Monday, February 07, 2011

पूर्वाग्रहों के शिकंजे में दम तोड़ता इंसाफ


imageमक्का मस्जिद विस्फोट के लिए दर्जनों बेकसूर मुसलिमों को पुलिस द्वारा जिम्मेदार ठहराया गया
इस्लामी आतंकवाद के पूर्वाग्रह ने इन 32 मुसलिम युवकों को हिंदू कट्टरपंथियों की करनी का फल भोगने पर मजबूर कर दिया. आशीष खेतान की रिपोर्ट
ऐसे संयोग फिल्मों और किस्से-कहानियों में ही ज्यादा दिखते रहे हैं. एक मुसलिम नौजवान और एक कट्टरपंथी हिंदू स्वामी का एक जेल में आमना-सामना होता है. स्वामी को पता चलता है कि जो मुसलिम नौजवान उसे बहुत आदर दे रहा है वह डेढ़ साल तक उस जुर्म की वजह से जेल में रहा जो स्वामी और उसके सहयोगियों ने किया था. स्वामी की आत्मा उसे धिक्कारती है. उसका हृदय परिवर्तन होता है और वह अपना गुनाह कबूल लेता है जिससे एक बड़ी आतंकी साजिश की कई बिखरी कड़ियां जुड़ने लगती हैं.यह विरला संयोग करीब महीना भर पहले हुआ.  लेकिन इस कहानी की शुरुआत इससे भी पहले 2007 में तब हुई थी जब 18 साल के अब्दुल कलीम को हैदराबाद पुलिस मक्का मस्जिद ब्लास्ट मामले में उसके घर से उठा ले गई थी. इस घटना में नौ लोगों की जान गई थी. कलीम ने अपने निर्दोष होने की बहुत-सी दलीलें दीं, मगर उसकी किसी ने नहीं सुनी. उसे दोषी करार देने के लिए पुलिस को इतने तथ्य बहुत लगे कि वह मुसलमान होने के साथ-साथ अब्दुल खाजा, जो कई साल पहले पाकिस्तान चला गया था, का भाई है. भारतीय जांच एजेंसियों के दावों के मुताबिक खाजा आईएसआई के लिए काम करता था. तब कलीम का दूसरा भाई अब्दुल खद्दर मिडिल इस्ट में नौकरी करता था और खाजा को भगोड़ा घोषित किया गया था. कलीम उस वक्त मोबाइल फोन और सिम कार्ड बेचने के व्यवसाय से जुड़ा था, साथ ही वह मेडिकल लैब टेक्नीशियन का कोर्स भी कर रहा था.  
मक्का मस्जिद में दो बम रखे गए थे. एक में धमाका हुआ और दूसरा नहीं फटा.  दूसरे बम के साथ एक मोबाइल फोन और सिम कार्ड मिला जिसने पुलिस के पूर्वाग्रह को तुष्ट कर दिया और उसके लिए अब यह तय था कि इस विस्फोट के पीछे कलीम का ही हाथ है. दर्जन भर दूसरे मुसलिम युवकों के साथ कलीम को जेल में बंद कर दिया गया. 18 महीने बाद भी जब कुछ साबित नहीं हुआ तो उसे छोड़ दिया गया. लेकिन इसी बीच खाजा को श्रीलंका में रॉ ने धर दबोचा और उसे हैदराबाद जेल भेज दिया गया. अक्टूबर, 2010 में पुलिस ने कलीम को दोबारा यह आरोप लगाते हुए धर लिया कि उसने अपने भाई को एक फोन सप्लाई किया था.
