फारबिसगंज! विकास की अंधी दौड़ में सरपट भाग रहे इंडिया से पीछे छूट गए हिन्दुस्तान का एक क़स्बा. इस फारबिसगंज की नियति भी हिन्दुस्तान के तमाम और गाँवों, कस्बों के जैसी ही है, न होने जैसे होने के साथ जीने की नियति. फारबिसगंज भी राही मासूम रज़ा के गंगौली जैसा एक गाँव है जिससे होकर जिन्दगी के काफिले नहीं गुजरते.
इन तमाम जगहों की नियति में कभी भी अच्छे कारणों से चर्चा में न आने का अभिशाप भी जुड़ा होता है. मुफस्सिल हिन्दुस्तान की मिर्चपुर, झज्झर, चकवाड़ा, दुलीना जैसी सारी जगहें चर्चा में बस तब आती हैं जब इनके साथ होने वाली रोज की क्रूरता भी सारी हदें पार कर जाए. जैसे की 3 जून 2011 की उस दोपहर फारबिसगंज में हुआ, जब अपने हक़ के लिए, अपने गाँव तक पंहुचने के अपने रास्ते को एक निजी कंपनी से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे इस कस्बे के 4 बाशिंदे पुलिसिया गोलियों से मारे गए.
फारबिसगंज में चली गोलियों की आवाजें दिल्ली तक तब पंहुचीं थीं, जब इलेक्ट्रोनिक मीडिया के मुताबिक़ सारा देश बाबा रामदेव के अनशन और आन्दोलन के बीच के किसी आयोजन पर हुए 'बर्बर' पुलिसिया दमन से बेहद आहत और स्तब्ध था. अब पता नहीं इस 'देश' में मणिपुर, कश्मीर और छत्तीसगढ़ जैसे 'अशांत' क्षेत्रों में लगभग रोज पुलिसिया दमन की शिकार होने वाली जनता शामिल थी कि नही, पता नहीं पुलिसिया मुठभेड़ों के मामले में शीर्ष पर विराजमान आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की जनता को दिल्ली पुलिस के इस 'कारनामे' में कुछ नया दिखा था या नहीं, पर कुछ लोग सचमुच बहुत दुखी थे. उन्हें आपातकाल याद आ रहा था, नितिन गडकरी जैसे कुछ महान 'लोकतंत्रवादियों' ने तो जून के महीने में भारतीय लोकतंत्र के चेहरे पर लगे उस कांग्रेसी कलंक से जून के महीने में ही हुए इस हमले की तुकबंदी भी शुरू कर दी थी.
पर गुजरात से लेकर उड़ीसा तक अपनी महान लोकतांत्रिक परंपरा के झंडे गाड़ आये गडकरियों और आडवाणियों से अलग सिविल सोसायटी उर्फ़ 'सभ्य समाज' के कुछ रहनुमा भी 'हमले' पर क्रोध और विक्षोभ में दुहरे हुए जा रहे थे. इस सभ्य समाज के एक प्रतिनिधि प्रशांत भूषण को बाबा रामदेव पर हुआ हमला 'लोकतंत्र की हत्या' से कुछ कम नजर नहीं आ रहा था, जबकि इस सिविल सोसायटी के आज के दौर के सबसे बड़े नेता अन्ना हजारे को इसमें 'गोलियों वाले हिस्से को छोड़कर जलियांवाला बाग़ हत्याकांड' याद आ रहा था.
उनका दुःख, गुस्सा और विक्षोभ सब कुछ जायज था. एक मैदान में रात के तीसरे पहर शांतिपूर्ण ढंग से सो रहे पचास हज़ार से ज्यादा लोगों पर इस तरीके का बर्बर हमला न केवल निंदनीय वरन किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए असहनीय भी है. पर फिर भी एक दिक्कत तो थी, यह कि फारबिसगंज से बिलकुल अलग बाबा रामदेव के आन्दोलन पर टूटे इस सरकारी कहर में भी पुलिस ने इतना संयम बरता था कि इस हमले में न किसी की जान गयी और न एक महिला के अलावा कोई भी गंभीर रूप से घायल हुआ. (बावजूद इसके की इससे पुलिसिया बर्बरता की न तो तीव्रता कम होती है न उसकी मंशा, पुलिसिया बर्बरता पर लगातार लिखता भी रहा हूँ पर यहाँ सवाल 'असभ्य और औपनिवेशिक चरित्र वाली पुलिस' का नहीं बल्कि लोकतंत्र के नए पहरुओं यानी कि 'सिविल सोसायटी' और इसके नेताओं का है).
