जब हमारे ख़्वाब अधूरे रह जाते हैं और लगता है कि अब ज़िंदगी की शाम होने लगी है..... तो दिल में इच्छाएं जन्म लेने लगती हैं। कभी हम कल्पना में तो कभी सपनों में उन इच्छाओं को वास्तविकता में ढलता हुआ देखने लगते हैं। फिर अगर यह सपना देखने वाला व्यक्ति अगर साहित्यकार, शायर या अफ़सानानिगार भी है तो अपनी रचना में उन अधूरी इच्छाओं को इस तरह प्रस्तुत करता है कि यह उसके अपने दिल के लिए भी संतुष्टि का कारण बन जाती हैं और वह अपनी इस कला के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों को कोई संदेश भी दे जाता है। एक पत्रकार तथा सम्पादक के रूप में पहचान है मेरी, परंतु न जाने क्यों मुझे लगता है कि आने वाली पीढ़ी मुझे मेरी कहानियों और उपन्यासों के लिए याद रखेगी। इसका कारण यह है कि पत्रकारिता के अपने दायरे हैं, सम्पादक की कुछ अपनी ज़िम्मेदारियां हैं। एक लेखक को क़लम उठाने से पूर्व बहुत सी पाबंदियों का ध्यान रखना होता है, लेकिन साहित्य का दायरा बहुत विस्तृत है इस कला में बड़ी सम्भावनाएं हैं आप जो कहना चाहते हैं, वह बड़ी सुंदरता से कह सकते हैं, इसलिए कि आप अपनी साहित्यक रचना के एक-एक शब्द पर सच होने का दावा कभी नहीं करते। यह निर्णय पाठकों के विवेक पर छोड़ देते हैं कि वह उसे किस हद तक हक़ीक़त पर आधारित मानंे और किस हद तक साहित्यकार अथवा शायर की कल्पना। मैंने कुछ अफ़साने और नाविल लिखे हैं। उनमें से कुछ रचनाएं ऐसी भी हैं, जिनमें मेरे अधूरे सपनों का संकेत है, मेरी दबी छुपी इच्छाओं का इज़हार है। ‘‘शाहकार’’ मेरा एक ऐसा ही अफ़साना था। अब से कुछ वर्ष पूर्व जब मैंने यह अफ़साना लिखा था तो यह सब कुछ मात्र एक कल्पना थी, जो बाद में बहुत हद तक हक़ीक़त में बदलती नज़र आई। दिल चाहता है कि मैं उस अफ़साने के कुछ अंश अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करके आज का लेख आरंभ करूं। फिर यह वज़ाहत भी कि आख़िर उस समय जब मैं यह अफ़साना लिख रहा था तो इस के माध्यम से क्या कहना चाहता था और आज जब इसे अपने लेख का हिस्सा बना रहा हूं तो इस समय क्या कहना चाहता हूं। लिहाज़ा पहले मुलाहिज़ा फरमाएं यह अंश और उसके बाद आज के लेख का तसलसुल।
‘‘आख़िर वह क्या प्रोजेक्ट था जिस पर मैं काम कर रहा था और क्यों वह प्रोजेक्ट इतिहास का अंश बनने वाला था। विवरण मैं बाद में बताऊंगा। इस समय बस इतना उल्लेख करता चलूं कि मेरी क़ौम के लोग बड़े क़द्दावर हुआ करते थे, इस देश पर ही नहीं आधी से अधिक दुनिया पर उनका शासन हुआ करता था, इस देश को सोने की चिड़िया और उन्हें मुग़ल शहनशाहों की उपाधि से नवाज़ा जाता था। फिर समय ने करवट बदली वह फ़िरंगियों के जाल में फंस गए। हुआ यह कि मेरा देश उनकी गिरफ़्त में आता गया मेरी क़ौम तबाह होती गई, फिर वह शासक हो गए। बड़ा शातिर दिमाग़ था उनका वह जानते थे समय फिर करवट बदलेगा और नई पीढ़ी जब जवान होगी तो फिर हम से यह तख़्त-व-ताज छीन लिया जाएगा। इसलिए उन्होंने साज़िश रची। मेरी क़ौम के विरुद्ध इस धरती में ऐसे कीटाणु शामिल कर दिए कि मेरी क़ौम के लोग बौने होने लगे, ज़ुबान की तासीर चली