Sunday, January 26, 2014

गणतंत्र दिवस यानी भारत का घोषित राष्ट्रीय पर्व



26 जनवरी आ गई है। गणतंत्र दिवस यानी भारत का घोषित राष्ट्रीय पर्व। बड़े धूम-धाम से राजपथ पर झांकियां निकलेंगी। राज्य और मंत्रालय अपनी-अपनी झांकियां पेश करेंगे। भारत की उपलब्धियां, ताकत और सौंदर्य एक साथ दिखेगा। पूरा दिन टीवी चैनल पर यह सब दिखेगा और अगले दिन अखबार भी इन्हीं की फोटो से भरे रहेंगे।

दो दिन पहले इंडिया गेट के पास से गुजरा तो गणतंत्र दिवस के समारोह के टिकट का रेट लगा देखा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक उत्सव के टिकट कई रेट में बिक रहे हैं। यह टिकट किसके लिए बिक रहे हैं? नेताओं और बड़े अफसरों को इस समारोह का निमंत्रण मिला होगा। बड़ी संख्या में वीआईपी पास और सामान्य पास जारी हुए होंगे, जिन्हें लोग अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक जुगाड़ लगा कर पा सकते हैं।
तो बचे वे लोग जो न नेता हैं, न बड़े अफसर हैं और न ही पास का जुगाड़ कर सकते हैं, जो इस देश के सही मायनों में आम नागरिक हैं। देश के इन आम नागरिकों को अगर अपने देश के गणतंत्र का उत्सव देखना हो तो उन्हें सैकड़ों रुपए के टिकट खरीद कर जाना होगा। मैं कतई नहीं समझ पा रहा हूं कि गणतंत्र उत्सव के टिकट बेचने का क्या उद्देश्य है? क्या यह कोई कमर्शियल शो है? या  सरकार इन टिकटों को बेचकर गणतंत्र उत्सव पर हुए खर्च की भरपाई करना चाहती है? कुछ भी हो लेकिन एक बात साफ है कि सरकार की मंशा में यही है कि इस उत्सव को देखने वही लोग आएं जो या तो वीआईपी हैं या पास का जुगाड़ कर सकते हैं या फिर जो पैसे खर्च करके टिकट खरीदने की कूवत रखते हैं।

टिकट के रेट भी अलग-अलग हैं। परेड के टिकट 300, 150, 50 और 10 रुपए में मिल रहे हैं। इसमें से 300 रुपए का टिकट लेकर आप सलामी मंच के करीब बैठ सकते हैं। 150 का लेंगे तो थोड़ा पीछे जगह मिलेगी। 50 रुपए का टिकट लिए तो उसके पीछे और 10 का ही ले पाए तो सबसे पीछे। पता नहीं वहां से कुछ दिखेगा भी या नहीं। यानी जो ज्यादा पैसे खर्च कर सकें, उन्हें गणतंत्र का तमाशा नजदीक से देखने का मौका मिलेगा। और जो कम पैसे खर्च कर सकें, उन्हें दूर से ही झलक देखने को मिलेगी। पता नहीं उन्हें बैठने के लिए भी कुछ मिलेगा या नहीं।

गणतंत्र दिवस के मायने, गांवों की तो छोड़ दीजिए, शहरों में भी बहुत से लोग आज भी नहीं समझते हैं। सिवाय इसके कि कामकाजी लोगों के लिए यह एक छुट्टी का दिन होता है, जिसे रविवार को नहीं पड़ना चाहिए। और बच्चों के लिए ऐसी छुट्टी जिसमें क्लास नहीं चलती हैं लेकिन स्कूल जाना पड़ता है और कुछ भाषणों के बाद मिठाई मिलती है। इस पर भी लोगों को इससे जोड़ने की सरकार की मामूली सी भी मंशा नहीं दिखती है। 26 जनवरी को लागू संविधान की उद्देशिका की शुरुआत ही हम, भारत के लोग...से होती है लेकिन इसमें से लोगगायब होता जा रहा है।

अतिथि देवो भव: वाले देश में गणतंत्र दिवस पर किसी अन्य देश के राष्ट्राध्यक्ष को बुलाने की पुरानी और बहुत अच्छी परंपरा रही है। किसी अन्य देश के राष्ट्राध्यक्ष को भारत के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में बुला कर हम अपने लोकतंत्र में सहभागिता को और बढ़ाते हैं। लेकिन यह ऐसी सहभागिता है जिसमें भारत के आम नागरिक के लिए ही कोई जगह नहीं है। ऐसे गणतंत्र दिवस पर अगर मुझे खुशी नहीं होती है तो क्या अचरज!
-अमित चौधरी 

