अन्ना हजारे -अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के बयानों में एक खास किस्म का भ्रष्टाचार निरंतर चल रहा है। इन लोगों की बातों और समझ में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। यह एनजीओ राजनीति विमर्श की पुरानी बीमारी है। जन लोकपाल बिल का लक्ष्य है आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सक्रिय कानूनी तंत्र का गठन। यह बहुत ही सीमित उद्देश्य है। निश्चित रूप से इतने सीमित लक्ष्य की जंग को आप धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, संघ परिवार आदि के पचड़ों नहीं फंसा सकते।
अरविंद केजरीवाल ने 14 अप्रैल 2011 को टाइम्स आफ इण्डिया में लिखे अपने स्पष्टीकरण में साफ कहा है कि “हमारा आंदोलन धर्मनिरपेक्ष और गैरदलीय है।” सतह पर इस बयान से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। समस्या है अन्ना हजारे के कर्म की। वे क्या बयान देते हैं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उनका कर्म। पर्यावरण के नाम पर उन्होंने जो आंदोलन चलाया हुआ है और अपने हरित गांवों में जो सांस्कृतिक वातावरण पैदा किया है वो उनके विचारधारात्मक चरित्र को समझने के लिए काफी है। कायदे से अरविंद केजरीवाल को मुकुल शर्मा के द्वारा काफिला डॉट कॉम पर लिखे लेख का जबाब देना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि अन्ना हजारे स्वयं जबाव दें।
अरविंद केजरीवाल का टाइम्स ऑफ इण्डिया में जो जबाव छपा है वह अन्ना हजारे को धर्मनिरपेक्ष नहीं बना सकता। अन्ना ने पर्यावरण को धर्म से जोड़ा है। पर्यावरण संरक्षण का धर्म से कोई संबंध नहीं है। अन्ना ने पर्यावरण संरक्षण को हिन्दू संस्कारों और रीति-रिवाजों से जोड़ा है। अन्ना का सार्वजनिक आंदोलन को धर्म से जोड़ना अपने आप में साम्प्रदायिक कदम है।
अन्ना के तथाकथित एनजीओ आंदोलन की धुरी है संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारधारा। जिसकी किसी भी समझ से हिमायत नहीं की जा सकती। अन्ना हजारे को लेकर चूंकि मीडिया में महिमामंडन चल रहा है और अन्ना इस महिमामंडन को भुना रहे हैं, इसलिए उनके इस वर्गीय चरित्र की मीमांसा करने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई ।
अन्ना ने अपने एक बयान में कहा है कि ” मेरा अनशन किसी सरकार या व्यक्ति के खिलाफ पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं था बल्कि वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्योंकि इसका आम आदमी पर सीधे बोझा पड़ रहा है।” अन्ना का यह बयान एकसिरे से गलत है अन्ना ने अनशन के साथ ही अपना स्टैंण्ड बदला है। अन्ना का आरंभ में कहना था केन्द्र सरकार संयुक्त मसौदा समिति की घोषणा कर दे मैं अपना अनशन खत्म कर दूँगा। बाद में अन्ना को लगा कि केन्द्र सरकार उनके संयुक्त मसौदा समिति के प्रस्ताव को तुरंत मान लेगी और ऐसे में अन्ना ने तुरंत एक नयी मांग जोड़ी कि मसौदा समिति का अध्यक्ष उस व्यक्ति को बनाया जाए जिसका नाम अन्ना दें। केन्द्र ने जब इसे मानने से इंकार किया तो अन्ना ने तुरंत मिजाज बदला और संयुक्त अध्यक्ष का सुझाव दिया लेकिन सरकार ने यह भी नहीं माना और अंत में अध्यक्ष सरकारी मंत्री बना और सह-अध्यक्ष गैर सरकारी शांतिभूषण जी बने। लेकिन दिलचस्प बात यह हुई कि अन्ना इस समिति में आ गए। जबकि वे आरंभ में स्वयं नहीं रहना चाहते थे। मात्र एक कमेटी के निर्माण के लिए अन्ना ने जिस तरह प्रतिपल अपने फैसले बदले उससे साफ हो गया कि पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा था।
अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे मनीपावर भी काम करती रही है इसका साक्षात प्रमाण है मात्र 4 दिन में इस आंदोलन के लिए मिला 83 लाख रूपये चंदा और इस समिति के लोगों ने इसमें से तकरीबन 32 लाख रूपये खर्च भी कर दिए। टाइम्स ऑफ इण्डिया में 15 अप्रैल 2011 को प्रकाशित बयान में इस ग्रुप ने कहा है -
