जिस न्यायिक निर्णय का पूरा देश साँस रोककर इन्तिज़ार कर रहा था, आखिरकार वह आ ही गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने अयोध्या मामले में विवादित भूमि के मालिकाना हक संबंधी सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा व अन्यों द्वारा दायर दावों का निराकरण कर दिया है। इस निर्णय की प्रशंसा भी हुई है और निंदा भी। निंदकों में मुख्यतः मुकदमे के पक्षकार हैं। जो लोग इस विवाद का स्थाई समाधान चाहते हैं वे कहते हैं कि इस निर्णय ने तीनों पक्षकारों (रामलला विराजमान को भी अदालत ने एक पक्षकार माना है) के बीच विवाद के सुलझाव का रास्ता प्रशस्त कर दिया है। अब हिन्दू वहाँ मंदिर बना सकते हैं और मुसलमान- अगर चाहें तो-वहाँ एक मस्जिद का निर्माण कर सकते हैं और देश इस विवाद को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ सकता है।
आखिर इस विवाद का कभी तो अंत होना चाहिए ताकि देश आगे बढ़ सके। अगर इस निर्णय से यह लक्ष्य प्राप्त हो गया होता तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता था। परंतु तथ्य यह है कि दोनों पक्षकार इस निर्णय से असंतुष्ट हैं और उच्चतम न्यायालय में अपील करने की तैयारी कर रहे हैं। यह निर्णय किसी भी प्रकार का समझौता या मेल-मिलाप कराने में तो सफल हुआ ही नहीं है बल्कि इससे एक अत्यंत ख़तरनाक नज़ीर की स्थापना हो गई है। ‘शांति और समझौता बेशक बहुत महत्वपूर्ण हैं परंतु अगर इन्हें संवैधानिक, प्रजातंत्र और कानून के राज की कीमत पर हासिल किया जाता है तो इनसे फायदे से अधिक नुकसान होने की आशंका होती है।
अयोध्या मामले का निर्णय कानून पर नहीं वरन् आस्था पर आधारित है। तीन में से दो जजों ने ऐतिहासिक प्रमाणों और देश के कानून को दरकिनार कर केवल हिन्दुओं की आस्था के आधार पर यह मान लिया कि राम एक स्थान विशेष पर जन्मे थे और यह भी कि वहाँ बारहवीं सदी में बनाया गया एक मंदिर अस्तित्व में था। मजे की बात यह है कि दोनों जजों ने यह भी स्वीकार किया कि वे इतिहास व पुरातत्व विज्ञान के बारे में कुछ नहीं जानते। तीसरे जज खान का यह कहना है कि यद्यपि उक्त स्थान पर राम मंदिर के होने का कोई प्रमाण नहीं है तथापि शांति व समझौते की खातिर विवादित भूमि को तीनों पक्षकारों के बीच बाँटना उचित होगा। इस तरह, एक ओर रामलला और दूसरी ओर निर्मोही अखाड़े को भूमि दे दी गई। लगे हाथ, सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी जमीन में हिस्सा दे दिया गया।
पक्षकारों के अलावा कई विधिवेत्ताओं ने भी उच्च न्यायालय के निर्णय की कड़ी निंदा की है और यह आशा व्यक्त की है कि उच्चतम न्यायालय केवल और केवल संवैधानिक व कानूनी दृष्टिकोण से इस मामले में अंतिम फैसला करेगा। इस प्रक्रिया में काफी समय लगने की संभावना है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में तीनों जजों ने शांति और समझौते को अधिक महत्व दिया है और प्रजातांत्रिक भारत के संवैधानिक मूल्यों को कम। कानून का न तो पक्षकारों और न ही जजों की आस्था से कोई लेना-देना है और न ही होना चाहिए। भारत जैसे देश में, जहाँ पिछले साठ सालों से न्यायापालिका की स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों को संरक्षित रखा गया है, कोई भी न्यायिक निर्णय केवल कानून पर आधारित होना चाहिए।
यह शायद पहली बार है कि देश के किसी उच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक तथ्यों और कानूनी प्रावधानों को दरकिनार कर, केवल आस्था को प्रधानता दी है। अदालत को इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि उसके निर्णय से समझौता या मेलमिलाप होता है या नहीं। अदालत को तो कानून के अनुसार काम करना चाहिए। बेशक, अदालत सभी पक्षकारों से यह अपील कर सकती है कि वे अदालती लड़ाई में अपना समय व धन बर्बाद करने के बजाय आपसी बातचीत से विवाद का हल खोज लें। परंतु यह पक्षकारों पर निर्भर है कि वे अदालत की अपील को स्वीकार करें या न करें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो जजों का यह कर्तव्य है कि वे कानून के अनुरूप अपना निर्णय सुनाएँ।
