कार्ल मार्क्स की कविता
मेरी आत्मा जिस बात की गिरफ्त में आ चुकी है
उसके रहते मैं कभी भी शांत नहीं बैठ सकता
कभी भी चीजों को सामान्य ढंग से नहीं ले सकता
मुझे आगे बढ़ते रहना है, बिना विराम के।
उसके रहते मैं कभी भी शांत नहीं बैठ सकता
कभी भी चीजों को सामान्य ढंग से नहीं ले सकता
मुझे आगे बढ़ते रहना है, बिना विराम के।
अतः आओ, हम सारा कुछ दांव पर लगा दें
न आराम करें, न थकान को तरजीह दें
न रहें गमगीन खामोशी के आगोश में
न होने दें बुद्धि को मंद
बिना गति की इच्छा के, बगैर चाहत के
बुदबुदाता हुआ अंतर्चिंतन में नहीं,
न दर्द के हल के नीचे दबें
ताकि हममें बची रहें इच्छाएं
और
बचे रहें स्वप्न, बची रहे कारवाई,
भले ही वे अपूर्ण ही क्यों न हों।
न आराम करें, न थकान को तरजीह दें
न रहें गमगीन खामोशी के आगोश में
न होने दें बुद्धि को मंद
बिना गति की इच्छा के, बगैर चाहत के
बुदबुदाता हुआ अंतर्चिंतन में नहीं,
न दर्द के हल के नीचे दबें
ताकि हममें बची रहें इच्छाएं
और
बचे रहें स्वप्न, बची रहे कारवाई,
भले ही वे अपूर्ण ही क्यों न हों।
बर्लिन की एक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित, वर्ष 1841
अनुवाद : विश्वजीत सेन
अनुवाद : विश्वजीत सेन
वैश्वीकरण को जिन महानुभावों ने हम पर थोपा – उन्होंने साथ साथ एक और काम भी किया – उनके अपने विचारकों से किताबें लिखवाकर उन किताबों को विश्व भर में प्रचारित करवाया। वे बुद्धिमान थे। उन्हें पता था कि समाजवाद के आदर्शों पर वैचारिक हमला भी उतना ही आवश्यक है, जितना कि वैश्वीकरण। किसी चीज को खत्म जड़ मूल से करना जरूरी है। उगर यह चीज विचारधारा है, तो उसका कुछ भी अवशेष बचना नहीं चाहिए। बचे खुचे अवशेष, समस्या उत्पन्न कर सकते हैं।
समाजवादी विचारधारा को जड़ मूल से नष्ट करने का इरादा जिनका था, उनसे लेकिन एक भूल हो गयी। वे जिस विचारधारा को आगे लाने के लिए प्रयासरत थे, वे जिस सामाजिक आर्थिक ढांचे की वकालत कर रहे थे, उनमें निहित द्वंद्वों का अध्ययन उन्होने बारीकी से नहीं किया। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। वर्ग-विभाजित समाज में द्वंद्व केवल एक ही तरीके से हल हो सकते हैं, क्रांति से। अब वह क्रांति हिंसक होगी या नहीं, यह तो उस खास समाज की बनावट पर निर्भर करता है। मसलन, उस समाज की वर्ग संरचना कैसी है, शोषित वर्ग किस हद तक सामाजिक आर्थिक फैसलों में हिस्सेदार है आदि आदि। लेकिन क्रांति के बगैर वर्ग-विभाजित समाज के द्वंद्वों को सुलझाना मुमकिन नहीं।
जब भी आप क्रांति की बात करेंगे – आपको मार्क्स की ओर मुखातिब होना पड़ेगा। मार्क्स के बाद के विश्व में अनगिनत बार उन्हें खारिज करने की कोशिशें हुईं। मार्क्स को खारिज करनेवाले तरह तरह के मुखौटे लगाकर आये, पूरी कोशिश भी की, पर इतिहास ने उनकी कोशिशों को धूल में मिला दिया। आज भी सैद्धांतिक बौने कोशिश करते दिखते हैं, पर अब कोई उनकी ओर मुड़कर भी नहीं देखता। हाल की महामंदी ने स्थिति यह पैदा कर दी है कि पूंजीपति भी मार्क्स की कृतियों को पढ़ना आवश्यक समझ रहे हैं।
लेकिन, पूंजीपति आखिर मार्क्स की कृतियों को पढ़कर करेंगे क्या? क्या वे अपनी पूंजी का सामाजिक वितरण करने में लग जाएंगे? या फिर मार्क्स की कृतियों में से कुछ टोटके निकाल कर अपनी ढहती व्यवस्था को बचाने का प्रयास करेंगे? अपनी पूंजी का सामाजिक वितरण तो वे खुद से करेंगे नही। अगर यह संभावना रहती तो दुनिया अब तक बदल चुकी होती। वे टोटके ढूंढेंगे और अपनी व्यवस्था को कुछ और दशकों तक बचाकर ले चलने का प्रयास करेंगे। कुछ और दशकों तक। हद से हद एक और सदी तक। उसके बाद तो पूंजीवादी व्यवस्था को ढहना ही है।
