समाज में चारों तरपफ स्त्रिायों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भारतीय पुरुष-मानस में स्त्री-अवमानना की गहरी गांठ पड़ी है, जो गलने का नाम नहीं लेती। स्त्रिायों पर अत्याचारों के रूप और स्थान अनेक हैं। जान से मार देने में जहां उनके प्रति हिंसा की पराकाष्ठा देखने को मिलती है, बलात्कार में मान-मर्दन की। घर से लेकर कार्यस्थल और सड़क तक - सभी जगह स्त्री-उत्पीड़न के लिए खुली हैं। स्त्रिायों के हक में बने कानून, आयोग, संस्थाएं और स्त्री-मुक्ति की विचारधरा व आंदोलन उनकी सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं। सत्ता की सर्वोच्चता पर दो स्त्रिायों का होना भी स्त्रिायों की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी नहीं है। यह भयावह स्थिति है जिससे प्रशासन और नागरिक समाज आंख चुराता है। यह सोच कर कि समय-समय पर किए जाने वाले कानून-व्यवस्था संबंधी उपायों तथा स्त्री-मुक्ति की विचारधरा व आंदोलन से जल्दी ही स्त्री सशक्तिकरण का लक्ष्य हासिल हो जाएगा। उसके बाद स्त्री-उत्पीड़न की घटनाएं नहीं होंगी। पूंजीवादी व्यवस्था में संक्रमण की अवधरणा रणनीति के रूप में इस्तेमाल की जाती है ताकि पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था चलती और मजबूत होती रहे। ऐसे में जो सशक्तिकरण होता है, वह पुरुषसत्तात्मक ढांचे के अंतर्गत होता है। इस क्रक्रिया के चलते स्त्री-सत्ता ;ूवउंदीववकद्ध पर आधरित सभ्यता को अभी लंबा इंतजार करना होगा।ऐसी स्थिति में स्त्री-उत्पीड़न के मामलों में नागरिक समाज की सतत जागरूकता और संवेदनशीलता जरूरी है। कई नागरिक संगठन स्त्री-उत्पीड़न के मामलों का पता लगाने, रोकथाम करने और अपराध्यिों को सजा दिलाने का काम करते हैं। कई नागरिक व्यक्तिगत तौर पर भी पीड़िताओं की सहायता करते हैं। हालांकि ज्यादातर संगठनों और व्यक्तियों का काम शहर-केंद्रित होता है और वहां भी उनकी भूमिका सीमित रहती है, पिफर भी ये प्रयास न हों तो स्त्री-उत्पीड़न और ज्यादा होगा। उत्पीड़न के ज्यादातर मामले घरों में होते हैं और ज्यादातर दबे रह जाते हैं या देर से प्रकाश में आते हैं। कार्यस्थलों पर भी स्त्री-उत्पीड़न के मामले बढ़ते जा रहे हैं जिसके चलते सरकार ने एक कानून भी बनाया है। जिम्मेदारी के पदों पर बैठे कुछ लोग स्त्रिायों का सीधे उत्पीड़न करते हैं। स्त्री-विरोधी मानसिकता के चलते कार्यस्थलों पर स्त्री-विरोधी भाषा का इस्तेमाल तो ज्यादातर लोग करते ही हैं। ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो कहते हैं स्त्रिायां अपने पहनावे और श्रृंगार से खुद यौन उत्पीड़न को आमंत्रित करती हैं। उनसे सीध सवाल पूछा जाना चाहिए कि वे अपने घर की स्त्रिायों के प्रति आमंत्रित क्यों नहीं होते? जबकि उनका परिधन और श्रृंगार भी वैसा ही होता है। यह भी अक्सर कहा जाता है कि स्त्रिायां अपने पफायदे के लिए पुरुष अध्किारियों और साथियों के साथ संबंध् बनाती हैं। भाव रहता है कि इसमें पुरुष का क्या दोष! ऐसा कहने वालों से पूछा जाना चाहिए कि स्त्री की पहल पर बनाए गए संबंध् की सूचना पुरुष ने क्या अपनी पत्नी को दे दी है? सहमति अगर संबंध् का वाजिब तर्क है तो वैसे संबंध् की