२. स्त्री को बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं और वह उनके अधीन ही रहती है और उसे अधीन ही बने रहना चाहिए, एक स्त्री कभी भी स्वतंत्र योग्य नहीं है।
३. बिगड़ने के छोटे से अवसर से भी स्त्रियों को प्रयत्नपूर्वक और कठोरता से बचाना चाहिए, क्योंकि न बचाने से बिगड़ी स्त्रियाँ दोनों (पिता और पति) के कुलों को कलंकित करती है।
४. सभी जातियों के लोगों के लिए स्त्री पर नियंत्रण रखना उत्तम धर्म के रूप में जरूरी है। यह देखकर दुर्बल पतियों को भी अपनी स्त्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
५. ये स्त्रियाँ न तो पुरुष के रूप का और न ही उसकी आयु का विचार करती हैं। यही कारण है कि पुरुष को पाते ही ये उससे भोग के लिए प्रस्तुत हो जाती है चाहे वह कुरूप हों या सुन्दर।
६. स्वभाव से ही परपुरुषों पर रीझने वाली चंचल चित्त वाली और स्नेह रहित होने से स्त्रियाँ यत्नपूर्वक रक्षित होने पर भी पतियों को धोखा दे सकती हैं।
७. मनु के अनुसार ब्रह्माजी ने निम्नलिखित प्रवित्तियां सहज स्वभाव के रूप में स्त्रियों में पाई हैं- उत्तम शैय्या और अलंकारों के उपभोग का मोह, काम-क्रोध, टेढ़ापन, ईर्ष्या द्रोह और घूमना-फिरना तथा सज-धजकर दूसरों को दिखाना।
८. स्त्रियों के जातकर्म एवं नामकर्म आदि संस्कारों में वेद मन्त्रों का उच्चारण नहीं करना चाहिए। यही शास्त्र की मर्यादा है क्योंकि स्त्रियों में ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग की क्षमता का अभाव ( अर्थात सही न देखने, सुनने, बोलने वाली) है।
-लोकसंघर्ष
-आरएसएस को पहचानें किताब से साभार
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