महाराष्ट्र एटीएस इन पड़तालों का मूलमंत्र भूल गई- अपराधी तक पहुंचने के लिए पहले अपराध के उददेश्य को तलाशिए
 यही वह समय था जब जेल में स्वामी असीमानंद और कलीम की मुलाकात हुई. कलीम स्वामी के साथ बहुत सम्मान से पेश आता था. उसे कुछ पता नहीं था. दोनों के बीच बहुत बातचीत होने लगी जिसके बाद स्वामी को पता चला कि कलीम स्वामी और उनके साथियों द्वारा किए कृत्यों की सजा भोग रहा है. माना जाता है कि स्वामी असीमानंद पर इसका गहरा असर हुआ और प्रायश्चित करने के लिए उसने एक मजिस्ट्रेट के सामने अपना अपराध कबूल कर लिया.  असीमानंद के इकबालिया बयान ने एक बार फिर उस पूर्वाग्रह को पुष्ट किया है जो भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में मुसलिमों को लेकर देखने को मिलता रहा है. किसी भी आतंकी घटना के बाद सब चाहते हैं कि अपराधियों को जल्दी पकड़कर उन्हें कड़ी सजा दी जाए जो जायज है. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि आनन-फानन में किसी तुक्के वाले निष्कर्ष तक पहुंच लिया जाए. दुर्भाग्यवश देश में इन चुनौतियों से ज्यादातर ऐसे ही निपटा जाता है. पिछले एक दशक में (खासकर 2004 और 2009 के बीच जब देश सिलसिलेवार विस्फोटों से दहल उठा था) दर्जनों निर्दोष मुसलिम युवकों को गलत तरीके से आतंकी घटनाओं का जिम्मेदार ठहराया गया है. एक न्यायपूर्ण और सुरक्षित समाज की दिशा में बढ़ने के लिए जरूरी है कि असली मुजरिमों को पकड़ा जाए, पुलिसिया जांच तुक्कों पर आधारित होने की बजाय तथ्यों और तर्कों पर आधारित हो और इस्लामी आतंकवाद के पूर्वाग्रह से परे भी सोचा जाए. लेकिन हमारी जांच एजेंसियों का एक बड़ा हिस्सा इससे इतर सोचने को तैयार ही नहीं होता. पूर्वाग्रह के आधार पर जांच को आगे बढ़ाने वालों के लिए यह भी मायने नहीं रखता कि अगर उनका अनुमान सही भी है तो क्या धरे गए मुसलिम युवक ही अपराधी हैं या क्या उनके खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य हैं. उनके लिए उस वक्त बस यह महत्वपूर्ण रह जाता है कि मामले को निपटाने के लिए बस किसी को दोषी ठहरा दिया जाए. लापरवाही का यह सिलसिला तब जाकर थोड़ा थमा जब महाराष्ट्र के एटीएस (आतंकवाद विरोधी दस्ता) प्रमुख हेमंत करकरे ने 2008 में हुए मालेगांव ब्लास्ट के पीछे पहली बार किसी हिंदूवादी आतंकी नेटवर्क के होने का खुलासा किया. इससे पहले तक मुसलिम इलाकों और मस्जिदों में हुए विस्फोटों के लिए भी मुसलिमों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अकसर इस तरह की गिरफ्तारियां सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में नहीं बल्कि आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों, जहां कांग्रेस या कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, में भी धड़ल्ले से चलती रही हैं. साफ है कि मुसलिमों के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं था.
स्वामी के बयान से साफ है कि मक्का मस्जिद और मालेगांव धमाकों के लिए पकड़े गए 32 मुसलिम युवकों को मिली यातना निरर्थक थी. संभव है कि उनमें से कुछ कट्टरपंथी हों, कुछ का अतीत संदिग्ध भी रहा हो, लेकिन इन धमाकों में उनका हाथ नहीं था. जांच के नाम पर होने वाली यह लापरवाही गंभीर चिंताएं जगाती है. भले ही उनकी रिहाई हो गई हो लेकिन उनकी जिंदगी के वे साल कौन लौटाएगा जो उन्हें सलाखों के पीछे बिताने पड़े? 26 दिसंबर, 2007 को सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त महानिदेशक अरुण कुमार, जो मक्का मस्जिद ब्लास्ट केस के लिए हो रही जांच का काम देख रहे थे, हैदराबाद के संयुक्त पुलिस महानिदेशक (प्रशासन) हरीश गुप्ता की चिट्ठी पाकर रोमांचित थे. दो पन्नों वाली इस चिट्ठी के साथ पकड़े गए मुसलिम युवकों पर किए गए नार्को टेस्ट की सीडियां और ब्लास्ट की जिम्मेदारी लेती उनकी स्वीकारोक्तियां भी संलग्न थीं. यह दावा किया गया था कि मक्का मस्जिद केस सुलझा लिया गया है. कुल 25 लोगों को दोषी ठहराया गया था जिनमें से 19 हैदराबाद के मुसलिम युवक थे जबकि छह बांगलादेशी मुसलिम. बकौल गुप्ता हैदराबाद के 19 आरोपितों में से 11 को पकड़ा जा चुका था.गुप्ता ने आगे यह दावा भी किया कि उनमें से दो ने पुलिस पूछताछ और नार्को टेस्ट दोनों में मक्का मस्जिद ब्लास्ट में अपनी भूमिका को स्वीकारा है. इन दावों और तर्कों से प्रभावित कुमार ने तुरंत एक टीम तैयार करके हैदराबाद भेज दी ताकि केस के दूसरे सिरों को जोड़कर गुप्ता द्वारा दोषी ठहराए गए उन युवकों के खिलाफ चार्जशीट दायर की जा सके.यह भी आश्चर्यजनक ही था कि आखिर हैदराबाद पुलिस मक्का मस्जिद केस की तफ्तीश में क्यों लगी थी जबकि सीबीआई को पहले ही इसकी जिम्मेदारी नौ जून, 2007 को दी जा चुकी थी!