सहमति पत्नी के संबंध् में बंधी स्त्री से सबसे पहले लेनी चाहिए। इस तरह के ‘तर्क’ दरअसल उत्पीड़न की शिकार स्त्रिायों को सही और समय पर न्याय नहीं मिलने देते। यह चिंता की बात है कि कार्यस्स्थल पर स्त्री-उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। बहुत कम स्त्रिायां उत्पीड़न की शिकायत करती हैं। लेकिन जो करती हैं उन्हें सही और समय पर न्याय नहीं मिल पाता। हालांकि हर संस्थान और विभाग में इस बाबत स्पष्ट नियम बने हैं। इसका मूलभूत कारण वह मानसिकता है जिसका ऊपर जिक्र किया गया है। कभी-कभी जांच में शामिल स्त्रिायां भी उस मानसिकता का साथ देती हैं। स्त्री-उत्पीड़न के मामलों की जांच में अक्सर आने वाली बाधओं पर नजर डालें तो कापफी निराशाजनक स्थिति लगती है। सबसे पहले तो यह यक्ष प्रश्न उछाल दिया जाता है कि पीड़िता की शिकायत के पीछे कौन है? जिस विभाग अथवा संस्थान का मामला होता है वहां कार्यरत लोगों और संगठनों के विरोध् और समर्थन के बीच मामला पफंस जाता है। जाति, इलाका, विचारधरा, पार्टी आदि नियमों जांच के स्थापित प्रावधनों के ऊपर भूमिका निभाने लगते हैं। इस सबके चलते जांच बिठाने में देरी होती है। पिफर जांच में देरी होती है। अगर पीड़िता कमजोर है और उत्पीड़क ताकतवर तो पीड़िता को डराया-ध्मकाया जाता है। शिकायत वापस लेने के लिए जोर डाला जाता है। मामले को सीध्े उचित अध्किृत समिति को न सौंप कर हल्का बनाने की नीयत से अन्य साधरण शिकायतें सुनने वाली समितियों के हवाले किया जाता है। पीड़िता से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं गोया वही आरोपी हो। कई बार समिति के सदस्य उत्पीड़क के बताए सवाल पीड़िता से पूछते हैं। किसी तरह जांच पूरी हो जाती है तो उस पर कार्रवाई में देरी की जाती है। प्रैस और मत-निर्माताओं को मैनेज करने के प्रयास किए जाते हैं। दांव अगर ऊंचे हों तो अदालत तक को गुमराह अथवा मैनेज करने की कोशिश होती है। यह सब किया जाता है ताकि पीड़िता थक-हार कर बैठ जाए और उत्पीड़क अपने पद पर बना रहे। जांच के बाहर भी कापफी कुछ चलता है। कई बार उच्चाध्किारी कमजोर पीड़िता के मामले का पफायदा उठा कर उत्पीड़क और उसके समर्थकों से मनमाना निर्णय कराते हैं। कुछ चलतेपुर्जा लोग न केवल अपने रुके काम करा लेते हैं, आगे के काम भी बना लेते हैं। उनमें स्त्रीवादी होने का नाम पाने वाले पुरुष, यहां तक कि स्त्रिायां भी होती हैं। उत्पीड़न का मामला यदि शैक्षणिक अथवा शोध् संस्थान का हो तो स्थिति और बुरी होती है। आरोपी मजबूत वामपंथी खेमे का हो तो परिवर्तन के दावेदार ज्यादातर छात्रा और शिक्षक संगठन चुप्पी साध् जाते हैं। दिखावे के लिए अगर कुछ करना, यानी वक्तव्य वगैरा देना, हो तो कूटनीतिक शैली में किया जाता है। अंदरखाने आरोपी को बचाने के प्रयास किए जाते हैं। पीड़िता को झूठा और चरित्राहीन बताने करने के वही सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं जिनके लिए दक्षिणपंथियों की भत्र्सना की जाती है। आरोपी अगर ऊंची जाति का और पीड़िता पिछड़ी या नीची जाति की हो तो उसे निश्चित तौर पर झूठा और दुष्चरित्रा बता दिया जाता है। पीड़िता अगर छात्रा अथवा शोध्छात्रा है तो उसका कैरियर