मतलब यह कि फारबिसगंज की तुलना में देखें तो यह हमला 'गांधीवादी अहिंसा के पुलिसिया पाठ' जैसा कुछ लगेगा उससे ज्यादा कुछ नहीं. और फिर भी 'सिविल सोसायटी' के इन रहनुमाओं को फारबिसगंज पर कुछ भी बोलना गवारा नहीं हुआ. वह भी तब, जब फारबिसगंज हत्याकांड बाबा पर हुए 'हमले' के 24 घंटे से भी ज्यादा पहले घटित हो चुका था.
कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो भट्टा पारसौल में हुए प्रशासनिक तांडव पर भी सिविल सोसायटी के इन नेताओं की खामोशी इतनी ही गहरी थी. पर इस खामोशी के कुछ तो कारण होंगे! फारबिसगंज पर तो फिर भी नीतीश कुमार को (नरेन्द्र मोदी के साथ) 'सुशासन' का प्रमाणपत्र दे चुके अन्ना हजारे का चुप रहना समझ आ सकता है पर फिर भट्टा पारसौल को कैसे समझा जाए? (यह समझना थोडा आसान हो सकता है अगर हम याद करें कि इस 'सिविल सोसायटी' के कई रहनुमाओं को बिलकुल ठीक, पारदर्शी और ईमानदार प्रक्रिया के तहत मिले फ़ार्म हाउस उत्तर प्रदेश की सीमा में आते हैं, और वह फ़ार्म हाउस भी तो किसानों की ही जमीन लेकर बने होंगे!) पर तमाम आसानी के बावजूद यह छोटा सा तथ्य खामोशी की तफसील तक नहीं ले जाता.
फारबिसगंज में चली गोलियों की आवाजें दिल्ली तक तब पंहुचीं थीं, जब इलेक्ट्रोनिक मीडिया के मुताबिक़ सारा देश बाबा रामदेव के अनशन और आन्दोलन के बीच के किसी आयोजन पर हुए 'बर्बर' पुलिसिया दमन से बेहद आहत और स्तब्ध था. अब पता नहीं इस 'देश' में मणिपुर, कश्मीर और छत्तीसगढ़ जैसे 'अशांत' क्षेत्रों में लगभग रोज पुलिसिया दमन की शिकार होने वाली जनता शामिल थी कि नही, पता नहीं पुलिसिया मुठभेड़ों के मामले में शीर्ष पर विराजमान आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की जनता को दिल्ली पुलिस के इस 'कारनामे' में कुछ नया दिखा था या नहीं, पर कुछ लोग सचमुच बहुत दुखी थे. उन्हें आपातकाल याद आ रहा था, नितिन गडकरी जैसे कुछ महान 'लोकतंत्रवादियों' ने तो जून के महीने में भारतीय लोकतंत्र के चेहरे पर लगे उस कांग्रेसी कलंक से जून के महीने में ही हुए इस हमले की तुकबंदी भी शुरू कर दी थी.
पर गुजरात से लेकर उड़ीसा तक अपनी महान लोकतांत्रिक परंपरा के झंडे गाड़ आये गडकरियों और आडवाणियों से अलग सिविल सोसायटी उर्फ़ 'सभ्य समाज' के कुछ रहनुमा भी 'हमले' पर क्रोध और विक्षोभ में दुहरे हुए जा रहे थे. इस सभ्य समाज के एक प्रतिनिधि प्रशांत भूषण को बाबा रामदेव पर हुआ हमला 'लोकतंत्र की हत्या' से कुछ कम नजर नहीं आ रहा था, जबकि इस सिविल सोसायटी के आज के दौर के सबसे बड़े नेता अन्ना हजारे को इसमें 'गोलियों वाले हिस्से को छोड़कर जलियांवाला बाग़ हत्याकांड' याद आ रहा था.
