कोई समाधान नहीं है. अब समय आ गया है कि इस मामले को
गंभीरता से लिया जाये.
कौन हैं कश्मीर के वास्तविक प्रतिनिधि?
मैं किसी एक का नाम नहीं लेना चाहता. इनका चुनाव कश्मीरी
आवाम की भावनाओं के मद्देनजर किया जा सकता है. साथ ही मैं भारतीय मीडिया से अपील
करना चाहता हूं कि वो इस मामले में दुष्प्रचार न करे, आवाम को सच से परिचित कराये. गलत तथ्य,
आधी-अधूरी खबरें, राजनीतिक प्रभाव वाले समाचार
ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो क’मीर में कट्टरपंथी और आतंकी ताकतों को खड़ा कर रहे हैं.
इस तरह के पत्रकार खुफिया एजेंसियों के खेल में आसानी से शामिल हो जाते हैं और ऐसी
असंवेदनशील पत्रकारिता आखिरकार समस्याओं को बढाती ही है. इसलिए सबसे जरूरी है कि
मीडिया कश्मीर के बारे में गलत सूचनायें देनी बंद करे. भारतीय नागरिकों को कश्मीरी
संघर्ष का इतिहास का सच जानने दिया जाये जिससे वे वहां की जमीनी हकीकत से रू-ब-रू
हो सकें. अगर भारत सरकार कश्मीरी आवाम की इच्छा अनुरूप समस्याओं के हल की पहल नहीं
करती है तो यह क्षेत्र हमेशा संघर्षों के हवाले रहेगा.
दूसरा, जब
भारतीय न्यायतंत्र जेलों में बंद सैकड़ों कश्मीरियों को बिना वकील और बगैर फेयर
ट्रायल के फांसी देने पर आमादा है तो कश्मीरी आवाम के बीच इसका क्या संदेश जायेगा.
बुनियादी हकों को बहाल किये बगैर कश्मीर समस्या का समाधान कैसे संभव है? इसका एकमात्र उपाय है कि भारत-पाकिस्तान दोनों की ही लोकतांत्रिक
संस्थायें मसलन संसद, न्यायपालिका, मीडिया,
बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ इस मसले पर गंभीरता से पेश आयें.
संसद हमले में नौ सुरक्षाबलों के जवान मारे गये, आप उनके परिजनों से क्या कहना चाहेंगे?
जिन्होंने अपने परिजनों को गंवाया है, मैं उनकी तकलीफ को महसूस कर सकता हूं.
लेकिन मैं यह भी महसूस करता हूं कि उन्हें बहकाकर मुझ जैसे एक निर्दोष आदमी की
फांसी से संतुष्ट करने की कोशिश की जा रही है. मुझे एक मोहरे के बतौर राष्ट्रवाद
के नाम पर बलि का बकरा बनाया जा रहा है. मैं अपील करूंगा कि वे इससे बाहर निकलें
और मेरे नजरिये से भी सोचें.
आप अपने जीवन में अब तक की क्या उपलब्धि देखते हैं?
मेरी अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि मेरे मुकदमे से जुड़े
अन्याय के खिलाफ चले अभियान की है, जिसके जरिये एसटीएफ का खौफ उजागर हो पाया. मुझे ख़ुशी है कि सुरक्षाबलों
द्वारा नागरिकों पर किये जा रहे अत्याचार, फर्जी मुठभेड़ों,
उनके गायब होने, उन्हें प्रताडि़त किये जाने
आदि पर अब लोगों के बीच चर्चा हो रही है. कश्मीरी इन्हीं सब सच्चाइयों के बीच
बढ़े-पले हैं. कश्मीर के बाहर के लोगों को कतई नहीं मालूम है कि भारतीय सुरक्षाबल
वहां क्या कहर ढाते हैं. अगर बिना अपराध के वो हमें मार भी दें तो यह कोई सवाल
नहीं है. एक क’मीरी को बिना वकील की पैरवी के फांसी पर भी लटका दिया जाये तो यह
कोई बड़ी बात नहीं होगी.
आप खुद को किस रूप में याद किया जाना पसंद करेंगे?
कुछ देर सोचने के बाद-
अफजल के रूप में, मोहम्मद अफजल के रूप में. मैं कश्मीरी आवाम के लिए भी अफजल हूं और
भारतीयों के लिए भी, लेकिन दोनों की निगाह में अलग-अलग. मैं
कश्मीरी लोगों के न्याय पर पर सहज विश्वास कर सकता हूं. सिर्फ इसलिए नहीं की मैं
उनके बीच से हूं बल्कि इसलिए कि वे सच से बखूबी वाकिफ हैं. उन्हें कभी भी इतिहास
या पुरातन में गलतबयानी के जरिये बहकाया नहीं जा सकता है.
विनोद के जोसे
अंग्रेजी पत्रिका 'कारवां' के
कार्यकारी संपादक हैं. वर्ष 2006 में अफज़ल गुरू का यह साक्षात्कार सबसे पहले
रीडिफ़-कॉम में प्रकाशित हुआ था. अब आप इस साक्षात्कार को कारवां की वेबसाइट पर
अंग्रेजी में देख सकते हैं.