Friday, July 31, 2015

याकूब हमारा हीरो नहीं राज्य प्रायोजित दंगों के खिलाफ एक प्रतीक है - अनस


याकूब हमारा हीरो नहीं राज्य प्रायोजित दंगों के खिलाफ एक प्रतीक है याकूब मेमन के बहाने सोशल मीडिया पर पिछले तीन चार दिनों से तर्क कुतर्क गाली गलौच का जो दौर चल रहा है उसके बीच में मुझे फेसबुक ने 24 घंटे के लिए ब्लाक कर दिया. अब न तो मैं अपने फेसबुक वाल पर कुछ लिख सकता हूँ न तो किसी दूसरे के लिखे का जवाब दे सकता हूँ.

मैंने परसों अपनी एक पोस्ट में लिखा था की ‘याकूब मेमन हमारे दिलों में जिंदा रहेगा, वह अन्याय के खिलाफ प्रतीक के तौर पर पहचाना जाएगा.’ जब मैंने यह लिखा था तब मैंने यह बिलकुल नहीं लिखा था कि ‘मुसलमान याकूब मेमन को मुसलमानों के खिलाफ हो रहे सरकारी अत्याचार के विरूद्ध प्रतीक के तौर पर स्थापित कर दिया जाए.’ लेकिन मुझमें खोज खोज कर फिरकापरस्ती तलाश करने वाले लोगों ने यह समझा कि 900 लोगों की सरकारी ह्त्या के बदले के स्वरुप किये गए बम ब्लास्ट में मैं याकूब मेमन को मुसलमानों का हीरो बनाना चाहता हूँ.

कोई मुसलमान अपने ऊपर हुए अत्याचार और नाइंसाफी की लड़ाई लड़ने के बाद फूलन देवी जैसी स्वीकार्यता क्यों नहीं प्राप्त कर पाता. क्यों किसी मुसलमान को उसके कौम के भरोसे और सहारे छोड़ दिया जाता है. एपीजे अब्दुल कलाम की विरासत पर सबने अपना हक़ जताया तो याकूब मेमन और उसके परिवार के लोगों द्वारा लिए गए प्रतिशोध के पक्ष में हम क्यों नहीं खड़े हुए?

मुझे पता है यह बेहद बचकाना सवाल है क्योंकि याकूब और उसके परिवार ने 250 से ज्यादा लोगों की जान ली थी, हो सकता है जो लोग मारे गए उनमें से कुछ दंगों में शामिल रहे हों लेकिन ऐसे बहुत रहे होंगे जो मासूम और बेकसूर थे. इनकी हत्याओं और बम्बई ब्लास्ट को कभी भी जस्टिफाय नहीं किया जा सकता. लेकिन, अहम पहलू इसमें यह आता है कि बम ब्लास्ट न होता तो बम्बई में अब तक कितने दंगे हो चुके होते ? श्री कृष्ण जांच कमीशन भी यह कहता है कि ब्लास्ट के बाद सरकार और प्रशासन के अलावा राजनीतिक गुंडागर्दी जो मुसलमानों के खिलाफ हुआ करती थी उसमें कमी आई है. उसने यह नहीं लिखा है कि हिन्दुओं और मुसलमानों में दूरियां बढ़ी है. क्या आप उन्हें हिन्दू मानते हैं जिन्होंने बेवजह गरीब मुसलमानों,औरतों,बुजुर्गों और बच्चों को जिंदा जला डाला. क्या आप उन्हें अपने जैसा मानते हैं? अगर नहीं तो फिर हिन्दू बनाम मुसलमान क्यों बना रहे हैं मुद्दे को. क्रूरतम हिंसा की हदे लांघने वालों की इतनी फ़िक्र क्यों कर रहे हैं? कहीं सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ आपको मोहरा तो नहीं बना रही है याकूब मामलें में, शायद बना चुकी हैं.

याकूब और उसके परिवार ने बंबई को पहले तबाह नहीं किया था,उन पर शिव सेना और अन्य राजनीतिक दलों ने यह तबाही थोपी थी. मुख्यधारा की मीडिया और विमर्श करने वालों के बीच से बंबई दंगे नदारद हैं, बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने के बाद देश भर में सुनियोजित मुस्लिम नरसंहार पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. न्यायपालिका को आश्वासन दे कर उसका भरोसा तोड़ा गया था, कहा तो यह भी जाता है कि बाबरी विध्वंस के वक्त पूरा देश एक तरफ था और मुसलमान एवं वामपंथी एक तरफ. क्या बहुजन और क्या सवर्ण, हर किसी के भीतर मुसलमानों के खिलाफ नफरत भर दी गई थी और फिर धीरे धीरे जिन लोगों ने बाबरी गिराई और कत्लेआम किये उनकी सच्चाई सामने आने लगी तो लोग खुद ही उनका साथ छोड़ कर भागने लगे. लेकिन नहीं बदला हाल मुसलमानों पर अत्याचार का. राजनीतिक रूप से उन्हें डिबार कर दिया गया है वरना क्यों न कोई पार्टी या राज्य अपने स्तर से राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के हत्यारे को बचाने के जैसा कोई बिल याकूब मेमन के लिए भी पास करती.

हर मोर्चे पर अकेले मुसलामानों के लिए लोग कहते हैं की उनका तुष्टिकरण होता है, उन्हें ज्यादा अवसर दिए जाते हैं, वो हिंसक होते हैं, इनका धर्म भारत देश को ख़त्म कर देगा. बताइए, हर रोज़ पिटते हैं मुसलमान और उन्ही का डर भी दिखाया जाता है. कहीं और होता है दुनिया में ऐसा ? दंगें हों तो उसमे मारे जाते हैं,दंगे के बाद बर्बादी में रहते हैं. जो दंगों से बच गए वे कई तरह के भेदभाव और शक से गुजरते हैं. ये भी कोई जीना है महराज? भारत के मुसलमान तो बहुत पीछे हैं हिंसा और अराजकता में, सरकारों द्वारा उनका दमन किया गया है कि वे कभी सोच भी नहीं पाते की खून का बदला खून से ले लें. मेमन परिवार ने लिया और उसकी सज़ा भोग ली. 

