मुझे भाजपा के नंदू श्री नरेंद्र भाई मोदी से कोई दुश्मनी नहीं है। कांग्रेस मेरे लिए कोई दूध की धुली हुई पार्टी नहीं है। न ही बसपा से मायावती जी मेरा भला चाहती। लालू के डुप्लीकेट अरविन्द केजरीवाल तो सबसे महान है। मुझे तो हमाम में सारे नंगे लगते हैं। जैसे चोर-चोर मौसेरे भाई। ये बातें मेंने इसलिए कही कि ये लेख और बयानों को पढ़ने वाले मेरे भाई-बंधू और माताएं-बहनें ये न समझे कि मैं किसी विशेष राजनितिक दल या किसी नेता का अंदरखाने प्रचार कर रहा हूँ। क्योंकि ऐसे आरोप मेरे ऊपर हमेशा लगते रहे हैं। लेकिन सारी पार्टियां और नेता ये बात जान लें कि हम जिसे भी समर्थन करेंगे तो सीना ठोंक कर करेंगे।
इन सभी बातों से दूर चलो अब मुद्दे पर आते हैं। मैंने क्यों कहा "नकली नमो चाय बनाम असली चाय वाला". भाइयों-बहनों ये जुमला भी एक जीता-जागता सच है। इस जुमले पर तो मैं गीत भी लिखने वाला हूँ। लेकिन राजनीति से ऊपर उठकर और अपनी अंधभक्ति से ऊपर उठकर देखोगे तो ही आपको "असली चाय वाला" दिखेगा और चाय पीने में मज़ा भी आएगा। फिर आप किसी को मुफ्त में चाय पिलाओगे तो भी मज़ा ही आएगा। भाइयों-बहनों आगे पढ़ने से पहले अपने खुराफाती दिमाग को मोदी साहब से और अन्य किसी नेता से दूर ले जाना। एक पल के लिए आप किसी के कार्यकर्ता नहीं बल्कि एक "मानव" बनकर सोचना। क्या सच है और क्या गलत?
हमारे भाजपा के "नंदू" श्री नरेंद्र भाई मोदी जी आजकल पुरे देश में चाय की "घुग्गी" लगाते हुए घूम रहे हैं। कहने को तो भाई साहब "रैली" करते हैं, लेकिन लगा रहे हैं "चाय की घुग्गी". अरे भई रेहडी लेकर गाँव-गाँव, गली-गली, शहर-शहर अगर चाय मुफ्त में पिलाते घूमते तो मैं समझता कि हाँ आपने चाय वालों का मान-सम्मान बढ़ाया है और महनत भी चौखी की है। पर क्या करें ये कहते हुए मुझे अतयंत दुःख हो रहा है कि "चाय मुफ्त में वो भी रेहड़ी लेकर अगर मोदी जी गाँव-गाँव, गली-गली, शहर-शहर घुमते तो कुड़ते-पजामे पर सलवटें नहीं पड़ जाती, इतना ही नहीं सर्दी के मौसम में पसीना सर से निकल कर निचे दरारों तक पहुँच जाता" उसे कहते हम कि भाई मोदी साहब तो महान हैं। लेकिन अब कैसे महान कहें मोदी साहब को। यहाँ तो गिरी हुई घटिया राजनीति हो रही है। चाय वालों का सरेआम मज़ाक बनाया जा रहा है और चाय वाले बंधू है कि कुछ बोल नहीं सकते। क्या मोदी जी ने गुजरात में किसी चाय वाले की गरीबी दूर करके उसे दूकान में बैठाया है? खामखां बेमतलब स्वार्थी रूप में चाय वालों का इस्तेमाल ही कर रहे नरेंद्र मोदी जी। अरे कोई तो बताये भाई क्या आज तक किसी चाय वाले का मोदी साहब ने कोई भला किया है? ये जो छुटभैये नेता मोदी की नमो चाय मुफ्त में बांटते घूम रहे, क्या वो सारी जिंदगी ऐसे मुफ्त चाय पिलाते रहेंगे? नहीं न। मोदी चुनाव हारे या चुनाव जीते, इससे भाई कोई मतलब नहीं है। सवाल तो ये है कि क्या मोदी जी और मोदी जी वाले छुटभैये