हिंदू राष्ट्रवादी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक खुला पत्र:
श्रीमान!
आशा है आप स्वस्थ होंगे। बीती 22 जुलाई को यूरोपीय न्यूज एजेंसी रायटर्स के दो पत्रकारों, रॉस कोल्विन तथा गोत्तिपति के साथ बात करते हुए आपने स्वयं को “हिंदू राष्ट्रवादी’” घोषित किया और आप में एक देशभक्त होने की भावना संचार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को शुक्रिया अदा किया। यह आरएसएस का प्रशिक्षण है कि “आप जो भी काम करते हैं, आपको लगता है कि आप देश की भलाई के लिए यह कर रहे हैं? यह बुनियादी प्रशिक्षण है। अन्य बुनियादी प्रशिक्षण अनुशासन है। आपके जीवन को अनुशासित होना चाहिए।” [1]
न्यूज एजेंसी का दावा है कि यह आपके आधिकारिक गांधीनगर निवास पर लिया गया एक ‘दुर्लभ साक्षात्कार’ है। इस साक्षात्कार को पढ़ कर मैं हैरान रह गया क्योंकि आप एक साधारण भारतीय नागरिक की हैसियत से नहीं बल्कि भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान के अंतर्गत आने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में बात कर रहे थे। चूंकि आप पारदर्शिता में विश्वास रखने का दावा करते हैं, इसलिए मैं इस आशा के साथ यह खुला खत लिख रहा हूं कि आप मेरे द्वारा उठाये गये सवालों के उत्तर अवश्य देंगे।
आरएसएस के एक परिपक्व प्रचारक और पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने के नाते आप अपनी जड़ों के बारे में मुझसे बेहतर जानते होंगे। मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द की उत्पत्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐतिहासिक संदर्भ में हुई।
यह स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया था। ‘मुस्लिम राष्ट्रवादियों’ ने मुस्लिम लीग के बैनर तले और ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने ‘हिंदू महासभा’ और ‘आरएसएस’ के बैनर तले इस स्वतंत्रता संग्राम का यह कह कर विरोध किया कि हिंदू और मुस्लिम दो पृथक राष्ट्र हैं। स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के लिए इन हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अपने औपनिवेशिक आकाओं से हाथ मिला लिया ताकि वे अपनी पसंद के धार्मिक राज्य ‘हिंदुस्थान’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ और पाकिस्तान या इस्लामी राष्ट्र हासिल कर सकें।
भारत को विभाजित करने में मुस्लिम लीग की भूमिका और इसकी राजनीति के विषय में लोग अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने कैसी घटिया और कुटिल भूमिका अदा की, इसके विषय में आपकी याददाश्त को ताजा करना जरूरी है।
नरेंद्र जी! ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मुस्लिम लीग की तरह ही द्विराष्ट्र सिद्धांत में यकीन रखते हैं। मैं आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि हिंदुत्व के जन्मदाता, वीडी सावरकर और आरएसएस दोनों की द्विराष्ट्र सिद्धांत में साफ-साफ समझ में आने वाली आस्था रही है कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। मुहम्मद अली जिन्नाह के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वे अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कर रहे थे, तभी उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं।
“फि़लहाल भारत में दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र अगल बगल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जि़म्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें इन अप्रिय तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।” [2]
श्रीमान!, आरएसएस ने हमेशा ‘वीर’ सावरकर के पद चिन्हों पर चलते हुए इस विचार को खारिज किया कि हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाइयों ने मिलकर एक साथ एक राष्ट्र का गठन किया है। आजादी की पूर्व संध्या (14 अगस्त 1947) पर प्रकाशित आरएसएस के अंग्रेजी के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में ‘किधर’ (‘Whither’) शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में एक बार पुनः द्विराष्ट्र सिद्धांत में इन शब्दों में विश्वास व्यक्त किया है।
