भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की आर एस एस और बीजेपी की कोशिश को पकड़कर प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से दक्षिणपंथी राजनीति को अर्दब में लेने की कोशिश की है .यह बात स्पष्ट कर देने की ज़रुरत है कि १९६७ से लेकर अबतक लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट रही हैं . उन पर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सब को मालूम है कि टाप पर फैले भ्रष्टाचार का शिकार हर हाल में गरीब आदमी ही होता है और उसे मालूम है कि सरकार भ्रष्ट है . लेकिन भारत के समकालीन इतिहास में तीन बार केंद्रीय सरकार को भ्रष्ट साबित करके आर एस एस ने अपने आपको मज़बूत किया है. यह अलग बात है कि २००४ के चुनावों में कांग्रेस ने भी बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को महाभ्रष्ट साबित करके एन डी ए की सरकार को पैदल किया था . लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश के बाद हमेशा ही आर एस एस के हाथ सत्ता लगती रही है . इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा कर लेने से तस्वीर साफ़ होने में मदद मिलेगी. १९७४ में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें बहुत कम संख्या में लोग शामिल थे लेकिन जब के एन गोविन्दाचार्य ने पटना में उनसे मुलाकात की और आर एस एस को उनके पीछे लगा दिया तो बात बदल गयी. राजनीति की सीमित समझ रखने वाली इंदिरा गाँधी ने थोक में गलतियाँ कीं और १९७७ में अर एस एस के सहयोग से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी. महात्मा गाँधी की हत्या के आरोपों की काली छाया में जी रहे संगठन को जीवनदायिनी ऊर्जा मिल गयी.आर एस एस की ओर से बीजेपी में सक्रिय ,उस वक़्त के सबसे बड़े नेता, नानाजी देशमुख ने खुद तो मंत्री पद नहीं स्वीकार किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को कैबिनेट में अहम विभाग दिलवा दिया . जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कई बड़े कार्यकर्ता बहुत ही ताक़तवर पदों पर पंहुच गए. बाद में समाजवादी चिन्तक और जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने इन लोगों को काबू में करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . आर एस एस वालों ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और बीजेपी की स्थापना कर दी. लेकिन आर एस एस के नियंत्रण में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी आ चुकी थी. आज के बीजेपी के सभी बड़े नेता उसी दौर में राजनीति में आये थे और आज उनके सामने ज़्यादातर पार्टियों के नेता बौने नज़र आते हैं .राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, सुशील कुमार मोदी सब उसी दौर के युवक नेता हैं .दिलचस्प बात यह है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया गया था क्योंकि सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी की सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुई .
दूसरी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जब आर एस एस ने अभियान चलाया तो मस्कट के रूप में राजीव गाँधी के वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे किया गया . राजीव गाँधी की टीम में राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों का भारी जमावड़ा था . उन लोगों ने भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाला और वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बना दी गयी. उस सरकार का कंट्रोल पूरी तरह से आर एस एस के हाथ में था और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा देने के लिए जितना योगदान वी पी सिंह ने किया उतना किसी ने नहीं किया . वी पी सिंह के अन्तःपुर में सक्रिय सभी बड़े नेता बाद में बीजेपी के नेता बन गए. अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान और सतपाल मलिक का नाम प्रमुखता से वी पी सिंह के सलाहकारों में था . बाद में सभी बीजेपी में शामिल हो गए.बाबरी मस्जिद के मुद्दे को पूरी तरह से गरमाने के बाद भ्रष्टाचार और बोफर्स को भूल कर आर एस एस ने केंद्र में सत्ता स्थापित करने की रण नीति पर काम करना शुरू कर दिया था..
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को लामबंद करके सत्ता हासिल करने के नुस्खे को आर एस एस ने बार बार आजमाया है.यह भी पक्की बात है कि उसके बाद सत्ता भी मिलती है . लेकिन इस बार लगता है कि मनमोहन सिंह उनकी इस योजना की हवा निकालने का मन बना चुके हैं . आर एस एस ने पहले तो अन्ना हजारे को आगे करने की कोशिश की लेकिन सोनिया गाँधी ने उनको अपना बना लिया .बीजेपी के नेता बहुत निराश हो गए .अन्ना हजारे का इस्तेमाल मनमोहन सिंह के खिलाफ तो हो रहा है लेकिन वे बीजेपी के राजसूय यज्ञ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं . इस खेल के फेल होने पर बीजेपी अध्यक्ष ,नितिन गडकरी ने योग के टीचर रामदेव को आगे किया लेकिन भ्रष्टाचार की हर विधा में गले तक डूबे रामदेव अब उनकी जान की मुसीबत बने हुए हैं . इन सारे नहलों पर बुधवार को चुनिन्दा और वफादार संपादकों को बुलाकर प्रधान मंत्री ने भारी दहला मारा और साफ़ संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मंशा को वे उजागर कर देंगें . ज़ाहिर है इस संकेत में यह भी निहित है कि वे पब्लिक डोमेन यह सूचना भी डाल देने वाले हैं कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आर एस एस अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने के फ़िराक़ में है . जानकार समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को निहित स्वार्थों का एजेंडा साबित करने की कोशिश करके अपनी पार्टी के उन लोगों को भी धमकाने की कोशिश की है जो उनको राहुल गाँधी का नाम लेकर डराते रहते हैं . जहां तक बीजेपी का सवाल है उनको तो सौ फीसदी घेरे में लेने की योजना साफ़ नज़र आ रही है . जो भी हो अगले कुछ महीने साम्प्रदायिक राजनीति के विमर्श में इस्तेमाल होने वाले हैं . अगर प्रधानमंत्री ने देश की सेकुलर जमातों को अपना ,मकसद समझाने में सफलता हासिल कर ली तो एक बार बीजेपी फिर बैकफुट पर आ जायेगी.
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