उनका दुःख, गुस्सा और विक्षोभ सब कुछ जायज था. एक मैदान में रात के तीसरे पहर शांतिपूर्ण ढंग से सो रहे पचास हज़ार से ज्यादा लोगों पर इस तरीके का बर्बर हमला न केवल निंदनीय वरन किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए असहनीय भी है. पर फिर भी एक दिक्कत तो थी, यह कि फारबिसगंज से बिलकुल अलग बाबा रामदेव के आन्दोलन पर टूटे इस सरकारी कहर में भी पुलिस ने इतना संयम बरता था कि इस हमले में न किसी की जान गयी और न एक महिला के अलावा कोई भी गंभीर रूप से घायल हुआ. (बावजूद इसके की इससे पुलिसिया बर्बरता की न तो तीव्रता कम होती है न उसकी मंशा, पुलिसिया बर्बरता पर लगातार लिखता भी रहा हूँ पर यहाँ सवाल 'असभ्य और औपनिवेशिक चरित्र वाली पुलिस' का नहीं बल्कि लोकतंत्र के नए पहरुओं यानी कि 'सिविल सोसायटी' और इसके नेताओं का है).
मतलब यह कि फारबिसगंज की तुलना में देखें तो यह हमला 'गांधीवादी अहिंसा के पुलिसिया पाठ' जैसा कुछ लगेगा उससे ज्यादा कुछ नहीं. और फिर भी 'सिविल सोसायटी' के इन रहनुमाओं को फारबिसगंज पर कुछ भी बोलना गवारा नहीं हुआ. वह भी तब, जब फारबिसगंज हत्याकांड बाबा पर हुए 'हमले' के 24 घंटे से भी ज्यादा पहले घटित हो चुका था.
कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो भट्टा पारसौल में हुए प्रशासनिक तांडव पर भी सिविल सोसायटी के इन नेताओं की खामोशी इतनी ही गहरी थी. पर इस खामोशी के कुछ तो कारण होंगे! फारबिसगंज पर तो फिर भी नीतीश कुमार को (नरेन्द्र मोदी के साथ) 'सुशासन' का प्रमाणपत्र दे चुके अन्ना हजारे का चुप रहना समझ आ सकता है पर फिर भट्टा पारसौल को कैसे समझा जाए? (यह समझना थोडा आसान हो सकता है अगर हम याद करें कि इस 'सिविल सोसायटी' के कई रहनुमाओं को बिलकुल ठीक, पारदर्शी और ईमानदार प्रक्रिया के तहत मिले फ़ार्म हाउस उत्तर प्रदेश की सीमा में आते हैं, और वह फ़ार्म हाउस भी तो किसानों की ही जमीन लेकर बने होंगे!) पर तमाम आसानी के बावजूद यह छोटा सा तथ्य खामोशी की तफसील तक नहीं ले जाता.
पर सवाल यह है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आखिरी-सी जंग लड़ रहे 'सिविल सोसायटी' के इन रहनुमाओं के लिए हर मुद्दे पर बोलना क्यों जरूरी है, आखिर को उनका आन्दोलन 'मुद्दा आधारित' आन्दोलन है. पर यह सफाई तब नाकाफी हो जाती है जब हम गौर करते हैं कि खुद अन्ना हजारे के शब्दों में यह लड़ाई भारत की 'दूसरी आजादी' की लड़ाई से कुछ कम नहीं है. और फिर दूसरी आजादी की कोई लड़ाई गरीबों, मजलूमों, किसानों, दलितों और तमाम अन्य वंचित अस्मिताओं की आकांक्षाओं को, मुक्ति के उनके सपनों को साथ लिए बिना पूरी नहीं हो सकती.
