सभ्य समाज में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दो ही प्रकार के दिवस मनाये या याद किये जाते हैं.एक-वे जिनमें किसी खास मजहब-धर्म का महापुरुष अवतरित हुआ हो या उसकी नीव रखी हो! दूसरे-वे जिनमें उन तथाकथित अवतारी महापुरषों ने या तो आत्म बलिदान किया हो या अपनी बारी आने पर लोकिक शरीर त्याग किया हो! इन दोनों ही सूरतों में सम्पूर्ण मानवता का हित संवर्धन और विश्व कल्याण की कामना के हेतु एक अलोकिक दिव्य शक्ति -इश्वर, अल्लाह या गोंड की परिकल्पना और उसमें मानवेतर मूल्यों की स्थापना में आश्था-विश्वाश -श्रद्धा का होना नितांत जरुरी है.मानव ने जब वैज्ञानिक द्वंदात्मक दर्शन के आधिभौतिक रूप में इस पृथ्वी और सम्पूर्ण ज्ञात ब्रह्माण्ड को परिभाषित करने की योग्यता हासिल की तब उसे यह स्वीकारने में कतई हिचक नहीं हुई कि चेतना के स्तर पर मानव के सांसारिक सुख-दुःख में किसी अलौकिक ईश्वरीय शक्ति का कोई हाथ नहीं है.इस पृथ्वी पर उपलब्ध तमाम संसाधन -जीवन के उपादान-प्राकृतिक नेमतें -पानी -हवा -धरती और प्राकृतिक समस्त नैसर्गिक संसाधनों पर न केवल बुद्धिबल सज्जित मानव का -अपितु चर-अचर समस्त जीवधारियों का 'सबका सब पर सामूहिक स्वामित्व है' इस दर्शन ने ही सबसे पहले दुनिया के तमाम मानवता वादियों को ये य्ह्साश कराया था की दुनिया में दो वर्ग हैं.एक वर्ग वह जो अपने श्रम श्वेद से इस धरती को सुन्दर और रहने योग्य बनाता है ,दूसरा वर्ग वह है जो अपनी बौद्धिक चालाकी से इस वसुंधरा का भोग करता है. सामंतवाद के पराभव और पूंजीवाद के उद्भव ने यह फर्क और स्पष्ट कर दिया तथा परिणाम स्वरूप द्वंदात्मक संघर्ष ने सारे विश्व सर्वहारा के बंधन मुक्त होने का -एक मई १८८६ को सूत्रपात कर 'क्रांति'शब्द को ईजाद किया था.
दरसल मई दिवस वह दिन है ,जिस दिन दुनिया का सचेतन मजदूर एक वर्ग के रूप में, एक विश्वव्यापी अजेय शक्ति के रूप में अपने समकालिक संघर्षों और उपलब्धियों का वार्षिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए,अतीत के अपने शानदार संघर्षों और उलब्धियों की विरासत को न केवल अक्षुण रखने बल्कि उसे अपनी मंजिल तक ले जाने का संकल्प दुहराता है.मई दिवस वह दिन है जिस दिन सम्पूर्ण भू मंडल का श्रमशील मानव अपने हालत का विहंगावलोकन और शोषक वर्ग का सिंहावलोकन करता है.
आम तौर पर हर-रोज और खास तौर से एक-मई को विश्व का जागृत मजदूर-किसान-कर्मचारी-कारीगर और विवेकशील चेतन्य मानव अपने संघर्षों की धार पैनी करता है.शोषक वर्ग के साथ आये दिन की झडपों और अपने जख्मों का जायजा लेना,आगामी सत्र में किये जाने वाली जद्दोज़हद का शंखनाद करना तथा तमाम जनता को अपने साथ जोड़कर शाशक वर्ग की प्रतिगामी -जनविरोधी नीतियों -राष्ट्रघाती ,मानव हन्ता कार्यक्रमों को बलात रोकने की कोशिश करना
भी मजदूर वर्ग अपना कर्तव्य घोषित करता है
बर्बाद अतीत की भजन मंडलियों के खिलाफ बेहतर भविष्य की उत्क्रष्ट अभिलाषा में अंतर-राष्ट्रीय मजदूर विरादरी -सर्वहारा की विराट जन-मेदिनी रण-हुंकार करती हुई नारा लगाती है-
दुनिया के मेहनतकशों --एक हो-एक हो...!!.
