एक पैसा भी खो जाता है अगर किसी का तो वह ढूंढता है उसे, वापस पाना चाहता है, उसे एहसास रहता है अपने एक पैसे के खो जाने का.... और हमने तो अपना सब कुछ खो दिया, मगर कोई तलाश कोई प्रयास ही नहीं। हमने अपना राजपाट खो दिया, शान-व-शौकत और सम्मान खो दिया.......भाई-भाई से बिछड़ गया....... हमारे लिए अपना ही देश बेगाना हो गया। क्या कुछ नहीं खोया हमने? क्या आज़ादी इसलिए पाई थी हमने अपना खून पसीना बहाकर सब कुछ इस तरह खो देंगे? फिर भी हमें एहसास नहीं है। हम फिर से कुछ भी पाना नहीं चाहते।
शायद हमने हालात से समझोता कर लिया है। ऐसा क्यों? जिसका एक पैसा भी खो जाता है, अगर वह उसे पाना चाहता है, उसे उसके खो जाने का एहसास बाकी रहता है तो फिर हमें अपना सब कुछ खो देने का एहसास क्यों नहीं? हमारे मन व मस्तिष्क में फिर से अपना खोया हुआ सम्मान पाने का संघर्ष क्यों नहीं? स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी हमने, देश को गुलामी की जं़ज़ीरों से छुटकारा दिलाया हमने, अंग्रेज़ों को देश छोड़कर चले जाने पर मजबूर किया हमने, स्वतंत्रता के गीत गाए हमने, तराने लिखे हमने, पत्रकारिता द्वारा दिलों में भावनाएं जगाईं हमने, अंगे्रेज़ों के अत्याचार सहन किए हमने। हम नहीं कहते कि इस लड़ाई में हमारे देशवासी शामिल नहीं थे परन्तु इतिहास साक्षी है हर मोर्चे पर हम दूसरों से आगे थे, हमारे हज़ारों उलेमा फिरंगियों द्वारा फंासी पर चढ़ा दिए गए
फिर यह क्या हुआ कि वह देश से प्रेम, वह बलिदान सबकुछ भुला दिया गया। और हमें हमारे ही देश में ग़द्दार घोषित कर दिया जाने लगा। हम पर ही हमारे देश की ज़मीन तंग की जाने लगी। हमको ही पराया कहकर पुकारा जाने लगा। देश के विभाजन का दाग़ हमारे दामन पर लगा, जबकि विभाजन हमारे सीने पर सबसे बड़ा घाव था, जिसके लिए हम नहीं बल्कि राजनीति ज़िम्मेदार थी और अब तो वह भी इस वास्तविकता को स्वीकार करने लगें हैं जो यह आरोप हम पर लगाने में सबसे आगे थे। फिर हम क्यों नहीं समझते कि हमें बेहैसियत बना देने वाली राजनीति है। हमसे हमारी ज़बान छीन लेने वाली राजनीति है। हमें हमारे ही देश में बेगाना बना देनी वाली राजनीति है। भाई को भाई से अलग कर देने वाली राजनीति है।
आज हमें गुलामों से भी बुरा जीवन व्यतीत करने पर विवश कर देने वाली राजनीति है। फिर क्यों नहीं समझते हम राजनीति के इस खेल को? हमें क्यों आवश्यक नहीं लगता कि हमने अपना सब कुछ खो दिया, जिस राजनीति के चलते उसको पाने का तरीक़ा भी राजनीति के बिना संभव नहीं...... ऐसा नहीं कि हम में योग्यता का अभाव है, ऐसा नहीं कि हम में ज्ञान की कमी है, ऐसा नहीं कि ताकत, जोश व जज्बे की कमी है, ऐसा नहीं कि हम में राजनीतिक सोच की कमी है, हां अगर अभाव है तो केवल इच्छा शक्ति का, आपसी एकता का, राजनीतिक सूझबूझ का और सबसे बढ़कर एक सियासी सिपहसालार का।हम जब जंग के मैदान में उतरते हैं तो वीर अब्दुल हमीद के नाम से जाने जाते हैं। इतिहास हमारी बहादुरी की कहानियों को भुला नहीं सकता। चाहे चर्चा शहीद अशफाकुल्लाह खां की हो, वीर अब्दुल हमीद की या कैप्टन जावेद की।
हर कदम पर हमारा खून काम आया है और रंग लाया है। हम विज्ञान तथा टैक्नालोजी को अपने ध्यान का केन्द्र बनाएं तो ए।पी.जे. अब्दुल कलाम भी हमारी ही पंक्तियों से निकलता है, जिसने देश को एटमी पावर बनाया, कला की बात करें तो शहनशाह-ए-जज्बात यूसुफ खां (दिलीप कुमार) से लेकर आमिर खांन, शाहरूख ख़ान, सलमान खांन सब इसी खून से पैदा हैं गायकी का मैदान हो तो स्वर्गीय मोहम्मद रफी की आवाज़ को भुलाया नहीं जा सकता, नौशाद की धुन आज भी हमारे कानों में गूंजती है। खेल के मैदान की ओर जाएं तो नवाब मंसूर अली ख़ां पटौदी से लेकर सानिया मिर्ज़ा तक एक लम्बी सूची है, जब हमारे खिलाड़ियों ने मुल्क का नाम रोशन किया। व्यवसाय में अज़ीम प्रेम जी जैसे नाम हमारे सामने हैं तो चित्रकला में मकबूल फिदा हुसैन भी हमने ही दिया है
