मुसलमानों के पक्ष में उलेमा काउंसिल बनी, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी(नेलोपा) ने लड़ाई लड़ी और अब भविष्य की उम्मीदें लेकर पीस पार्टी उभरी है। मुसलमानों को लगता है कि इन तीनों पार्टियों के नेतृत्वकर्ता मुस्लिम है,इसलिए वह समुदाय को संदिग्ध बनाने की कोशिश के खिलाफ मैदान में उतरेंगे।
बाटला हाउस कांड के बाद उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में राजनीतिक नेतृत्व की चाहत पहले के मुकाबले ज्यादा ताकतवर ढंग से उभर कर आयी है। यह चाहत उत्तर प्रदेश में उन दलों के लिये चुनौती साबित होने जा रही है जो अपने को धर्मनिरपेक्ष राजनीति के अलंबरदार कहते रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से मुसलमानों का भरोसा उठने के तर्कसंगत कारण हैं और अब उनके बीच यह साफ हो चुका है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जवाब एक नया मुस्लिम ध्रुवीकरण ही है।
मुस्लिम समुदाय ने प्रदेश के दो विधानसभा सीटों के लिए हाल ही में हुए उपचुनावों में पीस पार्टी को मुकाबले में खड़ाकर और कांग्रेस को लड़ाई से बाहर कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है। वहीं दोनों सीटों डुमरियागंज और लखीमपुरपर जीत हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी भी इस नये राजनीतिक उभार से सकते में है और आरोप लगा रही है कि पीस पार्टी को गोरखपुर के मठाधीश और सांसद आदित्यनाथ से शह मिल रही है।
मुस्लिम समुदाय की इस तरह की चाहत के कारण पहले भी उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में ऐसी कई पार्टियों या संगठनों का उदय होता रहा है जो मुसलमानों का हिमायती होने की कोशिश में लगे रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश भर में पंजीकृत कुल एक हजार पार्टियों में मुसलमानों की हिमायती करीब 35हैं। केवल उत्तर प्रदेश में पीपुल्स डेमोके्रटिक फ्रंट, पीस पार्टी ऑफ इंडिया, मजलिस ए मशवरत, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, भारतीय परचम पार्टी,इंसान दोस्त पार्टी सक्रिय हैं।
मगर दोबारा से इस अहसास को मुकम्मिल जमीन बाटला हाउस कांड ने दी। कारण कि अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पहला मौका था जब उत्तर प्रदेश (खासकर पूर्वी)के मुसलमानों को लगा कि उन्हें नागरिक नहीं मुसलमान समझा जाता है।
आजमगढ़ के युवाओं को जब दिल्ली पुलिस ने आतंकवादी होने के आरोप में जामिया इलाके के बाटला हाउस में मार गिराया और गिरफ्तार किया था तो मुस्लिमों की नुमांईदगी का दावा करने वाली सपा और कांग्रेस ने खुफिया एजेंसियों के दावों के करीब खड़ा होना मुनासिब समझा। यहां तक कि पार्टियों के स्थानीय और छोटे नेताओं ने आजमगढ़ और आसपास के जिलों से पार्टी समर्थक मुसलमानों से बातचीत बंद कर दी और दिल्ली में बैठे बड़े नेता किंतु-परंतु में बयान देते रहे और फायदा आखिरकार खुफिया एजेंसियों और पुलिस को ही होता रहा।
दिल्ली में 13 सितंबर को हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों में शामिल रहने के संदेह में 19 सितंबर 2008 को बाटला हाउस में मारे गये साजिद और आतिफ,और उसके बाद एक टीवी चैनल के बाहर से गिरफ्तार आरोपी सैफ की वजह से पूरे आजमगढ़ की तस्वीर तकरीबन आतंकवादियों के गढ़ के तौर पर उभरने लगी।
राजधानी दिल्ली में इस घटना के बाद मुसलमानों को खासकर आजमगढ़ से ताल्लुक रखने वालों को हर स्तर पर सामाजिक बहिष्कार और लानत-मलानत झेलनी पड़ी। दिल्ली में रहकर पढ़ाई और नौकरी कर रहे ज्यादातर युवा अपने घर भाग गये,या गुमनाम होने को मजबूर हुए। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक परवेज अहमद बताते हैं कि ‘इस पूरे घटनाक्रम ने धर्मनिरपेक्ष और न्याय की आस रखनेवालों को संदेह भर दिया और मुस्लिमों ने मजबूरी में ही सही मुस्लिम नेतृत्व को फिर गले लगाया।’
आजमगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता मसीउद्दीन के मुताबिक,‘भारत के जिन नागरिकों के परिजन देश की उन्नती और विकास में सदियों से लगे रहे उन्हें इन आरोपों ने जब संदिग्ध बना दिया तो उनकी अंतिम उम्मीद उन जनप्रतिनिधियों पर टिकी जो उनसे वोट लेते हैं। मगर वह भी ताल ठोककर खुफिया एजेंसियों के गलत तौर-तरीकों के खिलाफ मैदान में नहीं उतरे। यहां तक कि सैफ की गिरफ्तारी के बाद जब यह उजागर हुआ कि उसके पिता समाजवादी पार्टी के नेता हैं तो तत्काल प्रभाव से सपा ने इससे इनकार कर दिया था।’
'जनप्रतिनिधियों का नार्को टेस्ट हो'
राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ अयूब
पीस पार्टी की कई वैकल्पिक मांगों में से एक ‘नार्को टेस्ट’भी है। पीस पार्टी का मानना है-धार्मिक ग्रंथों पर हाथ रख नेता झूठी कसमें-वादे करते हैं। इसलिए सभी पार्टियों के अध्यक्षों का नार्को जांच हो कि उनके पार्टी चलाने का मकसद देशहित है या माफियाहित।
ऐसे समय में मुसलमानों के पक्ष में उलेमा काउंसिल बनी,नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी(नेलोपा)ने लड़ाई लड़ी और भविष्य की उम्मीदें लेकर पीस पार्टी उभरी। आजमगढ़ के संजरपुर गांव के तारिक कहते हैं,‘मुसलमानों को लगता है कि इन तीनों पार्टियों के नेतृत्वकर्ता मुस्लिम है,इसलिए वह समुदाय को संदिग्ध बनाने की कोशिश के खिलाफ मैदान में उतरेंगे।’
आज यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम प्रतिनिधित्व वाली इन तीनों पार्टियों को राजनीतिक विश्लेषक इसे एक नयी बयार के रूप में देख रहे हैं। हालांकि इन पार्टियों की एक दूसरी ऐतिहासिक सच्चाई कुछ ही दिन मैदान में बने रहने की भी है, जिसका फायदा अंततः दूसरी बड़ी चुनावी पार्टियों को ही होता रहा है।
बाटला हाउस के बाद एक मात्र भरोसेमंद बनी उलेमा काउंसिल के निर्माण के दो साल भी नहीं बीते कि वह खंडित हो गयी और काउंसिल के प्रमुख सदस्य डॉक्टर जावेद अलग हो चुके हैं। आजमगढ़ से पत्रकार अंबरीश राय कहते हैं,-काउंसिल मुसलमानों का कितना भला कर सकेगी इसका अंदाजा संसदीय चुनाव में आजमगढ़ से भाजपा की जीत से लगाया जा सकता है। जो भाजपा यहां से कभी नहीं जीती थी वह मुस्लिम विरोधी होते हुए भी यहां से पहली बार जीती और सपा हार गयी।’उलेमा काउंसिल के महासचिव असद हयात कहते हैं,‘सपा की हार का कारण काउंसिल नहीं बल्कि सपा का जातिवादी और मुसलमानों को ठगने का इतिहास रहा है।’
उलेमा काउंसिल ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की पांच सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किये थे जिनमें लालगंज और आजमगढ़ सीट पर सपा को हारने का कारण बनी। वहीं पीस पार्टी ने पिछले लोकसभा में कुल इक्कीस प्रत्याशी खड़े किये थे और उसे इन क्षेत्रों में चार फीसदी मतदाताओं ने वोट दिये। जाहिर तौर पर ये दोनों पार्टियां सर्वाधिक नुकसान सपा का करने वाली हैं।
इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसका सीधा फायदा भाजपा को होगा। पर इस नजरिये से नेलोपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरसद खान ऐतराज रखते हैं। उनकी राय में ‘मुस्लिमों और समाज के कमजोर तबके को सभी पार्टियाँ ठगती रहीं हैं,इसलिए मुस्लिम नेतृत्व का खालिस मतलब यह न निकाला जाये कि हम सिर्फ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करेंगे।’
आगामी चुनावों में मुस्लिम नेतृत्व की मांग करने वाली इन पार्टियों का प्रदर्शन कैसा होगा,यह तो अभी परखा जाना है। मगर इतना तो साफ है कि पीस पार्टी की बढ़ती ताकत के मद्देनजर बसपा,कांग्रेस और इनसे भी बढ़कर सपा पेरशान है कि प्रदेश में वह अपने को मुसलमानों की हितैषी मानती है।
(पाक्षिक पत्रिका द पब्लिक एजेंडा से साभार व संपादित)
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