गई, लोग गूंगे हो गए। उन्होनंे अपने हक़ की आवाज़ बुलंद करना छोड़ दिया। उनके हौसले पस्त होते चले गए, हिम्मतें टूट गईं, वह स्वयं छोटा और अपराधी समझने लगे। फिर सैकड़ों वर्ष बाद फ़िरंगी तो चले गए परंतु उनके उत्तराधिकारियों में भी उनकी आत्माएं विलीन हो गईं। हमारे बारे में उनका दृष्टिकोण भी वैसा ही हो गया, हमें दबाया जाता रहा। हमारी नस्लकुशी की जाती रही और हद तो तब हुई जब गुजरात में हज़ारों बेगुनाहों की हत्या कर दी गई, जलयांवाला बाग़ से भी अधिक दिल दहला देने वाला दृश्य था जो मेरी निगाहों के सामने से गुज़रा जिसका मैं ‘‘चश्मदीद गवाह’’ था। मेरे अंदर एक जुनून पैदा हुआ अपनी क़ौम की सुरक्षा का जुनून, आने वाली नस्लों के भविष्य को संवारने का जुनून, उनके क़द को ऊंचा करने का जुनून, उनमें फिर वही उत्साह भर देने का जुनून, उनका गूंगापन दूर करने का जुनून, उन्हें उनकी ज़ुबान वापस दिलाने का जुनून ताकि वह ऊंची आवाज़ में कह सकें कि हम किसी से कम नहीं हैं, यह देश हमारा है, हम भारत के सेनानी हैं, हम अपराधी नहीं हैं। लिहाज़ा मैं जुट गया एक ऐसी कीमिया बनाने में जिसके प्रयोग से मेरी क़ौम के लोगों के क़द बढ़ने लगे, मुझे सफलता मिली। सचमुच ऐसा होने लगा उनके मुंह में ज़ुबान आने लगी, उनके हौसले बुलंद होने लगे, मैं जिस राज्य में जाता हालात बदल जाते, यह मेरे सफल दौर की शुरूआत थी। जिस धरती पर क़दम रख कर फ़िरंगियों ने इस देश को अपना ग़्ाुलाम बनाया था, मैंने इसी धरती पर फ़िरंगियों के देश से अपनी क़ौम के एक व्यक्ति को बुलाकर अपना अभियान आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। दरअसल मैं यह संदेश देना चाहता था कि अतिशीघ्र अब मेरे क़दम उनके देश तक भी पहुंचने वाले हैं, अगर मेरी क़ौम का क़द बुलंद होने की यह रफ़्तार जारी रही तो मैं और मेरी क़ौम बहुत जल्द पहले से भी बड़े दायरे में जाकर शासन करने वाली है।
फिर मैं सुनता रहा, अपनी क़ौम के दामन पर लगे दाग़ों के हटने के बारे में पढ़ता रहा, अख़्बारों में देखता रहा, टीवी पर। मेरी दुनिया भी बदल गई थी, मेरी क़ौम की तस्वीर भी बदल गई थी, उसका क़द बुलंद हो गया था, उसके मुंह में ज़्ाुबान आ गई थी, सरकारें उसकी मोहताज हो गई थीं, मेरी क़ौम ने बहुत सराहा था मुझे, चैराहों पर मेरे बुत लग गए थे, फिर धीरे-धीरे मैं एक बीती हुई दास्तान बन गया था अब मैं इतिहास के पन्नों में तो जीवित था परंतु जीते जी मर गया था, लोग मेरे बुतों को तो पहचानते थे पर मेरा चेहरा भूल गए थे।
यह कुछ पंक्तियां उद्देश्य थीं, इस अफ़साने के लिखे जाने का और उसके अलावा जो कुछ था वह पाठकों की रुचि पैदा करने के लिए। मैंने जिस कीमिया की चर्चा की, दरअसल वह मेरा अख़बार था और मैं जहां जाता से मेरा तातपर्य यह था कि जिस शहर से भी मेरा अख़्बार निकाला जाता, लोगों के मुंह में ज़्ाुबान आ जाती, उनका क़द बड़ा होने लगता। जिस समय मैंने यह अफ़साना लिखा था अगर मैं उसी समय अपनी इस भावना को व्यक्त करता तो यह अत्यंत हास्यहासपद नज़र आता। परंतु आज जबकि रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में