“राष्ट्रत्व की छद्म धारणाओं से गुमराह होने से हमें बचना चाहिए। बहुत सारे दिमागी विभ्रम और वर्तमान एवं भविष्य की परेशानियों को दूर किया जा सकता है, अगर हम इस आसान तथ्य को स्वीकारें कि हिंदुस्थान में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्र का ढांचा उसी सुरक्षित और उपयुक्त बुनियाद पर खड़ा किया जाना चाहिए।… स्वयं राष्ट्र को हिंदुओं द्वारा हिंदू परम्पराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही गठित किया जाना चाहिए।”‘मेरा सेक्युलरिज्म, इंडिया फर्स्ट’ वाला आपका दावा भी समस्यामूलक है। आप स्वयं को ‘भारतीय राष्ट्रवादी’ नहीं बल्कि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मानते हैं। यदि आप ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ हैं, तो निश्चित रूप से फिर तो देश में ‘मुस्लिम राष्ट्रवादी’, ‘सिख राष्ट्रवादी’, ‘ईसाई राष्ट्रवादी’ एवं अन्य ‘राष्ट्रवादी’ भी होंगे। इस प्रकार आप भारत विभाजन के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह आपके संगठन की द्विराष्ट्र सिद्धांत में अखंड विश्वास के कारण है।
‘हिंदू राष्ट्रवादी’ राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की निंदा व अपमान करते हैंश्रीमान मोदी जी! आरएसएस के एक वरिष्ठ और पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने के नाते आप अच्छी तरह जानते होंगे कि आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने स्वतंत्रता प्राप्ति की पूर्व संध्या पर राष्ट्रीय ध्वज के लिए इस भाषा का प्रयोग किया था –
‘वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा…’ [3]‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने 1942- 43 में मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें चलायीसन 1942 भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष है। अंग्रेजों के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी आह्वान “अंग्रेजों भारत छोड़ो” किया गया था। इसके प्रत्युत्तर में ब्रिटिश शासकों ने देश को नरक में बदल दिया था। ब्रिटिश सशस्त्र दस्तों ने पूरी तरह से कानून के शासन की अनदेखी करते हुए बड़े पैमाने पर आम भारतीयों को मार डाला। लाखों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया और हजारों को भयानक दमन व यातना का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश भारत के विभिन्न प्रांतों में शासन कर रही कांग्रेसी सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं। केवल हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ही ऐसे राजनैतिक संगठन थे, जिनको अपना कार्य जारी रखने की अनुमति दी गयी। इन दोनों संगठनों ने न केवल ब्रिटिश शासकों की सेवा की बल्कि मिलकर गठबंधन सरकारें भी चलायीं। आरएसएस के महाप्रभु ‘वीर’ सावरकर ने 1942 में कानपुर में हिंदू महासभा के 24वें महाधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में इसकी पुष्टि की कि…..
“व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि हमें तर्कसंगत समझौते करके आगे बढ़ना चाहिए। इस तथ्य पर ध्यान दीजिए कि हाल ही में सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिलीजुली सरकारें चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का मामला सर्वविदित है। उद्दंड लीगियों (मुस्लिम लीग के सदस्य) को कांग्रेस भी अपने दब्बूपन के बावजूद खु़श नहीं रख सकी, लेकिन जब वे हिंदू महासभा के संपर्क में आये तो काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये और श्री फजलुल हक के प्रधानमंत्रित्व (उन दिनों मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) और हिंदू महासभा के काबिल व सम्मान्य नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के काबिल नेतृत्व में ये सरकार दोनों संप्रदायों के फायदे के लिए एक साल से भी ज्यादा चली। और हमारे सम्मानित महासभा नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और यह सरकार करीब एक साल तक दोनों समुदायों के हित में सफलतापूर्वक चली।” [4]जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश को आजाद कराने के लिए लड़ रहे थे, तब ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ ब्रिटिश हुकूमत और ब्रिटिश सेना को ताकतवर बनाने में मदद कर रहे थे।