Monday, January 10, 2011

असीमानन्द की ज़िन्दगी का एक पहलू यह भी...अज़ीज़ बर्नी

आर एस एस के एक समर्पित सदस्य असीमानन्द का प्रायश्चित हमें आज बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है। हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनने के लिए मजबूर करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की धरती पर होने वाली आतंकी गतिविधियों से पर्दा उठाया है असीमानन्द ने, लेकिन साथ ही हमारी बुद्धियों पर पड़े पर्दे को भी उठाया है असीमानन्द ने। हमारी अन्तरात्मा को आवाज दी है कि हम सब अपने अपने गिरेबानों में झांक कर देखें कि क्या कभी हमसे भी गलती हुई है, इसलिए हमें असीमानन्द की इस स्वीकारोक्ति के विभिन्न पहलूओं पर अत्यन्त गंभीरता और इमानदारी के साथ विचार करना होगा। एक बंद कमरे में जहां मैजिस्ट्रेट और असीमानन्द के बीच गुफ्तगू का सिलसिला जारी था, वहां असीमानन्द और जज के बीच में कुछ समय के लिए एक स्टेनो के अतिरिक्त कोई भी नहीं था। जज का बार बार यह कहना कि क्या आप पर किसी प्रकार का दबाव तो नहीं है? क्या आपको ये बयान देने के लिए मजबूर किया जा रहा है? क्या आप जानते हैं कि आपका अपराध स्वीकरण आपके विरूद्ध प्रमाण के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा और आपको अपने इस बयान के आधार पर सज़ा हो सकती है और अब मैं अपने स्टेनो को भी बाहर जाने के लिए कह रहा हूं। इस समय मेरी और आपकी आवाज़ कोई तीसरा नहीं सुन रहा है और न कोई देख रहा है। अब आप कहें क्या कहना चाहते हैं आप जिस भाषा में अपना बयान देना चाहते हैं दे सकते हैं। उस समय अत्यन्त शांतिपूर्ण अंदाज़ में असीमानन्द का अपराध स्वीकरण और उसका कारण बनने वाले एक 18वर्षीय मुस्लिम युवक की चर्चा जो कुछ रोज असीमानन्द के साथ जेल में रहा, मेरी मुराद मक्का मस्जिद बम बलास्ट के अभियुक्त कलीम से है जिसके स्वभाव ने, जिसके चरित्र ने असीमानन्द जैसे व्यक्ति का हृदय परिवर्तित कर दिया।

एक ओर आरएसएस का प्रशिक्षित एक ऐसा व्यक्ति जिसने उच्च शिक्षा प्राप्त की, फिर आरएसएस से प्रशिक्षण प्राप्त करके मुसलमानों से घृणा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया हुआ था और दूसरी ओर एक अल्प आयु का मामूली पढ़ा लिखा मुस्लिम युवक जिसने बदलकर रख दिया उसके जीवन दर्शन को। यहां हमारे नजदीक अगर एक उदाहरणीय चरित्र है कलीम का तो स्वीकार करना होगा कि चरित्र उदाहरणीय है असीमानन्द का भी, जिसने अपने गुनाह को स्वीकार करने का साहस किया, जिसने सच को सामने लाने का साहस किया, जिसने सज़ा की परवाह न करते हुए अपनी गलती को स्वीकार किया,जिसने अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनने के सिवा न तो परिस्थितिकयों की मांग की ओर कोई ध्यान दिया, न अपने अतीत की ओर मुड़कर देखा और न अपने उन क़बीले वालों की कठिनाईयों का ख्याल किया जिनके लिए इस रास्ते पर चलना स्वीकार किया था। असीमानन्द को आरएसएस का प्रशिक्षित, आरएसएस का प्रचारक अथवा भारत में होने वाले विभिन्न बम धमाकों का अभियुक्त ठहराकर अपनी बात को आगे बढ़ाना पर्याप्त नहीं होगा। हमें जानना होगा असीमानन्द के अतीत को, असीमानन्द के उद्देश्य को,इसलिए समझना होगा असीमानन्द के जीवन को।