चुनाव के बाद ऐसे मुफ्त चाय पिलायेंगे? हारने के बाद भी और जीतने के बाद भी। गुड़गांव में तो छुटभैये नेताओं ने तो "चाय पर चर्चा" कर डाली. कोई पूछे इन स्वार्थी भाजपाई घोड़ों से कि क्या ऐसे "चाय पर चर्चा" होती है भला? बेवकूफ बनाने का धंधा खोलकर बैठ गए हैं। बड़े-बड़े होटलों में और चौपालों पर चाय पर चर्चा करते नहीं थक रहे। किस बिरादरी की और किस गरीब के उद्धार की चर्चा कर रहे हो भाई? मोदी जी को कैसे लाल-किले तक पहुँचाया जाये। इसी का तो ठेका ले रखा है तुमने। इसी ठेके के आधार पर मुफ्त चाय की चुस्की लगाते हो और फ़ालतू की "चर्चा" करते हो। देश की मुंह फाड़े पड़ी समस्याओं के बारे में चर्चा की है कभी? क्या कभी किसी चाय वाले को गले से लगाया है आपने? चाय वाले से मुख्यमंत्री बने श्री मोदी जी ने क्या कभी चाय वालों की व्यथा सुनी? क्या कभी अपनी ही बिरादरी के चाय वालों से अपने फूटे मुह से बात की मोदी जी ने? नहीं न। तो क्यों फिर खामखां का ढोल पीटते घूम रहे हो? नमो चाय... नमो चाय...
सच तो ये है कि मोदी साहब और उनके गुर्गे छुटभैये नेताओं ने चाय वालों का तो रोज़गार भी छीन लिया है। बुरा मानो या भला, आपको अपने आप पता चल जायेगा। अपने भाई सतपाल तंवर को आगे-आगे पढ़ते जाओ...
मैं आपको एक दिन की घटना बताता हूँ। हुआ यूँ कि मैं रोड पर से गुजर रहा था। मुझे एक चाय वाला दिखा। कुछ अटपटा सा था। क्योंकि वहाँ मोदी साहेब के बैनर लगे हुए थे। उन बैनर पर गुड़गांव के एक छुटभैये नेता का फोटो भी लगा था। वो छुटभैया नेता गुड़गांव जिले की एक विधानसभा से भाजपा की टिकट मांगता है। मुझे थोडा ओर अच्छा लगा, मैंने ड्राईवर को बोलकर गाडी रुकवाई और ड्राईवर के साथ-साथ सभी साथियों को भी कह दिया कि आराम से पेड़ के निचे गाडी खड़ी कर आराम फरमाओ। मैं 10 मिनट में आता हूँ। बस फिर क्या था दोस्तों, मैं पहुँच गया उसी चाय वाले भैया के पास। पहले तो गरमागरम चाय का आर्डर दिया और फिर इत्मीनान से बैठकर स्थिति को भांपने लगा। बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया और चाय वाले भैया से घुलने-मिलने की कोशिश की। इस दौरान भाई हम तो चाय वाले भैया से घुल-मिल गए। लेकिन चाय वाला भैया थोडा परेशान सा लगा। बस मैं एक ही झटके में मुद्दे की बात पर आ गया। पूछ ही डाला चाय वाले भैया से, " कि भैया ये तो बताओ कि ये मोदी जी के बैनर लगाने से क्या आपकी बिक्री ज्यादा होती है?" मेरा ये दनदनाता हुआ सवाल सुनकर चाय वाला भैया सकपका गया। मैं भी यार खुलकर बोल रहा था। क्योंकि उसका चाय का खोखा सूना पड़ा था। वहाँ पर परिंदा भी पर नहीं मार रहा था। मेरे इस सवाल पर वो चौंका ज़रूर लेकिन इस बीच बात थम गयी। क्योंकि मेरी चाय बन गयी थी। मैंने भी चुपचाप चाय का गिलास पकड़ा और एक चुस्की ली। गला खांस कर मैंने फिर वही सवाल दोहरा दिया। उस चाय वाले ने इधर-उधर की बातें करके बात घुमा दी। मैं भी भाई राजनीति के दांव-पेंच जानता हूँ। मैं कहाँ चुप रहने वाला था। आ गया चाय वाला भाई मेरी बातों में और कह दिया सारा राज़ उस छुटभैये नेता और मोदी का।