हर उद्द्योग-धंधे के मजूरो -एक हो ...एक हो ...!!
आएगा भई -आएगा..नया जमाना -आएगा...!
कमानेवाला खायेगा..लूटने वाला जायेगा...!
क्या मांगे मजदूर किसान? रोटी -कपडा-!और मकान....!
लाल -लाल लहराएगा...नया ज़माना आएगा...1
जब तक नंगा -भूंखा इंसान रहेगा...धरती पर तूफ़ान रहेगा....!
मुनाफाखोरों को फाँसी दो ....फाँसी दो....!
वेरोजगारों को काम दो.काम के पूरे दाम दो...!
गोदामों में भरा अनाज... जनता क्यों भून्खों मरती आज....!
बंद कारखाने चालू करो....देश को बेचना बंद करो...!
श्रम की लूट बंद करो...काम के घंटे कम करो....!
अमेरिका के आगे घुटने टेकना बंद करो!
देश की रक्षा कौन करेगा? हम करेंगे!हम करेंगे!!
शोषण-उत्पीडन से कौन लडेगा?हम लड़ेंगे!हम लड़ेंगे!!
एक-मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस -जिन्दावाद !
शिकागो के अमर शहीदों को- लाल सलाम!
वास्तव में ये नारे आज भी उतने ही मौजु हैं जितने कि एक-मई १८८६ के दिन थे. शिकागो के हे ! मार्केट स्कोयर पर १-मई से ४ मई -१८८६ के चार दिनों में घटे घटनाक्रम में इन नारों की उत्पत्ति हुई थी. फर्क इतना भर है कि तब ये नारे सिर्फ शिकागो के हे! मार्केट चौराहे तक सीमित थे, आज सारे संसार के मजदूर अपनी-अपनी भाषा में उन्ही नारों को केन्द्रित करते हुए अपने हकों की हिफाजत और बेहतर इंसानी जिन्दगी का आह्वान कर रहे हैं.
यह संसार प्रसिद्द है कि एक -मई १८८६ को अमेरिका के शिकागो शहर के मजदूर -आठ घंटे काम-आठ घंटे आराम और आठ घंटे पारिवारिक जिमेदारियों या मनोरंजन के लिए मांग रहे थे,मजदूरों की शांतिपूर्ण सभाएं रोज-रोज लगातार जारी थीं,ऐंसी ही एक सभा हे!मार्केट स्क्वायर पर चल रही थी,३ मई को मालिकों और शाशकों की शह पर पुलिस ने निहत्थे -अहिंसक मजदूरों पर अंधाधुन्द गोलियां चला दीं.६ मजदूरों ने वहीं सभा स्थल पर दम तोड़ दी,इस जघन्य हिसा के विरोध में शहर के हजारों मजदूर दूसरे दिन-४,मई को फिर उसी जगह एकजुट होकर नारे लगा रहे थे कि पूंजीपतियों ने अपने एजेंटों कि मार्फ़त उस शांतिपूर्ण-अहिंसक जन समूह पर बम फिकवा दिए.जिसमें सेकड़ों घायल हुए अनेक अपंगता को प्राप्त हुए .चार ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. एक सार्जेंट भी मारा गया. वहां लाशों विछी हुई थी और तभी एक बालिका रोती हुई अपने दिवंगत मजदूर पिता के शव से लहू -लुहान कमीज खींचती है, लड़की ने रक्त -रंजित शर्ट को जब हवा में लहराया तो रोते -चीखते हजारों अन्य घायल मजदूरों ने पुरजोर ताकत से मुठ्ठी बाँध हवा में हाथ ऊँचा किया और नारा लगाया -रेड फ्लेग -रेड सेलूट ....रिवोल्युसन लांग लीव ...वोर्केर्स आफ आल लैंड वी यूनीट. दुनिया में लाल झंडे के जन्म की यहीं गाथा है.