जो भी मुसलमान प्रायोजित हिंसा के खिलाफ कभी हिंसक होना चाहेगा उसे मैं पहले से बता दूं की ऐसा वह कभी नहीं करेगा क्योंकि उसके बाद उसे न तो हिन्दुओं की तरह राजनीतिक शाबाशी मिलेगी और न तो अदालत से जमानत. हिंसा के रास्ते पर गया मुसलमान, भारतीय कानून के लिए सबसे आसान मुजरिम होगा जिसके गले में सुबह के सात बजे फांसी का फंदा डाल दिया जाएगा. इसलिए किसी भी तरह की हिंसा हो, दंगा हो,फर्जी मुठभेड़ हो खुद के हाथ पैर बाँध, मुंह सिल एक किनारे बैठ जाने में ही भलाई है क्योंकि आप के लिए प्रतिशोध स्वरुप या फिर आत्मरक्षा जैसे शब्द प्रतिबंधित हैं और होने भी चाहिए. प्रतिशोध सिर्फ नक्सली ले सकते हैं और उन्हें जस्टिफाय करने वाले ब्राह्मण वामपंथी,आपकी हिंसा पर सैकड़ों सवाल एवं लानत भेजने को बैठे हुए हैं.
एक अच्छी और प्यारी सोसायटी में इन बकवास और बुरे शब्दों या क्रियाओं का भला क्या काम? आप पिटते रहिए, समाज की रंगाई पोताई चलती रहेगी जिस रोज़ आपने पीटने वाले को पीटा उस रोज़ आप समाज के लिए सबसे बड़े ‘थ्रेट’ के तौर पर पहचाने जाएंगे.

सरकार की मिलीभगत से सुनियोजित दंगों से खुद का बचाव करना भी यदि अपराध है तो याकूब मेमन इस दुनिया का सबसे दुर्दांत और खूंख्वार इंसान था जिसका मर जाना ही सबसे अच्छी बात है. न्यायपालिका में पूरा यकीन जताते हुए मैं सुप्रीम कोर्ट के जज अनिल आर दवे साहब के उस कथन से सहमत हूँ जिसे उन्होंने मनुस्मृति से निकाला था कि, ‘राजा यदि आँखें लाल करके सजा नहीं देगा तो पूरा पाप राजा पर आएगा.’ लोकतंत्र बचा ही कहाँ है? राजतंत्र है तो फैसले भी उसी तरह से आएंगे.

दवे साहब वहीँ हैं जिन्होंने कहा था यदि मैं तानाशाह होता तो पहली कक्षा से बच्चों को गीता पढ़वाता. खैर, याकूब मर गया क्योंकि उसे मरना था. उसने उस अपराध में शायद हिस्सेदारी निभाई थी जिसे अंजाम उसके भाई ने दिया था. हम उसे किस रूप में याद रखें यह हमारे विवेक पर निर्भर करने से अधिक परिस्थितियों पर निर्भर ज्यादा करती हैं. बहुसंख्यक चेतना को संतुष्ट करने के लिए या फिर यूं कहें किसी मुसलमान की सस्ती जान से बहे खून से बहुसंख्यक आबादी की प्यास बुझाने के लिए कोई भी फैसला न्यायलय लेता है तो मैं उसके समर्थन में रहूँगा. इस देश में अन्याय रत्ती भर नहीं होता जिन्हें ऐसा लगता है वे सब याकूब मेमन को सुनियोजित सरकारी दंगों के विरोध का प्रतीक मान लें या फिर पाकिस्तान चले जाए. देशद्रोशी कहीं के.

इस हिंसा प्रतिहिंसा के बीच मैं याक़ूब के उस पहलू को उसके साथ दफ्न करने की अपील सबसे करना चाहता हूं जिसमें बंबई ब्लॉस्ट और उसमें मारे गए बेकसूर लोगों का जिक्र आता है। मैं याक़ूब मेमन के साथ उसके उस पक्ष को फांसी पर लटका देने की सलाह सबको देता हूं जिसकी वजह से उसने और उसके परिवार ने बंबई में ब्लास्ट करवाए। और मैं उस याकूब को जिंदा रखने की अपील करता हूं जिसने अपने दोस्त चेतन मेहता के साथ ‘मेहता एंड मेमन’ नाम से फर्म की शुरूआत की थी। उस मेमन को बचाए रखने को कहूंगा जिसने जेल में रहते हुए डबल एम ए किया और उस मेमन को बचाए रखने की पूरी कोशिश करूंगा जिसने भारत और भारतीय कानून में पूरा भरोसा जताते हुए अपने परिवार के साथ पाकिस्तान से वापस मातृभूमि तक चला आया। आप उसके बुरे पहलुओं को हीरों कभी न बनाना, अपराधी तो वह था ही, हमें अपराध से घृणा होनी चाहिए अपराधी से नहीं। इन सबके अतिरिक्त मैं फांसी जैसे मनुकालीन सज़ा पर रोक की मांग करता हूं। साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित समेत उनके लिए भी जिनके ऊपर गुजरात रचने की साजिश का आरोप है। मेमन मेरा हीरो नहीं, उसके हीरोइज्म को मुझ पर मत थोपिए।

Tuesday, July 28, 2015

सब कुछ टू-इन-वन रेडियो जैसा है, मन किया तो हम देशभक्त, मन किया तो आप देशद्रोही: रवीश कुमार



आज सुबह व्हॉट्सऐप, मैसेंजर और ट्विटर पर कुछ लोगों ने एक प्लेट भेजा, जिस पर मेरा भी नाम लिखा है। मेरे अलावा कई और लोगों के नाम लिखे हैं। इस संदर्भ में लिखा गया है कि हम लोग उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने याकूब मेमन की फांसी की माफी के लिए राष्ट्रपति को लिखा है। अव्वल तो मैंने ऐसी कोई चिट्ठी नहीं लिखी है और लिखी भी होती तो मैं नहीं मानता, यह कोई देशद्रोह है। मगर वे लोग कौन हैं, जो किसी के बारे में देशद्रोही होने की अफवाह फैला देते हैं। ऐसा करते हुए वे कौन सी अदालत, कानून और देश का सम्मान कर रहे होते हैं। क्या अफवाह फैलाना भी देशभक्ति है।