दरअसल, इस आतंकी हमले के संबंध में दो अलग केस दर्ज किए गए थे. एक उस बम के लिए जो फटा था और दूसरा उसके लिए जो नहीं फटा और जिसने केस से जुड़े चंद साक्ष्य (मोबाइल और सिम कार्ड) मुहैया कराए थे. आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने पहले बम से संबधित केस का जिम्मा सीबीआई को सौंप दिया और दूसरा बम वाला केस (जो फटा नहीं) अपने पास ही रखा. यह केस (क्राइम नंबर–107/2007) हुसैनी आलम पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया था. इसे बाद में सेंट्रल क्राइम स्टेशन के सुपुर्द कर दिया गया जहां इसकी जांच-पड़ताल गुप्ता के निरीक्षण में हुई. यानी हैदराबाद पुलिस ने मौका-ए-वारदात से मिला इकलौता साक्ष्य (नोकिया मोबाइल फोन और सिम कार्ड) शुरू में सीबीआई को नहीं दिया और धड़ाधड़ लोगों को पकड़ना शुरू कर दिया. शक के आधार पर पुलिस जिन लोगों के पीछे पड़ी वे हमेशा की तरह अहल-ए-हदीस समुदाय के अनुयायी थे. गौरतलब है कि इन्हीं साक्ष्यों की मदद से अंत में सीबीआई और राजस्थान एटीएस, आरएसएस प्रचारकों तक पहुंचे थे.  
भले ही उनकी रिहाई हो गई हो लेकिन उनकी जिंदगी के वे साल कौन लौटाएगा जो उन्हें सलाखों के पीछे बिताने पड़े?
अहल-ए-हदीस का एक सदस्य 24 वर्षीय अब्दुल सत्तार कुछ वक्त तक पुलिस का मुखबिर रहा था. पाकिस्तान से प्रशिक्षण प्राप्त सत्तार पहले लशकर-ए-तैयब्बा से जुड़ा था. मक्का मस्जिद ब्लास्ट के समय वह पुलिस का मुखबिर था. उसने ही पुलिस को संदिग्धों की लिस्ट थमाई थी जिसके आधार पर कुछ ही हफ्तों में तकरीबन तीन दर्जन मुसलिम युवकों को गिरफ्तार करके उन्हें प्रताडि़त करने का सिलसिला चला. अब्दुल कलीम उन्हीं गिरफ्तार युवकों में एक था.सीबीआई, आंध्र प्रदेश सरकार से दूसरे केस को भी उन्हें सौंप दिए जाने की मांग करती रही. हैदराबाद पुलिस को इस बात का इल्म हो गया था कि आज नहीं तो कल यह केस सीबीआई के हाथों में ही जाना है, इसलिए उन्होंने आतंकी षड्यंत्र से संबद्ध तीन और अलग व नए केस दर्ज किए: 1. क्राइम नंबर 198/2007 गोपालपुरम पुलिस थाने में दर्ज किया गया- भारत में जिहादी गतिविधियों को बढ़ावा देने, मुसलिम युवाओं को आतंकी प्रशिक्षण और हिंसक घटनाओं को अंजाम देने के लिए संगठित करने का षड्यंत्र 2. क्राइम नंबर 100/2007 विशेष जांच दस्ते द्वारा दर्ज किया गया-सांप्रदायिक दंगे भड़काने व विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए हैदराबाद व देश के दूसरे हिस्सों में ब्लास्ट कराने की साजिश 3. क्राइम नंबर 75/2007 विशेष जांच दस्ते द्वारा दर्ज किया गया - फर्जी नामों पर मोबाइल कनेक्शन खरीदकर आतंकी गतिविधियों को आसान बनाने का षड्यंत्रइन तीनों मामलों में कलीम समेत तीन दर्जन से ज्यादा युवकों को पकड़ा गया. इन पर नार्को टेस्ट भी करवाया गया, लेकिन ऐसे साक्ष्य जुटाने में पुलिस विफल रही जिन्हें मक्का मस्जिद ब्लास्ट के साथ जोड़ा जा सकता. तब भी वे इन नौजवानों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए. पुलिस के पास उनके द्वारा दिया गया इकबालिया बयान ही एकमात्र साक्ष्य था जो सर्वज्ञात है कि भयावह यातना के दम पर हासिल किया जाता है. पुलिस चाहती थी कि सीबीआई भी उसकी रिपोर्टों के आधार पर इन युवकों के खिलाफ मामला चलाए. 