और अगर राजनीति की चर्चा करें तो दामन यहां भी हमारा ख़ाली कहां रहा है। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद हमारी ही सफों में से थे, शाहनवाज़ खां, रफी अहमद किदवाई, शौकतुल्लाह अंसारी, सआदत अली खां, मोलाना हिफजुर्रहमान, जुल्फिकार अली खां, इब्राहीम सुलेमान सेठ, यूनुस सलीम, मौलाना इसहाक संभली, गुलाम महमूद बनातवाला, सी.के. जाफर शरीफ, ए.आर.अंतुले, डा. फारूक अब्दुल्लाह, सै. शहाबुद्दीन, तारिक अनवर से लेकर अहमद पटेल, प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज़, गुलाम नबी आज़ाद, सुल्तान सलाहुद्दीन उवैसी, सलीम शेरवानी, आज़म खां और ऊमर अब्दुल्लाह तक मुस्लिम राजनीतिज्ञों की कमी नहीं है।
हां, मगर उनमें से कोई भी न तो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की जगह ले सका और वर्तमान की बात करें तो न ही मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती की तरह अपनी कौम का प्रतिनिधित्व करने के योग्य बन सका, कारण उनमें राजनीतिक दृष्टि की कमी रहा, उन पर कौम के विश्वास का या फिर यह भी जान बूझकर एक सोचे समझे षडयंत्र का परिणाम था कि जिस प्रकार मोहम्मद अली जिन्ना को भारत की राजनीति से दरकिनार करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से बाहर करने के लिए उन्हें ज़मीन का एक टुकड़ा देकर अलग किया गया और उनके बाद मुसलमानों में से कोई इस ओर सोच भी न सके इसी षडयंत्र के मद्देनज़र मुसलमानों पर देश के विभाजन का आरोप लगाया गया और यह झूठ हज़ार बार इसीलिए बोला गया कि सच सा लगने लगे।
मुसलमान अपराध बोध तथा हीनभावना का शिकार बना रहे। पहले दो और फिर तीन टुकड़ों में बंटकर उसकी शक्ति बिखर जाये। वह कभी राजनीति शक्ति बनने के बारे में सोच भी न सके। इसी प्रकार उसके बाद जब धीरे-धीरे नई पीढ़ी जवान होने लगी, जिस पर देश के विभाजन की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती थी, तब यह तय किया गया कि उन्हें राजनीतिक शक्ति न बनने देने का एक ही उपाय है कि उनके बीच से नेतृत्व न उभरने दिया जाये जब भी लगे कि अमुक व्यक्ति योग्य है और राजनीतिक दृष्टि रखता है, जो अपनी कौम का नेतृत्व कर सके तो उसे या तो महत्वहीन बनाकर पीछे डाल दिया गया या फिर उसे उपकारों के तले दबाकर स्वयं उसकी ज़ात तक सीमित कर दिया गया कि वह अपने संकुचित दायरे से बाहर निकलकर कौम के बारे में सोच भी न सके।
प्रश्न उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी के समाजवादी पार्टी में शामिल होने का उठा तो भारत की मुस्लिम राजनीति के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य पर एक उचटती नज़र डालने की आवश्यकता महसूस हुई। हमारा अतीत बहुत शानदार था, वर्तमान भी बहुत बेहतर हो सकता था अगर हमने साम्प्रदायिक और संकुचित विचारों की राजनीति को समझ लिया होता और भविष्य भी संवर सकता है, अगर हम मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ तमाम परिस्थितियों का विश्लेषण कर सुनियोजित रूप से कोई राजनीतिक रणनीति बना सकें तो मैं केवल एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं, जनवरी 2004 में मुलायम सिंह यादव ने गन्नूर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और कुल डाले गये मतों का 92 प्रतिशत प्राप्त कर एक इतिहास लिखा जब उन्होंने अपने विरोधी को एक लाख 83 हज़ार 899 मतों से हरा दिया। संसदीय चुनाव में सफलता की ऐसी ही मिसाल हाजीपुर (बिहार) से जीतकर रामविलास पासवान ने स्थापित की जब गिनीज़ वल्र्ड रिकार्ड में उनका नाम दर्ज किया गया। क्या हमने कभी अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों को ऐसी भव्य सफलता दिलाने के बारे में सोचा है?