श्रीमान! मैं समझता हूं कि आप नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जरूर परिचित होंगे जिन्होंने जर्मनी और जापान के सैन्य सहयोग से भारत को मुक्त कराने का प्रयास किया था। लेकिन, इस अवधि के दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने बजाय नेताजी को मदद करने के, नेताजी के मुक्ति संघर्ष को हराने में ब्रिटिश शासकों के हाथ मजबूत किये। हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाये। हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है –
“जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए, जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए… गौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गये हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके़ से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।” [5]आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं में कैसी भावना भरता है?श्रीमान! आपने अपने साक्षात्कार में दावा किया कि आरएसएस अपने कार्यकर्ताओं के मन में देशभक्ति की भावना, राष्ट्र की भलाई के लिए काम करना और अनुशासन की भावना भरता है। जब से आरएसएस ‘हिंदू राष्ट्र’ के लिए खड़ा हुआ है, कोई साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि आरएसएस के हाथों लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का क्या भविष्य हो सकता है। आपको संघ के प्रमुख विचारक गोलवरकर के उस वक्तव्य को भी साझा करना चाहिए कि आरएसएस एक स्वयंसेवक से क्या अपेक्षाएं करता है। 16 मार्च 1954 को सिंदी (वर्धा) में संघ के शीर्ष नेतृत्व को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था,
“यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर ‘सिलेक्टीवनेस’ (पसंद) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी, बैठक कहा तो बैठक … जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनीतिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई जरूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं।” [6]गुरु गोलकरकर का दूसरा वक्तव्य भी इस बारे में महत्वपूर्ण है“हमें यह भी मालूम है कि अपने कुछ स्वयंसेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलूस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परंतु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली, उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है। यहां तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अतः हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल-कूद कर सकते हैं, परंतु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।” [7]श्रीमान मोदी! यहां हम देखते हैं कि गोलवरकर संघ के राजनैतिक जेबी संगठनों को उधार दिये गये स्वयंसेवकों को एक ‘नट’ या अभिनेता की संज्ञा देते हैं, जो आरएसएस की थाप पर नृत्य करे। यहां यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि गोलवरकर ने अपने राजनीतिक संगठन को नियंत्रित करने का उपरोक्त डिजाइन मार्च 1960 में भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) के गठन के लगभग नौ साल बाद व्यक्त किया था। मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप भारत की लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति कर रहे हैं या आप एक “नट” मात्र हैं जो भारत को एक धार्मिक राज्य में बदलने का संघ का एक हथियार मात्र है। सत्यता यह है कि संघ अपने स्वयंसेवकों को रीढ़विहीन बनाता है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम से आरएसएस की गद्दारीश्रीमान! दस्तावेजों में दर्ज आरएसएस के इतिहास को देखते हुए आपका यह दावा संदेहास्पद है कि आरएसएस ने आपको देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। मैं आपके ध्यानार्थ कुछ तथ्य रखना चाहूंगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘असहयोग आंदोलन’ एवं ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ मील के दो पत्थर हैं। और यहां इन दो महत्वपूर्ण घटनाओं पर महान गोलवलकर की महान थीसिस है –
“संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़कों ने उद्दंड होना प्रारंभ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परंतु संघर्ष के उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि इन परिणामों को काबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाये। सन 1942 के बाद तो कानून का विचार करने की ही आवश्यकता नहीं, ऐसा प्रायः लोग सोचने लगे।” [8]इस तरह गुरु गोलवरकर यह चाहते थे कि हिंदुस्तानी अंग्रेज शासकों द्वारा थोपे गये दमनकारी और तानाशाही कानूनों का सम्मान करें! सन 1942 के आंदोलन के आंदोलन के बाद उन्होंने फिर स्वीकारा…
“सन 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।” [9]श्रीमान! हमें बताया गया है कि संघ ने सीधे कुछ नहीं किया। हालांकि, एक भी प्रकाशन या दस्तावेज ऐसा उपलब्ध नहीं है जो यह प्रकाश डाल सके कि आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन के लिए परोक्ष रूप से क्या काम किया। वस्तुतः संघ के प्रश्रयदाता “वीर” सावरकर ने इस दौरान मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन सरकारें चलायीं। दरअसल आरएसएस ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में कुछ भी नहीं किया बल्कि वास्तव में, उसने इस आंदोलन जो एक महान आंदोलन था, के खिलाफ ही काम किया जो आपके और आपके शुभचिंतकों के लिए देशभक्ति के विपरीत था।
आरएसएस स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का अपमान करता हैश्रीमान! मोदी जी, मैं गुरुजी के उस वक्तव्य पर आपकी राय जानना चाहूंगा जो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाकउल्लाह खां के बलिदान का अपमान करता है। यहां संघ कार्यकर्ताओं और आपके लिए गीता के समान सत्य
“बंच ऑफ थॉट्स” से
“बलिदान महान लेकिन आदर्श नहीं” (‘Martyr, Great But Not Ideal’) का एक अंश पेश है…
“निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।” [10]श्रीमान! क्या इससे अधिक शहीदों के अपमान का कोई बयान हो सकता है? जबकि आरएसएस के संस्थापक डॉ हेडगेवार तो और एक कदम आगे चले गये।
‘‘कारागार में जाना ही कोई देशभक्ति नहीं है। ऐसी छिछोरी देशभक्ति में बहना उचित नहीं है।” [11]श्रीमान! क्या आपको नहीं लगता कि अगर शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक उल्लाह खां, चंद्रशेखर आजाद तत्कालीन संघ नेतृत्व के संपर्क में आ गये होते तो उन्हें ‘छिछोरी देशभक्ति’ के लिए जान देने से बचाया जा सकता था? यकीनन, यही कारण था कि ब्रिटिश शासन के दौरान आरएसएस के नेताओं व कार्यकर्ताओं को किसी भी सरकारी दमन का सामना नहीं करना पड़ा। और संघ ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कोई शहीद पैदा नहीं किया। श्रीमान!
क्या हम ‘वीर’ सावरकर द्वारा अंग्रेज सरकार को लिखे गये चापलूसी भरे माफीनामों को सच्ची देशभक्ति मानें?आरएसएस लोकतंत्र से घृणा करता हैमोदी जी! गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रमुख नेता के रूप में आपसे आशा की जाती है कि आप भारत की लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष नीति के अंतर्गत काम करें। लेकिन गुरु गोलवककर के उस आदेश पर आपका क्या रुख है, जो उन्होंने 1940 में संघ के 1350 प्रमुख स्वयंसेवकों के समूह को संबोधित करते हुए दिया था। उनके अनुसार
“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से अनुप्राणित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।” [12]
मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, ‘एक झंडा, एक नेता, एक विचारधारा’ यूरोप की फासिस्ट और नाजी पार्टियों का नारा था। सारा विश्व जानता है कि उन्होंने प्रजातंत्र के साथ क्या किया।आरएसएस संघीय व्यवस्था के विरुद्धआरएसएस संविधान में दिये गये संघीय व्यवस्था, जो भारतीय संवैधानिक ढांचे का एक मूल सिद्धांत है, के एकदम खिलाफ है। यह 1961 में गुरु गोलवरकर द्वारा राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम सम्मेलन को भेजे गये पत्र से स्पष्ट है। इसमें साफ लिखा था,
“आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।” [13]‘हिंदू राष्ट्रवादी’, जातिवाद और स्त्री विरोधी नीतियों के हामी हैंयदि आप आरएसएस और इसके बगलबच्चा संगठन, जो भारत में हिंदुत्व का शासन चाहते हैं, के अभिलेखों में झांककर देखें तो तत्काल स्पष्ट हो जाएगा कि वे सब के सब डॉ अंबेडकर के नेतृत्व में प्रारूपित संविधान से घृणा करते हैं। जब भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया तो आरएसएस खुश नहीं था।
30 नवंबर 1949 के संपादकीय में इसका मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ शिकायत करता है कि “हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम-पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।”वास्तव में आरएसएस ‘वीर’ सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा का पालन करता है। श्रीमान! आपके लिए यह कोई राज नहीं है कि
‘वीर’ सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे। ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इस प्रेरणा के अनुसार “मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू विधि है।” [14]हिंदुत्व के एक महान ध्वजवाहक के रूप में आपको पता ही होगा ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ किस प्रकार का समाज बनाना चाहता है। चूंकि आप बहुत व्यस्त हैं इसलिए
मैं दलितों, अछूतों एवं स्त्रियों के लिए मनुस्मृति से उनके निर्देश उद्दृत कर दे रहा हूं। इसमें निर्देशित अमानवीय और पतित नियम स्वतः स्पष्ट हैं।दलितों एवं अछूतों के लिए मनु के सिद्धांत(1) अनादि ब्रह्म ने लोक कल्याण एवं समृद्धि के लिए अपने मुख, बांह, जांघ तथा चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को उत्पन्न किया।
(2) भगवान ने शूद्र वर्ण के लोगों के लिए एक ही कर्तव्य-कर्म निर्धारित किया है – तीनों अन्य वर्णों की निर्विकार भाव से सेवा करना।
(3) शूद्र यदि द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को गाली देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिए क्योंकि नीच जाति का होने से वह इसी सजा का अधिकारी है।
(4) शूद्र द्वारा अहंकारवश उपेक्षा से द्विजातियों के नाम एवं जाति उच्चारण करने पर उसके मुंह में दस उंगली लोहे की जलती कील ठोंक देनी चाहिए।
(5) शूद्र द्वारा अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश देने का दुस्साहस करने पर राजा को उसके मुंह एवं कान में गरम तेल डाल देना चाहिए।
(6) यदि वह द्विजाति के किसी व्यक्ति पर जिस अंग से प्रहार करता है, उसका वह अंग काट डाला जाना चाहिए, यही मनु की शिक्षा है।
(7) यदि लाठी उठाकर आक्रमण करता है तो उसका हाथ काट डालना चाहिए और यदि वह क्रुद्ध होकर पैर से प्रहार करता है तो उसका पैर काट डालना चाहिए।
(8) उच्च वर्ग के लोगों के साथ बैठने की इच्छा रखने वाले शूद्र की कमर को दाग करके उसे वहां से निकाल भगाना चाहिए अथवा उसके नितंब को इस तरह से कटवा देना चाहिए जिससे वह न मरे और न जिये।
(9) एक ब्राह्मण का वध अथवा पिटाई नहीं करना चाहिए, भले ही उसने सभी संभव अपराध किये हों। अधिक से अधिक उसे अपने राज्य से निकाल देना चाहिए। ऐसा करते हुए सारा धन सौंप देना चाहिए तथा चोट नहीं पहुंचानी चाहिए। (राजा को आदेश)
स्त्रियों से संबंधित मनु के नियम(1) पुरुषों को अपनी स्त्रियों को सदैव रात-दिन अपने वश में रखना चाहिए।
(2) स्त्री की बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं, अर्थात वह उनके अधीन रहती है और उसे अधीन ही बने रहना चाहिए; एक स्त्री कभी भी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है।
(3) बिगड़ने के छोटे से अवसर से भी स्त्रियों को प्रयत्नपूर्वक और कठोरता से बचाना चाहिए, क्योंकि न बचाने से बिगड़ी स्त्रियां दोनों (पिता और पति के) कुलों को कलंकित करती हैं। (9/5)
(4) सभी जातियों के लोगों के लिए स्त्री पर नियंत्रण रखना उत्तम धर्म के रूप में जरूरी है। यह देखकर दुर्बल पतियों को भी अपनी स्त्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