यहाँ से देखें तो भूमि अधिग्रहण के, भुखमरी के, बंद होती मिलों के, बेराजगार होते मजदूरों के तमाम सवालों पर 'सिविल सोसायटी' की चुप्पी की वजहें साफ़ दिखने लगती हैं. यह, कि इस सिविल सोसायटी के विकास की दृष्टि भी विकास के सरकारी नजरिये से कुछ ख़ास अलग नहीं है. यह कि इस तथाकथित 'सिविल सोसायटी' को टीना (There is no alternative उर्फ़ कोई विकल्प बाकी नहीं बचा है) का तर्क समझ में आता है और वह यह मानने लगी है कि आर्थिक विकास का रास्ता ही सब कुछ ठीक कर देगा. सिविल सोसायटी के स्वयंभू नेताओं की तो बात ही छोड़िये, शीर्ष से आधार की और विकास के टपकने (trickle down) के सिद्धांत से सहमत हुए बिना कोई भी ईमानदार नागरिक इतने बुनियादी सवालों पर चुप रह नहीं सकता.
बात साफ़ है, बाबा रामदेव के आन्दोलन पर हुई 'बर्बर' पुलिस कार्यवाही की निंदा करते हुए भी फारबिसगंज पर सिर्फ वही लोग चुप रह सकते हैं, जिनके 'इण्डिया' में फारबिसगंज और उसके सरोकार शामिल नहीं हैं. और इसीलिये सबसे दिलचस्प हो जाता है यह देखना कि इस तथाकथित सभ्य समाज के रहनुमाओं को प्रायोजित करने वाले और फारबिसगंज में गोली चलाने वाले लोग एक ही हैं, कम से कम एक ही वर्ग, यानी की उद्योगपतियों के वर्ग से हैं. फारबिसगंज में आन्दोलनकारियों के सीने के ऊपर गोली मारने वाली पुलिस स्थानीय फैक्ट्री मालिकान, और भाजपा नेता अग्रवालों के इशारे पर काम कर रही थी, और इन्ही फैक्ट्री मालिकानों के आला संगठन फिक्की से शुरू करके देश के सबसे बड़े निजी उद्योग घरानों में से एक जिंदल समूह, और अन्य कई पूंजीपति भ्रष्टाचार के विरुद्ध 'देश की दूसरी आजादी' की लड़ाई को प्रायोजित कर रहे थे. अब शायद और भी परतें खुल रही होंगी कि अन्ना हजारे और उनके प्रतिनिधियों वाली यह सिविल सोसायटी सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ गला फाड़ कर बोलते हुए भी उस भ्रष्टाचार के असली लुटेरे पूंजीपतियों के खिलाफ क्यों कर चुप रहती है?
ध्यान दीजिये कि अभी-अभी सामने आये कृष्णा गोदावरी बेसिन गैस घोटाले, जिसमे रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अम्बानी का नाम आ रहा है, के बारे में सिविल सोसायटी के इन रहनुमाओं ने अपने होंठ सिल रखे हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपने चार दिनी अनशन के दौरान राडिया काण्ड में शामिल बरखा दत्तों को देखना यह लोग भूल गए थे. ध्यान दीजिये कि लगभग हर साल सरकारी बैंकों द्वारा टाटा, बिड़ला और अम्बानी घरानों जैसे बड़े पूंजीपतियों को 'ईमानदार और पारदर्शी प्रक्रिया के तहत' दी जाने वाली 88000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कर्ज माफी इस सिविल सोसायटी और इसके आकाओं के लिए कोई मुद्दा नहीं बनती. और फिर इन्ही रहनुमाओं को इसी दिल्ली शहर में मारुती उद्योग के मजदूरों की अपनी ट्रेड युनियन बनाने की कोशिश कर रहे मजदूरों का उत्पीडन करती पुलिस नहीं दिखती, इन्हें रायपुर में सरकार द्वारा घर तोड़े जाने का विरोध करती औरतों पर बरसती लाठियां नहीं दिखतीं, इन्हें चंदौली में अपनी जमीन के अधिग्रहण का विरोध करते हुए सामूहिक आत्महत्या का निर्णय ले लेने वाले किसान नहीं दिखते.