जो लोग इस निर्णय को शांति की जीत और एक पुराने विवाद का सुखद अंत निरूपित कर रहे हैं वे या तो इसके दूरगामी परिणामों से वाक़िफ़ नहीं हैं या हमारे संवैधानिक प्रजातंत्र के लिए उनके मन में आदर व सम्मान का भाव नहीं है। खुशी मनाने वालों की सोच चाहे जो हो परंतु यह साफ है कि इस निर्णय से अदालतों की कार्यप्रणाली में एक ख़तरनाक प्रवृत्ति की शुरुआत हुई है। आगे चलकर, जज अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप निर्णय देने लगेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय का कोई भी निर्णय, भविष्य के निर्णयों का आधार बन सकता है।
यदि इसी तर्क को हम आगे बढ़ाएँ तो क्या इससे यह ध्वनित नहीं होता कि चूँकि प्रजातंत्र में संख्या बल सबसे महत्वपूर्ण है इसलिए बहुसंख्यक समुदाय की आस्था का अधिक महत्व है और अल्पसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों का कम। क्या इससे हमारा न्यायतंत्र बहुसंख्यकवादी नहीं हो जाएगा? क्या इससे कानून और संविधान में अल्पसंख्यकों व कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए किए गए प्रावधान अर्थहीन नहीं हो जाएँगे? क्या इससे अल्पसंख्यकों की देश के न्यायतंत्र और संविधान पर आस्था कम नहीं होगी? अगर हम संविधान और कानून की सर्वोच्चता में आस्था रखते हैं तो हमें इस निर्णय पर प्रश्नचिह्न लगाने ही होंगे। निःसंदेह, धार्मिक आस्था और विश्वास, व्यक्तियों व धार्मिक समुदायों के लिए बहुत महत्व रखते हैं परन्तु जहाँ तक राष्ट्र का प्रश्न है, उसके लिए संविधान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। भारत एक विविधवर्णी राष्ट्र है जहाँ विभिन्न आस्थाओं वाले लोग रहते हैं। हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को अंतःकरण और आस्था की आजादी देता है परंतु राष्ट्र के लिए कानून उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी व्यक्ति के लिए उसकी आस्था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
वैसे भी, हिन्दू धर्म अपने आप में एकसार नहीं है। हिन्दुओं में दक्षिण भारत के द्रविड़ भी शामिल हैं पंरतु उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराएँ, उत्तर भारत की आर्य परंपराओं से सर्वथा भिन्न हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने हाल में यह आरोप लगाया है कि आर्य देवी-देवता, द्रविड़ों पर थोपे जा रहे हैं।
स्पष्टतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय जिस “हिन्दू आस्था“ की बात कर रहा है वह भी विभाजित है। उन धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं के अतिरिक्त जो संवैधानिक मूल्यों में आस्था रखते हैं, अन्य सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों वाले व अन्य भाषा-भाषी हिन्दू भी वह “आस्था“ नहीं रखते जिसकी न्यायालय ने चर्चा की है। कुल मिलाकर, आस्था के आधार पर न्यायिक फैसले होने से सभी अल्पसंख्यक समूहों व विशेषकर प्रभावित होने वाले अल्पसंख्यकों पर, यह दबाव बनता है कि वे बहुसंख्यकों की मान्यताओं के समक्ष अपने घुटने टेक दें।
जो कुछ मैंने ऊपर कहा, उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अयोध्या जैसे विवादों को बातचीत और आपसी समझौते से नहीं सुलझाया जाना चाहिए। अगर अयोध्या विवाद, संवाद और न्यायपूर्ण लेन-देन के आधार पर सुलझ जाता है तो मुझसे ज्यादा खुशी किसी को नहीं होगी। इस मामले के सबसे पुराने पक्षकारों में से एक-श्री हाशिम अंसारी, जो सन् 1960 के दशक से इस मुकदमे को लड़ रहे हैं-ने निर्णय के बाद हनुमानगढी़ मंदिर के मुख्य पुजारी से मुलाकात की। यह एक प्रशंसनीय पहल है। उन्होंने मुख्य पुजारी श्री ज्ञान दास से अनुरोध किया कि वे निर्माेही अखाड़े को इस बात के लिए राजी करें कि आपसी संवाद और सहमति के जरिए इस विवाद का कोई हल निकाला जाए।