असीमानन्द का असली नाम है नबा कुमार सरकार, पिता का नाम श्री विभुतिभूषण सरकार और मां का नाम पर्मिला सरकार । असीमानन्द पश्चिम बंगाल के रहने वाले हैं। उच्च शिक्षित हैं। 1974 में पश्चिम बंगाल की वर्धवान युनिवर्सिटि से एमएससी की शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही धार्मिक विचार के थे और अपने गांव के रामा कृष्ण मिशन में जाया करते थे। धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करना उनका शौक था, जिससे वह बहुत प्रभावित हुए। शिक्षा पूरी करने के बाद जीवन भर आदिवासियों की सेवा करने का फैसला किया। 1971 में बीएससी की शिक्षा प्राप्त करने के दौरान आरएसएस से सम्पर्क स्थापित हुआ। 1995 में गुजरात के डांग जिला पहुंचकर वहां रहने का फैसला किया। इसी शहर में वाघही नामक स्थल पर बनवासी कल्याण आश्रम में रहना शुरू किया। यही वह स्थान था जहां शबरी ने श्री राम को अपने जूठे बेर खिलाए थे। इसलिए इस स्थान का नाम शबरी माता सेवा समिति रखकर आरएसएस की शिक्षा के अनुसार अपना कार्य शुरू कर दिया। उसके बाद असीमानन्द ने अपनी विस्तृत अपराध स्वीकारोक्ति में उन सभी घटनाओं का उल्लेख किया है जो हम अकसर समाचारपत्रों में पढ़ते रहे हैं। मेरे द्वारा सम्मान के साथ नाम लेने का कारण है कि मैं इस समय असीमानन्द के अपराध की कहानी नहीं बल्कि उठाये गये सीख के योग्य कदम की चर्चा कर रहा हूं। मैं जिस खास पहलू पर ध्यान दिलाना चाहता हूं वह यह है कि असीमानन्द जिसने पूरा जीवन आरएसएस की शिक्षा प्राप्त करने तथा शिक्षा देने में बिताया, जिसने जीवन भर विवाह नहीं किया, जिसने अपने जीवन का उद्देश्य आरएसएस के उद्देश्यों को पूरा करना ही बनाया, उस व्यक्ति का मन परिवर्तित हुआ एक 18 वर्षीय मुस्लिम युवक के अमल से, जो बहुत अधिक शिक्षित नहीं था, जो असीमानन्द की तरह अपने धर्म की उतनी जानकारी नहीं रखता था, अगर उसके पास कुछ था तो अपना स्वभाव और चरित्र। वह युवक उन गुनाहों की सजा पा रहा था, जो उसने नहीं किए थे और उसके सामने वह व्यक्ति था जो उन गुनाहों के लिए जिम्मेदार था। बस इस घटना ने असीमानन्द का हृदय बदल दिया। अब असीमानन्द को न तो 59 वर्ष तक प्राप्त की गई शिक्षा की परवाह थी, न आरएसएस के वह उद्देश्य याद थे जिनको अंजाम तक पहुंचाने के लिए यह रास्ता अपनाया था। अब असीमानन्द को इस बात का भय भी नहीं था कि इन गुनाहों को स्वीकार करने के बाद क्या होगा केवल इतना ही नहीं कि मृत्यु दंड भी हो सकती है बल्कि यह भी कि उस समुदाय ने, जिस विशेष विचारधारा के लोग आज तक असीमानन्द को अपने संगठन का एक आदरणीय व्यक्ति समझते रहे, अब उससे न केवल मुंह फेर लेंगे घृणा करेंगे और वह अपनी घृणा में किसी हद तक भी जा सकते हैं। यह हद वह भी हो सकती है जिससे सुनील जोशी को गुजरना पड़ा अर्थात असीमानन्द को इस बात की चिंता भी नहीं है कि जीवन जेल की सलाखों के पीछे घृणाओं के साये में समाप्त हो सकता है। अगर कोई चिंता है तो बस इतनी कि अतरात्मा जाग उठी है और उसकी आवाज़ यह है न्याय के मार्ग पर चलते हुए अपने गुनाहों को स्वीकार कर लिया जाये।