बिगाड़ने की कोशिश की जाती है। कहने का आशय यह है कि कार्यस्थल पर उत्पीड़न का शिकार होने वाली स्त्रिायों का न्याय पाने का रास्ता बेहद कांटों भरा होता है। यह सब देख कर कई स्त्रिायां उत्पीड़न की शिकायत न करें या बीच में छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं। रास्ते के सारे कांटों का मुकाबला करते हुए अगर कोई कमजोर स्त्राी न्याय पाने में कामयाब होती है तो यह उसके जीवट का पुरस्कार होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा देश और दुनिया में है। राजधनी में स्थित होने के चलते आशा की जाती है कि वहां यौन उत्पीड़न का मामला होने पर समयब कार्रवाई होगी। अगर शिक्षकों द्वारा छात्रा के यौन उत्पीड़न का मामला हो तो विश्वविद्यालय प्रशासन जल्दी से जल्दी जांच और न्याय सुनिश्चित करेगा ताकि छात्रा की पढ़ाई और छवि पर असर न पड़े। आरोपियों को जांच पूरी होने तक सभी जिम्मेदारी के पदों से हटा दिया जाएगा ताकि वे अपनी हैसियत का दृरुपयोग करके जांच को प्रभावित न कर सकें। लेकिन अपफसोस की बात है कि हिंदी विभाग में दो साल पहले प्रकाश में आए तीन शिक्षकों द्वारा अपनी एक छात्रा के यौन-उत्पीड़न के मामले में छात्रा को अभी तक न्याय नहीं मिला है। विश्वविद्यालय प्रशासन से निराश होकर पीड़िता दिल्ली उच्च न्यायालय में न्याय पाने की आस में गई है। यह लेख लिखने का हमारा आशय उस मानसिकता को रेखांकित करना है जो आधूनिकता और प्रगतिशीलता के बावजूद हमें स्त्री-विरोधी बनाए रखती है। यह सच्चाई स्वीकार करके ही हम स्त्री-उत्पीड़न के मामलों में कुछ सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं। हम पहली बार इस मामले पर अपनी बात रख रहे हैं। इसके पहले हमने केवल एक बार ‘युवा संवाद’ के अपने स्तंभ में प्रभाष जोशी के निध्न पर लिखी श्रधांजलि में इस मामले का किंचित उल्लेख किया था। वे पंक्तियां इस प्रकार हैं, ‘‘प्रभाष जी से हमारी अंतिम मुलाकात अगस्त के तीसरे या अंतिम सप्ताह में हिंदी अकादमी के पूर्व सचिव साथी नानकचंद के घर पर हुई थी। उसका जिव्रफ हम अंतिम मुलाकात के नाते उतना नहीं, प्रभाष जी के व्यक्तित्व के एक ऐसे गुण के नाते कर रहे हैं जो बुद्धिजीवियों में विरल होता जा रहा है। वे पहली बार हमारी काॅलानी में आए थे। तसल्ली से बैठे नानक के साथ बात-चीत कर रहे थे। उनकी बातचीत में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हुए यौन उत्पीड़न का जिव्रफ आ गया। प्रभाष जी ने कहा, ‘लेकिन वह महिला भी ....’ हमने पहली बार अपने विभाग के उस प्रकरण में किसी सार्वजनिक चर्चा में जबान खोली और मजबूत स्वर में कहा, ‘प्रभाष जी वह महिला नहीं, विभाग की छात्रा है।’ प्रभाष जी आगे कुछ नहीं बोले। कई मिनट चुप्पी रही। उस बीच उनके चेहरे पर जो व्यंजना प्रकट हुई, वह शब्दों में बता पाना मुश्किल है। ऐसा लगा वे इस मामले में अपनी अभी तक की धरणा, जो जाहिर है, यौन उत्पीड़क के हिमायतियों के चलाए गए अभियान के पफलस्वरूप बनी होगी, को लेकर आहत और ठगा हुआ अनुभव कर रहे हैं। उस प्रकरण पर वहां आगे एक शब्द भी नहीं बोला गया। अलबत्ता प्रभाष जी के चेहरे से यह स्पष्ट हो गया कि उनका ह्दय पीड़िता के लिए करुणा से भर आया