चाय वाला भैया बोला, "भाई साहब दिन में आराम से 500-1000 रूपये कमा लेता था लेकिन ये बैनर लगने के बाद 100 रुपए की बिक्री भी मुश्किल से होती है। इससे पहले मैं एक कम्पनी के बहार 12 साल खोखा लगाता था, इसके अलावा कम्पनी वाले भी एक दिन में 2200 रुपए तक की चाय मंगवा ही लेते थे, महीने की 10 तारीख तक उनका हिसाब हो जाता था। मेरा पूरा बचपन चाय बेचने में ही बीता है।" मैंने पूछा, "फिर वहाँ आप 12 साल से खोखा लगाते थे तो वहाँ से छोड़ कर यहाँ क्यूँ और कैसे आ गए?"
चाय वाले भैया ने बताया कि, "भाई साहब एक दिन कुछ लड़के आये और चाय पीकर गए. मैं 7 रुपए की एक चाय बेचता था। उन्होंने 7 रुपए के बदले 10 रुपए दिए। एक बार तो मैंने मना किया। लेकिन उन्होंने जबर्दस्ती मेरे हाथ में थमा दिए और कहा कि हम "फलां-फलां" नेता के आदमी हैं और मोदी जी के समर्थक हैं।"
मैंने भी गहरे रूप में ध्यानमग्न होकर पूछा कि, "भैया फिर क्या हुआ?" तो उस चाय वाले ने बताया कि, "भाई साहब ऐसे करके वो हर 2-4 दिन में चाय पीने के बहाने आने लगे और एक दिन कहा कि तुम हमारे साथ चलो वहाँ बिक्री भी ज्यादा होगी, किराया भी नहीं लेंगे, सेक्टर की मार्किट है, तुम्हारा खोखा खूब चलेगा और इस "फलां-फलां" नेता के पास लोग-बाग़ आते रहते हैं, सारी चाय तुमसे ही मंगवाया करेंगे।"
मुझे ओर भी बहुत कुछ जानने की इच्छा में समय का ही भान नहीं रहा। पीछे मुड़कर देखा तो मेरे साथी मेरे दैर होने की अवस्था में मेरे पीछे आकर खड़े हो गए थे। मैंने कहा, "मैं यहीं हूँ चिंता मत करो, आराम से बैठो।" उनके बताने पर मैंने अपना फोन देखा तो 8-10 मिस कॉल आयी हुई थी। साथी अपने फोन पर फोन कर रहे थे। जवाब नहीं मिलने पर ढूँढ़ते हुए चले आये। वैसे भी मोबाइल वाइब्रेशन पर था। दूसरा चाय वाले भैया की कहानी इतनी इंटरेस्टिंग थी कि कहाँ फोन का पता लगता। खैर मेरे कहने पर सभी लोग वापिस होकर दूर हट कर एकांत में खड़े हो गए।
मैं भी वापिस टॉपिक पर आ गया और पूछा, "हाँ भाई आगे क्या हुआ..."
चाय वाले भैया ने बताया कि उसने उन मोदी समर्थक लोगों पर विश्वास कर लिया और जगह देखने की इच्छा जाहिर की। नतीजन जहाँ अभी चाय वाला भैया बैठा है उसे वो जगह मोदी समर्थकों ने दिखा दी। जगह चाय वाले भैया को पसंद आ गयी। वहाँ से ज्यादा बिक्री होने पर भी विश्वास हो गया क्योंकि जगह गुड़गांव के एक पाश सेक्टर की मार्किट की थी। नतीजन इस सप्ताह के अंदर-अंदर चाय वाले ने अपना खोखा एक नामी कम्पनी के सामने से हटाकर उस नेता के घर के सामने लगा लिया। नेता का घर भी, मार्केट भी, नेता के पास आने वाले लोग भी सभी चाय पीने लगे।
मैंने उत्सुकतावश पूछा, "ये तो अच्छी बात है, फिर क्या हुआ?"