Monday, January 13, 2014

बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिये भ्रष्टाचार के मुद्दे का इस्तेमाल


आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कॉरपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाकी कॉरपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि काँग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिये इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मज़दूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मज़दूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी और ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिये संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीज़ें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मज़दूरों के लिये कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मज़दूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात। केजरीवाल कहीं भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग पर हमला नहीं करते। उनके लिये पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग नहीं है; मेहनतकश जनता तो ख़ैर शासक वर्ग है ही नहीं! तो फिर शासक वर्ग है कौन? यह एक भ्रष्ट राजनीतिक व नौकरशाह वर्ग है जो किसी वर्ग की नुमाइन्दगी नहीं करता, बल्कि अपनी ही सेवा में संलग्न है! और पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग एक दूसरे के दुश्मन नहीं है, बल्कि वे दोनों ही पीड़ित वर्ग है; भ्रष्टाचारियों से पीड़ित! यहाँ भी आप देख सकते हैं कि असली सवाल को ढाँपने के लिये भ्रष्टाचार के जुमले का कैसे इस्तेमाल किया गया है। केजरीवाल के लिये इस पूरी व्यवस्था में कोई दिक्कत नहीं है! बस इसमें से भ्रष्टाचार के सफ़ाये की ज़रूरत है! अगर ग़रीबों को रोटी और रोज़गार नहीं मिलता तो यह पूँजीवादी व्यवस्था की समस्या नहीं है; पूँजीवादी व्यवस्था तो उन्हें रोटी और रोज़गार देती है, लेकिन वह भ्रष्टाचारियों के कारण उन तक पहुँच नहीं पाता! इसलिये समस्या आपूर्ति की है! केजरीवाल इस समस्या को कैसे दूर करेंगे? एक साक्षात्कार में वह कहते हैं कि पटेल जैसी राजनीति करके; शास्त्री जैसी राजनीति करके! नेहरू का नाम सोचे-समझे तौर पर इस सूची से ग़ायब है। समझने वाले समझ सकते हैं कि क्यों!

इस समूचे आदर्शवादी भ्रष्टाचार-विरोध का मिश्रण किया जाता है अन्धराष्ट्रवादी जुमलों के साथ। ‘आप’ का एक चुनाव उम्मीदवार एक सैनिक था, जो कि सीमा पर झड़प में विकलाँग हो गया था। उससे केजरीवाल ने कहा कि आप अब तक देश के बाहर के आतंकवादियों से लड़ रहे थे, अब आप ‘आप’ की ओर से चुनाव लड़कर देश के भीतर के आतंकवादियों के विरुद्ध लड़िये। यह पूरी जुमलेबाज़ी और भाषा एक दक्षिणपंथी अन्धराष्ट्रवाद की है। इसमें वास्तविक मुद्दों और सच्चाइयों को आदर्शवादी, अन्धराष्ट्रवादी और प्रतिक्रियावादी जुमलों के तहत छिपा दिया गया है।
आप’ तृणमूल और भागीदारीपूर्ण जनवाद की बात करती है। ‘आप’ का कहना है कि वह सत्ता में आयेगी तो स्थानीय विकास कार्यों आदि को लेकर मोहल्ला सभाओं को सारे अधिकार दे देगी। यह एक राजनीतिक जनवाद की बात है। लेकिन अगर मौजूदा सम्पत्ति सम्बन्धों, असमानतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों को और उत्पादन के साधन पर मालिकाने और नियन्त्रण तक पहुँच के सम्बन्धों को छेड़े बग़ैर मोहल्लों में सभाएँ बनाकर उन्हें नियन्त्रण सौंप भी दिया जाये, तो अन्ततः उसमें किन लोगों की चलेगी? ज़ाहिर सी बात है, मोहल्लों में रहने वाले ठेकेदारों, दल्लों, छुटभैया मालिकों, पैसे वालों, और अमीरों की ही चलेगी! आम ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय आबादी उनके पीछे-पीछे चलेगी। ऐसे में, यह राजनीतिक जनवाद का अधिकार भी अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता जब तक कि आर्थिक सम्बन्धों को भी आमूल-चूल रूप में न बदला जाये! लेकिन ‘आप’ तो इन सम्बन्धों को किसी भी तरह से बहस और चर्चा से दूर रखना चाहती है!