मैं इस समय आरएसएस को कटघरे में खड़ा नहीं करना चाहता। मैं इस समय आरएसएस के पोषित उस व्यक्ति के जीवन का वह पहलू सामने रखना चाहता हूं जो पूरे भारत के लिए अत्यंत सीख देने वाला है। हो सकता है कि इस समय आर एसएस के लोग यह सोच रहे हों कि असीमानन्द ने बग़ावत करके बहुत बड़ी बेवफाई की है। परन्तु शायद असीमानन्द ने इस समय आरएसएस को एक नया जीवन दिया है, एक नई सोच दी है बालमीकी ने जो काम किया रमायण लिखकर आज असीमानन्द ने वो काम किया है। सभी लोगों को सोचने पर मजबूर किया है कि अगर आरएसएस के प्रशिक्षित ऐसे व्यक्ति की अन्तरात्मा जाग सकती है जो विनाश के रास्ते पर चल रहा था और दूसरों को चलने की प्रेरणा दे रहा था तो बाकी लोग अपने गिरेबान में झांककर देखें कि क्या वह अपने अन्दर इतनी हिम्मत जुटा पायेंगे कि अपने गुनाह की स्वीकारोक्ति करें क्या भारत में होने वाली सभी आतंकी कार्रवाईयों के लिए केवल आरएसएस ही जिम्मेदार है और कोई दूसरा नहीं है, अगर है तो असीमानन्द के अपराध स्वीकरण के बाद उसे भी अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई देनी चाहिए। अगर हम असीमानन्द के पूरे बयान पर विचार करें, केवल उन पंक्तियों को अपने सामने न रखें जो हमें अपनी बात कहने या सिद्ध करने में सहायक हों तो फिर हमें इस वाक्य पर भी विचार करना होगा कि बम का जवाब बम से देने की सोच ने असीमानन्द को इस रास्ते पर चलने की सोच दी और शांति के बदले शांति, मृदुस्वभाव की मांग ने अपराध स्वीकरण का फैसला लेने के लिए मजबूर किया। इसलिए बात चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो या किसी भी धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्ति की। हमें असीमानन्द के इस बयान को सामने रखकर अपने अपने कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए और अगर मैं विशेष रूप से मुसलमानों को संबोधित करते हुए कुछ वाक्य लिखने का इरादा करूं तो मुझे हवाला देना होगा मौलाना कलब-ए- जव्वाद साहब के एक भाषण का। पिछले दिनों एक सभा में भाषण देते हुए उन्होंने जिहाद की चर्चा की थी। उसी समय उन्होंने यह भी कहा था कि किसी भी युद्ध में कामयाबी से अधिक महत्व रसूलुल्लाह ने सुलह हुदैबिया को दिया था अर्थात सफलता जंग में नहीं सुलह में है। मैं इस समय सुलह हुदैबिया के वही बिंदू अपने इस लेख में शामिल करना चाहता हूं इसलिए कि मुझे कलीम की भूमिका वही नज़र आती है जिसकी चर्चा सुलह हुदैबिया में हमने पढ़ी थी।

अधिकतर सहाबा र.अ. सुलह के लिए तैयार न थे और इसके लिए तैयार न थे कि उन्हें खाना-ए-काबा की ज़ियारत से वंचित किया जाए। फिर भी हुजूर स.अ.व. सुलह के लिए तैयार हो गए। लेकिन जब सुलह में सारी शर्तें कुफ्फाराने मक्का की माने जाने की बात सामने आई तो अधिकतर सहाबा र.अ. इसके लिए तैयार नज़र नहीं आए।

सुलहनामा लिखते समय फरीक़ के रूप में जब मोहम्मद स.अ.व. नाम लिखते हुए रसूलुल्लाह लिखा गया तो उसका भी कुफ्फारे मक्का के सुलहकर्ताओं ने विरोध किया, तो हजरत अली र.अ. गुस्सा हो गये लेकिन हुजूर स.अ.व. अपना नाम वलदियत के साथ लिखने पर राज़ी हो गए।