चाय वाले ने बताया कि, "अच्छी बात क्या भाई साहब, पता नहीं कौन सी घडी थी जो मैं अपनी 12 साल पुरानी जगह छोड़ कर जो यहाँ आ गया।"
इतना कहते ही चाय वाला भाई रो पड़ा। मैंने उसको ढाढस बंधाया और कहा, "भाई बात बताओ कैसे? आखिर कैसे और किस रूप में आपके साथ बुरा हुआ?"
चाय वाले भैया ने बताया कि, "भाई साहब शुरू में 1 हफ्ता मैं निश्चिंत था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। एक सप्ताह बाद सामने वाले "नेता" ने अपने बैनर मेरे खोखे पर लगा दिए।"
मैंने पूछा फिर क्या हुआ?
चाय वाले भैया ने खखारकर थूक निगलते हुए जवाब दिया, "भाई साहब बैनर लगाने के बाद राह चलते ग्राहकों में कमी आ गयी। काफी लोग तो पास आकर, थोडा हंसकर दूर निकल जाते। उस समय मैंने समझा कुछ नहीं, नॉर्मल बात होगी। लेकिन मुझे तब सच्चाई का पता चला जब में पढ़ने वाले बच्चों से बात की। कुछ एक पढ़ने वाले बच्चे यहाँ पी०जी० में रहते हैं, 2-4 दिन से उन्होंने मेरे पास उनका आना शुरू हुआ था।
लेकिन ये बैनर लगाने के बाद उन्होंने आना बंद कर दिया। मैंने ये बात अपने दिमाग में रख ली। एक दिन वो बच्चे सामने से गुज़र रहे थे। तो मैंने उनसे पूछा कि बेटा अब चाय पीने क्यों नहीं आते तो उन्होंने कहा कि अंकल आप मोदी जी को चाय पिलाते हो उन्हें ही पिलाओ। हम नहीं पियेंगे। आपके यहाँ तो राजनीति होती है। हम क्यों शामिल हों आपकी राजनीति में? मैंने कहा मोदी के बैनर लगने से आपको क्या दिक्कत है? तो उन बच्चों ने कहा कि हम मोदी से नफरत करते हैं क्योंकि वो झूठे हैं। गुजरात में गरीबी की हद है, हम टूर पर गए थे तो देखा था। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले मोदी टी०वी० पर सिर्फ झूठ का प्रचार करते हैं। हमें झूठे के बैनर तले बैठ कर चाय नहीं पीनी। थोडा आगे जाकर पी लेंगे। अपने रूम पर बनाकर पी लेंगे। लेकिन मोदी के बैनर नीचे बैठकर चाय नहीं पीयेंगे।"
मैंने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
तो चाय वाले भैया ने बताया कि उन्होंने बात आयी-गयी कर दी। कोई ज्यादा अफ़सोस नहीं जताया। लेकिन हद तो तब हो गयी जब भाजपा के उस मोदी समर्थक छुटभैये नेता ने अपनी गिरी हुई औकात दिखा दी। सुनिये चाय वाले भैया की ही जुबानी :-
चाय वाले भैया ने बताया कि, "इस 'फलां-फलां' नेता से उसका 4 रुपए प्रति चाय में सौदा तय हुआ। मेरे काफी प्राथना करने के बावजूद भी उसने इससे ज्यादा रुपए देने से मना कर दिया। परन्तु बहार भी ज्यादा बिक्री न होने के कारण मुझे बहार के रेट भी 7 रुपए से घटाकर 6 रुपए करने पड़े। यानि नेता जी 3 रुपए नुक्सान में और राह चलते लोगों को 1 रुपए नुक्सान में मुझे चाय पिलानी पड़ी। शुरू के 1 या सवा हफ्ते इस नेता ने चाय के नगद