लेकिन दिसंबर, 2007 में जब सीबीआई इस सिलसिले में हैदराबाद गई तो उसने पाया कि ये इकबालिया बयान फर्जी हैं. हैदराबाद जेल में बंद इन युवकों से पूछताछ के बाद जांच एजेंसी इस नतीजे पर पहुंची कि उनमें से कुछ मुसलिम कट्टर जरूर थे लेकिन मक्का मस्जिद ब्लास्ट से उनका कोई लेना-देना नहीं था. हैदराबाद पुलिस की पड़ताल और उसकी रिपोर्टों को नकारते हुए सीबीआई ने इन युवाओं पर चार्जशीट दायर करने से मना कर दिया. अंततः हैदराबाद पुलिस द्वारा दायर किए गए तीनों केसों की इतिश्री इन लड़कों की रिहाई के साथ हुई. चूंकि पुलिस जानती थी कि जिस बुनियाद पर उसने ये केस रचे-बुने हैं वह कमजोर और तथ्यहीन है, इसलिए उच्च न्यायालय द्वारा इन लड़कों की रिहाई के खिलाफ उसने कोई अपील नहीं की. जनवरी, 2008 में आंध्र प्रदेश सरकार ने आखिरकार दूसरा केस (बम जो फूट नहीं सका था) भी सीबीआई के हाथ में सौंप दिया. ये लड़के भले ही रिहा कर दिए गए हों लेकिन वास्तविकता यही है कि इस तरह की गिरफ्तारियां अकसर निर्दोष और सामान्य नागरिकों को समाज की नजर में बुरी तरह गिरा देती हैं. जेल में सालों से दिए जा रहे मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न को एक पल के लिए भुला भी दें तो बाहर आने के बाद नौकरी ढूंढ़ना, किराए पर मकान ले पाना सब दुष्कर हो जाता है.
ऐसे में दो सवाल उठते हैं: पुलिस उन नौजवानों के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी रही जिनके खिलाफ उसके पास पर्याप्त सबूत तक नहीं थे? और इन नौजवानों की जिंदगी के वे साल कौन वापस करेगा जो इन्होंने जेल की सलाखों के पीछे खो दिए? सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मालेगांव (महाराष्ट्र) में शुक्रवार 8 सितंबर, 2006 को भयावह बम विस्फोट ने 37 मुसलिमों की जान ली थी और 100 से अधिक लोगों को घायल कर दिया था. कुल चार बेहद शक्तिशाली बम रखे गए थे. तीन हमीदिया मस्जिद के अंदर जबकि चौथा बम पास के भीड़-भाड़ वाले मार्केट के इलाके में मुशावरत चौक पर. उस दिन मुसलिमों का त्योहार शब-ए-बरात भी था. स्पष्ट रूप से बम के निशाने पर मुसलिम ही थे. अक्टूबर, 2005 से भारत के मुख्य इलाकों में बम विस्फोट की घटनाएं नियमित हो गई थीं. दिल्ली में दीवाली पर हुए धमाकों से शुरू हुआ यह सिलसिला वाराणसी व मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के रूप में कई दफा दुहराया गया. लेकिन मालेगांव ब्लास्ट इन सबसे इतर था. पुरानी घटनाओं में जहां हिंदू और उनके मंदिर निशाने पर होते थे वहीं इस बार निशाने पर मुसलिम और उनकी मस्जिदें थीं. ऐसा सिर्फ तीन बार हुआ था जब मध्य महाराष्ट्र में किसी मस्जिद के नजदीक बम ब्लास्ट हुआ हो: नवंबर, 2003 में प्रभानी में मोहम्मदिया मस्जिद, अगस्त, 2004 में जलना में कादरिया मस्जिद और अगस्त, 2004 में प्रभानी के पुरना में मेराज-उल-उलूम मस्जिद के पास. ये मामले तब सुलझाए गए जब नांदेड़ में अपने घर पर बम बना रहे एक आरएसएस सदस्य और एक बजरंग दल कार्यकर्ता की इसी दौरान विस्फोट होने से मौत हो गई. हालांकि इसके बावजूद भी तब महाराष्ट्र एटीएस ने मामले की जड़ में जाने की बजाय बजरंग दल के कुछ पुछल्ले कार्यकर्ताओं पर चार्जशीट दायर करके नांदेड़, जलना और प्रभानी के इन मामलों से पल्ला छुड़ा लिया. ये केस बड़ी जल्दी भुला भी दिए गए.