आज भी जिन्हें मार्क्स में यकीन है, उनका कर्तव्य क्या बनता है? क्या वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और पूंजीवाद के स्वतः ढह जाने की प्रतीक्षा करेंगे? क्या ऐसा करना उचित होगा? मेरी समझ से, नहीं। पूंजीवाद जितना दिन जीवित रहेगा, वह अपनी सड़ांध को जनता पर फेंकने का प्रयास करता रहेगा। आज के पूंजीवाद की स्थिति राजा ययाति जैसी है, जो अपनी संतान से गुहार लगा रहा है कि वह अपनी जवानी उसे दे दे और खुद जराग्रस्त हो जाना स्वीकार कर ले। राजा ययाति ने तो आखिर अपनी संतान को जवानी वापस कर दी थी, पर पूंजीवाद ऐसा नहीं करनेवाला। वह अपनी संतान को मरते हुए देख सकता है, लेकिन उसकी जवानी उसे वापस नहीं कर सकता। यह उसका चरित्र है।
तब जनता को क्या करना चाहिए? अवश्य ही उसे पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहिए। लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए सारे पूंजीवाद-विरोधी आंदोलनों के अनुभवों का अध्ययन आवश्यक है। आज के परिदृश्य में क्रांति को सफल बनाने के लिए कौन सी राह अपनायी जाए, इसको लेकर गंभीर मनन तथा मंथन आवश्यक है। पूंजीवाद-विरोधी आंदोलनों के दौरान अगर जनता ने अनुभव हासिल किया है, तो पूंजीवाद भी कोई नाबालिग नहीं रह गया। सबसे बड़ी बात यह है कि उसके पास संसाधन हैं, उसके पास सिद्धांतकार हैं, उसके पास षड्यंत्रकारी हैं, उसके पास लगभग अटूट हालत में पूरा का पूरा राष्ट्रयंत्र है, उसके पास न्यायपालिका है। जनता के पास क्या है? समाजवादी खेमे के विघटन के बाद जनता तो करीब करीब निःशस्त्र हो चुकी है, क्या जनता इतने बड़े लक्ष्य को हासिल करने लायक रह गयी है?
कुछ होने की शुरुआत कुछ नहीं होने से ही होती है। समाजवादी खेमा का ढह जाना एक बहुत बड़ी त्रासदी जरूर है, लेकिन उसके कारण जनता के संघर्ष तो बंद नहीं हुए? साम्राज्यवादी घुड़की के आगे क्यूबा ने घुटने नहीं टेके। बोलिविया और वेनेजुएला में जनपक्षी सरकारें सत्ता में आ गयीं। समाजवादी खेमे के विघटन के बावजूद संपूर्ण विश्व में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों में एक नयी तेजी आ गयी। अब किसी राष्ट्रवादी राजनेता को, जैसे चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे, फौजी बगावत भड़का कर खत्म करना आसान नहीं रह गया।
पेरिस के मजदूरों ने जब क्रांति कर दी तो कार्ल मार्क्स ने कहा था, यह स्वर्ग पर धवा है। मार्क्स ने यह उक्ति इस वजह से की कि मजदूरों ने एक असाध्य काम का बीड़ा उठा लिया था। पेरिस कम्यून को खून की नदी में डुबो दिया गया, लेकिन स्वर्ग पर धावा बोलने के काम में कभी विराम नहीं आया। आखिरकार 1917 में रूस के मजदूरों ने स्वर्ग को अपने कब्जे में ले ही लिया। आगे भी वे स्वर्ग को अपने कब्जे में लेंगे। इसके लिए उन्हें धीरज रखना होगा, सही रणनीति तय करनी होगी और आपसी भाईचारे को मजबूत बनाना होगा। पूंजीवाद की आयु अब अधिक दिनों की नहीं रह गयी है।
(विश्वजीत सेन। पटना में रहने वाले चर्चित बांग्ला कवि। पटना युनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई। बांग्ला एवं हिंदी में समान रूप से सक्रिय। पहली कविता 1967 में छपी। अब तक छह कविता संकलन। पिता एके सेन आम जन के डॉक्टर के रूप में मशहूर थे और पटना पश्िचम से सीपीआई के विधायक भी रहे। उनसे vishwajitsen1967@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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