“it has received a total donation of Rs 82,87,668.”.. “spokesperson said, they have spent Rs 32,69,900.” यानी अन्ना हजारे के लिए आंदोलन हेतु संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। मात्र 4 दिनों 83 लाख चंदे का उठना इस बात का संकेत है कि अन्ना के पीछे समर्थ लॉबी काम करती रही है। अन्ना हजारे के आंदोलन की मीडिया हाइप का यह सीधे फल है जो अन्ना के भक्तों को मिला है। एनजीओ संस्कृति नियोजित पूंजी की संस्कृति है। स्वतःस्फूर्त संस्कृति नहीं है बल्कि निर्मित वातावरण की संस्कृति है।
एनजीओ समुदाय में काम करने वाले लोगों की अपनी राजनीति है।विचारधारा है और वर्गीय भूमिका भी है। वे परंपरागत दलीय राजनीति के विकल्प के रूप में काम करते रहे हैं। अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे जो लोग हठात सक्रिय हुए हैं उनमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का है जो विचारों से संकीर्णतावादी हैं।
मीडिया उन्माद,अन्ना हजारे की संकीर्ण वैचारिक प्रकृति और भ्रष्टाचार इन तीनों के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों के विचारधारा त्मक स्वरूप का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। इस प्रसंग में इंटरनेट पर सक्रिय भ्रष्टाचार विरोधी फेसबुक मंच पर आयी टिप्पणियों का सामाजिक संकीर्ण विचारों के नजरिए से अध्ययन करना बेहतर होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय लोग इतने संकीर्ण और स्वभाव से फासिस्ट हैं कि वे अन्ना हजारे के सुझाव से इतर यदि कोई व्यक्ति सुझाव दे रहा है तो उसके खिलाफ अपशब्दों का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। वे इतने असहिष्णु हैं कि अन्ना की सामान्य सी भी आलोचना करने वाले पर व्यक्तिगत कीचड उछाल रहे हैं। औगात दिखा देने की धमकियां दे रहे हैं। यह अन्ना के पीछे सक्रिय फासिज्म है।
अन्ना की आलोचना को न मानना,आलोचना करने वालों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार करना संकीर्णतावाद है। इस संकीर्णतावाद की जड़ें भूमंडलीकरण में हैं। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली के सामाजिक चरित्र में व्याप्त इस संकीर्णतावाद का ही परिणाम है कि अन्ना हजारे स्वयं भी कपिल सिब्बल की सामान्य सी टिप्पणी पर भड़क गए और उनसे मसौदा कमेटी से तुरंत हट जाने की मांग कर बैठे।
अन्ना हजारे फिनोमना हमारे सत्ता सर्किल में पैदा हुए संकीर्णतावाद का एनजीओ रूप है जिसका समाजविज्ञान में भी व्यापक आधार है। वरना यह कैसे हो सकता है कि अन्ना हजारे के संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारों को जानने के बाबजूद बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक मनोदशा के लोग उनके साथ हैं। ये ही लोग प्रत्यक्षतः आरएसएस के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन अन्ना हजारे के साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं जबकि अन्ना के विचार उदार नहीं संकीर्ण हैं। इससे यह भी पता चलता है कि एजीओ संस्कृति की आड़ में संकीर्णतावादी -प्रतिगामी विचारों की जमकर खेती हो रही है,उनका तेजी से मध्यवर्ग में प्रचार-प्रसार हो रहा है।
अन्ना मार्का संकीर्ण विचार के प्रसार का बड़ा कारण है उनका सत्ता के विचारों का विरोध करना। वे सत्ता की विचारधारा का विरोध करते हैं और अपने विचारों को सत्ता के विचारों के विकल्प के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने अपने को सुधारवादी -लिबरल के रूप में पेश किया हैं। वे हर चीज को तात्कालिक प्रभाव के आधार पर विश्लेषित कर रहे हैं। वे सत्ता के विकल्प का दावा पेश करते हुए जब भी कोई मांग उठाते हैं ,उसके तुरंत समाधान की मांग करते हैं, और जब वे चटपट समाधान कराने में सफल हो जाते हैं तो दावा करते हैं कि देखो हम कितने सही हैं और हमारा नजरिया कितना सही है। अन्ना हजारे का मानना यही है, उन्होंने जन लोकपाल बिल की मांग की और 4 दिन में केन्द्र सरकार ने उनकी मांग को मान लिया।यही सरकार 42 साल से नहीं मान रही थी,लेकिन अन्ना की मांग को 4 दिन में मान लिया।