2006 के मालेगांव विस्फोट में भी महाराष्ट्र एटीएस ने जांच का जिम्मा तो ले लिया, लेकिन वह अपराध संबंधी पड़तालों का मूलमंत्र भूल गई: अपराधी तक पहुंचने के लिए पहले अपराध के उद्देश्य को तलाशिए. महाराष्ट्र एटीएस ने एक उद्देश्य तलाशा भी तो बेहद कमजोर और निराधार. उनके अनुसार मालेगांव के कुछ स्थानीय मुसलिमों, जो मुख्य रूप से सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के सदस्य थे, ने वे धमाके इसलिए करवाए ताकि हिंदू-मुसलिम दंगे भड़क उठें. इस आधार पर मालेगांव से नौ मुसलिमों को गिरफ्तार कर लिया गया; अन्य तीन भगोड़े दिखाए गए. एटीएस का यह रुख समझ से परे था. मुसलिम समुदाय की ओर से निष्पक्ष जांच के लिए बढ़ते दबाव को देखते हुए कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने केस सीबीआई के हाथों में दे दिया. लेकिन निष्पक्ष जांच की सारी संभावनाएं जाती रहीं क्योंकि महाराष्ट्र एटीएस ने ठीक उसी दिन आरोप पत्र दाखिल कर दिया जिस दिन राज्य सरकार ने सीबीआई को यह मामला सौंपनेे के लिए लिखा था. सितंबर, 2006 में पकड़े गए सभी नौ मुसलिम युवक आज भी जेल में सड़ने को मजबूर हैं. आतंकी घटनाओं की जांच में बरती जाने वाली ऐसी आपराधिक लापरवाही की पुष्टि अब असीमानंद का बयान भी करता है जिसमें उसने कबूल किया है कि मालेगांव ब्लास्ट सुनील जोशी के नेतृत्व में कुछ संघ प्रचारकों की मदद से अंजाम दिया गया था. उसके मुताबिक उसने ही अधिक मुसलिम आबादी होने की वजह से मालेगांव को निशाना बनाने के लिए कहा था. इस  मामले की पड़ताल के दौरान सीबीआई को सुनील जोशी के फोनबुक में ‘सरदार’ के नाम से एक मोबाइल नंबर भी मिला. वह फोन नंबर संघ के उसी कार्यकर्ता हिमांशु फांसे का था जिसकी मौत बम बनाने के दौरान हुई थी और जो जलना और प्रभानी ब्लास्ट का मुख्य षड्यंत्रकारी भी था. जोशी और संदीप डांगे के करीबी देवास के शिवम धाकड़ (आरएसएस कार्यकर्ता) को मध्य प्रदेश पुलिस ने कुछ महीने पहले हत्या के एक मामले में पकड़ा है. शिवम ने सीबीआई को बताया है कि जोशी तब बहुत रोया था जब उसे फांसे के मरने की खबर मिली थी.यह और दूसरी ऐसी जानकारियां सही दिशा में पड़ताल करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए थीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब असीमानंद के इकबालिया बयान से कई सवाल खड़े होते हैं. पहला यह कि अगर जांच एजेंसियां ही भरोसे के काबिल नहीं तो आम भारतीय किससे आस रखे? और अगर ये राजनीतिक आकाओं को खुश करने की जल्दबाजी में तथ्यों की ढंग से जांच किए बिना ही निर्दोषों को पकड़ती रहेंगी तो असली मुजरिमों को कौन पकड़ेगा?

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