पर इस सिविल सोसायटी को तो इरोम शर्मीला भी नहीं दिखीं. इन्हें तो अन्ना हजारे के ही महाराष्ट्र में बीते एक दशक में आत्महत्या करने वाले लाखों किसान नहीं दिखे. इन्हें मिर्चपुर, दुलीना, गोहाना में जलाए जाते दलितों के घर नहीं दिखे. फिर इन्हें फारबिसगंज क्या दीखता? इनका लोकतंत्र रामलीला मैदान की रामदेव लीलाओं में बसता है, उन लीलाओं में जहाँ साध्वी ऋतंभरा जैसे महान 'गांधीवादी' और अल्पसंख्यक हितों के रक्षक मंचासीन होते हैं. आप अभी भी इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के द्वारा लगातार भेजे जा रहे सन्देश देखिये, उनमे रामलीला मैदान है, फारबिसगंज नहीं है.
और फिर शायद हम सब समझ पायेंगे कि भूमिसुधार जैसे आमूलचूल परिवर्तनों को केंद्र में रखे बिना सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर कर भारत को हासिल दूसरी आजादी से भी भारत के आम नागरिक वैसे ही जलावतन रहेंगे जैसे कि पहली में थे. यह भी कि समावेशी भारत बनाने की कोई भी लड़ाई दिल्ली से नहीं फारबिसगंज से ही शुरू हो सकती है, उसी फारबिसगंज से जहाँ से सिविल सोसायटी के काफिले आज भी नहीं गुजरते.
यहाँ से देखें तो भूमि अधिग्रहण के, भुखमरी के, बंद होती मिलों के, बेराजगार होते मजदूरों के तमाम सवालों पर 'सिविल सोसायटी' की चुप्पी की वजहें साफ़ दिखने लगती हैं. यह, कि इस सिविल सोसायटी के विकास की दृष्टि भी विकास के सरकारी नजरिये से कुछ ख़ास अलग नहीं है. यह कि इस तथाकथित 'सिविल सोसायटी' को टीना (There is no alternative उर्फ़ कोई विकल्प बाकी नहीं बचा है) का तर्क समझ में आता है और वह यह मानने लगी है कि आर्थिक विकास का रास्ता ही सब कुछ ठीक कर देगा. सिविल सोसायटी के स्वयंभू नेताओं की तो बात ही छोड़िये, शीर्ष से आधार की और विकास के टपकने (trickle down) के सिद्धांत से सहमत हुए बिना कोई भी ईमानदार नागरिक इतने बुनियादी सवालों पर चुप रह नहीं सकता.
बात साफ़ है, बाबा रामदेव के आन्दोलन पर हुई 'बर्बर' पुलिस कार्यवाही की निंदा करते हुए भी फारबिसगंज पर सिर्फ वही लोग चुप रह सकते हैं, जिनके 'इण्डिया' में फारबिसगंज और उसके सरोकार शामिल नहीं हैं. और इसीलिये सबसे दिलचस्प हो जाता है यह देखना कि इस तथाकथित सभ्य समाज के रहनुमाओं को प्रायोजित करने वाले और फारबिसगंज में गोली चलाने वाले लोग एक ही हैं, कम से कम एक ही वर्ग, यानी की उद्योगपतियों के वर्ग से हैं. फारबिसगंज में आन्दोलनकारियों के सीने के ऊपर गोली मारने वाली पुलिस स्थानीय फैक्ट्री मालिकान, और भाजपा नेता अग्रवालों के इशारे पर काम कर रही थी, और इन्ही फैक्ट्री मालिकानों के आला संगठन फिक्की से शुरू करके देश के सबसे बड़े निजी उद्योग घरानों में से एक जिंदल समूह, और अन्य कई पूंजीपति भ्रष्टाचार के विरुद्ध 'देश की दूसरी आजादी' की लड़ाई को प्रायोजित कर रहे थे. अब शायद और भी परतें खुल रही होंगी कि अन्ना हजारे और उनके प्रतिनिधियों वाली यह सिविल सोसायटी सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ गला फाड़ कर बोलते हुए भी उस भ्रष्टाचार के असली लुटेरे पूंजीपतियों के खिलाफ क्यों कर चुप रहती है?
