सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आज़ाद भारत का संभवत: पहला ऐसा सरकारी दस्तावेज है, जो स्वीकारता है कि भारतीय मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या उनकी पहचान से जुड़ी है. यह समस्या इतनी गंभीर है, जिसके चलते उनकी दूसरी समस्याओं मसलन शिक्षा, आवास और रोज़गार की कमी आदि का प्रभावी समाधान ढूंढने में बाधा पहुंचती है. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, यहां मुसलमान होना ही कई लोगों के लिए अपने आप में एक समस्या है. मुस्लिम पहचान के विशिष्ट चिन्हों जैसे ब़ुर्का, पर्दा और टोपी के चलते भारतीय मुसलमानों को सार्वजनिक जीवन में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. दाढ़ी रखने और टोपी पहनने वाले मुसलमानों को शक़ की निगाहों से देखा जाता है और पार्कों, रेलवे स्टेशन या बाज़ार जैसी सार्वजनिक जगहों से पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया जाता है. कमेटी के संपर्क में आई कुछ महिलाओं ने बताया कि हिजाब पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को कॉरपोरेट जगत में नौकरी पाने में दिक्कतें आती हैं. बुर्क़ा पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को बाज़ार, अस्पताल, स्कूल और यात्रा के दौरान असभ्य व्यवहार का शिकार होना पड़ता है. (पेज-12)
मुस्लिम पहचान के विशिष्ट चिन्हों जैसे ब़ुर्का, पर्दा और टोपी के चलते भारतीय मुसलमानों को सार्वजनिक जीवन में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. दाढ़ी रखने और टोपी पहनने वाले मुसलमानों को शक़ की निगाहों से देखा जाता है और पार्कों, रेलवे स्टेशन या बाज़ार जैसी सार्वजनिक जगहों से पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया जाता है.
इस परिप्रेक्ष्य में कोई भी कहेगा कि कमेटी को विचार करना चाहिए था कि मुस्लिम पहचान के चिन्ह के रूप में दाढ़ी, बुर्क़ा और टोपी को आधार बनाने की अवधारणा से मुसलमानों की ग़लत छवि सामने आती है. हालांकि कमेटी ने इस अवधारणा को मुसलमानों की अलग पहचान के पीछे छुपाने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन मुझे यहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रचलित एक आदत की याद आती है. मीडिया में जब कभी भी किसी मुसलमान चेहरे को दिखाने की ज़रूरत होती है तो कुर्ता, पायजामा और टोपी पहने एक अनपढ़ से दिखते दाढ़ी वाले शख्स को खड़ा कर दिया जाता है. हाल के दिनों में इसमें एक फर्क़ यह आया है कि अब आतंकवादियों की छवि के रूप में पेश किया जाने लगा है. क्या कमेटी को यह बताने की ज़रूरत थी कि दाढ़ी, टोपी, पर्दा और हिजाब आदि इस्लाम के अनिवार्य हिस्से नहीं हैं, जैसे कि सिख धर्म के लिए पगड़ी और दाढ़ी होते हैं? ऐसे लाखों मुसलमान हैं, जो दाढ़ी नहीं रखते या टोपी नहीं पहनते. ये चीजें मुस्लिम पहचान का पारंपरिक संकेत हो सकती हैं, लेकिन मुस्लिम व्यक्तित्व केवल इन्हीं तक सीमित नहीं है. ऐसे लाखों मुसलमान हैं, जो दूसरे धर्मावलंबियों के सदृश्य ही दिखते हैं. लेकिन जैसे ही यह मालूम पड़ता है कि शरी़फ दिखने वाला पुरुष एक मुसलमान है तो व्यवहार का तरीक़ा बदल जाता है. इस परिपेक्ष्य में मैं हाल ही में अपने साथ घटी एक वास्तविक घटना का वर्णन करना चाहता हूं. दिल्ली में एक लोकप्रिय कॉफी हाउस है, जहां अंग्रेज़ी बोलने वाले स्मार्ट युवक और युवतियां काम करते हैं, उनके द्वारा सेवाएं दी जाती