है। बुधिजीवियों में यह मानवीय करुणा अब विरल होती जा रही है। ‘‘हिंदी विभाग के यौन उत्पीड़न के प्रकरण में वह ;करुणाद्ध बड़ी और बड़े स्त्रीवादियों में भी देखने को नहीं मिली। अलबत्ता दांव-पेच देखने को खूब मिले। हमारी एक जुझारू साथी को जांच में पीड़िता की मदद करनी थी। उन्होंने की भी। लेकिन साथ में अपने पति का मित्रा होने के नाते एक अन्य आरोपी को बरी करा लाईं। तीसरा आरोपी दूसरे आरोपी का मित्रा होने के नाते बरी हो गया। इंसान अपना विवेक खोकर किस कदर अंध हो जाता है, इसका पता हिंदी के एक अवकाश प्राप्त शिक्षक के व्यवहार से चला। उन्हें छात्रा के यौन उत्पीड़न से कोई शिकायत थी ही नहीं। जैसा कि पहले के यौन उत्पीड़िनों से भी नहीं रही थी। गोया वह ब्राह्मणों का शास्त्रा-सम्मत अध्किार है! उन्हें पीड़िता के शिकायत करने पर शिकायत थी। उन्होंने मामले को खतरनाक ढंग से पूर्व और पश्चिम का रंग देने की कोशिश की। इसके बावजूद कि पूरे विश्वविद्यालय में पीड़िता के पक्ष में डटने वाले अकेले दो साथी पूर्व से आते हैं। यहां यह संक्षिप्त जिव्रफ करने का आशय यह है कि प्रभाष जी की संवेदनशीलता हमारे उनसे जुड़ने का दूसरा महत्वपूर्ण कारक है।’’ ;‘युवा संवाद’ नवंबर 2009 पीड़िता ने सितंबर 2008 को हिंदी चिभाग के तीन शिक्षकों प्रोपफेसर अजय तिवारी, प्रोफेसर सुधीश पचैरी और प्रोफेसर रमेश गौतम के खिलापफ यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी। वह विश्वविद्यालय प्रशासन का होस्टाइल रुख देख कर महिला आयोग और तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह के पास भी गई। विश्वविद्यालय की सर्वोच्च एपेक्स समिति से जांच कराने की लड़ाई लड़ी। धमकियों के बीच सुरक्षित वातावरण प्रदान करने और जांच पूरी होने तक तीनों आरोपियों को जिम्मेदारी के पदों से मुक्त रखने की बार-बार लिखित अपील कुलपति से की लेकिन सुनवाई नहीं हुई। तब से करीब अढ़ाई साल बीत चुके हैं और पीड़िता कोर्ट की शरण में गई है। कोर्ट ने उसका मामला स्वीकार कर लिया है। इसके पहले वह पीएचडी के दाखिले में की गई अनियमितता के खिलाफ भी कोर्ट में जा चुकी है। वह मामला भी कोर्ट ने स्वीकार कर लिया था और उस पर सुनवाई चल रही है। इस लंबी अवधी पूरा ब्यौरा यहां नहीं दिया जा सकता। पीड़िता ने अनेक प्रतिवेदन और पत्र कुलपति और जांच समिति को भेजे। सारा ब्यौरा देख कर पता चलता हे कि यह उसका पूर्णकालिक काम हो गया था। वह ब्यौरा अगर प्रकाशित हो जाए तो भविष्य में दिल्ली विश्वविद्यालय में कोई छात्रा पद और संगठन के लिहाज से ताकतवर शिक्षकों के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत करने की हिम्मत नहीं करेगी। जिस एक आरोपी प्रोफेसर अजय तिवारी को बर्खस्त करने का निर्णय कार्यकारिणी समिति ने डेढ़ साल पहले लिया था वह भी अभी तक लागू नहीं किया गया है। उल्टे इस साल मई में एपेक्स समिति ने पीड़िता पर असहयोग करने का अरोप लगा कर मामले को बंद कर दिया। विश्वविद्यालय प्रशासन, उत्पीड़कों और उनके समर्थकों ने आरोपियों को बचाने और पीड़िता को ध्वस्त करने के वे सभी हथकंडे अपनाए जिनका ऊपर जिक्र किया गया है। तीनों आरोपियों में पहले दो के विभाग में आने से पहले न