अन्ना हजारे टाइप लोग ‘पेंडुलम इफेक्ट’ की पद्धति का व्यवहार करते हैं। चट मगनी पट ब्याह। इसके विपरीत लोकपाल बिल का सत्ता विमर्श बोरिंग,दीर्घकालिक और अवसाद पैदा करने वाला था। इसके प्रत्युत्तर में अन्ना हजारे टाइप एक्शन रेडीकल और तुरत-फुरत वाला था। यह बुनियादी तौर पर संकीर्णतावादी आर्थिक मॉडल से जुड़ा फिनोमिना है।
अन्ना के एक्शन ने संदेश दिया कि वह चटपट काम कर सकते हैं। जो काम 42 सालों में राजनीतिक दलों ने नहीं किया उसे हमने मात्र 4 दिन में कर दिया। लोकपाल बिल के पास होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी हमने इसके पास होने की उम्मीदें जगा दी। निराशा में आशा पैदा करना और इसकी आड़ में वैज्ञानिक बुद्धि और समझ को छिपाने की कला काम करती रही है। दूसरा संदेश यह गया कि सरकार परफेक्ट नहीं हम परफेक्ट हैं। सरकार की तुलना में अन्ना की प्रिफॉर्मेंश सही है।जो काम 42 साल से राजनीतिक दल नहीं कर पाए वह काम एनजीओ और सिविल सोसायटी संगठनों ने कर दिया। इस काम के लिए जरूरी है कि सत्ता के साथ एनजीओ सक्रिय भागीदारी निभाएं।
रामविलास पासवान ने जब लोकपाल बिल की मसौदा कमेटी में दलित भागीदारी की मांग की तो भ्रष्टाचार विरोधी मंच के लोग बेहद खफा हो गए। दूसरी ओर अन्ना ने भी कमेटी के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए वे सभी अभिजन हैं। इससे अन्ना यह संदेश देना चाहते हैं कि वे लोकतंत्र में अभिजन के प्रभुत्व को मानते हैं। आम जनता सिर्फ वोट दे,शिरकत करे। लेकिन कमेटी में अभिजन ही रहेंगे। अन्ना हजारे इस सांकेतिक फैसले का अर्थ है लोकतंत्र में सत्ता और आम जनता के बीच खाई बनी रहेगी।
इसके अलावा अन्नामंडली ने इस पूरे लोकतांत्रिक मसले को गैरदलीय और अ-राजनीतिक बनाकर पेश किया। इससे यह संदेश गया कि लोकतंत्र में राजनीति की नहीं अ-राजनीति की जरूरत है। अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर उमाभारती आदि राजनेताओं के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया उसने यह संदेश दिया कि जनता और राजनीति के संबंधों का अ-राजनीतिकरण हो गया है। और आम जनता को राजनीतिक प्रक्रिया से अलग रहना चाहिए राजनीति दल चोर हैं,भ्रष्ट हैं। इस तरह अन्ना मुक्त बाजार में मुक्त राजनीति के नायक के रूप में उभरकर सामने आए हैं।
अन्ना ने एनजीओ राजनीति को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा है। जिस तरह किसी उपभोक्ता वस्तु का एक व्यावसायिक और विज्ञापन मूल्य होता है।ठीक वैसे ही अन्ना हजारे मार्का आमरण अनशन का मासमीडिया ने इस्तेमाल किया है। उन्होंने अन्ना के आमरण अनशन और उसकी उपयोगिता पर बार बार बलदिया। उसका टीवी चैनलों के जरिए लंबे समय तक लाइव टेलीकास्ट किया।
अन्ना के आमरण अनशन की प्रचार नीति वही है जो किसी भी माल की होती है। अन्ना ने कहा ‘तेरी राजनीति से मेरी राजनीति श्रेष्ठ है।’ इसके लिए उन्होंने नागरिकों की व्यापक भागीदारी को मीडिया में बार बार उभारा और सिरों की गिनती को महान उपलब्धि बनाकर पेश किया। यह वैसे ही है जैसे वाशिंग मशीन के विज्ञापनदाता कहते हैं कि 10 करोड़ घरों में लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तुम भी करो। अन्ना की मीडिया टेकनीक है चूंकि इतने लोग मान रहे हैं अतः तुम भी मानो। यह विज्ञापन की मार्केटिंग कला है।
टीवी कवरेज में बार-बार एक बात पर जोर दिया गया कि देखो अन्ना के समर्थन में “ज्यादा से ज्यादा” लोग आ रहे हैं। “ज्यादा से ज्यादा” लोगों का फार्मूला आरंभ हुआ चंद लोगों से और देखते ही देखते लाखों -लाख लोगों के जनसमुद्र का दावा किया जाने लगा। चंद से लाखों और लाखों से करोड़ों में बदलने की कला विशुद्ध विज्ञापन कला है। इसका जनता की हिस्सेदारी के साथ कोई संबंध नहीं है। यह विशुद्ध मीडिया उन्माद पैदा करने की कला है जिसका निकृष्टतम ढ़ंग से अन्नामंडली ने इस्तेमाल किया।