सुलह के बाद कु़रआन-ए- पाक की आयत नाज़िल हुई ,(अनुवादः हमने आपको फतह अता की, ऐसी फतह जो स्पष्ट फतह और अज़ीम है)

सुलह के बाद उमर फारूक़ र.अ. पहले अबूबकर सिद्दीक़ र.अ. के पास गये और कहा कि यही फतह है तो उन्होंने कहा कि हुजूर कह रहे हैं तो यकीनन यही फतह है फिर हजरत उमर र.अ. हुजूर स.अ.व. के पास गये और सवाल किया कि क्या यह फतह है?

तो हुजूर स.अ.व. ने कहाः (अनुवादःकसम है उस ज़ात की जिसके हाथ में मोहम्मद की जान है, यकीनन यह फतह है।क्ष्मसनद अहमद, अबू दाऊदद्व)

समझौतानामाः

स10 वर्ष तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगी और एक दूसरे के विरूद्ध गुप्त अथवा घोषित कोई कार्रवाई न कि जायेगी।

सइस बीच कुरैश का जो व्यक्ति अपने अभिभावक की अनुमति के बिना भाग कर मोहम्मद के पास जाएगा उसे वापस किया जाएगा। लेकिन मुसलमानों में से जो व्यक्ति कुफ्फाराने मक्का के पास जाएगा वह उसे वापस नहीं करेंगे।

सअरब कबीलों में से जो क़बीला दोनों पक्षों में से किसी एक का साथी बनकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा उसे इसका अधिकार होगा।

समोहम्मद स.अ.व. अपने सभी साथियों के साथ वापस जायेंगे और अगामी वर्ष वह उमरा के लिए आकर तीन दिन मक्के में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि मियान में एक तलवार लेकर आऐं और कोई हथियार न लाऐं।

सइन तीन दिनों में मक्का वाले उनके लिए शहर खाली कर देंगे ताकि किसी टकराव की नौबत न आये परन्तु वापस जाते हुए वह यहां के किसी व्यक्ति को अपने साथ ले जाने के हकदार न होंगे।

अबूजिंदल जो मुसलमान हो चुके थे और कुफ्फार की हिरासत में कैदी स्वरूप थे, ठीक सुलह के समय हुजूर के पास पहुंचे और रिहाई की गुहार लगाई लेकिन कुफ्फार के सुलहकर्ता उमर बिन सुहैल की इच्छा का सम्मान करते हुए फिर उन्हें हुजूर ने वापस मक्का भेज दिया।

यह है इस्लाम का जीवन दर्शन अगर हमने इसकी रौशनी में चलने का इरादा कर लिया, अगर हमने अपने दिलों की नफरतों को दूर करने का फैसला कर लिया, अगर हमने असीमानन्द के अपराध स्वीकारोक्ति को आरएसएस पर कीचड़ उछालने का एक और अवसर मिल जाने के बजाये असीमानन्द के चरित्र के बड़प्पन को अपने मन में बैठा लिया तो निश्चित ही हम इस नतीजे पर पहुंच जायेंगे कि अपने प्यारे भारत में शांति की सथापना हो आतंकवाद समाप्त हो, अतएव देश में एकता तथा भाईचारे का माहौल कायम करने के लिए हमें वह रास्ता अपनाना होगा जो कलीम ने अपनाया, हमें वह रास्ता अपनाना होगा जो असीमानन्द ने अपनाया। अगर हम यह रास्ता अपना लेंगे तो निश्चय ही कलीम और असीमानन्द इस सूचि के प्रथम तथा अंतिम नाम नहीं होंगे, बल्कि यह उन सभी लोगों का अंतरात्मा की आवाज़ देने का उदाहरण बन जायेगा जिनसे कभी न कभी किसी मामले में गलती हुई है। इसलिए हम सबको अपने कार्यों की समीक्षा करते हुए अब इस दिशा में आगे बढ़ना चाहि कि हम अतीत की गंदगियों को उछालने के बजाये उन से छुटकारा पाने के रास्ते अपनायें। कानून अपना काम करे, वह हर अपराधी को सजा दे यह उसकी जिम्मेदारी है लेकिन हम इस इंसाफ के रास्ते को राजनीति के लिए भी प्रयोग नहीं होने दें और न ऐसे किसी उल्लेख से घृणा का माहौल स्थापित होने देंगे।