दोस्ताना संबंध् थे न विचारधरात्मक। तीनों में परिपक्व आयु में दांतकाटी रोटी होने का सबब स्वार्थ और भ्रष्टाचार था। उनमें किसका क्या स्वार्थ था और कौन यौन उत्पीड़क और कौन आर्थिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचारी, इससे इस सच्चाई पर पफर्क नहीं पड़ता कि तीनों एकजुट होकर सब कर रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के पिछले कुलपति अपराधी दिमाग के शख्स हैं। बतौर कुलपति नियुक्ति से लेकर कोबाल्ट मामले तक कितने ही ऐसे प्रकरण हैं जो उनकी आपराध्कि वृत्ति का पता देते हैं। उस ब्यौरे में हम यहां नहीं जाएंगे। वह प्रेस में आ चुका है, ‘यूनिवर्सिटी टुडे’ और ‘चैथी दुनिया’ में विशेष स्टोरी भी आई हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संगठन ;डूटाद्ध ने भी उनके नियम-कायदों की ध्ज्जियां उड़ाने वाले कारनामों का बार-बार खुलासा किया है। हमने भी हिंदी विभाग में पीएच।डी। के दाखिलों में की गई अनियमितताओं के मामले में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोपफेसर रमेश गौतम और प्रोपफेसर सुध्ीश पचैरी को बचाने के कुलपति के कारनामों का खुलासा प्रैस के सामने किया था। वह मामला कोई अदालत में ले जाए तो दिल्ली विश्वविद्यालय की साख को गहरा ध्क्का लगेगा।सेमेस्टर प्रणाली लागू करने के लिए जिस तरह से पूर्व कुलपति ने नियमों और उनके तहत संचालित निकायों का अवमूल्यन किया है, दिल्ली विश्वविद्यालय भविष्य में कभी भी अपनी स्थापित साख को नहीं लौटा पाएगा। इसके बावजूद अगर उन पर कार्रवाई नहीं हुई तो उसका कारण है कि उन्होंने उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी शिकंजा जमाने में सरकार की खुल कर मदद की है। ऐसा करना उनके लिए स्वाभाविक है। वे बहुराष्ट्रीय बीज कंपनी मोंसेंटो के रोल पर हैं और एप्लाइड साइंस और पफाइनांस व मैनेजमेंट के अलावा किसी विषय की उपयोगिता नहीं मानते। वे खुलेआम मानविकी, समाजशास्त्रा और प्राकृतिक विज्ञानों का मजाक उड़ाते हैं। विशेषकर, भारतीय भाषाओं और साहित्य के प्रति वे सार्वजनिक तौर अपनी हिकारत व्यक्त करते हैंै। कहने का आशय है यह है कि कुलपति जो मनमानी विश्वविद्यालय स्तर पर कर रहे थे, तीनों आरोपी विभागीय स्तर पर। कुलपति का उन्हें बचाना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने पूरी कीमत वसूली। सेमेस्टर प्रणाली के मुद्दे पर दोनों ने डूटा और शिक्षक समुदाय के खिलापफ जाकर कुलपति का समर्थन किया। इस बहती गंगा में विभाग के एक और शिक्षक ने हाथ धे लिए। पिछले विश्वविद्यालय में लगे आर्थिक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते यहां उनकी प्रोबेशन अवधि खत्म करके स्थायी नियुक्ति नहीं की गई थी। मामले का पफायदा उठा कर वे प्रोपफेसर रमेश गौतम और प्रोपफेसर शुधीश पचैरी का झोला उठा कर कुलपति तक पहुंच गए। वर्तमान कुलपति ने भी उन दोनों को अपना लिया है, इसलिए थैला अभी वापस नहीं रखा है। यह जिक्र हमने इसलिए किया कि इस तरह के अवसरवादियों की संख्या शिक्षा जगत में भी तेजी से बढ़ती जा रही है जो यौन उत्पीड़न समेत किसी भी मामले में अवसर तलाश लेते हैं। बुधिजीवियों, विशेषकर हिंदी समाज, हर तरह के उत्पीड़न