उक्त घटना में मारे गए मजदूरों के हमदर्द सहयोगियों पर झूंठे मुकद्दमें लाद दिये गए.हालाँकि इन मजदूरों पर कोई जुर्म सावित नहीं हुआ किन्तु मालिकों के दवाव और लोभ -लालच में जजों ने ४ जुझारू मजदूर नेताओं -अल्वर्ट पार्संस , आगस्त स्पाईस ,एडोल्फ फिशर और जार्ज एंगेल को ११ नवम्बर-१८८७ को फांसी कि सजा सुनाई थी.इसके आलावा अनेकों को कारागार में ठूंस दिया था.
हालाँकि मई दिवस एक ऐंसा दिन है जो पूंजीवादी शासक वर्गों द्वारा मेहनतकश वर्ग कि नृशंस हत्याओं का गवाह है किन्तु यह पहला और अंतिम दिवस नहीं है.आज देश और दुनिया में सर्वत्र कोहराम मचा हुआ है ये जन-आकांक्षाओं बनाम सरमायेदारी के द्वन्द का अविराम सिलसिला है.भारत में भी वर्तमान निष्ठुर पूंजीवादी प्रभुत्व संपन्न वर्ग ने राज्य-व्यवस्था और राष्ट्र सम्पदा दोनों पर ही कब्ज़ा कर रखा है.आम-जनता को उसके अंतहीन कष्टों -अभावों के लिए पूर्व-जन्म के कर्मों का फल बताकर पाखंडी बाबाओं की भभूत से संतुष्ट होने का सरंजाम किया जा रहा है.भृष्टाचार से जनता का ध्यान बटाने के लिए चोरों के बगलगीर 'चोर-चोर चिल्ला रहे हैं' जंतर-मंतर पर भृष्टाचार का विरोध करने वाले तो राजनीतिज्ञों से भी ज्यादा भृष्ट बताये जा रहे हैं.मीडिया भी विना आगा -पीछा देखे घटनाओं को बाजारू उत्पाद के रूप में देखने का आदी हो चुका है यह अस्त्याचरण की इन्तहा है.जो प्रशांति निलियम में हो रहा वो दिखाना उतना जरुरी नहीं जितना की ये बताना कि देश में सड़ रहे अनाज को सुरक्षित किये जाने और भूंख से मर रहे गरीवों को दिए जाने की किस व्यवस्था को किस भांति अमली जमा पहनाया जाये.जो अखवार या चेनेल्स ऐंसा नहीं कर रहे उनकी ही टी आर पी क्यों बढ़ती रहती है और जो ईमानदार हिस्सा {मीडिया का}इन जन-सरोकारों को देखना -दिखाना चाहता है उसकी टी आर पी अक्सर ढलान पर क्यों होती है? क्या आम जनता और कामगारों को इस दिशा में विचार नहीं करना चाहिए? मई दिवस तो इन तमाम चूकों, भूलों, और विसंगतियों से सीखने का निरंतर १२५ साल से आह्वान करता चला आ रहा है.