किसी को इन देशभक्तों का भी पता लगाना चाहिए। ये देश के लिए कौन-सा काम करते हैं। इनका नागरिक आचरण क्या है। आम तौर पर ये लोग किसी पार्टी के भ्रष्टाचारों पर पर्दा डालते रहते हैं। ऑनलाइन दुनिया में एक दल के लिए लड़ते रहते हैं। कई दलों के पास अब ऐसी ऑनलाइन सेना हो गई है। इनकी प्रोफाइल दल विशेष की पहचान चिह्नों से सजी होती हैं। किसी में नारे होते हैं तो किसी में नेता तो किसी में धार्मिक प्रतीक। क्या हमारे लोकतंत्र ने इन्हें ठेका दे रखा है कि वे देशद्रोहियों की पहचान करें, उनकी टाइमलाइन पर हमला कर आतंकित करने का प्रयास करें।

सार्वजनिक जीवन में तरह-तरह के सवाल करने से हमारी नागरिकता निखरती है। क्यों ज़रूरी हो कि सारे एक ही तरह से सोचें। क्या कोई अलग सोच रखे तो उसके खिलाफ अफवाह फैलाई जाए और आक्रामक लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हो। अब आप पाठकों को इसके खिलाफ बोलना चाहिए। अगर आपको यह सामान्य लगता है तो समस्या आपके साथ भी है और इसके शिकार आप भी होंगे। एक दिन आपके खिलाफ भी व्हॉट्सऐप पर संदेश घूमेगा और ज़हर फैलेगा, क्योंकि इस खेल के नियम वही तय करते हैं, जो किसी दल के समर्थक होते हैं, जिनके पास संसाधन और कुतर्क होते हैं। पत्रकार निखिल वाघले ने ट्वीट भी किया है, "अब इस देश में कोई बात कहनी हो तो लोगों की भीड़ के साथ ही कहनी पड़ेगी, वर्ना दूसरी भीड़ कुचल देगी..." आप सामान्य पाठकों को सोचना चाहिए। आप जब भी कहेंगे, अकेले ही होंगे।

पूरी दुनिया में ऑनलाइन गुंडागर्दी एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभर रही है। ये वे लोग हैं, जो स्कूलों में 'बुली' बनकर आपके मासूम बच्चों को जीवन भर के लिए आतंकित कर देते हैं, मोहल्ले के चौक पर खड़े होकर किसी लड़की के बाहर निकलने की तमाम संभावनाओं को खत्म करते रहते हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने का भय दिखाकर ब्लैकमेल करते हैं। आपने 'मसान' फिल्म में देखा ही होगा कि कैसे वह क्रूर थानेदार फोन से रिकॉर्ड कर देवी और उसके बाप की ज़िन्दगी को खत्म कर देता है। उससे पहले देवी के प्रेमी दोस्त को मौके पर ही मार देता है। यह प्रवृत्ति हत्यारों की है, इसलिए सतर्क रहिए।

बेशक आप किसी भी पार्टी को पसंद करते हों, लेकिन उसके भीतर भी तो सही-गलत को लेकर बहस होती है। चार नेताओं की अलग-अलग लाइनें होती हैं, इसलिए आपको इस प्रवृत्ति का विरोध करना चाहिए। याद रखिएगा, इनका गैंग बढ़ेगा तो एक दिन आप भी फंसेंगे। इसलिए अगर आपकी टाइमलाइन पर आपका कोई भी दोस्त ऐसा कर रहा हो तो उसे चेता दीजिए। उससे नाता तोड़ लीजिए। अपनी पार्टी के नेता को लिखिए कि यह समर्थक रहेगा तो हम आपके समर्थक नहीं रह पाएंगे। क्या आप वैसी पार्टी का समर्थन करना चाहेंगे, जहां इस तरह के ऑनलाइन गुंडे हों। सवाल करना मुखालफत नहीं है। हर दल में ऐसे गुंडे भर गए हैं। इसके कारण ऑनलाइन की दुनिया अब नागरिकों की दुनिया रह ही नहीं जाएगी।

ऑनलाइन गुंडागर्दी सिर्फ फांसी, धर्म या किसी नेता के प्रति भक्ति के संदर्भ में नहीं होती है। फिल्म कलाकार अनुष्का शर्मा ने ट्वीट किया है कि वह ग़ैर-ज़िम्मेदार बातें करने वाले या किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान करने वालों को ब्लॉक कर देंगी। मोनिका लेविंस्की का टेड पर दिया गया भाषण भी एक बार उठाकर पढ़ लीजिए। मोनिका लेविंस्की ऑनलाइन गुंडागर्दी के खिलाफ काम कर ही लंदन की एक संस्था से जुड़ गई हैं। उनका प्रण है कि अब वह किसी और को इस गुंडागर्दी का शिकार नहीं होने देंगी। फेसबुक पर पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल के पेज पर जाकर देखिए। आए दिन वह ऐसी प्रवृत्ति से परेशान होते हैं और इनसे लड़ने की प्रतिज्ञा करते रहते हैं। कुछ भी खुलकर लिखना मुश्किल हो गया है। अब आपको समझ आ ही गया होगा कि संतुलन और 'is equal to' कुछ और नहीं, बल्कि चुप कराने की तरकीब है। आप बोलेंगे तो हम भी आपके बारे में बोलेंगे। क्या किसी भी नागरिक समाज को यह मंज़ूर होना चाहिए।

इन तत्वों को नज़रअंदाज़ करने की सलाह बिल्कुल ऐसी है कि आप इन गुंडों को स्वीकार कर लीजिए। ध्यान मत दीजिए। सवाल है कि ध्यान क्यों न दें। प्रधानमंत्री के नाम पर भक्ति करने वालों का उत्पात कई लोगों ने झेला है। प्रधानमंत्री को लेकर जब यह सब शुरू हुआ तो वह इस ख़तरे को समझ गए। बाकायदा सार्वजनिक चेतावनी दी, लेकिन बाद में यह भी खुलासा हुआ कि जिन लोगों को बुलाकर यह चेतावनी दी, उनमें से कई लोग खुद ऐसा काम करते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि अपने आसपास के ऐसे मित्रों या अनुचरों पर निगाह रखिए, जो ऑनलाइन गुंडागर्दी करता है। ये लोग सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार को तोड़ रहे हैं।

