इक्कीसवीं सदी के इस मुकाम पर पहुँच कर हम गर्व
से मस्तक ऊँचा कर खुद के पूरी तरह विकसित होने का ढिंढोरा पीटते तो दिखाई देते हैं
लेकिन सच में हमें आत्म चिंतन की बहुत ज़रूरत है कि हम वास्तव में विकसित हो चुके हैं
या विकसित होने का सिर्फ़ एक मीठा सा भ्रम पाले हुए हैं ।
विकास को सही अर्थों में नापने का क्या पैमाना होना
चाहिये ? क्या आधुनिक और कीमती परिधान पहनने
से ही कोई विकसित हो जाता है ? क्या परम्परागत जीवन शैली और नैतिकता
को अमान्य कर पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने से ही कोई विकसित हो जाता है
? क्या सामाजिक मर्यादा और पारिवारिक मूल्यों की अवमानना कर विद्रोह
की दुंदुभी बजाने का साहस दिखाने से ही कोई विकसित हो जाता है ? या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के दम्भ में अपने से पीछे छूट जाने वालों
को हिक़ारत और तिरस्कार की दृष्टि से देखने वालों को विकसित माना जा सकता है
? या फिर अकूत धन दौलत जमा कर बड़े बड़े उद्योग खड़े कर समाज के चन्द चुनिन्दा
धनाढ्य लोगों की श्रेणी में अपना स्थान सुनिश्चित कर लेने वालों को विकसित माना जा
सकता है ? या फिर वे लोग विकसित हैं जिन्होंने विश्व के अनेकों
शहरों में आलीशान कोठियाँ और बंगले बनवा रखे हैं और जो समाज के अन्य सामान्य वर्गों
के साथ एक मंच पर खड़े होने में भी अपना अपमान समझते हैं ? आखिर
हम विकास के किस माप दण्ड को न्यायोचित समझें ? यह तस्वीर भारत
के ऐसे बड़े शहरों की है जहाँ समाज के सबसे सभ्य और सम्पन्न समझे जाने वाले लोग रहते
हैं । लेकिन ऐसे ही विकसित और सभ्य लोगों के बीच जैसिका लाल हत्याकाण्ड, नैना साहनी हत्याकाण्ड, मधुमिता हत्याकाण्ड, बी. एम. डबल्यू काण्ड, शिवानी हत्याकाण्ड, निठारी काण्ड, आरुषी हत्याकाण्ड ऐसे ही और भी न जाने
कितने अनगिनत जघन्य काण्ड कैसे घटित हो जाते हैं ? इन घटनाओं
के जन्मदाता तो विकसित भारत का प्रतिनिधित्व करते जान पड़ते हैं । तो क्या ‘विकसित’
और ‘सभ्य’ भारतीयों की मानसिकता इतनी घिनौनी और ओछी है ? उनमें
मानवीयता और सम्वेदनशीलता का इतना अभाव है कि इस तरह की लोमहर्षक और रोंगटे खड़े कर
देने वाली वारदातें हो जाती हैं और बाकी सारे लोग निस्पृह भाव से मूक दर्शक बने देखते
रहते हैं कुछ कर नहीं पाते । क़्या सभ्य होने की हमें यह कीमत चुकानी होगी ?
तो क्या भौतिक सम्पन्नता को विकास का पैमाना मान लेना उचित होगा
?
भारत के छोटे शहरों की तस्वीर भी इससे कुछ अलग नहीं
है । सभ्य और सुसंस्कृत होने का दम्भ हमारे छोटे शहरों के लोगों को भी कम नहीं है और
विकास का झंडा वे भी बड़ी
शान से उठाये फिरते हैं । लेकिन यहाँ अशिक्षा, अंधविश्वास, पूर्वाग्रह और सड़ी गली रूढ़ियों ने अपनी जड़ें इतनी मजबूती से जमा रखी हैं कि
आसानी से उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है । शायद इसीलिये यहाँ 21वीं सदी के इस दौर
में भी जात पाँत और छूत अछूत का भेद भाव आज भी मौजूद है । आज भी यहाँ सवर्णो द्वारा
किसी दलित युवती को निर्वस्त्र कर गाँव में परेड करायी जाती है तो सारा गाँव दम साधे
चुप चाप यह अनर्थ होते देखता रहता है विरोध का एक भी स्वर नहीं फूटता । आज भी यहाँ
ठाकुरों की बारात में यदि कोई दलित सहभोज में साथ में बैठ कर खाना खा लेता है तो उसे
सरे आम गोली मार दी जाती है । आज भी यहाँ अबोध बालिकायें वहशियों की हवस का शिकार होती
रहती हैं और थोड़ी सी जमीन या दौलत के लिये पुत्र पिता का या भाई भाई का खून कर देता
है । तो फिर हम कैसे खुद को सभ्य और विकसित मान सकते हैं ? हमें
आत्म चिंतन की सच में बहुत ज़रूरत है । विकास भौतिक साधनों को जुटा लेने से नहीं आ जाता
। अपने विचारों से हम कितने शुद्ध हैं, अपने आचरण से हम कितने
सात्विक हैं, और दूसरों की पीड़ा से हमारा दिल कितना पसीजता है
यह विचारणीय होना चाहिये । अपने अंतर में झाँक कर देखने की ज़रूरत है कि निज स्वार्थों
को परे सरका कर हम दूसरों के हित के लिये कितने प्रतिबद्ध हैं, कितने समर्पित हैं । सही अर्थ में विकसित कहलाने के लिये मानसिक रूप से समृद्ध
और सम्पन्न होना नितांत आवश्यक है और इसके लिये ज़रूरी है कि हम अपनी सोच को बदलें
, अपने आचरण को बदलें और एक बेहतर समाज की परिकल्पना को साकार करने की
दिशा में कृत संकल्प हो जायें ।
सही अर्थ में विकसित कहलाने के लिये मानसिक रूप से समृद्ध और सम्पन्न होना नितांत आवश्यक है और इसके लिये ज़रूरी है कि हम अपनी सोच को बदलें .
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