Monday, December 27, 2010

जिहाद या फ़साद (भाग-३)

(हिन्‍दू स्‍कालर हरिद्वार निवासी डा. अनूप गौड़ की पुस्‍तक क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जाएगा”  का सूक्ष्म जवाब)

डा. गौड़ अपनी इसी पुस्तक में लिखा है:
“मुहम्मद सा. सल्ल. ने स्वयं अपने जीवन काल में 82 युद्ध किए” ।”पेज 33

डा. अनूप गौड़ अगर दस बीस का हवाला भी अंकित कर देते तो हमारे ज्ञान भण्डार में भी वृद्धि हो जाती, क्योंकि उक्त जैसी आत्म रक्षक कार्यवाई को भी अगर वह युद्ध मानते हैं तो भी मुहम्मद सा. सल्ल. के पूरे जीवन काल के इतिहास में इस प्रकार की, बल्कि इससे भी बढ़कर केवल आत्म रक्षक कार्यवाइयों की अधिक से अधिक संख्या तीन हैं। आपकी भाषा में अगर इस प्रकार के आत्मरक्षा के प्रयास, युद्ध हैं, तो उक्त तीन युद्धों के अतिरिक्त शेष दो घटनाएं और हैं परन्तु वे भी केवल आत्मरक्षा के अन्तिम प्रयास थे। वह कैसे? आइए देखते है। उक्त लड़ाई में जैसा कि बताया गया कि मक्के वालों को अधिक हानि का सामना करना पड़ा था। अतः उसका बदला लेने के लिए वह अगले वर्ष पहले से भी अधिक तैयारी के साथ एवं बड़ी सेना लेकर मदीने पर आक्रमण के लिए निकल पड़े। मुहम्मद सा. सल्ल. को जब इस की सूचना प्राप्त हुई तो उन्होंने अपने साथियों से इस संबंध में परामर्श किया, कि, नगर से बाहर निकलकर आक्रमणकारियों का रास्ता रोका जाए, या नगर में रहकर आत्मरक्षा की जाए,अधिकांश साथियों की राय पर यह निर्णय लिया गया कि नगर से बाहर ही आक्रमण करने वालों का रास्ता रोक लिया जाए। इतिहास में यह बात बहुत स्पष्ट रूप से लिखी गई है कि इस समय पर स्वयं मुहम्मद सल्ल. की राय यह थी कि नगर के भीतर रहकर ही आत्मरक्षा के उपाय किए जाएं, परन्तु अधिकांश व्यक्तियों की सलाह का पालन करते हुए मदीने से करीब डेढ़ कि.मी. बाहर आकर मुहम्मद सा. सल्ल. ने अपने साथियों के साथ मक्के वालों का रास्ता रोक लिया। इस समय भी मक्के वालों से घमासान युद्ध हुआ जिसे इतिहास में “ओहद” की लडाई के नाम से जाना जाता है। इस के आरम्भ में मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा। परन्तु अन्तिम चरण में उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा।

ख़्याल रहे कि मक्के वाले चार सौ कि.मी. की लम्बी यात्रा करके मदीने पर आक्रमण करने आए थे और मुहम्मद सा. सल्ल. ने केवल आत्म रक्षा के बेहतर उपाय के तौर पर नगर से बाहर निकलकर उनका रास्ता रोका था। फलस्वरूप युद्ध हुआ, और युद्ध न होता तो क्या आप यह चाहते हैं कि मुहम्मद सल्ल. एवं उनके साथियों को, बावजूद इस के कि वे अपना घरबार छोड़ कर बहुत दूर जा बसे हैं, परन्तु मुख़ालिफ़ लोग हैं कि वहाँ भी चैन से नहीं रहने देते और बार-बार आक्रमण करते हैं, तो क्या ऐसे समय में हाथ पर हाथ रखे घर में पड़ा रहना चाहिए था ?

यह मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल का दूसरा युद्ध है, जिसका आपने नेतृत्व किया। आइए अब शेष बचे तीसरे युद्ध पर भी एक नज़र डालें, जिसका इतिहास पढ़कर आपको लगेगा कि वह पहली दोनों घटनाओं से भी अधिक केवल आत्म रक्षा का इंतिहाई और आख़ीरी दर्जे का प्रयास था।

