केसरिया ब्रिगेड को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की अचानक याद आना बेवजह नहीं है। यूपी में विधानसभा चुनाव को सिर्फ डेढ़ साल का वक्त बचा है। बिहार का सबक यह है कि जातियों का चक्रव्यूह भेद पाना फिलहाल बीजेपी के बस की बात नहीं है। ऐसे में देश के सबसे बड़े राज्य की सत्ता संभालने का सपना धार्मिक उन्माद के रथ पर सवार होकर ही पूरा हो सकता है। बीजेपी को यूपी में अब तक सिर्फ एक बार, 1991 में बहुमत मिला था, जब पूरा देश राम मंदिर आंदोलन की आग में तप रहा था।
उसे राज्य की 425 में से 221 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन 1992 में अयोध्या के विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद ‘जो कहा, सो किया’ का नारा भी बीजेपी को बहुमत नहीं दिला पाया। उसके बाद से राज्य में पांच चुनाव हो चुके हैं और बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है।
दरअसल यूपी की पॉलिटिक्स में सत्ता की चाबी दलित, पिछड़े और मुसलमानों के हाथों में है। यह बीजेपी की बदकिस्मती कही जा सकती है कि इनमें से किसी एक में भी उसकी पैठ नहीं है। पार्टी की कामयाबी का फॉर्म्युला धार्मिक आधार पर वोटरों के विभाजन में निहित है। विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद मंदिर आंदोलन की आग ठंडी पड़ी तो वोटरों के बीच धार्मिक आधार पर खड़ी हुई दीवार भी ढह गई और जातियों के पाले फिर से बंट गए। सरकारी आंकड़ों को सही मानें तो राज्य में 27 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग (गैर सरकारी स्तर पर इनकी आबादी 52 प्रतिशत मानी जाती है) और 23 प्रतिशत दलित हैं। इसके अलावा लगभग 16 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं।
मंदिर और मंडल की राजनीति ने यूपी में मुलायम सिंह यादव और मायावती को क्रमश: पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग के ‘महानायक’ के रूप में स्थापित किया। साथ ही मुस्लिम वोटरों में इस मानसिकता का जन्म भी हुआ कि हम बीजेपी को नहीं जीतने देंगे, जो भी उसको हरा रहा होगा, उसी को वोट डाल आएंगे। यही वजह है कि 1992 के बाद से यूपी के सभी विधानसभा चुनाव इन्हीं दो पार्टियों के बीच सिमटते रहे हैं। बीजेपी ने कल्याण सिंह से लेकर ओमप्रकाश सिंह और विनय कटियार जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं को अपने चेहरे की तरह पेश किया, लेकिन खुद को अगड़ा वर्ग की पार्टी वाली छवि से वह कभी उबार नहीं सकी।
राज्य में अगड़ा वर्ग केवल अपने बूते चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं है। जीत की कहानी लिखने के लिए उसे पिछड़ा, दलित या मुसलमानों में से किसी एक के बड़े हिस्से का समर्थन पाना जरूरी होता है। अगड़े वर्ग के नेता बीजेपी पर अगड़े वर्ग की पार्टी का ठप्पा होने के बावजूद उसके मुकाबले समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी से टिकट लेना ज्यादा पसंद करते हैं। उन्हें मालूम है कि टिकट पाने के साथ ही इन पार्टियों का परंपरागत वोट उन्हें हासिल हो जाएगा और अपनी बिरादरी का वोट जुड़ते ही उनकी जीत पक्की हो जाएगी।
यूपी की तरह बिहार में भी दलित, पिछड़ा और मुसलमान वोटर ही निर्णायक हैं। लोकसभा के चुनाव में मिली अप्रत्याशित जीत से बीजेपी ने यह खुशफहमी पाल ली थी कि वह विधानसभा के चुनाव में भी वैसा ही करिश्मा कर सकती है। उसकी पूरी रणनीति यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटरों के मुकाबले अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, दलित, महादलित वोटरों को एकजुट कर किला फतह करने की थी। लेकिन तीन चरणों का चुनाव खत्म होते-होते बीजेपी को लग गया कि जातीय मोर्चे पर वह लड़ाई हार रही है। यादव, कुर्मी और मुस्लिम वोटरों के मुकाबले बाकी जातियों में वह सेंध नहीं लगा पा रही है और ये जातियां भी नीतीश-लालू के नेतृत्व में लामबंद हो रही हैं। इसके बाद ही बीजेपी को अपनी रणनीति में बदलाव के लिए विवश होना पड़ा।
अंतिम चारे के रूप में उसने धार्मिक मुद्दे उछालने शुरू किए। महागठबंधन की जीत पर पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जाने की बात कही गई। चुनाव नतीजे आने के बाद बीजेपी लीडरशिप ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि वे बिहार में जातियों के गठबंधन को नहीं तोड़ पाए। पार्टी ने महसूस किया कि क्षेत्रीय स्तर पर उसके पास नीतीश और लालू के कद वाले पिछड़े वर्ग के नेता नहीं थे। अब, जबकि यूपी में डेढ़ साल बाद चुनाव होने हैं, पार्टी को अच्छी तरह पता है कि वहां भी मुलायम और मायावती के कद का कोई नेता उसके पास नहीं है।
ऐसे में पिछड़ा वर्ग और दलित वोटरों के बीच सेंध लगाने की बात सोचना खुद से बेईमानी करना है। पार्टी को लगता है कि अगर जातियों के बजाय धार्मिक आधार पर वोटरों का ध्रुवीकरण होता है तो यह उसके लिए ज्यादा मुफीद रहेगा।
संघ परिवार को लगता है कि इसके लिए राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सबसे आदर्श है। इसी के चलते मंदिर निर्माण की बात फिर से उठने लगी है। वीएचपी संरक्षक अशोक सिंघल को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित समारोह में मंदिर निर्माण की बात हो रही है। फिलहाल यह कह पाना बहुत कठिन है कि यह मुद्दा नब्बे के दशक जैसी गर्मी दोबारा पैदा कर पाएगा कि नहीं। कहीं संघ प्रमुख की तरफ से उठाया गया यह मुद्दा यूपी में बीजेपी के लिए उसी तरह गले की हड्डी न बन जाए, जैसे आरक्षण का मुद्दा बिहार में बन गया था।