आज देश में हजारों -लाखों कल-कारखाने बंद पड़े हैं..जो आधे अधूरे उद्द्योग चल रहे हैं उनमें भयावह शोषण जारी है. अधिकांश गैर-सरकारी या निजी क्षेत्र में उच्च शिक्षित युवाओं को विना किसी भविष्यगत गारंटी -पेंशन,ग्रेचुटीअर्जित- अवकाश,मात्रत्व अवकाश,के १२ से १४ घंटे कोल्हू के बैल की भांति जोता जा रहा है. असंगठित क्षेत्र में जब अच्छे -खासे शिक्षित युवाओं की ये हालत है तो अर्ध शिक्षित और सम्पूर्ण निरक्षर करोड़ों वेरोजगार युवाओं की उस मजबूरी को सहज ही समझा जा सकता है;जिसके तहत ये "मुल्क के असली मालिक" बंधुआ मजदूर की तरह आर्थिक-मानसिक-सामाजिक -गुलामी में छटपटा रहे हैं.वर्तमान दौर के आर्थिक उदारीकरण का प्रशश्ति गान करने वाले मीडिया को, कलयुगी भगवानो के विराट आर्थिक साम्राज्य के बरक्स देखना –दिखाना चाहिए, मुख्य धारा के मीडिया से तो उम्मीद की ही जा सकती है कि देश कि युवा पीढी के सरोकारों को भी अपने कवरेज में थोड़ी सी जगह दे आर्थिक उदारीकरण प्रगट ओद्द्योगिकीकरण ने चंद नए मुठ्ठी भर शिक्षित वर्ग को भारी पैकेज पर हायर करके अधिकांस अर्ध शिक्षित और अशिक्षित नौजवानों को ठेकेदारों की रक्त पिपासा का साध बना डाला है.
भारत में खाद्यान्न उत्पादन में तो उल्लेखनीय वृद्धि निरंतर जारी है फिर भी कुछ गरीब और कर्ज से लादे किसानो को आत्म हत्या करनी पड़े तो जिम्मेदारी किसकी है ? यु पी ये प्रथम के दौरान वाम पंथ के समर्थन से गाँव के गरीबों को मनरेगा के तहत १०० दिन काम मिलना तै हुआ था ,बीच में भ्रुष्टचारियों ने भांजी मार दी .मजदूरों को निर्धारित न्यूनतम मजदूरी {कलेक्टर रेट} मिलना तो दूर पहले का परम्परागत काम भी हाथ से गया और प्रस्तावित सरकारी योजनाओं में भी स्थाई किस्म के -काम पाने के लिए रिश्वत ली जा रही है. देश और दुनिया भर के मजदुर- किसान -विश्व सर्वहारा एक-मई अंतर-रास्ट्रीय मजदूर दिवस को सवा सौ साल से मनाते चले आ रहे हैं, इतने बरसों बाद भी उसका सर्वजनहिताय-सन्देश कि "जीवन यापन केलिए कामका अवसर प्राप्त करना उसका जन्म सिद्ध अधिकार है." स्तर तक नहीं पहुँच पाया है.आज के पढ़े लिखे नौ-जवानो में से अधिकांस को नहीं मालूम की काम के घंटों को सीमिति करने -आठ घंटे श्रम करने,आठ घंटे पारिवारिक और सामाजिक सरोकार के लिए और आठ घंटे स्वयम के आराम के लिए क्यों मिलना चाहिए? यही वजह है की वे अनावश्यक अनुत्पादक बाजारीकरण में अपने सामाजिक सरोकारों से दूर होकरयह मेहनत कश वर्ग अपने हिस्से का सुख भले ही न पा सकें किन्तु लूटने वाले पूंजीपति वर्ग के हिस्से का बोझ अपने कन्धों पर उठाते -उठाते असमय ही काल -कवलित जरुर होता रहता है. चालक पूंजीपति-सामंत वर्ग और ताकत वर शासकों को इस दौर में दुनिया भर में चुनौती मिलने लगी है. इस मई दिवस पर भारत कि महनत कश जनता का उद्घोष होगा कि 'हम मेहनतकश जग वालों से अब अपना हिस्सा मांगेंगे...एक खेत नहीं ...एक देश नहीं ...हम सारी दुनिया मांगेंगे' एक-मई मजदूर दिवस पर सभी साथियों का -क्रांतिकारी अभिवादन ....हर जोर जुल्म से लड़ने को वक्त मांगता कुर्वानी ....बोलो तैयार हो...
दुनिया के मजदूरों एक हो -एक हो...!!
इन्कलाब जिंदाबाद.....!
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