भारत एक महान प्रजातंत्र है और हमें इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय भविष्य की ओर देखना चाहिए। भूत से भविष्य कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर ऐसा कोई मुद्दा उठ खड़ा होता भी है तो उसे आपसी समझ और सहयोग से इस ढंग से निपटाया जाना चाहिए कि किसी पक्ष को यह महसूस न हो कि उसकी हार हुई है। राजनैतिक दलों द्वारा इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़कर उनका इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए करना देश के लिए अहितकर है। भाजपा ने ठीक यही किया है।
यह अत्यंत खेद का विषय है कि बाबरी मस्जिद को ढहाने के गैर-कानूनी, असंवैधानिक व गैर-प्रजातांत्रिक षड्यन्त्र को अंजाम देने वाले तत्व, इस निर्णय को अपनी जीत मानकर जश्न मना रहे हैं। वे आस्था की न्याय पर विजय को अपनी विजय बता रहे हैं। यह अत्यंत ख़तरनाक व निंदनीय प्रवृत्ति है। मस्जिद ढहाने वालों को आज तक कोई सजा न मिलना भी भारतीय संविधान का अपमान है। उन्हें उनके इस कृत्य का-जो हिन्दू धर्म की शिक्षाओं के विरुद्ध था-कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
ऐसे मामलों में समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। हमारे बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, शांति कार्यकर्ताओं और उन सबको, जो संवैधानिक व प्रजातांत्रिक मूल्यों में आस्था रखते हैं, आगे बढ़कर दोनों पक्षों पर सार्थक आपसी संवाद करने का दबाव बनाना चाहिए ताकि इस विवाद को अदालत की चहारदीवारी के बाहर सुलझाया जा सके।
सन् 2000 के शुरू में, कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य ने मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की मदद से इस विवाद के शांतिपूर्ण निपटारे की पहल की थी परंतु विहिप ने उनका घेराव किया और उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े। इस बार, द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने ऐसी ही पहल की है। इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और मुस्लिम पर्सनल ला-बोर्ड को इस कार्य में शंकराचार्य को पूरा सहयोग देना चाहिए।
इसके साथ ही, हमें भारत के आमजनों की भी दिल खोलकर प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने शांति व सौहार्द बनाए रखा और अयोध्या निर्णय के बाद कहीं से भी किसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं आई। आमजनों ने हमारे राजनेताओं से अधिक परिपक्वता व समझदारी प्रदर्शित की है।
हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि देश में शांति और व्यवस्था बनाए रखने में मुसलमानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। निर्णय के पहले की जुमे की नमाजों में देश की लगभग सभी मस्जिदों के इमामों ने मुसलमानों से शांति बनाए रखने और निर्णय को-चाहे वह उनके पक्ष में हो या विरुद्ध-स्वीकार करने की अपीलें कीं। इसके विपरीत, सन् 1980 के दशक के मध्य से लेकर अंत तक मुसलमान, बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर अत्यंत संवेदनशील और उत्तेजित थे।
मुसलमानों को अब यह अहसास हो गया है कि प्रजातंत्र व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में ही उनका सुखद व सुरक्षित भविष्य छुपा हुआ है। उन्हें इस बात का अहसास है कि टकराव से केवल हिंसा और बर्बादी होगी और सभी भारतीयों की भलाई में ही उनकी भलाई निहित है। इस बार हिन्दुओं और मुसलमानों ने जबरदस्त एकजुटता का परिचय दिया और अतिवादियों को-जो उत्तेजक वक्तव्यांे के जरिए माहौल को बिगाड़ते थे- दरकिनार कर दिया। अब तो अतिवादी भी अत्यंत समझदारी की बातें कर रहे हैं। उन्हें भारत की जनता ने इसके लिए मजबूर किया है। कोई भी जागृत समाज अपने राजनेताओं पर किस तरह नियंत्रण रख सकता है, यह उसका उदाहरण है। बेहतर होगा कि देश की सबसे बड़ी अदालत के दरवाजे खटखटाने के पहले, अयोध्या मामले का बातचीत से हल खोजने की गंभीर कोशिश की जाए और हमारे देश जैसे प्रजातंत्र में यह काम केवल समाज कर सकता है।
-डॉ. असगर अली इंजीनियर
मोबाइल: 0986944999
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फार स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
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