अपना एक स्थान प्राप्त कर चुका है और जिन बदलती परिस्थितियों की ओर मैं इशारा कर रहा हूं वह सबके सामने आ चुकी हैं अर्थात हम हीनभावना के दायरे से बाहर निकलते जा रहे हैं। अब हम अपनी समस्याओं पर गुफ़्तुगू करने में झिझक महसूस नहीं करते। अब हम सिर झुकाकर नाकरदा गुनाहों की सज़ा पाने के लिए मजबूर नहीं हैं। अब पहले की तरह हमें देश के विभाजन का ज़िम्मेदार, साम्प्रदायिक या आतंकवादी ठहराकर अपने ही देश में पराएपन का एहसास नहीं दिलाया जाता परंतु यह काम अभी अधूरा है। इसे पूरा करने के लिए बहुत ही संगठितरूप में आगे का रास्ता तय करना होगा। मैंने लेख लिखते-लिखते अपने एक अफ़साने की चर्चा इसलिए की कि हमारे साहित्यकार और शायर अपनी रचनाओं द्वारा समाज को जागरुक करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। हमारे धार्मिक नेताओं की एक आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए लाखों लोग कभी भी किसी भी स्थान पर एकत्र हो जाते हैं, यह हमने बार-बार देखा है। लेकिन हमारे पास एक ऐसे थिंक टैंक (चिंतकांे का समूह) की कमी है, जो आने वाले सौ वर्षों की योजना ज़हन में रखता हो, किसी क़ौम की हैसियत को समाप्त कर देने या उसके गौरवपूर्ण स्थान को प्राप्त करने के लिए सौ वर्ष बहुत बड़ी अवधि नहीं होती। सौ वर्ष की ग़्ाुलामी के बाद हमने 90 वर्ष तक अर्थात 1857 से 1947 तक अंग्रेज़ों के विरुद्ध जंग लड़ी, तब जाकर हमारा देश आज़ाद हुआ और अंग्रेज़ों ने भी पाँव रखते ही इस देश पर सत्ता प्राप्त नहीं कर ली थी इसी तरह आज जो हम अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां पर देख रहे हैं, वह इराक़ का मामला हो या मिस्र और लीबिया का, ऐसा नहीं है कि अचानक कोई आवाज़ उठी और उसने तूफ़ान का रूप धारण कर लिया। देखने-सुनने में ज़रूर ऐसा लगता होगा परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह सब कुछ योजनाबद्ध है। यह भी योजनाबद्ध था कि उर्दू को भारत की राष्ट्रीय भाषा न बनने दिया जाए। यह भी योजनाबद्ध था कि हिंदी देश की राष्ट्र भाषा घोषित किए जाने के बावजूद भी पूरे भारत की भाषा न बन सके। यह भी योजनाबद्ध था कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भी अंग्रेज़ी भाषा का शासन हम पर क़ायम रहे। मैंने अपने कल के लेख मे अरब देशों को सुरक्षा उपलब्ध करान की बात कही थी। अरब देशों के पास पैट्रोल की दौलत है। इस दौलत का बहुत बड़ा हिस्सा उनके पास पहुंच रहा है, जिन्होंने अपने छल तथा मक्कारी और ताक़त के आधार पर उन देशों के शासकों को अपने शिकंजे में कस लिया है और अपने इशारों पर चलने के लिए मजबूर कर दिया है। इस दौलत का कुछ हिस्सा ज़रूर उन शासकों के पास रहता है लेकिन उन्हें ऐसे रास्ते पर चलाने के लिए उनका ज़हन तैयार कर दिया जाता है कि धीरे-धीरे वह अपनी जनता से दूर हो जाएं। अपने महलों में अपनी जन्नत क़ायम कर लें। अपनी जनता से उनका सम्पर्क टूट जाए, फिर वह अपने ही लोगों की घृणा का शिकार बनने लगें और इन बदलती परिस्थितियों में पल-पल की ख़बर उन षड़यंत्र रचने वालों को मिलती रहे। वह जनता के बीच ऐसे लोगों की तलाश शुरू कर दें, जिन्हें विद्रोह के लिए उकसाया जा सके। शासकों के नज़दीक रहने वाले ऐसे लोगों की तलाश शुरू कर दें जो विद्रोह का झंडा उठाकर बाक़ी सबको उकसा सकें। परिणाम हमारे सामने है।