असीमानन्द ने जिन गुनाहों को स्वीकार किया उनमें शामिल है समझौता एक्सप्रेस बम धमाका, मालेगांव बम धमाका, अजमेर ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती की दरगाह पर हुआ आतंकी हमला और मक्का मस्जिद बम धमाका। मैं सभी आतंकवादी हमलों के विवरण में नहीं जाना चाहता कि आखिर इन स्थानों का चयन क्यों किया गया था। परन्तु इस समय हमारे सामने उन आतंकवादी हमलों की सूचि है और अपराध स्वीकार करने वाला बयान भी तो इसी समय हमारे मन में कुछ साम्प्रदायिक हमलों की तस्वीर भी है। मैंने जान बुझकर इस समय साम्प्रदायिक दंगा करार नहीं दिया,इसलिए कि वह भी किसी न किसी मानसिक प्रयास का परिणाम थे। मेरी मुराद है मेरठ, मलियाना, हाशिमपूरा, मुरादाबाद की ईदगाह में हुआ नरसंहार और भागलपुर जैसी विडमबनापूर्ण घटनायें। देश को आतंकवाद तथा साम्प्रदायिकता दोनों से ही भारी खतरा है और अगर हम आतंकवाद की बात करें तो फिर यह आतंकवाद चाहे जिस धर्म, समुदाय या राजनीतिक दल द्वारा फल फूल रहा हो वह देश के लिए समान रूप से खतरनाक है। इसलिए आज हमें देखना यह है कि आरएसएस की पंक्तियों से निकलकर असीमानन्द ने अपने अन्तरात्मा की आवाज़ पर अपने अपराध की स्वीकारोक्ति की है तो क्या बाकी गुनहगारों पर भी इसका कोई असर पड़ेगा, क्या वह भी अपने गुनाह को स्वीकार करने का साहस दिखा पायेंगे।

नोटः बहराईच कांफ्रेंस और मुबारकपुर की गुमशुदा बच्चियों की घर वापसी पर फिर कभी...

2 comments:

  1. इसमें कोई शक नहीं के कुछ हिन्दू वादी संगठन भी आतंगवादी गतिविधियों में शामिल है, आतंग का चेहरा बड़ा ही छिनोना है चाहे कोई भी संगठन हो इन पे तुरंत कार्यवाई होनी चाहिए, मुश्किल तो ये है के हमारे यहाँ का सिस्टम बड़ा ही सुस्त और भ्रष्ट है, इसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए और मालेगाव बम धमाके में जो मुसलमानों को नाजायज़ गिरफ्रार किया गया है उनसभी को बाइज्जत बरी करना चाहिए. और हमें अपनी न्याय पालिका पे पूरा भरोसा है के किसी के साथ नाइंसाफ़ नहीं किया जायेगा. दूसरी बात, मै इस तरह के तमाम आतंगवादी के लिए कह रहा हु के आग को आग से नहीं बुझाया जा सकता अगर आप आग को बुझाना चाहते है तो पानी का इंतजाम करना पड़ेगा, शायद मेरी बात कुछ हिन्दू भाइयो को समझ न आये लेकिन इलाज तो करना ही है तो न्याय पालिका को अपना काम करने दो और इस तरहे के संगठनो को बंद करवा देना चहिये उन पे प्रतिबन्ध लगादेना चहिये.

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  2. @ सोहेल भाई, आपने बिलकुल सही कहा के ऐसे संगठनो पर तुरंत प्रतिबंध लगा देना चाहिए, पैर देखतें हैं यु.पी.ए. सर्कार में ये कब हिम्मत अति है,

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