मौजूदा संदर्भ याकूब मेमन की फांसी की सज़ा के विरोध का है। जब तक सज़ा के खिलाफ तमाम कानूनी विकल्प हैं, उनका इस्तेमाल देशद्रोह कैसे हो गया। सवाल उठाने और समीक्षा की मांग करने वाले में तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई भी हैं। अदालत ने तो नहीं कहा कि कोई ऐसा कर देशद्रोह का काम कर रहे हैं। अगर इस मामले में अदालत का फैसला ही सर्वोच्च होता तो फिर राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास पुनर्विचार के प्रावधान क्यों होते। क्या ये लोग संविधान निर्माताओं को भी देशद्रोही घोषित कर देंगे।

याकूब मेमन का मामला आते ही वे लोग, जो व्यापमं से लेकर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ऑनलाइन दुनिया से भागे हुए थे, लौट आए हैं। खुद धर्म की आड़ लेते हैं और दूसरे को धर्म के नाम पर डराते हैं, क्योंकि अंतिम नैतिक बल इन्हें धर्म से ही मिलता है। वे उस सामूहिकता का नाजायज़ लाभ उठाते हैं, जो धर्म के नाम पर अपने आप बन जाती है या जिसके बन जाने का मिथक होता है। फिल्मों में आपने दादा टाइप के कई किरदार देखें होंगे, जो सौ नाजायज़ काम करेगा, लेकिन भक्ति भी करेगा। इससे वह समाज में मान्यता हासिल करने का कमज़ोर प्रयास करता है। अगर ऑनलाइन गुंडागर्दी करने वालों की चली तो पूरा देश देशद्रोही हो जाएगा।

यह भी सही है कि कुछ लोगों ने याकूब मेमन के मामले को धार्मिकता से जोड़कर काफी नुकसान किया है, गलत काम किया है। फांसी के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं कि फैसले का संबंध धर्म से नहीं है। लेकिन क्या इस बात का वे लोग खुराक की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, जो हमेशा इसी फिराक में रहते हैं कि कोई चारा मिले नहीं कि उसकी चर्चा शहर भर में फैला दो। क्या आपने इन्हें यह कहते सुना कि वे धर्म से जोड़ने का विरोध तो करते हैं, मगर फांसी की सज़ा का भी विरोध करते हैं। याकूब का मामला मुसलमान होने का मामला ही नहीं हैं। पुनर्विचार एक संवैधानिक अधिकार है। नए तथ्य आते हैं तो उसे नए सिरे से देखने का विवेक और अधिकार अदालत के पास है।

90 देशों में फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं हैं। क्या वहां यह तय करते हुए आतंकवाद और जघन्य अपराधों का मामला नहीं आया होगा। बर्बरता के आधार पर फांसी की सज़ा का करोड़ों लोग विरोध करते हैं। आतंकवाद एक बड़ी चुनौती है। हमने कई आतंकवादियों को फांसी पर लटकाया है, पर क्या उससे आतंकवाद ख़त्म हो गया। सज़ा का कौन-सा मकसद पूरा हुआ। क्या इंसाफ का यही अंतिम मकसद है, जिसे लेकर राष्ट्रभक्ति उमड़ आती है। इनके हमलों से जो परिवार बर्बाद हुए, उनके लिए ये ऑनलाइन देशभक्त क्या करते हैं। कोई पार्टी वाला जाता है उनका हाल पूछने।

फांसी से आतंकवाद खत्म होता तो आज दुनिया से आतंकवाद मिट गया होता। आतंकवाद क्यों और कैसे पनपता है, उसे लेकर भोले मत बनिए। उन क्रूर राजनीतिक सच्चाइयों का सामना कीजिए। अगर इसका कारण धर्म होता और फांसी से हल हो जाता तो गुरुदासपुर आतंकी हमला ही न होता। उनके हमले से धार्मिक मकसद नहीं, राजनीतिक मकसद ही पूरा होता होगा। धर्म तो खुराक है, ताकि एक खास किस्म की झूठी सामूहिक चेतना भड़काई जा सके। जो लोग इस बहस में कूदे हैं, उनकी सोच और समझ धार्मिक पहचान से आगे नहीं जाती है। वे कब पाकिस्तान को आतंकी बता देते हैं और कब उससे हाथ मिलाकर कूटनीतिक इतिहास रच देते हैं, ऐसा लगता है कि सब कुछ टू-इन-वन रेडियो जैसा है। मन किया तो कैसेट बजाया, मन किया तो रेडियो। मन किया तो हम देशभक्त, मन किया तो आप देशद्रोही।



Monday, July 27, 2015

याकूब तुम्हारा नाम कुरान में लिखा है.....तुम गुनहगार हो.....फांसी!


याकूब मेमन खुद को इस वक्त कितना बड़ा बेवकूफ समझ रहा होगा! और यह कितनी बड़ी विडंबना है। जिस शख्स को पुलिस ने BBC (बॉम्बे ब्लास्ट केस) से उसकी इंटेलिजेंस के आधार पर जोड़ा (पुलिस का मानना था कि ब्लास्ट की फाइनैंशल प्लानिंग को जिस समझदारी से अंजाम दिया गया, वैसा याकूब मेमन जैसा बेहद इंटेलिजेंट सीए ही कर सकता है), वही इंटेलिजेंट मेमन खुद को सबसे बड़ा बेवकूफ समझ रहा होगा।
वह उस शाम को कोस रहा होगा जब उसने दुबई में अपने दोस्त और अंडरवर्ल्ड डॉन इकबाल मिर्ची से कहा था कि वतन लौटने का मन करता है। हमने फिल्मों में देखा है कि डॉन्स की दोस्ती बहुत अच्छी होती है। मिर्ची ने भारत में अपने एक दोस्त से कहा कि याकूब भाई वतन लौटना चाहते हैं, तो उनकी तमन्ना पूरी होनी चाहिए। यह तमन्ना कैसे पूरी हुई, इसके लिए आपको एस हुसैन जैदी की किताब ब्लैक फ्राइडे पढ़नी चाहिए। किताबें सच्ची होती हैं, इतनी सच्ची कि उन पर पांव लग जाए तो हम विद्या रानी से माफी मांगते हैं।

