वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य जाति का उद्गम अफ्रीका में हुआ और वहां से मनुष्य सारी दुनिया में फैले। अब एक वैज्ञानिक शोध बताता है कि दुनिया की सभी भाषाओं की उत्पत्ति भी अफ्रीका की एक मूल भाषा से हुई है। अब तक यह माना जाता रहा है कि शायद तमाम भाषाएं मनुष्य के दुनिया में फैलने के बाद अलग-अलग विकसित हुईं, क्योंकि सभी भाषाओं में किसी प्राचीन समानता का पता नहीं चलता।
वैज्ञानिक ज्यादा से ज्यादा 9,000 वर्ष पहले एक भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के समान उद्गम तक पहुंचे हैं, जिन्हें इंडो-यूरोपियन या भारोपीय भाषा परिवार कहा जाता है। इससे पीछे किसी भाषा का वंशवृक्ष तलाशना अब तक संभव नहीं हुआ था, लेकिन न्यूजीलैंड के एक जीवशास्त्री क्विंटन डी एटकिंसन ने एक नए तरीके से भाषाओं का वंशवृक्ष बनाने की कोशिश की।
उन्होंने शब्दों के उद्गम के बजाय कुछ बुनियादी ध्वनियों पर ध्यान दिया और यह तलाशने की कोशिश की कि इन ध्वनियों का विस्तार कहां-कहां कैसा है। उन्होंने दुनिया की 500 से ज्यादा भाषाओं में ये ध्वनियां पाईं। उन्होंने पाया कि कुछ अफ्रीकी भाषाओं में ये सौ से ज्यादा ध्वनियां हैं, लेकिन जैसे-जैसे हम अफ्रीका से दूर होते जाते हैं, ये ध्वनियां कम होती जाती हैं।
अंग्रेजी में लगभग 45 ध्वनियां हैं, जबकि हवाई की भाषा में सिर्फ 13 ध्वनियां हैं। यह काफी रोचक और विश्वसनीय शोध है और इसके जरिये शायद हम भाषाओं के इतिहास या प्रागैतिहास में 50,000 वर्ष या उससे पीछे जा पाएं। जाहिर है, अफ्रीका के मूल निवासी अपने ही इलाके में रह गए, इसलिए उनकी भाषा में प्राचीन तत्व ज्यादा रह गए।
दूसरे लोग जो दूरदराज जाकर बसते गए, उनकी भाषा में नए वातावरण, नई जरूरतों के हिसाब से ध्वनियां और वाक्प्रचार आते रहे और प्राचीन भाषा के तत्व और कम हो गए। जो लोग दूरदराज जाकर वहां अलग-थलग पड़ गए, उनकी भी भाषा में मूल तत्व ज्यादा रह गए होंगे, जैसे दुनिया के विभिन्न इलाकों के आदिवासी। लेकिन जिन समाजों और संस्कृतियों में घुलना-मिलना ज्यादा रहा, उन्होंने नए तत्व दूसरे समाजों और संस्कृतियों से भी हासिल किए और इसलिए उनमें ज्यादा बदलाव आए।
किसी भी समाज के विकास के लिए उसका दूसरे समाजों से घुलना- मिलना बहुत जरूरी है। जो समाज भौगोलिक या ऐतिहासिक वजहों से अलग-थलग पड़ जाते हैं, वे अक्सर किसी जगह थम जाते हैं। अगर हम भारतीय भाषाएं ही नहीं, भारतीय समाज के विकास को देखें, तो हम पाएंगे कि हजारों वर्षो से हमारे पुरखे सिर्फ एशिया ही नहीं, यूरोप के लोगों से भी व्यापारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध बनाते रहे हैं, जबकि उस जमाने में यात्राएं कितनी मुश्किल थीं, यह हम आसानी से समझ सकते हैं।
यह जानना जितना रोमांचक है कि पचास हजार या उससे भी पुरानी पहली आदिम मानवीय भाषा की कुछ ध्वनियां हमारी बोलचाल में आज तक मौजूद हैं। उतना ही रोमांचक यह भी है कि तब से अब तक मानव समाज ने कितनी तरक्की की। जिस तरह अफ्रीका के अतीत की किसी एक औरत से पूरी दुनिया के डीएनए के सूत्र जुड़ते हैं, वैसे ही किसी एक मातृभाषा से भी हम जुड़े हैं। पर उसके बाद का सफर, कम से कम आज से नौ-दस हजार बरस तक का अब भी धुंधला है।
इसे जानना रोमांचक होगा। जो तकनीक एटकिंसन ने अपनाई है, अगर उसकी अन्य वैज्ञानिक तरीकों से तसदीक हो सके, तो भाषा के इतिहास पर नई रोशनी पड़ सकती है। संभव है जैसे डीएनए के नक्शे ने इंसान का इतिहास खोजने में हमारी मदद की, वैसे ही भाषा के ये डीएनए हमारे लिए भाषाओं का इतिहास खोजने में मददगार हों।
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