आप’ की पूरी राजनीति वास्तव में देश की आम मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी की समस्याओं के मूल कारणों को छिपाने और ढँकने का काम ज़्यादा करती है। इसके लिये जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है वह है भ्रष्टाचार-विरोध, देश-सेवा आदि के नाम पर की जाने वाली प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी राजनीति। ‘आप’ एक ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था की हिमायत करती है जिसमें कोई भ्रष्टाचार न हो, सभी नागरिक सम्भावित उद्यमी हों, मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा हो, उपयुक्ततम की उत्तरजीविता हो, और यह सारा क्रिया-व्यापार अपनी सैद्धान्तिक शुद्धता में चले! यह एजेण्डा आज के दौर में एक तकनोशाहाना कुशलता वाले उद्यमी पूँजीवाद का सपना दिखाता है जो कि उद्यमी बनने की आकाँक्षा रखने वाले टुटपुँजिया वर्गों को आकृष्ट करता है। ज़ाहिर है, यह एक शेखचिल्लीवादी सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इसी रूप में इस राजनीति का चल पाना बहुत मुश्किल है। इसके कारणों की चर्चा हम ‘आप’ के घोषणापत्र के मुद्दों के चरित्र और उसके सामाजिक आधार के चरित्र के द्वारा कर सकते हैं।

आप’ का क्या होगा, जनाबे-आली!

आप’ आज भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत है। लेकिन ‘आप’ का पूरा राजनीतिक घोषणापत्र, माँगपत्रक और यहाँ तक कि उसका सामाजिक आधार मूलतः योगात्मक (एग्रीगेटिव) है; यानी कि उनमें कोई जैविक एकता नहीं है। ‘आप’ ने उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावाद के वर्चस्व को निम्न मध्यवर्गीय आदर्शवाद पर स्थापित किया और एक ऐसा माँगपत्रक तैयार किया है जो कि प्रकृति से ही एक योगात्मक समुच्चय है और उसके पीछे कोई एक सुसंगत विचारधारात्मक दृष्टि नहीं है। अगर ‘आप’ पार्टी इनमें से कुछ मुद्दों और वायदों पर ही अमल शुरू करती है, तो एक ओर ‘आप’ पार्टी के भीतर ही टूट-फूट और बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी, वहीं उसके सामाजिक आधार में भी बिखराव शुरू हो जायेगा। मिसाल के तौर पर, ‘आप’ ने छोटे मालिकों और व्यापारियों को ‘सरकार द्वारा वसूली’ और भ्रष्टाचार से छूट दिलाने का वायदा किया है; यही कारण है कि छोटे मालिकों और व्यापारियों के वोट बड़े पैमाने पर ‘आप’ को मिले। लेकिन साथ ही, ‘आप’ ने ठेका प्रथा समाप्त करने और दिल्ली के साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करने का वायदा भी किया है। लेकिन इन साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों की मेहनत को ही लूटने का काम तो ये छोटे मालिक और ठेकेदार सबसे ज़्यादा करते हैं। ठेका प्रथा का अगर कोई सबसे बड़ा लाभप्राप्तकर्ता है, तो वह छोटा मालिक और ठेकेदार वर्ग है। स्पष्ट है कि ये दोनों वायदे अन्तर्विरोधी हैं और इन पर अमल के साथ ही छोटा मालिक वर्ग ‘आप’ का साथ छोड़कर निरंकुश तरीके से भूमण्डलीकरण, निजीकरण, ठेकाकरण की नीतियों को लागू करने वाली फासीवादी ताक़तों के पक्ष में जा खड़ा होगा।

उसी प्रकार ‘आप’ का यह वायदा कि वह बिजली के बिल आधे कर देगी एक ही सूरत में सम्भव है। वह यह है कि विद्युत वितरण का निजीकरण समाप्त किया जाय और उसके बाद भी सरकारी ख़ज़ाने से पर्याप्त सब्सिडी दी जाय। उसी प्रकार हर दिन हर नागरिक को 700 लीटर मुफ़्त पानी भी तभी दिया जा सकता है, जब सब्सिडी दी जाय। ऐसी सब्सिडी देने के लिये राजस्व सिर्फ़ भ्रष्टाचार ख़त्म करने से आ ही नहीं सकता है। यह केवल कर का बोझ दिल्ली के अमीरज़ादों पर डालकर ही सम्भव है, क्योंकि मेहनतकश आबादी पर प्रत्यक्ष करों का बोझ डाला ही नहीं जा सकता है और अप्रत्यक्ष कर पहले से ही काफ़ी ज़्यादा हैं। ऊपर से, ‘आप’ वैट को भी ख़त्म करने की बात कर रही है। अगर कराधान का बोझ दिल्ली के उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता है, तो वह भी जल्द ही ‘आप’ से छिटक जायेगा।