टीवी कवरेज में एक और चीज का ख्याल रखा गया और वह है क्रमशः जीत या उपलब्धि की घोषणा। विज्ञापन युद्ध की तरह शतरंज का खेल है। इसमें आप जीतना जीतते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं।जितना अन्य का व्यापार हथिया लेते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं। अन्नामंडली ने ठीक यही किया आरंभ में उन्होंने प्रचार किया कि केन्द्र सरकार जन लोकपाल बिल के पक्ष में नहीं है। फिर बाद में दो दिन बाद खबर आई कि सरकार झुकी, फिर खबर आई कि सरकार ने दो मांगें मानी,फिर खबर आई कि खाली मसौदा समिति के अध्यक्ष के सवाल पर मतभेद है,बाद में खबर आई कि सरकार ने सभी मांगें मान लीं। क्रमशः अन्ना की जीत की खबरों का फ्लो बनाए रखकर अन्नामंडली ने अन्ना को एक ब्राँण्ड बना दिया। उन्हें भ्रष्टाचारविरोधी ब्राँण्ड के रूप में पेश किया।
अन्ना के व्यक्तिवाद को खूब उभारा गया। अन्ना के व्यक्तिवाद को सफलता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया। मीडिया कवरेज में अन्ना मंडली ने आंदोलन के ‘युवापन’ को खूब उभारा,जबकि सच यह है कि अन्ना ,अग्निवेश,किरन बेदी में से कोई भी युवा नहीं है। आमरण अनशन का नेतृत्व एक बूढ़ा कर रहा था। इसके बाबजूद कहा गया यह युवाओं का आंदोलन है। आरंभ में इसमें युवा कम दिख रहे थे लेकिन प्रचार में युवाओं पर तेजी से इंफेसिस दिया गया। आखिर इन युवाओं को प्रचार में निशाना बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? आखिर अन्ना के आंदोलन में किस तरह का युवा था ?
अन्ना की मीडिया टेकनीक ‘सफलता’ पर टिकी है। ‘सफलता’ पर टिके रहने के कारण अन्ना को सफल होना ही होगा। यदि अन्ना असफल होते हैं तो संकीर्णतावाद का प्रचार मॉडल पिट जाता है। अन्ना के बारे में बार-बार यही कहा गया कि देखो उन्होंने कितने ‘सफल’ आंदोलनों का नेतृत्व किया। एनजीओ संस्कृति और संघर्ष की रणनीति में ‘सफलता’ एक बड़ा फेक्टर है जिसके आधार पर अ-राजनीति की राजनीति को सफलता की ऊँचाईयों के छद्म शिखरों तक पहुँचाया गया।
अन्नामंडली की मीडिया रणनीति की सफलता है कि वे अपने आंदोलन को नियोजित और पूर्व कल्पित की बजाय स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करने में सफल रहे। जबकि यह नियोजित आंदोलन था। जब आप किसी आंदोलन को स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करते हैं तो सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। यही वजह है अन्ना हजारे,उनकी भक्तमंडली,आमरण अनशन,लोकपाल बिल,भ्रष्टाचार आदि पर कोई परेशानी करने वाला सवाल करने वाला तुरंत बहिष्कृतों की कोटि में डाल दिया जाता है। अन्ना ने इस समूचे प्रपंच को बड़ी ही चालाकी के साथ भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में रखकर पेश किया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में आमरण अनशन को पेश करने का लाभ यह हुआ कि आमरण अनशन पर सवाल ही नहीं उठाए जा सकते थे। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में पेश करने के कारण ही अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को अतिसरल बना दिया और उसकी तमाम जटिलताओं को छिपा दिया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में जब जन लोकपाल बिल और भ्रष्टाचार को पेश किया तो दर्शक को इस मांग और आंदोलन के पीछे सक्रिय विचारधारा को पकड़ने में असुविधा हुई। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस को दैनंदिन जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के फुटेजों के जरिए पुष्ट किया गया।
एनजीओ संकीर्णतावाद के पीछे लोगों को गोलबंद करने के लिए कहा गया कि राजनीतिज्ञ ,राजनीतिक प्रक्रिया,चुनाव आदि भ्रष्ट हैं। इससे एनजीओ संकीर्णतावाद और अन्नामंडली के प्रतिगामी विचारों को वैधता मिली।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
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