रुपए दिए। उसके बाद उधार करनी शुरू कर दी। मैंने कहा कि साहब 15-20 दिन में हिसाब हो जाये तो ठीक रहेगा। मुझे भी सामान लाना पड़ता है। इस पर उन्होंने कहा ठीक है कर देंगे। लेकिन महीना बीत गया। कोई हिसाब नहीं किया। आज-कल आज-कल करते करते दूसरा महीना भी बीत गया। मैंने पैसे मांगे तो नेता जी ने चुनाव के बाद हिसाब करने को बोला। मैं बहुत गिड़गिड़ाया लेकिन वो नहीं माना। इस दौरान नेता जी ने "चाय पर चर्चा" भी खूब की और इन महीनों में नेता जी ने खूब "मोदी टी स्टाल" लगवायी और "नमो चाय" मुफ्त में पिलाई। एक दिन में 5000-6000 रुपए की चाय मैं लोगों को पिलाने लगा। उसका रुपया नेता जी अपने खाते में चढ़वाते थे क्योंकि वो मोदी के नाम से "नमो चाय" जनता को मुफ्त पिलवाते थे।"
मैंने उत्सुकतावश पूछा, "फिर क्या हुआ?"
चाय वाले भैया ने बताया कि, "इस दौरान एक सरकारी विभाग वाले आकर मुझसे हफ्ता मांगने लगे। क्योंकि ये सरकारी जगह थी। ये जगह नेता जी की नहीं थी। इस पर मैंने नेता जी का नाम लिया तो उन्होंने कहा कि, "वो क्या करेगा? ये जगह उसके बाप की नहीं, सरकारी है।" नतीजन मैंने उनको 50 रुपया दिन का हफ्ता देना शुरू कर दिया।"
मैंने पूछा, "फिर क्या हुआ?"
चाय वाले भैया का गला भर आया। वो फूट-फूट कर रोने लगा। "भाई साहब मेरे साथ धोखा हुआ है। मैं तो लुट गया।" मैंने उसे गले लगाया और समझाया। इस पर उसे थोडा तसल्ली मिली। लेकिन 2 पल की तसल्ली फिर से गम में बदल गयी। अपने उबड़-खाबड़ हाथों से उसने अचानक अपना चेहरा ढंका और फिर उसका दुःख उसके गले और आँखों से फूट पड़ा। नाक बहने लगी। नाक भी निचे तलक लटक आयी। मैंने अपना रूमाल निकाला और चाय वाले भैया का नाक पोंछा।
मैंने कहा, "इत्मीनान से बैठो भाई। मैं आपके साथ हूँ।"
चहेरे पर उसके बदले की आग और गुस्से के भाव साफ़ झलक आये। चाय वाले भैया बोले :-
"चाय मेरी, चीनी मेरी, पत्ती मेरी, पतीला मेरा, अदरक मेरी, इलायची मेरी, दूध मेरा, छलनी मेरी, चम्मच मेरी, गिलास मेरा, कप मेरा, गैस मेरी, महनत मेरी, खून मेरा, पसीना मेरा। सब कुछ पी गया ये "फलां-फलां" नेता और जनता को भी पिलाया। क़र्ज़ चढ़ा मेरे सर पे और मुफ्त चाय पिला कर भला बन रहा है ये नेता। भाई साहब मेरा तो सब कुछ लूट लिया मोदी और मोदी के कुत्तों ने।" (नोट : "कुत्ता शब्द चाय वाले के द्वारा इस्तेमाल किया गया है, जिसे आप तक पहुँचाना मेरा फ़र्ज़ है)
इस पर मैंने चाय वाले भैया से हिसाब-किताब पूछा। तो चाय वाले भाई ने अपनी पत्थर की बनी सीट पर पड़े एक मैले-कुचेले तकिये के निचे से एक फटी पुराणी कॉपी निकाल कर उसमें एक कपडे की कत्तर से बंधी हुई नेता के द्वारा लिखी गयी चाय की पर्चियां और कुल जोड़ा गया हिसाब मेरे सामने रख दिया।
बाप रे!