स्पष्ट है, अगर ‘आप’ अपने वायदों के 20 प्रतिशत पर भी अमल करती है, तो उसके संगठन और सामाजिक आधार का बिखराव शुरू हो जायेगा। ऐसे में, या तो ‘आप’ खुलकर पूँजीवादी व्यवस्था और खुली उदारवादी नीतियों के समर्थन में खड़ी होगी, जिस सूरत में वह अप्रासंगिक हो जायेगी क्योंकि यह काम करने वाली मुख्य धारा की पूँजीवादी पार्टियाँ पहले से मौजूद हैं; या फिर, उसका हश्र वही होगा जो जनता पार्टी का हुआ थाः वह खण्ड-खण्ड हो जायेगी और उसके ज़्यादातर धड़े अन्ततः मोदी के फासीवादी उभार के साथ जा खड़े होंगे। ‘आप’ का भविष्य फिलहाल इसी रूप में दिख रहा है, बशर्ते कि वह अपने मुख्य राजनीतिक मुद्दे भ्रष्टाचार को छोड़कर काँग्रेस, भाजपा जैसी ही एक चुनावी पार्टी न बन जाये। मौजूदा राजनीतिक माँगपत्रक और घोषणापत्र के साथ इसी रूप में यह पार्टी बनी नहीं रह सकती है क्योंकि उसका योगात्मक चरित्र इस बात ही इजाज़त ही नहीं देता है।

लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आज भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिये ‘आप’ की प्रासंगिकता नहीं है। वास्तव में, पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुज़र रही है और विश्वसनीयता का संकट जिस हद तक जा पहुँचा है, उसमें ‘आप’ की सख़्त ज़रूरत है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किये बग़ैर जनता के गुस्से को निकलने का एक सुरक्षित ‘आउटलेट’ देती है। इस रूप में ‘आप’ आज एक नये अर्थ और रूप में वही भूमिका निभा रही है जो एक दौर में जेपी आन्दोलन और फिर जनता पार्टी ने निभायी थी।

जैसा कि हम पहले इंगित कर आये हैं, ‘आप’ के उभार में योगेन्द्र यादव और आनन्द कुमार जैसे समाजवादी मदारी जो भूमिका निभा रहे हैं, वह वास्तव में वही भूमिका है, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था को संकट के दौर में बचाने के लिये सभी समाजवादी (हर ब्राण्ड के!), सुधारवादी और संशोधनवादी निभाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ‘आप’ जैसी किसी भी परिघटना की प्रासंगिकता उसी रूप में दीर्घकालिक नहीं हो सकती है। या तो वह अपना रूप बदलकर पारम्परिक चुनावी पूँजीवादी पार्टी बनकर किसी हद तक कायम रख सकती है, या फिर उसकी नियति में बिखराव होता है। ऐसे बिखराव के बाद कुल मिलाकर फायदा फासीवादी राजनीति को ही पहुँचता है। जैसा कि जनता पार्टी के बिखराव के बाद हुआ था। भारत में चुनावी राजनीति के दायरे में सही मायने में दक्षिणपंथी उभार के लिये तो जयप्रकाश नारायण और उसके लग्गू-भग्गुओं को ही दोषी ठहराया जाना चाहिए, जिसने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का भ्रामक नारा देकर जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को सुरक्षित चैनलों में दिशा-निर्देशित कर दिया और अन्ततः यह सबकुछ दक्षिणपंथी फासीवादी राजनीति के पक्ष में जा खड़ा हुआ।

इसलिये ‘आप’ की पूरी परिघटना में कुछ भी अनोखा और नया नहीं है। आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाज़िमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ़ न जा सके, इसके लिये पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है।

अब यह देखना काफ़ी मनोरंजक और दिलचस्प होगा कि यह पूरी प्रक्रिया कैसे घटित होगी।
(समाप्त)

अभिनव सिन्हा, लेखक “मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आव्हान पत्रिका के संपादक हैं।