ध्यान दीजिये कि अभी-अभी सामने आये कृष्णा गोदावरी बेसिन गैस घोटाले, जिसमे रिलायंस समूह के मालिक मुकेश अम्बानी का नाम आ रहा है, के बारे में सिविल सोसायटी के इन रहनुमाओं ने अपने होंठ सिल रखे हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपने चार दिनी अनशन के दौरान राडिया काण्ड में शामिल बरखा दत्तों को देखना यह लोग भूल गए थे. ध्यान दीजिये कि लगभग हर साल सरकारी बैंकों द्वारा टाटा, बिड़ला और अम्बानी घरानों जैसे बड़े पूंजीपतियों को 'ईमानदार और पारदर्शी प्रक्रिया के तहत' दी जाने वाली 88000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कर्ज माफी इस सिविल सोसायटी और इसके आकाओं के लिए कोई मुद्दा नहीं बनती. और फिर इन्ही रहनुमाओं को इसी दिल्ली शहर में मारुती उद्योग के मजदूरों की अपनी ट्रेड युनियन बनाने की कोशिश कर रहे मजदूरों का उत्पीडन करती पुलिस नहीं दिखती, इन्हें रायपुर में सरकार द्वारा घर तोड़े जाने का विरोध करती औरतों पर बरसती लाठियां नहीं दिखतीं, इन्हें चंदौली में अपनी जमीन के अधिग्रहण का विरोध करते हुए सामूहिक आत्महत्या का निर्णय ले लेने वाले किसान नहीं दिखते.
पर इस सिविल सोसायटी को तो इरोम शर्मीला भी नहीं दिखीं. इन्हें तो अन्ना हजारे के ही महाराष्ट्र में बीते एक दशक में आत्महत्या करने वाले लाखों किसान नहीं दिखे. इन्हें मिर्चपुर, दुलीना, गोहाना में जलाए जाते दलितों के घर नहीं दिखे. फिर इन्हें फारबिसगंज क्या दीखता? इनका लोकतंत्र रामलीला मैदान की रामदेव लीलाओं में बसता है, उन लीलाओं में जहाँ साध्वी ऋतंभरा जैसे महान 'गांधीवादी' और अल्पसंख्यक हितों के रक्षक मंचासीन होते हैं. आप अभी भी इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के द्वारा लगातार भेजे जा रहे सन्देश देखिये, उनमे रामलीला मैदान है, फारबिसगंज नहीं है.
और फिर शायद हम सब समझ पायेंगे कि भूमिसुधार जैसे आमूलचूल परिवर्तनों को केंद्र में रखे बिना सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर कर भारत को हासिल दूसरी आजादी से भी भारत के आम नागरिक वैसे ही जलावतन रहेंगे जैसे कि पहली में थे. यह भी कि समावेशी भारत बनाने की कोई भी लड़ाई दिल्ली से नहीं फारबिसगंज से ही शुरू हो सकती है, उसी फारबिसगंज से जहाँ से सिविल सोसायटी के काफिले आज भी नहीं गुजरते.
सोहराब साहब..
ReplyDeleteबार बार आपको लिखना बुरा तो लग रहा है मगर उससे भी बुरा यह लगा कि अपना लेख तेज़ न्यूज की वेबसाइट पर आपकी बाईलाइन के साथ दिखा. वह भी तब जब आप मेरा नाम यहाँ जोड़ चुके थे.
आपसे गुजारिश है, और उम्मीद भी कि आप तेज़ न्यूज को यह गलती सुधारने के लिए कहेंगे. लिंक यह रहा
http://teznews.com/home/news/3132
मैंने तेज़ न्यूज़ की वेबसाइट पर contact वाले लिंक को खोलने की बहुत कोशिश की पर असफल रहा..
आशा है की आपका उत्तर शीघ्र मिलेगा
सादर
समर
9971581020
आपका बहुत बहुत धन्यबाद, जी बिलकुल मैं कोशिश करूँगा के तेज न्यूज़ वालों से मेरी कांटेक्ट हो जाये और आपकी समस्या का समाधान अति शीघ्र हो जाये.
ReplyDeleteसादर
अली सोहराब