हिसाब देख कर तो मेरे पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी। सवा 3 महीने का उधार 4 लाख 65 हज़ार 437 रुपया देख कर मेरे होंश उड़ गए।
बस मुझे तो मुद्दा चाहिए था और एक गरीब का भला करने का मौका। फर्क ये रहा कि मेरी आँख से आंसू निकले नहीं लेकिन कसर रही नहीं। लेकिन मेरी आँखों में भाजपा के उस छुटभैये नेता और मोदी के लिए गुस्से के लाल डोरे ज़रूर तैर रहे थे।
मैंने चाय वाले भैया की पीठ पर हाथ रखा और कहा आप चिंता मत करो मैं आपकी मदद करूँगा। ये मेरी जिम्मेवारी है।
इतना कह कर मैंने नेता जी के दरबार की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। इस दौरान चाय वाल भैया थोडा घबराया लेकिन मैंने उसको हाथ से इशारा करके तसल्ली रखने को कहा। मुझे देख कर दूर खड़े मेरे साथी भी मेरे पीछे-पीछे नेता जी के दरबार की तरफ चले आये।
सबसे पहले मेरा सामना नेता जी के यहाँ भाड़े के टट्टुओं से हुआ, नेता जी से मिलने की इच्छा जाहिर करने पर एक टट्टू बोला : कहाँ से आये हो, क्या नाम है, "भाई साहब" से क्यों मिलना है। इस पर मैंने बड़े इत्मीनान से कहा कि भाई जी मेरा नाम "सतपाल तंवर" है और मैं "भाई साहब" का ही एक चाहने वाला हूँ। इस पर वो बोले "भाई साहब" तो मीटिंग में हैं, समय लग जायेगा... वो भाड़े के छछूंदर इतना बोल ही रहे थे कि सामने की गैलरी में से अपने बाल संभालती हुई, दुप्पटा ठीक करती हुई और अपना लाल रंग का सूट निचे की तरफ खींच कर "सामने" से "फ्रंट" का उभरा हुआ बैलेंस सही करती हुई एक मोटी सी-काली सी औरत आती दिखाई पड़ी। थोडा बहार की तरफ नजदीक आयी तो देखा नेता जी के भाड़े के छछूंदर उसकी तरफ हल्का-हल्का मुस्कुराते हुए बढे। ओर थोडा नजदीक आयी। तो मुझे समझने में दैर नहीं लगी। ये तो वाही औरत थी जो कभी गुड़गांव के सरकारी हस्पताल और नगर निगम कार्यालय के आसपास, कभी झाड़सा रोड पर और कभी मोर चौक के आसपास सरेआम ग्राहकों को लुभाती देखी जा सकती है। काफी बार रोड पर से गुजरते हुए मैंने उसे देखा है। एक टैम्पू ड्राइवर ने बताया था कि ये गुड़गांव की सबसे पुराणी "सेक्स वर्कर" है। मेरी तरफ एक नज़र देख कर वो बहार पहले से ही खड़े रिक्शॉ में बैठ कर निकल गयी।
फिर नेता जी के टट्टुओं में से एक टट्टू की आवाज मेरे कानों में गूंजी। वो बोल रहा था कि "भाई साहब" फ्री हो गए हैं। मेरे हाथ में उस टट्टू ने एक पर्ची थमाते हुए कहा कि आप इस पर्ची पर अपना नाम लिख दो। मैं "भाई साहब" को देकर आता हूँ। मैंने वैसे ही किया जैसा उस टट्टू ने कहा। वो 5 मिनट बाद बाहर निकल कर आया। अबकी बार उसकी भाषा में कुछ अखड़पन नहीं बल्कि आदर झलक रहा था। वो बोला कि सर आपको भाई साहब अंदर बुला रहे हैं। हम भी उस टट्टू के बताये