(5) कोई भी आदमी पूरी तरह से महिलाओं की रक्षा नहीं कर सकता है, लेकिन वे निम्न उपायों से ऐसा कर सकते हैं।
(6) पति को अपनी पत्नी को अपनी संपत्ति के संवर्द्धन व संचयन, साफ सफाई, धार्मिक कर्तव्यों, खाना पकाने व घर के बरतनों की साफ सफाई में लगाना होगा।
(7) विश्वस्त और आज्ञाकारी नौकरों के भरोसे स्त्रियों की सही सुरक्षा नहीं हो सकती लेकिन जो अपनी सुरक्षा स्वयं करती हैं वे ज्यादा सुरक्षित हैं।
(8) ये स्त्रियां न तो पुरुष के रूप का और न ही उसकी आयु का विचार करती हैं। इन्हें तो केवल पुरुष के पुरुष होने से प्रयोजन है। … चाहे वो कुरूप हो सुंदर। यही कारण है कि पुरुष को पाते ही ये उससे भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं चाहे वे कुरूप हों या सुंदर।
(9) पुरुषों के प्रति अपनी चाह, परिवर्तनशील व्यवहार एवं अपनी स्वाभाविक हृदयहीनता के चलते स्त्रियां अपने पतियों के प्रति बेवफा हो जाती हैं चाहे उनकी कितनी भी सावधानीपूर्वक देखभाल की जाए।
(10) मनु के अनुसार ब्रह्माजी ने निम्नलिखित प्रवृत्तियां सहज स्वभाव के रूप में स्त्रियों को दी हैं – उत्तम शैय्या और अलंकारों के उपभोग का मोह, काम-क्रोध, टेढ़ापन, ईर्ष्या द्रोह और घूमना-फिरना तथा सज-धजकर दूसरों को दिखाना।
(11) स्त्रियों के जातकर्म एवं नामकर्म आदि संस्कारों में वेद मंत्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए। यही शास्त्र की मर्यादा है, क्योंकि स्त्रियों में ज्ञानेंद्रियों के प्रयोग की क्षमता का अभाव (अर्थात सही न देखने, सुनने, बोलने वाली) है।
मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि दिसंबर 1927 में डॉ बीआर अंबेडकर की उपस्थिति में ऐतिहासिक महाड़ आंदोलन के दौरान मनुस्मृति की प्रति विरोधस्वरूप जलायी गयी थी।
आरएसएस के लिए जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का समानार्थी हैश्रीमान! आरएसएस के एक अनुशासित और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता के नाते आप इस तथ्य से परिचित होंगे कि जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का सार है। गुरु गोलवरकर ने तो यहां तक घोषणा की कि
जातिवाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का समानार्थी है। उनके अनुसार हिंदू और कोई नहीं बल्कि विराट पुरुष हैं…“विराट पुरुष, खुद प्रगट होने वाला परमेश्वर… (‘पुरुष सूक्त’ के मुताबिक) सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें हैं, तारे और आकाश उसकी नाभि से निर्मित होते हैं और ब्राह्मण उसका सर है, राजा हाथ है, वैश्य जांघ है और शूद्र पैर है। इसका अर्थ यही है कि वे लोग जिनके यहां इस किस्म की चार परत वाली व्यवस्था होती है अर्थात हिंदू लोग, वही हमारे भगवान हैं। ईश्वर के बारे में ऐसी सर्वोच्च धारणा ही ‘राष्ट्र’ की हमारी अवधारणा की अंतर्वस्तु है और वह हमारे चिंतन में छा गयी है और उसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विभिन्न अनोखी अवधारणाओं को जन्म दिया है।” [15]श्रीमान! कृपया मुझे बताने का कष्ट करें कि आप गुरुजी के साथ हैं या उस लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राज्यव्यवस्था के साथ हैं, जिसने आपको सत्तासीन किया है। यह बहुत गंभीर मसला है, क्योंकि इसका संबंध दलितों और स्त्रियों के अधिकारों से है।
मुझे अफसोस है कि मेरा पत्र लंबा होता जा रहा है। मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे, क्योंकि आपके रायटर्स को दिये गये साक्षात्कार एवं अन्य कथनों एवं गतिविधियों के एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है। आप मेरी इस बात की प्रशंसा करेंगे कि मैं अन्य व्यक्तियों और संगठनों की तरह 2002 गुजरात जनसंहार का मुद्दा नहीं उठा रहा हूं। मैं दृढ़तापूर्वक महसूस करता हूं कि मुझे केवल वे मामले उठाने चाहिए, जो सामान्यतः छोड़ दिये जाते हैं। आपका इस देश के हिंदुओं और वर्तमान लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष राजव्यवस्था के लिए क्या एजेंडा है, इस पर प्रकाश डालें?