हैं. जब कोई ग्राहक ऑर्डर देता है तो उससे उसका नाम पूछा जाता है. जब ऑर्डर तैयार हो जाता है तो लाउडस्पीकर पर घोषणा कुछ इस तरह की जाती है, मि. शर्मा! आपका ऑर्डर तैयार है. अपने ग्राहकों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाने का कंपनी का यह एक अनोखा तरीक़ा है. कुछ दिनों पहले एक कप गर्म कॉफी पीने की चाह लिए मैं इस रेस्तरां में गया. वहां कैश काउंटर के पास कुछ लोग खड़े थे. जैसे ही मैंने ऑर्डर दिया, कैशियर ने मुझसे पूछा, कृपया अपना नाम बताइए! मैंने जवाब दिया, अहमद. मैंने जैसे ही यह शब्द कहा, वहां मौजूद लोगों की नज़रें ही मानो बदल गईं. लोग मेरी ओर इस तरह देखने लगे, जैसे मैं अभी-अभी मंगल ग्रह से यहां आया हूं. सच्चर कमेटी ने इस मुद्दे के ऐतिहासिक पहलुओं में नहीं झांका है, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि पहचान की यह समस्या 1920 के दशक के आसपास से ही मौजूद रही है. यह वह दौर था, जब भारतीय राष्ट्रवाद खुद अपनी पहचान को प्राप्त कर रहा था. उस समय मुस्लिम पहचान और भारतीय पहचान के बीच विरोधाभास जैसे हालात थे. द्वंद्व इतना गहरा था कि अबुल कलाम आज़ाद, जो आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री हुए, को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में बोलते समय यह कहना पड़ा कि वह एक मुसलमान हैं और एक भारतीय हैं. जहां भारत के हित की बात आएगी, वहां वह भारतीय पहले हैं और मुसलमान बाद में. लेकिन यदि बात इस्लाम से जुड़ी हो तो वह सबसे पहले एक मुसलमान हैं. उन्होंने कहा था कि वह एक भारतीय हैं और भारतीय परंपरा की सभी खूबियां उन्होंने ग्रहण की हैं, लेकिन इसके साथ वह एक मुसलमान भी हैं और इस्लाम की सारी अच्छाइयां भी उनमें मौजूद हैं.
हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय जनमानस की सोच में भी कहीं न कहीं विरोधाभास है. हम सब लोगों की अपनी एक धार्मिक पहचान है, साथ ही हमारी एक क्षेत्रीय पहचान भी है. लेकिन इनमें से कौन पहले आती है और कौन बाद में, हमें नहीं मालूम. कभी हमारी भारतीयता पहले आ जाती है, खासकर ऐसे हालात में, जबकि मामला भारत से जुड़ा हो. कभी हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई पहले हो जाते हैं और भारतीय बाद में. यदि बात क्षेत्रीयता की हो तो हम बंगाली, पंजाबी, गुजराती या मराठी पहले हो जाते हैं और बाकी चीजें पृष्ठभूमि में चली जाती हैं. भारतीय जनचेतना में मौजूद यह पूर्वाग्रह तब सतह पर आ जाते हैं, जब दो अनपढ़ ग्रामीण पहली बार एक-दूसरे से मिलते हैं. एक ओर वे भारतीय परंपरा के मुताबिक़ घर आए अतिथि की आवभगत के लिए हरसंभव उपाय करेंगे, उसके लिए खाने-पीने की चीजों का प्रबंध करेंगे. वहीं दूसरी ओर उनके बीच होने वाली बातचीत सदियों पुराने पूर्वाग्रहों की ओर इशारा करती हैं. वे पहले अतिथि का नाम पूछेंगे, ताकि उसके धर्म का पता चल सके. इसके बाद वे स्पष्ट और सीधी भाषा में सवाल करेंगे, किस जाति के हो? धार्मिक, क्षेत्रीय एवं जातीयता से जुड़ी पहचान हमारे व्यक्तित्व और हमारी राष्ट्रीयता का एक हिस्सा है. इसे दूर करने के लिए हमें लंबा रास्ता तैयार करना होगा और इसमें का़फी व़क्त भी लगेगा.
लेखक मशहूर शिक्षाविद् और इस्लामिक बैंकिंग के विशेषज्ञ हैं
bhaai schchar kmeti to dil bhlaane ko gaalib khyal achchaa hain . akhtar khan akela kota rajsthan
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