Sunday, January 09, 2011

वन्देमातरम् वास्तव में दुर्गा देवी की वन्दना है - रवीन्द्रनाथ टैगोर

सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर

मैं तेरी वन्दना करता हूँ।

वन्देमातरम् के समर्थन और विरोध की प्रक्रिया प्रायः तभी शुरू हो गई थी, जब यह गीत छपकर पाठकों के सामने आया था। उसी समय से हिन्दुत्ववादी शक्ति इसका समर्थन करती आ रही है। इसके विपरीत अल्पंसख्यक समुदाय, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, इसका विरोधी रहा है। समर्थक और विरोधी दोनों वर्ग के अपने-अपने तर्क हैं।

बंकिमचन्द्र चटर्जी के विवादास्पद उपन्यास ‘आनंदमठ’ से उद्धृत इस गीत का समर्थन करने वाले लोग कहते हैं कि इसका विरोध करने वाले लोग न तो भारत के प्रति निष्ठावान हो सकते हैं और न यहां की सभ्यता और संस्कृति का आदर ही कर सकते हैं। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना के गायन के विरोध को ‘राष्ट्र का अपमान तथा हिन्दू समाज के प्रति घृणा का प्रदर्शन’ कहते हैं।

विपरीत अल्पसंख्यक समुदाय का कहना है कि हम वन्देमातरम् या सरस्वती वन्दना का विरोध नहीं करते हैं, इस गीत को गै़र हिन्दू समुदाय पर थोपने का विरोध करते हैं। हिन्दू भाई गाएं और रात-दिन गाएं, गाते रहें। हम नहीं गाएंगे। इसे हम पर न थोपा जाए।

मुस्लिम समुदाय कहता है कि वन्देमातरम् में अनेक देवी-देवताओं की वन्दना की गई है। इसलिए यह इस्लाम की मूल अवधारणा-एकेश्वरवाद-के खि़लाफ़ है। मुसलमान सिर्फ़ अल्लाह की इबादत करता है, उसी के समक्ष झुकता है, अन्य किसी की न तो वह इबादत या वन्दना कर सकता है और न ही किसी दूसरे के सामने झुक सकता है। वह तो अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की भी इबादत नहीं करते , इबादत के लायक़ तो केवल अल्लाह है, अन्य कोई नहीं। अतः मुस्लिम समुदाय दुर्गा, सरस्वती, माता, मातृभूमि या अन्य किसी भी देवी-देवता की वन्दना नहीं कर सकता।

संघ परिवार के बहुत निकट समझे जाने वाले एक मौलाना भी इस तथ्य से इनकार नहीं करते कि वन्दना में धरती या देश को विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में दिखलाया गया है। मौलाना का कहना है कि मुसलमान मानता है कि अल्लाह एक है। सिर्फ़ उसी के आगे झुकना है। इसलिए यह मुस्लिम चित्त को ठेस पहुँचाता है। मुसलमान का हृदय हर उस बात से आन्दोलित होता है, जो इस विश्वास के खि़लाफ़ जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि मुसलमान देशभक्त नहीं है। भारत के प्रति या अपने देश के लिए मुसलमान के मन में अपार श्रद्धा है। परन्तु यह उस तरह की मातृ भक्ति कदापि नहीं कर सकता, जैसी संघ परिवार चाहता है।

मौलाना एक उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि लाखों लोग सड़क पर चलते हैं। उनमें औरतें भी होती हैं। एक औरत होती है, जिसने हमें जन्म दिया है। वह औरत भी हज़ारों-लाखों औरतों की तरह मामूली है। उन्हीं की तरह चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल है, थोड़े से हेरफेर के साथ वैसी ही शक्ल-सूरत है। लेकिन उस औरत के प्रति विशेष लगाव क्यों आ जाता है, जिसने हमें जन्म दिया है? उस लगाव का ऐलान नहीं करना पड़ता। गीत गाकर आपको बताना नहीं पड़ता कि यह मेरी माँ है और मैं इसकी इज़्ज़त करता हूँ क्योंकि यह मुहब्बत स्वाभाविक है। वह माँ के प्रति प्यार की तरह स्वाभाविक है। उसके लिए गीत गाना ज़रूरी नहीं है। यह भी नहीं समझना चाहिए कि देशगान गाएंगे तो ही देशभक्त साबित होंगे, वरना नहीं।

यहां गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक पत्र का उल्लेख प्रसंगानुकूल होगा। उन्होंने 1937 ई॰ में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘‘वन्देमातरम् वास्तव में दुर्गा देवी की वन्दना है। यह सत्य इतना स्पष्ट है कि इस पर बहस नहीं की जा सकती। बंकिम ने अपने इस गीत में बंगाल से दुर्गा का अटूट संबंध बताया है। इसलिए किसी भी मुसलमान से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह दस हाथों वाली इस देवी को राष्ट्रीयता की भावना से स्वदेश के रूप में पूजेगा। इस साल हमारी पत्रिका के बहुत से पाठकों ने वन्देमातरम् के गायन वाले कुछ स्कूलों के हवाले दिए हैं और सबूतों के साथ सम्पादकों को लिखा है कि यह गीत दुर्गा देवी का भजन ही है।’’ (सेलेक्टेड लेटर्स आफ रवीन्द्रनाथ टैगोर, सम्पादक दत्ता तथा रॉबिन्सन, कैम्ब्रिज, 1997, पृ॰ 487)

वन्देमातरम् और संघ परिवार

वन्देमातरम् गाने या न गाने का विवाद जब ज़ोरों पर था, तभी संघ परिवार के प्रमुख नेता सदाशिव माधव गोलवलकर ने अपने एक लेख में यह लिखकर वन्देमातरम् विवाद को एक नया मोड़ दे दिया था कि जो लोग देश को अपनी मां नहीं समझते, इस रूप में उसे पूज्य नहीं मानते, वन्देमातरम् गाने से परहेज़ करते हैं, वे इस देश के प्रति निष्ठावान नहीं हो सकते।

आज भी संघ परिवार गुरूजी के नक्शेक़दम पर चल रहा है। संघ परिवार भारतीय मुसलमानों को नया नाम देना चाहता है। क्या है वह नया नाम? वह नाम है ‘मुहम्मदी हिन्दू’ अर्थात् ऐसे प्रत्येक मुसलमान को ‘मुहम्मदी हिन्दू’ कहा जा सकता है, जो पूरी तरह हिन्दुत्व के रंग में रंग जाए और यहां की देवियों तथा यहां के देवताओं एवं महापुरूषों को अपना पूज्य माने, उनके आगे पूरे श्रद्धाभाव से झुके। उनका नाम मुसलमानों जैसा हो, लेकिन काम पूरी तरह हिन्दुओं जैसा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर एक बार गुरूजी ने मज़ारपरस्त मुसलमानों के बारे में कहा था कि इन्हें न छेड़ो, इनकी मदद करो, क्योंकि ये हमारे भटके हुए भाई हैं। - मुहम्मद इलियास हुसैन


मासिक कान्ति जुलाई 1999 से साभार

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