हमें चिंता नहीं कि पिछले संसदीय चुनावों में सी.के. जाफर शरीफ, ए.आर. अंतुले तथा तारिक अनवर जैसे मुस्लिम राजनीतिज्ञ क्यों हार गये? सलीम इकबाल शेरवानी को सफलता क्यों नहीं प्राप्त हो सकी? आज़म खां जो एक राजनीतिक महत्व रखते थे क्यों महत्वहीन हो गये? सीएम इब्राहीम जो एक समय में केन्द्रीय सरकार में प्रधानमंत्री के बाद सबसे ताकतवर समझे जाते थे, अब संसद में भी क्यों नहीं पहुंच सके? यह बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती कि यह सबकुछ अचानक नहीं हो जाता है, बल्कि इसके पीछे एक बहुत गहरी साजिश हो सकती है। कट्टर राजनीतिज्ञ नहीं चाहते कि मुसलमानों में से कोई इतना शक्तिशाली राजनीतिज्ञ उभरे कि पूरी मुस्लिम कौम उसके पीछे खड़ी हो जाये। इसलिए अगर ऐसा हो गया तो जनसंख्या के अनुपात के अनुसार उसकी शक्ति को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
फिर चाहे मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में लेने की बात हो, उनकी शिक्षा तथा पिछड़ेपन का मामला हो, उनके कारोबार को बढ़ावा देने की बात हो या उनके माथे से आतंकवाद का दाग़ मिटाने का प्रश्न............हर जगह वह मुस्लिम नेता ढाल की तरह खड़ा नज़र आयेगा। कम व बेश एक ‘‘काॅमन मिनिमम प्रोग्राम’’ की सोच के तहत इस मामले में सभी एक मत हैं, इसलिए चाहे प्रश्न आज़म ख़ां का हो, सलीम शेरवानी का या उबैदुल्लाह ख़ां आज़मी का, कैसे उन्हें आगे बढ़ने से रोकना है, बन्द कमरे में बैठकर यह तय कर लिया जाता है। किसी से कुछ छीनकर उसे महत्वहीन बना दिया जाता है तो किसी को कुछ देकर और हम हैं कि इस राजनीति को समझ ही नहीं पाते। काश कि वह वक्त आए कि हम इन राजनीतिक चालों को समझने लगें और जिस तरह अन्य विभागों में बड़ी सफलताएं प्राप्त की हैं, उसी तरह राजनीति के मैदान में भी सिद्ध कर दें कि अब यह कौम राजनीतिक नेतृत्व के लिए दूसरों की मोहताज नहीं है।
काश कि हम यह समझ लें कि हम तो वह कौम हैं कि चार लोग भी किसी यात्रा के लिए निकलते हैं तो पहले कारवां के एक मुखिया का चुनाव कर लेते हैं। आज इस कारवां में 20 करोड़ से अधिक लोग हैं और कोई कारवां का मुखिया नहीं.......! बस इसीलिए हम ज़लील व ख्वार हो रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, हमारे शिक्षित युवक रास्ते से उठाए जा रहे हैं और हम हैं कि बस आंसू बहाए जा रहे हैं, इससे आगे कुछ सोचते ही नहीं। सोचो आखिर कब सोचोगे?
सभार: http://azizburney.blogspot.com/
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