जैसा कि लिखा गया है कि “ओहद” की लड़ाई के अन्तिम चरण में मुसलमानों को हानि उठानी पड़ी थी। अतः इस स्थिति ने मक्के वालों के हौसले बुलन्द कर दिए एवं वह मुहम्मद सल्ल. और उनके साथियों को जड़ से मिटाने के लिए एक बडे़ आक्रमण की तैयारी में लग गए उन्होंने आस-पास के कबीलों एवं सरदारों की सहायता भी प्राप्त की, एवं दो वर्ष की भारी भरकम तैयारी के बाद विभिन्न कबीलों के दस हज़ार सैनानियों की एक विशाल सेना लेकर मदीने पर आक्रमण के लिए चल दिए, मुहम्मद सल्ल. को यह सूचना प्राप्त हुई तो साथियों से परामर्श के उपरान्त यह निर्णय लिया गया कि क्योंकि मदीना शहर तीन ओर से ऊँचे, पहाडों एवं घने बागों से घिरा है और एक दिशा केवल उत्तर की दिशा से ही आक्रमण हो सकता है। अतः इस दिशा में शहर के बाहर एक लम्बी खाई खोद ली जाए। जिसे फाँदकर कोई आसानी से शहर में प्रवेश न कर सके। अतः एक लम्बी और गहरी खाई खोदी गई जिसे खोदने में मुहम्मद सल्ल. स्वयं सम्मिलित हुए। मक्के वालांे की सेना जब यहाँ पहुँची तो उसे मदीने में प्रवेश करने का मार्ग न मिला। फलस्वरूप उसने मदीने से बाहर खाई के पार पड़ाव डाल दिया और मदीनेवासियों पर आक्रमण करने के लिए मदीने में प्रवेश का मार्ग खोजने लगे। दूसरी ओर खाई के तट पर उसकी देख-रेख के लिए मुहम्मद सल्ल. स्वयं अपने साथियों के साथ उपस्थित रहे। मक्के वालों की सेना के एक सरदार ने दिलेरी दिखाते हुए अपना घोड़ा खाई में डालकर आक्रमण करना चाहा परन्तु मुसलमानों के हाथों मारा गया, इसके अतिरिक्त इस पूरी घटना में कोई विशेष झड़प नही हुई न ही किसी पक्ष की विशेष हानि हुई। परिणाम यह हुआ कि प्राकृतिक स्थिति मुसलमानों के हक़ मे थी, क्योंकि वह अपने शहर में थे जबकि शत्रु की सेना अपने शहर एवं घर से बहुत दूर जंगल में पड़ाव डाले हुए थी। दूसरी ओर मौसम, बारिश का था एवं अरब की तेज व तुन्द हवाओं ने स्थिति मक्के वालों के लिए काफी खराब कर दी थी। अंततः मक्के वालों को मदीने का घेराव तोडकर खाली हाथ मक्के लौट जाना पड़ा। इतिहास में इसे “गज़वा-ए-ख़न्दक” के नाम से जाना जाता हैं, क्योंकि ख़न्दक खाई को ही कहते है। यह मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल की तीसरी घटना थी, क्या इसे आप युद्ध का नाम देंगे या आत्मरक्षा का अथक प्रयास? निर्णय आपको करना है।

मुनासिब मालूम पड़ता हैं कि मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल की उन सभी घटनाओं का वर्णन कर दिया जाए, जिनमें किसी भी प्रकार विपक्ष से आपका सामना हुआ हो, ताकि डा0 गौड़ के द्वारा उन पर बयासी युद्ध करने के आरोप का सत्य सामने आ सके।

हिजरत के छठे साल मुहम्मद सल्ल. ने स्वयं को ख़्वाब में मक्के में स्थित काबे की परिक्रमा(उमरह) करते हुए देखा तो आप अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए अपने साथियों के साथ मक्के की ओर चल दिए, मक्के वालों को जब इस की सूचना प्राप्त हुई तो, उन्होंन मक्के से बाहर निकलकर आपका रास्ता रोक लिया। विगत तीन-तीन बार के मदीने पर किए गए हमलों में पराजय का मुँह देखने के कारण यद्यपि मक्के वालों के हौसले टूट चुके थे एवं इस समय उनको अन्य कबीलों की सहायता भी प्राप्त न थी, दूसरी ओर मुहम्मद सल्ल. के साथ प्राणों की आहुति देने को तत्पर रहने वाले डेढ़ हजार

सुसज्जित साथी सैनानियों का साथ प्राप्त था। अगर वह चाहते तो शक्ति के बल पर मक्के में प्रवेश कर सकते थे परन्तु उन्होंने ऐसा न करते हुए मक्के वालों को कहलवा भेजा कि, मैं युद्ध का कोई इरादा नहीं रखता। मैं तो केवल “उमरह” अदा करने आया हूँ एवं “उमरह” करने के बाद में अपने साथियों सहित मदीने लौट जाऊँगा। परन्तु मक्केवालांे ने उन्हें एवं उनके साथियों को मक्के में प्रवेश की अनुमति न दी। अंततः कुछ बिचैलियों के माध्यम से वह अपनी ओर से अधिकाधिक अनुचित एवं दबावटी शर्तों को प्रस्तुत करते हुए उन्हें मुसलमानों के द्वारा मान लेने की स्थिति में केवल इस बात पर सहमत हुए कि वे इस समय तो खाली हाथ वापस जाएं परन्तु अगले वर्ष आकर “उमरह” कर लें। मुहम्मद सल्ल. ने इसी उपलब्धि के बदले उनके हर प्रकार के उचित-अनुचित प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हुए संधि कर ली, केवल अपने लिए इस संधि में एक गारंटी और चाही, वह यह कि मक्के वाले दस वर्षों तक मुसलमानों के ऊपर कोई आक्रमण न करें।