याकूब कहता है कि वह वापस आया ताकि अपने नाम पर लगा आतंकवादी का दाग हटवा सके और एक भारतीय के तौर पर सुकून से मर सके। इसी तरह की बात रॉ के अधिकारी एस रमन भी कह गए थे।

पर पता है टाइगर मेमन ने क्या कहा था? BBC के मास्टरमाइंड अपने भाई टाइगर से जब कराची में याकूब ने कहा कि मुझे वापस जाना है, तो उसने कहा - तुम गांधीवादी बनकर जा रहे हो, वे तुम्हें गोडसे की तरह लटका देंगे।

है ना याकूब बेवकूफ? उसके भाई की बात सच साबित होने जा रही है। याकूब के हमवतनों ने उसकी बात नहीं मानी। क्षमा का प्रपंच करने वाले देश ने उसकी गलती पर माफी नहीं फांसी दी है। उसने सोचा होगा कि गांधी के देश में सचाई की जीत होगी, सच बोलूंगा। यहां गांधी खुद नहीं जीत सके, तुम कौन खेत की मूली हो बे मेमन? तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हारा नाम याकूब है? याकूब तो एक पैगंबर था ना? यानी तुम्हारा नाम कुरान से आया है? तुम्हारा नाम कुरान में लिखा है??? हमें और सबूत नहीं चाहिए। तुम्हारा नाम कुरान में लिखा है, तुम गुनहगार हो। फांसी!

हां, तुम्हारा नाम असीमानंद होता तो हम कुछ कर सकते थे। पता नहीं याकूब मेमन ने असीमानंद का नाम सुना होगा या नहीं! असीमानंद समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट केस में है। NIA की चार्जशीट में लिखा था कि समझौता ब्लास्ट के लिए किसी संघ नेता इंद्रेश ने 50 हजार रुपये दिए थे। लेकिन यह तो NIA की पहली चार्जशीट में था। आरोपियों में इंद्रेश का नाम नहीं है। गूगल पर इंद्रेश का नाम सर्च करो तो उनके

पाकिस्तान के विरुद्ध आग उगलते बयानों वाली खबरें मिलेंगी। वैसे आप हिंदी में सर्च करें तो मेरा सुझाव है कि 'इंद्रेशजी' सर्च कीजिएगा। संघ में 'जी' पर बहुत जोर होता है। समझौता ब्लास्ट केस का क्या हुआ? इसी 17 जुलाई को एक और गवाह मुकर गया। अब तक 10 मुकर चुके हैं। कर देंगे क्लोजर रिपोर्ट फाइल NIA वाले। आजकल इसकी खासी प्रैक्टिस हो गई है उन्हें। शायद क्लोजर रिपोर्ट का ड्राफ्ट तैयार ही रखा हो। मोडासा, मालेगांव के बाद... अब ये बहस मत लेकर बैठ जाना कि इन सारे मामलों में आरोपी हिंदू हैं। हम आतंकवाद को धर्म से जोड़कर नहीं देखते (जबतक कि आतंकी मुसलमान न हो।)। बोलो, कभी किसी खबर में देखा-सुना है आतंकवादी इंद्रेशजी? आतंकवादी साध्वी प्रज्ञा? आतंकवादी असीमानंद?

अच्छा, जरा सोचिए। अक्षरधाम मंदिर पर अटैक होता है 2002 में। 2006 में अदालत 6 लोगों को सजा सुना देती है, जिनमें से तीन को फांसी होती है। 2007 में समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट होता है। 2011 में पहली चार्जशीट दाखिल होती है। 2006 में मालेगांव ब्लास्ट होता है। 2013 में पहली चार्जशीट दाखिल होती है। 2008 में मोडासा ब्लास्ट होता है। 2015 में केस क्लोज़्ड। आपको यह सब संयोग और न्यायसंगत लगता है तो आपकी मासूमियत पर मुझे प्यार ही आएगा।

खैर, तो याकूब मेमन तुम्हें मर जाना चाहिए। क्षमा जैसी बातें हिंदू धार्मिक किताबों में जरूर लिखी हैं लेकिन वे तो नैतिक शिक्षा के एग्जाम पास करने के लिए पढ़ाई जाती हैं। उन पर हम अमल नहीं करते। तुम्हें क्या लगता है, अगर अब तुम्हें फांसी न भी हो तो तुम्हारे पाप धुल जाएंगे? जेल में काटे 21 साल तुम्हारे गुनाह साफ नहीं कर सकते। पाकिस्तान के खिलाफ दिए सबूत तुम्हारे गुनाह माफ नहीं कर सकते। भारत और उसके संविधान के प्रति सम्मान में लिखा लेख तुम्हारे गुनाह माफ नहीं कर सकता। तुम आतंकवादी हो। हमेशा रहोगे। तुम्हारी आने वाली नस्लें भी आतंकवादी रहेंगे। जिंदा रहे तो रोज मरोगे। हम जब भी तुम्हें कहीं देखेंगे, तो अपनी निगाहों से फांसी देंगे। तुम्हारे माथे पर आतंकवादी लिख देंगे। क्यों यह रोज-रोज की मौत देखने के लिए जीना चाहते हो? मर ही जाओ।
~विवेक आसरी

Sunday, July 19, 2015

फांसी पर लटकाए जाने वाले मुसलमानों के पास राजनीतिक समर्थन की कमी है


इब्राहिम टाइगर मेमन के भाई याक़ूब मेमन को इस महीने के अंत में फांसी दिए जाने की ख़बरें आजकल भारतीय मीडिया में चल रही हैं.