उन देशों की दौलत का बहुत छोटा हिस्सा हम तक भी पहुंचता है। हमारे उन भाइयों द्वारा जो अपने परिवार की मुहब्बत में अपना घर बार और देश छोड़ कर रोटी-रोज़ी की तलाश में इन देशों तक पहुंचते हैं। यह बहुत थोड़ी सी दौलत जो उनकी मेहनत की कमाई के रूप में हमारे देश तक पहुंचती है, उससे भी लाखों परिवार लाभान्वित होते हैं और उनकी जीवनशैली बदलने लगती है। कल्पना करें कि उन अरब देशों के शासक अपनी दिखावे की सुरक्षा की जो क़ीमत उन देशों को अदा करते हैं, जो धीरे-धीरे उन पर क़ब्ज़ा करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, उनका स्थान अगर भारत ले ले और अपने देश की दूसरी सबसे बड़ी बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं का ध्यान रखते हुए उन्हें सुरक्षा प्रदान कर दे तो जो दौलत आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली बनाए हुए है और जिसके आधार पर यह देश दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति होने का दम भरता है, यह हैसियत भारत को प्राप्त हो सकती है। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच रिश्ते बदल सकते हैं, अरब देशों की दौलत अगर भारत के विकास और उन्नति के काम आने लगे, हम उन देशों से व्यापारिक संबंध स्थापित कर सकें, उन्हें अमेरिकी क़ब्ज़े से छुटकारा दिला सकें, एक मित्र देश की तरह उनकी मदद कर सकें तो यह दोनों के हित में होगा।
आजके लेख में अब अधिक लिखने की गुंजाइश नहीं बची है, इसलिए समाप्ति तक पहुंचने से पूर्व उस विषय पर वापस लौटना ज़रूरी है, जिसके लिए अपने एक अफ़साने का हवाला दिया था। दरअसल मैं रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के इन पृष्ठों को एक ऐसी कीमिया के रूप में भारत के कोने-कोने तक पहुंचा देना चाहता हूं, इसलिए कि सैकड़ों वर्षों तक चलने वाले जिस षड़यंत्र ने हमसे हमारी ज़्ाुबान छीन ली, हमारे ऊंचे क़द को बौने क़द में बदल दिया, हमारे उत्साह को तोड़ दिया, हमें सिर झुकार जीने के लिए मजबूर कर दिया, हम इस कीमिया के माध्यम से फिर वह स्थान प्राप्त कर सकें, जो कभी हमारा था और जिसके हम हक़दार हैं। इसलिए कि वतन के शहीदों की सूचि में आज भी वह नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं जो हमें यह कहने और लिखने का अधिकार उपलब्ध कराते हैं। एक आख़री बात ‘थिंक टैंक’ के हवाले से। इस विषय पर विस्तार से लिखे जाने की आवश्यकता है और क़ौम द्वारा विचार किए जाने के भी, इसलिए कि अब समय आ गया है कि जब अलग-अलग क्षेत्रों से संबंध रखने वाले सभी योग्य व्यक्तियों को एकत्रित करके एक ऐसी रणनीति बना ली जाए, जो जस्टिस राजेंद्र सच्चर की रिपोर्ट के अनुसार आज देश की सबसे पिछड़ी क़ौम की तक़दीर बदल सके, क्या आप इरादा रखते हैं इस कल्पना को वास्तविकता में बदलने का?
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