अनुसार नेता जी के घोंसले की तरफ चल पड़े। सोफे पर बैठे नेता जी बड़े ही विनम्र स्वभाव से हाथ जोड़कर गले लग गए। बदले में हमने भी थोडा सा प्यार दिखाया और बैठ गए सोफे पर। नेता जी ने चाय का ऑर्डर दिया। बहार से चाय बनकर आ गयी। इस दौरान चाय भी पी और नेता जी से पहली मुलाक़ात थी तो उन्होंने भी उस चाय की प्याली को "नमो चाय" कहकर ही सम्बोधित किया। हमने भी चुपचाप सुना। इधर-उधर की बातें होने के साथ-साथ चुनाव का ज़िक्र चल ही पड़ा। हम तो बनकर गए थे चाय वाले भैया की आवाज। नेता जी तो हमसे वोट और सपोर्ट ही मांगने लग गए। मुझे भी मुद्दे पर आना था। बस 4 रुपए के हिसाब से 7 लोगों के 28 रुपए सामने पड़ी मेज पर डाल दिए। ये देखकर नेता जी थोडा सकपकाया। मैंने कहा उठाओ "भाई साहब".
नेता जी चौंकते हुए बोले, "ये क्या है?"
तो मैंने भी नेता जी को मतलब समझा ही दिया। 4 रुपए के हिसाब से हम 7 लोगों के 28 रुपए हुए। उस गरीब चाय वाले भैया को अभी ये रुपए पहुंचाओ। नेता जी बोले नहीं तंवर साहब आप हमारे घर आये हैं। आप महमान हैं। हम आपको चाय पिलायेंगे और तंवर आपको कैसे पता कि हम एक चाय के 4 रुपए देते हैं। इस पर मैंने नेता जी को जवाब दिया कि "भाई साहब" मुझे तो बहुत कुछ पता है। ये पोल कहीं जनता में न खुल जाये। इसलिए सबसे पहले ये 28 रुपया उठाकर चाय वाले के पास पहुंचाओ। हम आपके पास किसी गरीब की बद्दुआ लेने नहीं आये। आगे की बात बाद में करेंगे। पहले ये 28 रुपया चाय वाले तक पहुंचाओ।
नेता जी के चहेरा थोडा सफ़ेद पड़ गया और बहार से अपने एक भाड़े के छछूंदर को आवाज लगाकर 28 रुपया उस चाय वाले के पास उसने भिजवा दिया। मैं वहाँ बैठा मन ही मन सोच रहा था कि चाय वाले भैया का थोडा होंसला तो बढ़ेगा। इतनी देर में नेता जी बोले "क्या हुआ तंवर साहब, पहली बार आये और नाराज़गी में आये।"
बस फिर क्या था। जो मन में आया वो बका। नेता जी तो नेता जी ठहरे। विरोध कर नहीं सकते थे। वोटों का लालच जो था। अब इसी की आड़ में मैंने भी नेता जी का कोई बहाना नहीं सुना और चाय वाले भैया का हिसाब फाइनल करने की तारीख मांग ली। काफी कुर-कुर करने के बाद भाजपा के उस मोदी समर्थक छुटभैये कुकडूं नेता ने 9 दिन बाद हिसाब का दिन मुक्करर कर दिया। इसी के साथ हम भी उठ खड़े हुए और चेतावनी देकर निकल चले। इतना भी कह दिया कि चाय वाले भैया का ख्याल रखना इसे कुछ हुआ तो आप जिम्मेवार होंगे।
अब दोस्तों 9 दिन बाद का इंतज़ार है। यदि भाजपा के उस छुटभैये नेता ने तय समय के अनुसार चाय वाले भैया का रुपया नहीं दिया तो उसका नाम मीडिया में उजागर करके उसकी पोल खोलनी है। बस आप इंतज़ार करियेगा और पढ़ते रहिएगा हरियाणा की माटी के लाल अपने भाई सतपाल को।
लेखक "नवाब सतपाल तंवर"