याक़ूब मेमन को जिस जज पीके कोडे ने सज़ा सुनाई थी, उन्हें मैं पिछले दो दशकों से जानता हूँ. चरमपंथ के मामलों के लिए बनी उनकी कोर्ट की मैं रिपोर्टिंग किया करता था.
कोडे ने जब याक़ूब मेमन को साज़िश रचने के लिए सज़ाए मौत दी थी तो उनके फ़ैसले ने याक़ूब के वकील सतीश कांसे समेत कई लोगों को हैरान कर दिया था.
कुछ साल पहले कांसे ने रेडिफ़ डॉट कॉम की शीला भट्ट को बताया था, “याक़ूब ने कभी पाकिस्तान में सैन्य प्रशिक्षण नहीं लिया. उन्होंने कोई बम या आरडीएक्स नहीं लगाया था, ना ही हथियार लाने में कोई हिस्सेदारी की थी. जिन लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गई थी, वो इन ख़तरनाक़ गतिविधियों में से किसी न किसी तरह से शामिल थे. याक़ूब के ख़िलाफ़ इनमें से किसी भी मामले में आरोप नहीं थे.”
लेकिन, अब चाहे जो हो, वो फांसी देंगे और इस मामले में ऐसा पहली बार होगा.

याक़ूब पर मुकदमा चलाने वाले उज्ज्वल निकम ने कहा था, “मुझे याद है कि मुझे वो एक शांत और चुप व्यक्ति लगे थे. वो एक चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं इसलिए सबूतों के बारे में उन्होंने विस्तार से नोट लिए. वो शांत थे और दूसरों से दूर ही रहते थे. केवल अपने वकील से ही बाते करते थे. वो बुद्धिमान आदमी थे और वे पूरी सुनवाई बारीकी से देख रहे थे.”
उज्ज्वल निकम वही वकील हैं, जिन्होंने अज़मल कसाब के बिरयानी मांगने के बारे में चर्चित झूठ बोला था.
उस समय कोर्ट में मैंने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया था.
मेमन चुप थे और कार्रवाई पर नज़र रखे हुए थे. मैंने सिर्फ एक बार उन्हें भावुक होते हुए देखा. यह बात साल 1995 के अंत या 1996 के शुरुआत की रही होगी.
उस समय मामले की सुनवाई कर रहे जज जेएन पटेल ने कई अभियुक्तों को ज़मानत दे दी थी.
एक उम्मीद थी, लेकिन यह मेमन बंधुओं के लिए नहीं थी. याक़ूब को चिल्लाते और बिना किसी को नुकसान पहुंचाए आक्रामक होते हुए मैंने पहली बार देखा था. उन्होंने कहा था, “टाइगर सही था. हमें वापस नहीं लौटना चाहिए था.”
मुझे ताज्जुब होगा अगर वो इन सालों में बदल गए हों. मीडिया की ख़बरों के अनुसार, वो आज नागपुर के जेल की एक एकांत कालकोठरी में फांसी का इंतज़ार कर रहे हैं.
ये अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, एकांत कोठरी में रखना ग़ैरक़ानूनी है.

उनके लिए कोर्ट से राहत की एक आखिरी कोशिश बाकी है.
मेरे दोस्त आर जगन्नाथन ने 'फ़र्स्टपोस्ट डॉट कॉम' में अपने एक लेख में दमदार तर्क दिया है कि क्यों सरकार को याक़ूब मेनन को फांसी नहीं देनी चाहिए.
वो तर्क देते हैं कि राजीव गांधी और पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामलों में जिन्हें फांसी दी जानी थी, उन्हें अभी तक फांसी पर नहीं लटकाया गया है.
तमिलनाडु विधानसभा की दया अपील के बाद राजीव की हत्या करने वाले संथन, मुरुगन और पेरारीवलन की फांसी की सज़ा कम कर दी गई थी. बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजाओना ने बड़े गर्व से अपना अपराध स्वीकार किया था और उन्होंने खुद को फांसी दिए जाने की मांग की थी.
लेकिन उन्हें अभी तक ज़िंदा रखा गया है. शायद इसका कारण पंजाब विधानसभा की कोशिशें हैं.

जगन्नाथन ने लिखा है, “एक चीज़ सबको साफ़ दिखती है. जहां एक सज़ायाफ़्ता हत्यारे या चरमपंथी के पास मज़बूत राजनीतिक समर्थन होता है वहां न तो सरकार और ना ही अदालत निष्पक्ष न्याय देने की हिम्मत जुटा पाती है.”
अब देखिए, जब हत्यारों की अलग किस्म का मामला आता है जैसे अज़मल कसाब, अफ़जल गुरु और अब याक़ूब मेमन, तो कैसे वही केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और अदालतें ‘क़ानून का सम्मान’ करने में दिलचस्पी लेने लगती हैं.
जगन्नाथन के मुताबिक़,“फांसी पर लटकाए जाने वाले मुसलमानों में और एक बात है. इन सबके पास राजनीतिक समर्थन की कमी है.’’
मैं सहमत हूँ और इस कारण मैं सोचता हूँ कि मेमन को फांसी दे दी जाएगी.
इस फांसी के साथ ही धमाके मामले में अदालती सुनवाई से मेरा जुड़ाव भी ख़त्म हो जाएगा.

एक रिपोर्टर के रूप में अपने पहले दिन, मैं अभियुक्तों से मिला था. उस दिन मैं मुंबई के आर्थर रोड ज़ेल देर शाम को पहुंचा था.
ज़ेल के बंद दरवाज़ों के सामने बुरक़ा पहने दर्जन भर महिलाएं ख़डी थीं. ये औरतें अपने पतियों, बेटों या भाइयों को घर का खाना देने के लिए आवेदन करना चाहती थीं.
इन महिलाओं को अंग्रेज़ी लिखना नहीं आता था और उनमें से एक ने मुझसे लिखने को कहा था. मैंने उन सबके लिए आवेदन लिखे थे.
जैसे ही मैंने लिखना ख़त्म किया, एक गॉर्ड जेल के गेट से बाहर आया और जेल के सबसे ऊपरी सिरे पर एक अंधेरी खिड़की की ओर इशारा करते हुए बोला कि जेलर मुझसे मिलना चाहते हैं.
मुझे जेलर हीरेमठ के पास पहुंचाया गया. उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं क्या कर रहा था.