के विरुध और प्रगति के पक्ष में बढ़-चढ़ कर बोलता है। स्त्रीवाद का सबसे ऊंचा स्वर वहीं से आता है। करीब अढ़ाई साल होने के बावजूद किसी लेखक, संपादक, शिक्षक ने सहानुभूति दिखाने की बात दूर, मामले को समझने तक की कोशिश नहीं की। सुनने में आता है कि हिंदी विभाग के कुछ शिक्षकों ने आरोपियों की ‘सच्चिरित्राता’ के प्रमाणस्वरूप जांच समिति को लिखित गवाही दी। शिकायत दर्ज होने, अजय तिवारी पर ईसी का निर्णय आने और पीड़िता के अदालत जाने की खबरें कई समाचारपत्रों में प्रकाशित हुईं। लेकिन ‘जनसत्ता’ ने अपने ‘सम्मानित’ लेखकों के खिलापफ कोई खबर नहीं छापी। यह शायद नई ‘प्रभाष परंपरा’ है! अलबत्ता आरोपियों के लेख छाप कर उनकी ताकत बढ़ाने का काम बखूबी किया है। हिंदी की कई स्त्रीवादी लेखिकाएं समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में स्तंभ और लेख लिखती हैं। स्त्री-विमर्श में उनका बड़ा महत्व है। लेकिन उनमें किसी को पीड़िता के मामले को समझने और उस पर लिखने की प्रेरणा नहीं हुई। लेखक-आलोचक बनने की दिशा में प्रयासरत युवा शिक्षकों और शोधार्थियों में से भी किसी ने मामले पर नहीं लिखा। अलबत्ता कई ने पीड़िता के खिलापफ लिखित गवाही जरूर दी। एक वरिष्ठ स्त्रीवादी शिक्षिका ने अपने ‘गुड आपिफसिज’ का उपयोग पीड़िता से यह जानने के लिए किया कि उसने किसके कहने पर तीन नामध्न्य प्रोपफेसरों के खिलापफ शिकायत करने की हिम्मत की है? प्रसि( पत्राकार राजकिशोर ने एक लेख पीड़िता के मामले पर लिख कर कुछ साहस का परिचय दिया, लेकिन अगले लेख में सामान्यीकरण करके, कि स्त्रिायां चांद पाने के लिए पुरुषों से संबंध् बनाती हैं, पिछला लिखा मिटा दिया। अंग्रेजी के बुधिजीवियों से हिंदी की पीड़िता में रुचि लेने की आशा नहीं की जा सकती। उन्हें शायद पता भी नहीं होगा कि एक लड़की हाथी जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रशासन से न्याय पाने के लिए जूझ रही है। हिंदी के बड़े-छोटे ज्यादातर लेखकों-आलोचकों-शिक्षकों ने मामले पर गपशप मजा अलबत्ता खूब लूटा है। उसका ब्यौरा सहां देने लगें तो पतन की परतें और खुल कर सामने आ जाएंगी।अजय तिवारी को पफंसता देख उनके कई लेखक साथी सक्रिय हो उठे। एक्शन होने से पहले उन्हें कहीं अन्य जगह स्थापित करने की कोशिशें हुईं। पिछले दिनों स्त्री-विरोधी साक्षात्कार देने के चलते चर्चा में आए महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से अजय तिवारी को रिलीव करने को कहा ताकि वे उन्हें अपने यहां रख सकें। सुना है वे स्वयं चलकर आए थे। लेकिन तब तक सुधीश पचैरी और रमेश गौतम से कुलपति का सौदा हो चुका था। दोनों को पूरा बचाने के लिए अजय तिवारी को पूरा पफंसाना जरूरी था। यहां बता दें, मामला प्रकाश में आने पर तीनों आरोपियों ने मिल कर बचाव की रणनीति बनाई थी। पिफर अजय तिवारी को अकेला छोड़ दिया गया। अब रमेश गौतम की बारी है। पचैरी अपने गले में पफंदा कसते देख उन्हें अकेला छोड़ देंगे। उत्तर-आधुनिक न्याय का यही तकाजा है! विभूति नारायण राय ने साक्षात्कार में स्त्रिायों के लिए अपशब्द का प्रयोग किया तो कापफी बवाल मचा। देखने में आया कि अजय तिवारी को पफांसी चाहने वाले विभूति की ‘मापफी’ पर जान छिड़क रहे थे। पिफर एक संगोष्ठी के बहाने शक्तिपरीक्षण हुआ। पंचटीला के मोर्चे पर जमा हुई विभूति नारायण राय की सेना कापफी बड़ी थी। उसके बाद ठीक ही उनके खिलापफ कोई नहीं बोला। उस साक्षात्कार के कई भाष्यकार निकल आए। हमारे विभाग के वही शिक्षक कहते हैं, ‘पूरा इंटरव्यू पढ़ो, विभूति जी ने बड़ी महान बातें कही हैं!’ विभूति नाराण के ये भाष्यकार शायद हिंदी साहित्य-समाज और हिंदी-पट्टी के पतन की पड़ताल करने वाले विष्णु खरे और प्रेमपाल शर्मा को जवाब दे रहे होते हैं, ‘जिसे तुम पतन कहते हो वह महान परंपरा है।’ उत्तर-आध्ुनिकता में सबके अपने-अपने अर्थ होते हैं! हमारी जानकारी में केवल ‘समयांतर’ पत्रिका अपवाद है जिसने मामले का ब्यौरा छापा और पीड़िता का पक्ष लिया। उसीमें हिंदी विभाग में यौन उतपीड़न के खिलापफ संघर्ष समिति के एक सदस्य अंजनी का लेख पढ़ने को मिला, जिसमें समिति के पीड़िता को न्याय दिलाने के प्रयासों के अलावा वामपंथी छात्रा संगठनों की ‘तटस्थता’ के बारे में जानकारी थी। यह भी सुनने में आया कि लखनऊ के कथाक्रम कार्यक्रम में राजेंद्र यादव ने अजय तिवारी की उपस्थिति पर ऐतराज उठाया। 21 तारीख को कुलपति द्वारा यौन शोषण के आरोपी सुध्ीश पचैरी को डीन आॅपफ काॅलेजेज बनाने के विरोध् में हुए हिंदी विभाग में यौन उतपीड़न के खिलापफ संघर्ष समिति के प्रतिरोध् मार्च के दौरान बांटे गए पर्चे में लिखा है कि एपेक्स समिति को यौन शोषण के मामले में स्त्राी पक्ष के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। लेकिन समिति समाज से बाहर नहीं है। जो समाज इस कदर संवेदनहीन और स्वार्थी हो, उसमें कड़े से कड़े कानूनों के बावजूद यौन उत्पीड़न की शिकार स्त्रिायों को पूरा न्याय मिल पाना असंभव है। शायद न्यायपालिका से भी। पीड़िता ने कुछ दिन पहले हमें कहा, ‘सर मुझे तो लगता है यहां ज्यादातर शिक्षक नहीं, शिकारी हैं। एपेक्स समिति, कुलपति, महिला आयोग, मंत्री, विजीटर सब मिल जाते हैं। मैं शिकारियों के बीच पफंस गई हूं।’ वाकई, इन ‘ऊंचे खेलों’ में एक अदना पीड़िता क्या खाकर टिकेगी? थोड़े-से आदर्शवादी और निडर नवयुवतियों और नवयुवकों, जिनमें ज्यादातर छोटे वामपंथी समूहों से हैं, ने हिंदी विभाग में यौन उतपीड़न के खिलापफ संघर्ष समिति बना कर उसका साथ न दिया होता तो वह कब की हार चुकी होती! भला हो प्रशांत भूषण का। पीड़िता की गुहार उन तक पहुंची तो उन्होंने पीड़िता से बिना मिले, बिना उसकी जाति, इलाका, आर्थिक हैसियत जाने उसके द्वारा कोर्ट में दायर पीएच.डी. के प्रवेश में हुई अनियमितताओं का मामला देखना स्वीकार कर लिया है। यह प्रशांत भूषण ही कर सकते थे। अब विश्वविद्यालय प्रशासन और पूर्व विभागाध्क्ष व वर्तमान डीन प्रोपफेसर सुधीश पचैरी के कान खड़े हैं कि कैसे बचा जाए। उन्होंने डीन का पद इसीलिए हथियाया है ताकि न्यायालय में उनके खिलापफ चलने वाले मुकद्दमों से पद की ताकत से निपट सकें। अगर प्रशांत भूषण ने छात्रा के यौन उत्पीड़न के मामले को देखना भी स्वीकार कर लिया तो संभावना है पीड़िता को लंबे संघर्ष के बाद न्याय और उत्पीड़िकों को दंड मिल जाए।
-डॉक्टर प्रेम सिंह
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