इस संधि को इतिहास में “सुलह हुदैबिया” के नाम से जाना जाता है। आइए देखते हैं कि इस में क्या-क्या तय हुआ था।

(1) मुसलमान इस वर्ष खाली वापस जाएं। अगले वर्ष आकर उमरह करें।

(2) उन्हें मक्के में तीन दिन से अधिक रूकने की अनुमति नहीं होगी।

(3) मक्के में जो मुहम्मद सा0 के अनुयाई हैं उन में से किसी को साथ न ले जा सकेंगे।

(4) अगर मक्के वालों में से कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म स्वीकार करके मदीने चला जाए तो उसे मक्के वालों के हवाले करना होगा, जबकि अगर कोई मुसलमान मक्का वापस आ गया तो मक्के वाले उसे वापस न करेंगे।

अगर किसी घटना में इस हद तक दबावटी प्रतिबन्धों के साथ बिना किसी प्रकार की लडाई, झगड़े के संधि कर ली जाए तो क्या आप उसे भी युद्ध कहेंगे? यह निर्णय लेना आपके हाथ है।

इस सन्धि के बाद मुहम्मद सल्ल. मक्केवालों की ओर से संतोष हो गया तो उन्होंने एकान्तीय हृदय से विश्व भर के बडे़-बडे़ राजा महाराजाओं को पत्र लिखकर उन्हे इस्लाम धर्म की दावत दी। जिनमें उस समय के दो बडे साम्राज्यों किसरा (ईरान) एवं कैसर (रोम) आदि को पत्र लिखे एवं अपने प्रतिनिधि मंडल भेजकर उन्हे इस्लाम धर्म स्वीकार करने का संदेश दिया, परन्तु अभी दो ही वर्ष हुए थे कि मक्के वालों ने सन्धि को तोड़ दिया। अतः सन् आठ हिजरी में मुहम्मद सल्ल. अपने अधिकतर अनुयाइयों को साथ लेकर मक्का पहुंचें एवं शहर से बाहर पड़ाव डाल दिया। एक रात्रि का विश्राम करने के बाद अगले दिन मुहम्मद सल्ल. ने अपने दस हजार अनुयाइयों के साथ बिना किसी रूकावट के मक्के में प्रवेश किया।

निःसन्देह आप चौंक गए होंगे कि ऐसी स्थिति में जब मक्के वालों ने मुहम्मद सल्ल. को जान से मार डालने के लिए उनके घर का घेराव कर लिया था, जब इन्हीं मक्के वालों ने उन्हें एवं उनके साथियों को दो-दो बार अपना प्यारा घर बार छोड़ने पर मजबूर किया था एवं यही मक्के वाले थे जिन्होंने चार सौ कि.मी. से भी अधिक दूर मदीने में जाकर पनाह लेने वाले मुहम्मद सल्ल. एवं उनके अनुयाइयों पर तीन-तीन भयानक आक्रमण किए थे।

अब जबकि अपने दस हजार अनुयाइयों के साथ मुहम्मद सा0 ने मक्के में प्रवेश करके अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ऐसे समय में मुहम्मद सल्ल. ने मक्के वालों के साथ क्या व्यवहार किया होगा? मगर चैंकिये मत, किसी ने भी किसी पर हाथ नहीं उठाया बल्कि सार्वजनिक क्षमा का एलान कर दिया गया एवं घोषणा की गयी कि जो अपने घर का द्वार बन्द कर लेगा उसको शरण होगी, जो काबा क्षेत्र में चला जाएगा उसको भी शरण होगी, यहाँ तक कि “अबूसुफ़ियान” जिन्होंने अधिकांश युद्धों में शत्रु सेना का नेतृत्व किया था यह घोषणा की गई कि जो उनके मकान में प्रवेश कर लेगा उसे भी शरण होगी।

क्या विश्व का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है, जिसमें शत्रु सेना के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि जो उसके घर में घुस जाए उसे कुछ नहीं कहा जाएगा। इस घटना को इतिहास में “फ़तह मक्का” के नाम से जाना जाता है।

मक्का फतह हो गया तो मक्के की पूर्वी दिशा में रहने वाले ‘हवाज़िन’ एवं ‘सक़ीफ़’ नामक दो क़बीले व्याकुल हो उठे एवं युद्ध करने को तैयार हो गए, उन्होनें मुसलमानों पर तीरंदाज़ी शुरू कर दी। मुहम्मद सल्ल. भी अपने अनुयाइयों के साथ उनका मुकाबला करने को तैयार थे मुसलमानों को सामने डटा देख यह कबीले मैदान छोड़कर भाग गए एवं ”ताइफ़“ नगर में जा छिपे, मुहम्मद सा0सल्ल0 ने आगे बढ़कर ”ताइफ़“ का घेराव कर लिया परन्तु वह यहाँ से निकलकर ‘अवतास’ की गुफाओं में जा छिपे तो मुहम्मद सल्ल. घेराव तोड़कर मदीने वापस आ गए। इस घटना को इतिहास में “हुनैन” के नाम से जाना जाता है।


जारी.................................

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