श्रीमान, मैं दो और मुद्दे उठाकर इसे समाप्त करुंगा।
‘हिंदू राष्ट्रवादी’ गांधी हत्या का जश्न मनाते हैंनाथूराम गोडसे और उनके सहयोगी जिन्होंने गांधी जी की हत्या करने का षड्यंत्र रचा और उसे कार्यान्वित किया, वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ होने का दावा करते थे। उन्होंने गांधी हत्या को प्रभु के आदेशपालन के रूप में बयान किया।
आरएसएस ने मिठाई बांटकर गांधी जी की हत्या का जश्न मनाया। क्या उनका हिंदुत्ववादियों द्वारा सम्मान नहीं किया जाता? क्या आप उनमें से एक नहीं हैं? जून 2013 में भाजपा की कार्यकारिणी समिति के लिए जब आप गोवा मे थे, तब आपने हिंदू जनजागरण समिति द्वारा आयोजित हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए अखिल भारतीय हिंदू सम्मेलन के लिए एक संदेश भेजा। जिसमें कह गया, “यद्यपि प्रत्येक हिंदू ईश्वर के साथ प्रेम, दया, अंतरंगतापूर्वक व्यवहार करता है, अहिंसा सत्य और सात्विकता को महत्व देते हुए राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर करना हर हिंदू के भाग्य में है। उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाना और उसके प्रति सतर्क रहना हमारी परंपरा है। हमारी संस्कृति की रक्षा करते हुए ही धर्मध्वजा व एकता को अखंड रखा जा सकता है। राष्ट्रीयता, देशभक्ति एवं राष्ट्र के प्रति समर्पण से प्रेरित संगठन लोकशक्ति की सच्ची अभिव्यक्ति हैं।”
आपने हिंदू जनजागरण समिति को अच्छी तरह जानते हुए यह भ्रातृ संदेश भेजा होगा। जिस मंच से आपका बधाई संदेश पढ़ा गया, उसी मंच से एक प्रमुख वक्ता,
केवी सीतारमैया ने घोषणा की कि “गांधी भयानक दुष्कर्मी और सर्वाधिक पापी था।”महात्मा गांधी की हत्या पर खुशी मनाते हुए उन्होंने यह तक कह डाला कि –
“जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है – परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे (दुष्टों के विनाश के लिए, अच्छों की रक्षा के लिए और धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में पैदा हुआ हूं)… 30 जनवरी 1948 की शाम, श्रीराम नाथूराम गोडसे के रूप में आये और गांधी का जीवन समाप्त कर दिया।” [17]यहां यह बताना भी उचित रहेगा कि केवी सीतारमैया ने ‘गांधी धर्मद्रोही एवं देशद्रोही’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है, जिसमें पिछले कवर पृष्ठ पर महाकाव्य महाभारत को उद्धृत करते हुए मांग की गयी है कि-
“धर्मद्रोही की हत्या की जानी चाहिए। हत्या के अधिकारी को नहीं मारना, मारने से बड़ा पाप है। और जहां संसद सदस्य स्पष्ट रूप से सत्य व धर्म की हत्या की अनुमति देते हैं, उन्हें मरा हुआ होना चाहिए।“श्रीमान! कृपया बताएं कि क्या यह उन संसद सदस्यों को खत्म करने का खुला आह्वान नहीं है जो लेखक की धर्म की परिभाषा से सहमत नहीं हैं।
नॉर्वे के नव नाजीवादी सामूहिक हत्यारे ब्रेविक ने ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ का महिमामंडन किया