मैंने उन्हें बताया तो वो नरम पड़े.
हीरेमठ ने मुझे ज़ेल दिखाने का प्रस्ताव किया और पूछा, “क्या आप संजय दत्त से मिलना चाहते हैं?”
मैंने हां कहा और इस तरह से मैं धमाके के अभियुक्त लोगों को जान पाया और उनसे नियमित रूप से कोर्ट और जेल में मिलने लगा.
दत्त की तरह कुछ लोग फिर से जेल में हैं.
जबकि शांत और मध्यवर्ग से आने वाले मोहम्मद जिंद्रान जैसे लोग मार दिए गए हैं.
और अब, फांसी दिए जाने के लिए याक़ूब की बारी है.

(आकार पटेल एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक हैं.)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Saturday, July 18, 2015

अब्बू, ईद आते ही आपकी याद सताने लगती है……अली सोहराब




मैं एक गरीब फैमली से ताल्लुक रखता हूँ, उस वक़्त अब्बू बड़ी मुश्किल से घर का खर्चा चला पाते थे, खैर खाने पीने वाली चीजें बहुत महंगा नहीं हुआ करती थीं, 10 रुपये में चार-पांच दिनों का सब्ज़ी तो मिल ही जाता था,  लेकिन कपड़े महंगा हुआ करते थे, ईद के ईद ही नए कपड़ों का दर्शन हुआ करता था, शर्ट तो एक साल चल जाते थे, लेकिन पैंट का पिछला हिस्सा घिस जाता था, अम्मी अब्बू से गुस्सा तक हो जाती थीं, और न चाहते हुए भी पैंट के घिसे हुए पिछले हिस्से पर पेवन्द लगा देतीं थीं, और साल गुज़र जाता था, लेकिन मुशीबत ये था कि मोहल्ले में एक आमिर बाप की औलाद रहा करता था, जीना हराम कर रखा था, हमारे पैंट पे लगे पेवन्द से पता नहीं उसे क्या बैर था, पीछे से आकर नोच देता था, और बच्चों के बीच हमारा मज़ाक बना देता था, अम्मी को रोते हुए आकर शिकायत करते थे, अम्मी बड़बड़ातीं, उसको लानत भेजतीं फिर मुझे ही डाँटती, उसके ही पास क्यों जाते हो खेलने, दूसरा कोई नहीं मिलता है तुम्हे, उसके पास अब मत जाना, वो अच्छा बच्चा नहीं है, पर मैं क्या करता मोहल्ले से दूर कैसे जाता, वो तो मेरे पीछे ही पड़ा रहता था.

आप सोच रहें होंगे कि ऐसे हालत में काका (अली सोहराब) ने पढ़ाई कैसे किया तो, बता दूँ मैट्रिक तक को कुछ दिक्कत नहीं हुआ, पर इंटर (+2) में खर्चे बढ़ गए, और अब्बू रिटायर हो चुके थे इसलिए इंटर (+2) की पढ़ाई का खर्चा अब्बू के बजट के बहार होने लगा, अब्बू अपने बजट का कभी एहसास नहीं होने देते थे, हर हफ्ते कुछ न कुछ पैसा दे ही देते थे, लेकिन मुझे अंदाज़ा हो चूका था अब्बू के माली हालत का, एक दोस्त (सोहैल भाई हमसे सीनियर थे) से इस बारे में बात किया तो उन्होंने कहा तो उन्होंने कहा के कोई दिक्कत नहीं मैं खुद अपने पढ़ाई का खर्चा बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर निकाल लेता हूँ, फिर उन्हने अपने हिस्से के 4 -5  ट्यूशन मुझे दे दिए और माशा अल्लाह पढ़ाई का खर्चा बड़े ही आसानी से निकलने लगा. 

अभी इंटर (+2) का सेकंड ईयर ही था के अब्बू को ब्रेन टियूमर हो गया, पढ़ाई छोड़ छाड़ फ़ौरन घर के तरफ भागा, लोगों ने सलाह दिया कलकत्ता में इसका इलाज़ हो जायेगा, दुर्गापूजा की छुट्टी चल रही थी, इसलिए बैंक में जो कुछ भी अब्बू ने रखा था उसे निकालना मुश्किल हो गया क्योंकि छुट्टी के कारण बैंक भी बंद थे, मुहल्लों वालों ने बहुत बड़ा एहसान किया जिसके पास जितना पैसा था ला ला कर दे दिए (क़र्ज़), किसने कितना दिया इसका हिसाब रखने के लिए मैं और मेरे से बड़ी बहन ने मिलकर लिस्ट तैयार किया, लाख रुपये के करीब इकठ्ठा हो गया और फ़ौरन हम कलकत्ता के लिए चल पड़े. 

स्टेशन मास्टर और टीटी की मदद से स्लीपर में सीट मिल गया, हम कलकत्ता पहुचें, दुर्गा पूजा के कारण लगभग सभी डॉक्टर छुट्टी पर थे, तीन दिन बाद दुर्गा पूजा ख़त्म हुआ, पार्क हॉस्पिटल के डॉक्टर ने ब्रेन टियूमर का ऑपरेशन करने का सलाह दिया बोला ऑपरेशन के बाद ठीक हो जायेगा, हमने हामी भरदी, एक फॉर्म पर हस्ताक्षर लिया, ऑपरेशन एक हफ्ते बाद शुरू हो गया, जिस दिन ऑपरेशन हुआ पूरा दिन भूखे प्यासे अल्लाह से दुआ करता रहा, 12-15 घंटे बाद अब्बू को होश आया ख़ुशी के मारे ठिकाना न था, ICU में अब्बू  से बात करने की कोशिश की लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया, जब दूसरे दिन हॉस्पिटल का बिल आया तो सभी के होश उड़ गए एक लाख तैंतालीस के आस पास था, हमने तो केवल अस्सी पचासी हज़ार ही जमा कराये थे. 

