अपने शौहर के लिए रोटी लेकर गयी शाजमीन को छह गोलियां मारी गयी
♦ मनीष शांडिल्य
47 सेकंड के इस वीडियो में उस पूरे तांडव की जरा सी झलकी है।
फारबिसगंज पुलिस फायरिंग में बिहार पुलिस की दरिंदगी को बेनकाब करने वाला वीडियो 10 जून को पटना के स्काडा बिजनेस सेंटर में मीडियाकर्मिंयों को दिखाने के लिए जैसे ही चलाया गया, हॉल गोलीकांड के मृतकों व घायलों के परिवार वालों की हाय, चीख-चीत्कार से दहल उठा। ये आहें इतनी मर्माहत करने वाली थीं कि चंद सेकंड में ही वीडियो रोक देना पड़ा। पुलिस बर्बरता के शिकार लोगों के ये परिजन अपना दर्द सुनाने फारबिसगंज से पटना आने को इस कारण मजबूर हुए थे क्योंकि बिहार का सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व न ही उनका दर्द समझने उनके पास गया और न ही उसने राजधानी से उनके जख्मों पर मरहम लगाने की ऐसी कोई गंभीर कोशिश की जिससे कि खौफ और असुरक्षा के साये में जी रहे ग्रामीणों का भरोसा कुछ बहाल हो। मगर आहें बेअसर नहीं जातीं। एक सप्ताह की देरी से ही सही, इन आहों ने बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार को मारे गये 7 महीने के बच्चे नौशाद अंसारी के परिजनों को 3 लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा करने को मजबूर किया। मुख्यमंत्री का कहना है कि उन्होंने ऐसा ‘मानवीय आधार’ पर किया। इस बयान का निहितार्थ यह भी है कि सरकार की नजरों में बाकी मृतक, घायल और आरोपित ग्रामीण उपद्रवी हैं।
नीतीश कुमार द्वारा ‘मानवीय आधार’ पर दिया गया यह मुआवजा भी मुआवजा के संबंध में ही कुछ सवाल खड़े करता है। वैसे तो इस पुलिस फायरिंग से जुड़े ढेर सारे सवाल हैं। जैसे कि घायल मो मुस्तफा अंसारी के जिस्म पर ‘तांडव नृत्य’ करने वाले पुलिस जवान सुनील कुमार यादव को ही मात्र गिरफ्तार क्यों किया गया और किस वजह से मूक दर्शक बने रहे एसपी समेत वहां मौजूद अधिकारियों पर कोई कार्रवाई करने से बिहार सरकार बच रही है? जबकि पिछले दिनों गोपालगंज जेल में हुई डाक्टर की हत्या के बाद नीतीश कुमार ने इसे प्रशासनिक चूक बताया था और राज्य सरकार ने जिले में व्यापक प्रशासनिक फेरबदल किया था।
आने-जाने का रास्ता बहाल करने की मांग कर रहे ग्रामीणों को मौत और जख्म क्यों मिला, प्रशासन ने समय रहते विकल्प क्यों नहीं ढूंढा, सरकार की भूमि अधिग्रहण संबंधी कोई ठोस नीति क्यों नहीं है, बिहार सरकार का राजनीतिक नेतृत्व तीन दिनों तक इस बर्बरता पर क्यों चुप रहा, पुलिस ने हिंसक भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस, पानी की बौछार करने की जगह गोलियों की बौछार क्यों की, अगर सरकारी दावे को सही मानते हुए पुलिस फायरिंग को अपरिहार्य मान भी लिया जाए, तो पुलिस ने पैरों के बजाए बंदूक का मुंह ‘उग्र ग्रामीणों’ के सीनों की ओर क्यों मोड़ दिया… जैसे कई सवाल भी इस गोलीकांड से जुड़े हैं।
फिलहाल अगर मुआवजे की ही बात करें तो सरकार की पहलकदमी से ऐसा लगता है कि सरकार की नीयत बाकी मृतकों और घायलों को न्यायिक जांच की रिपोर्ट आने तक उपद्रवी मानते हुए किसी भी सहायता से मरहूम रखने की है। ऐसे में बिहार सरकार को यह भी साफ करना चाहिए कि क्या वो छब्बीस साल की गर्भवती महिला, शाज़मीन खातून को भी उपद्रवी मानती है, जो कि अपने पति को खाना खिलाने गयी थी? गौरतलब है कि उसका पति फारूख अंसारी उसी निर्माणाधीन फैक्ट्री में काम करता है, जिस से भजनपुर गांव वालों की लड़ाई सड़क को लेकर चल रही है। छह महीने की गर्भवती शाज़मीन खातून को छह गोलियां मारी गयी, जिसमें चार गोलियां सर में लगी। क्या बिहार सरकार इस गोलीकांड में घायल उन चार बच्चों को भी ‘पुलिस पर हमला करने’ का दोषी मानती है, जिनकी उम्र 8 से 15 साल के बीच की है? इस गोली कांड के घायलों की सूची में 8 साल के मंजूर, 12 साल के तलीमुम, 15 साल के सलामत और 10 साल के अजीम के नाम भी शामिल हैं।
जाहिर है कि किसी भी तरह की मांग के लिए गोलबंद हुआ ऐसा समूह, जिसमें गर्भवती महिला और बच्चे तक शामिल हों, खुद कभी उग्र नहीं हो सकता, हिंसक नहीं हो सकता। ऐसे में घटना की गंभीरता, नंदीग्राम से मिला सबक सब यही कह रहे हैं कि बिहार सरकार फिलहाल कम-से-कम घटना की नैतिक जिम्मेवारी स्वीकार करते हुए, भूल स्वीकार करते हुए सभी मृतक के परिजनों और घायलों का तुरंत उचित मुआवजा दे। नहीं तो नीतीश कुमार की सरकार इस सवाल का जवाब दे ‘सुशासन’ में किन वजहों से गर्भवती महिला और बच्चों तक को अपने हक के लिए ‘हिंसक’ संघर्ष में शामिल होने को मजबूर होना पड़ रहा है? वह भी तब, जबकि नीतीश कुमार ने गोलीकांड वाले दिन ही जागरण समूह के आयोजन में आत्ममुग्धता में यह पाठ पढ़ाया है कि सुशासन का सबसे बड़ा मंत्र है लोगों की बात सुनना।
shame on u nitish kumar,shame on u media
ReplyDelete