अंत में आप मुझे बताने का कष्ट करें कि आप किस प्रकार यूरोपीय देश नॉर्वे के नवनाजीवादी सामूहिक हत्यारे एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक का बयान जिसने भारत के ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ आंदोलन को विश्व भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था को कुचलने के अभियान में प्रमुख सहयोगी करार दिया है, पर प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। नॉर्वे में भयंकर जनसंहार करने से पहले उसने 1518 पृष्ठ का एक मेनीफेस्टो (घोषणापत्र) जारी किया, जिसमें 102 पृष्ठों में भारत के हिंदुत्ववादी आंदोलन की चर्चा और प्रशंसा की गयी है। उसने सनातन धर्म आंदोलन एवं ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ का समर्थन किया है। यह मेनीफेस्टो यूरोप के नवनाजीवादियों और भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों के बीच एक रणनीतिक सहयोग की रूपरेखा बताता है। यह मेनीफेस्टो कहता है कि यूरोप के नवनाजीवादियों और भारत के हिंदूराष्ट्रवादियों को
“एक दूसरे से सीखना एवं जितना मुमकिन सहयोग करना चाहिए” क्योंकि “दोनों के लक्ष्य कम या ज्यादा एक समान हैं।” इस मेनीफेस्टो में प्रमुख रूप से हिंदुत्ववादी संगठनों आरएसएस, भाजपा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद का उल्लेख किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मेनीफेस्टो, मुसलमानों को देश से बाहर निकाल फेंकने के लिए गृह-युद्ध में और पश्चिम की समस्त बहुसांस्कृतिक सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए हिंदू राष्ट्रवादियों को, सैन्य सहायता का आश्वासन देता है। दरअसल वास्तव में मैं उन मुद्दों पर आपकी प्रतिक्रिया चाहता हूं, जो रायटर्स के पत्रकारों द्वारा उठाये जाने चाहिए थे।मैं बहुत उत्सुकता के साथ आपके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध विशाल संसाधनों के मद्देनजर आपको उत्तर देने में कोई कष्ट नहीं होगा।
साभार
आपका
शम्सुल इस्लाम
notoinjustice@gmail.comhttp://ppnewschannel.blogspot.com/
संदर्भ:
[1] http://www.ndtv.com/
[2] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 296.
[3] Organizer, August 14, 1947.
[4] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 479-80
[5] VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 460. VD Savarkar cited in VD Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 479-80.
[6] SGSD, vol. iii, p. 32.
[7] SGSD, vol. iv, pp. 4-5.
[8] SGSD, volume IV, p. 41.
[9] SGSD, Volume IV, p. 40.
[10] MS Golwalkar, Bunch of Thoughts, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996, p. 283.
[11] CP Bhishikar, Sanghavariksh Ke Beej: Dr. Keshavrao Hedgewar, Suruchi, 1994, p. 21.
[12] Golwalkar, M. S., Shri guruji Samagar Darshan (Collected works of Golwalkar in Hindi), Vol. I (Nagpur: Bhartiya Vichar Sadhna, nd), p. 11.
[13] MS Golwalkar, Shri Guruji Samagar Darshan (collected works of Golwalkar in Hindi), Bhartiya Vichar Sadhna, Nagpur, nd., Volume iii, p. 128. Hereafter referred as SGSD.
[14] Savarkar, VD, ‘Women in Manusmriti’ in Savarkar Samagar, Vol. 4 [Collection of Savarkar’s Writings in Hindi] (New Delhi: Prabhat), 416.
[15] Golwalkar, M. S., We or Our Nationhood Defined, (Nagpur: Bharat Publications, 1939), p.36.
[16] http://search.yahoo.com/
[17] http://www.hindujagruti.org/
[18] http://www.thehindu.com/ & http://ibnlive.in.com/