खैर कलकत्ता में भी मेरे मोहल्ले के बहुत से लोग थे, लोगों ने पैसे दिए (क़र्ज़) हॉस्पिटल का बिल चुकाया और अब्बू सही सलामत घर आ गए, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था, इंटर (+2) फाइनल के पहले पेपर के एग्जाम से चार दिन पहले ही अब्बू हमें छोड़ कर चले गए, कब्र में दफ़नाने के बाद जैसे ही घर आया मैं बहुत बड़ा हो चूका था, पुरे घर का बोझ मेरे सर पर आ चूका था, एग्जाम दूँ या न दूँ सोच सोच सोच कर बुरा हाल था, कभी अम्मी को देखता तो कभी छोटे-छोटे भाई बहन को, ऊपर से लाखों रुपये क़र्ज़ का दबाव.

अब्बू के मौत के चौथे दिन चहारम अर्थात मृत्यु भोज का प्रोग्राम था, इस हालात में भी समाज के रश्म-रिवाज़ का दबाव क्या होता है उस दिन समझ में आया, चहारम / मृत्युभोज का कर्यक्रम शुरू हुआ और मैं हिम्मत जुटाकर अम्मी के पास गया और बोला अम्मी मेरा आज 2 बजे से एग्जाम है, अम्मी ने जवाब दिया उनका (अब्बू) चहारम छोड़ कर एग्जाम देने जाओगे लोग क्या कहेगें,
मामू समझाने लगे आज बड़े लड़के के सर पर पगड़ी बंधती है अर्थात पुरे घर की जिम्मेवारी दी जाती है, एक बार हिम्म्त करके अम्मी से फिर बोला मुझे किसी की परवाह नहीं तुम मुझे इज़ाज़त देदो, अम्मी ने कहा जैसा तुम ठीक समझो बाबू।

अम्मी ने जैसे ही हामी भरी किसी को कुछ भी बताये बगैर साईकल उठाया एग्जाम देने चल दिया, शाम को आया तो चहारम / मृत्युभोज का कर्यक्रम समाप्त हो चूका था, दुःख हुआ कि मैं अब्बू का अच्छा बेटा नहीं हूँ, जो चहारम में नहीं रहा, आगे का एग्जाम (सभी पेपर) दिल ही दिल में अब्बू से माफ़ी मांगते हुए दे दिया.

अब बारी था चालीसवां (बड़ा मृत्युभोज) का जिसमे पुरे गावं को भोज खिलाना था, कुछ भी धार्मिक ज्ञान नहीं था इसलिए इंकार करने की तो कोई गुंजाईश ही नहीं थी, फूफा से क़र्ज़ लेकर 80 से 85 किलो गोश्त मंगाया और पुरे गावं को भोज खिला दिया, इस बार खुश था, अम्मी भी खुश थीं  क्योंकि मैं मृत्युभोज के सभी कर्मकांड में मौजूद रहा. 

अब हमारा असली वाला एग्जाम शुरू हुआ, अब्बू  के इलाज़ से लेकर चालीसवां तक में क़र्ज़ का हिसाब करने पर पता चला दो लाख रूपया के करीब में क़र्ज़ हो चूका है (उस समय का दो लाख बहुत बड़ी रक़म होता था) अब्बू के अकाउंट में कुछ पैसा तो था लेकिन बगैर मृत्युप्रमाण पत्र के निकासी नहीं हो सकती थी, मोहल्ले के ही एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने दो चार सौ रूपये लिए और बेचारे ने मदद करते हुए जल्द मृत्युप्रमाण पत्र बनवा दिए, बैंक जाकर सभी फोर्मलिटी पूरा किया, मैनेजर बाबू ने भी सपोर्ट किया, दो दिन में ही अब्बू का नाम काट अकाउंट में मेरा नाम चढ़ा दिया.

अब्बू का बैंक खता (जो अब मेरे नाम हो चूका था) का पूरा पैसा उठाया और कुछ लोगों का क़र्ज़ चुकता कर दिया, लेकिन जो अपने नज़दीकी रिश्तेदार थे उनके क़र्ज़ की रकम अच्छा खासा था, अभी भी लाखो रुपये का क़र्ज़ सर पर लेकर घूम रहा था.

इसी बीच इंटर (+2) का रिजल्ट आया और मैं फर्स्ट डिवीज़न से पास हो चूका था, ख़ुशी का ठिकाना न था, इतने मुशीबत में गणित मेन सब्जेक्ट होते हुए फर्स्ट डिवीज़न आना मेरे और अम्मी के लिए चमत्कार से कम नहीं था, लेकिन मिठाई नहीं बाँट सकता था, क्योंकि अभी-अभी तो अब्बू की मृत्यु हुई थी, ऊपर से क़र्ज़ का बोझ भी था.

अब सबसे बड़ी मुशीबत ये था कि इतने बड़े क़र्ज़ के बोझ को लेकर आगे की पढ़ाई जारी रखना, अम्मी से बोला, मैं दिल्ली जा रहा हूँ कोई नौकरी कर लूंगा, अम्मी ने फिर वही जवाब दिया, जो तुम ठीक समझो, कोई सलाह भी देने वाला नहीं था.

एक दोस्त ने सलाह दिया, कोशिश करो आगे पढ़ाई जारी रखने का, कमाने के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी  है, एक खेत / जमीन गिरवी रखा और आगे की पढ़ाई पूरा किया, अम्मी ने कभी भी अब्बू की कमी महसूस नहीं होने दिया, पढ़ाई खत्म करते ही नौकरी पर लग गया, दो साल में ही सभी क़र्ज़ का भुगतान कर दिया.

अब कोशिश करता हूँ जो खुशियां मुझे नहीं मिली वो सारी की सारी खुशियां बिटिया सारा अली के झोली में डाल दूँ!

अब्बू, ईद आते ही आपकी याद सताने लगती है……

ईद के ख़ुशी के मौके पर पता नहीं कैसे ये दुःख सब याद आने लगे, अल्लाह से दुआ करता हूँ सबको खुश रखे.