Wednesday, November 30, 2011

कुछ बम-धमाकों की घटनाएँ एवं उनका विश्लेषण


 
1-  मालेगाँव का बम विस्फोट: लेफ़्टिनेंट कर्नल श्रीकांत, साध्वी प्रज्ञा सिंह  ठाकुर,
2- अजमेर दरगाह का बम विस्फोट: स्वामी असीमानंद, इंद्रेश कुमार (आरएसएस के वरिष्ठ नेता), देवेंद्र गुप्ता, साध्वी प्रज्ञा सिंह, सुनील जोशी, संदीप डांगे, रामचंद्र कलसांगरा उर्फ रामजी, शिवम धाक़ड, लोकेश शर्मा, समंदर, योगी आदित्यनाथ
3-    मक्का मस्जिद का बम विस्फोट: स्वामी असीमानंद एन्ड कंपनी
4-    समझौता एक्सप्रेस का बम विस्फोट: स्वामी असीमानंद एन्ड कंपनी
5-    नांदेड बम विस्फोट: संघ कार्यकर्ता राजकोंडवार
6- गोरखपुर का सिलसिलेवार बम विस्फोट: पुलिस ने कलकत्ता के एक आफ़ताब आलम अन्सारी है, को गिरिफतार किया था बाद मे कोर्ट से बा ईज्जत रिहा हुये
7-   मुंबई ट्रेन बम विस्फोट किन लोगो का षड्यंत्र था: आज तक सच सामने नही आया
8-    घाटकोपर में बेस्ट की बस में हुए बम विस्फोट: आज तक सच सामने नही आया
9-   वाराणसी बम विस्फोट किन लोगो का षड्यंत्र था: आज तक सच सामने नही आया
10- कानपुर बम विस्फोट: बजरंग दल कार्यकर्ता, भूपेन्द्र सिंह छावड़ा और राजीव मिश्रा

संघ और अन्ना के रिश्ते पुराने हैं, अन्ना संघ का था और संघ का ही रहेगा – मोहन भागवत


 
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राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि अन्ना हजारे संघ के साथ थे और संघ के साथ  ही रहेंगे | मोहन भागवत के इस बयान से सनसनी फ़ैल गयी है , भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन को तगड़ा झटका देते हुए संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने  कोलकाता में स्वयंसेवकों की एक रैली को संबोधित करते हुए उनसे पुराना रिश्ता होने की बात कही । संघ प्रमुख ने कहा कि संघ ने ही अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू करने के लिए कहा था। उन्होंने यह भी कहा कि अन्ना हजारे ने स्वयसेवकों को ट्रेनिंग भी दी थी |
मोहन भागवत के इस बयान से कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के आरोपों को ताकत मिलती है जिसमे उन्होंने अन्ना हजारे को आर एस एस का आदमी बताया है | पिछले काफी समय से दिग्विजय सिंह अन्ना हजारे के आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन वाला बताते आरहे हैं और आज आर एस एस प्रमुख का ये बयान उनके आरोपों पर मोहर लगाने जैसा है | अपने भाषण में भागवत ने कहा  कि संघ के कार्यकर्ता रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार की लड़ाई में अन्ना के समर्थन में गए थे। भागवत ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामले पर अन्ना को समर्थन जारी रहेगा। उन्होंने कहा कि संघ के संघी को संघ की ओर से कोई अन्ना के समर्थन में जाने को दबाव नहीं डाला गया था। सिर्फ उनसे कहा गया था कि जो रामलीला मैदान जाना चाहते हैं वो जा सकते हैं और जो नहीं जाना चाहते हैं वो नहीं जाएं।

Tuesday, November 29, 2011

ये शिक्षा के दुश्मन मुसलमान नहीं


 
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अफगानिस्तान तथा अफगान-पाक सीमांत क्षेत्र वज़ीरिस्तान के इलाकों से प्राय: ऐसी खबरों आती रहती हैं कि कट्टरपंथी तालिबानों द्वारा कहीं शिक्षण संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया गया तो कहीं स्कूल जाने वाले बच्चों पर ज़ुल्म ढाए गए। स्वयं को मुसलमान बताने वाली यह शक्तियां मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने तथा उन्हें स्कूल भेजे जाने की तो खासतौर पर विरोधी हैं।

 एक अनुमान के मुताबिक़ बीते पांच वर्षों में शिक्षा का विरोध करने वाले इन तालिबानों द्वारा पांच सौ से अधिक शिक्षण सस्थाओं व स्कूलों को निशाना बनाया जा चुका है। शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चों पर ज़ुल्म ढाने के अपने क्रम के दौरान गत् 13 सितंबर को उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान के पेशावर शहर के बाहरी क्षेत्र मथानी में खैबर मॉडल स्कूल की बच्चों को स्कूल ले जा रही एक वैन पर हमला किया गया। इस हमले में पांच शिक्षार्थी बच्चों को इन क्रूर तालिबानों ने गोली मारकर शहीद कर दिया।

पिछले दिनों इस्लामाबाद से 75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक स्कूल भवन को इन्हीं शक्तियों द्वारा विस्फोट से उड़ा दिया गया। गौरतलब है कि तालिबानी संगठन इस प्रकार के हमलों की खुलकर जि़म्मेदारी भी लेते हैं तथा आगे भी शिक्षा का विरोध करते रहने तथा भविष्य में ऐसे हमले जारी रखने की भी चेतावनी देते रहते हैं। ज़ाहिर है इनके इस मिशन का मकसद सिर्फ यही है कि मुस्लिम समाज के लोग खासतौर पर मुसलमान लड़कियां शिक्षा ग्रहण न कर सकें।

प्रश्र यह है कि क्या इस्लाम धर्म, कुरान शरीफ या पैगंबर-ए-रसूल हज़रत मोहम्मद साहब की कोई हदीस मुसलमानों को शिक्षा दिए जाने का विरोध करने की हिदायत देती है? या फिर इस प्रकार का घिनौना व अमानवीयतापूर्ण क्रूर प्रदर्शन इन तालिबानों द्वारा अपने गढ़े हुए इस्लाम के कारण है? मोहम्मद साहब का कथन है कि जिसके पास बेटी हो उसकी तौहीन न करें बल्कि उसे बेटे से कम न समझें। ऐसा समझने वाले को अल्लाह जन्नत से नवाज़ेगा। इस्लाम में औरतों की शिक्षा को इसलिए महत्व दिया गया है क्योंकि शिक्षित नारी से ही घर बनता है तथा समाज का विकास होता है।

ज़ाहिर है घर ही बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है। नारी की शिक्षा के बिना समाज में किसी प्रकार का विकास संभव नहीं है। वास्तविक इस्लामी शिक्षा न सिर्फ महिलाओं सहित संपूर्ण समाज को शिक्षित किए जाने की पक्षधर है बल्कि वास्तविक इस्लाम अमन व सलामती का भी संदेश देता है। शिक्षा का महत्व इस समय केवल सामाजिक उत्थान के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं इस्लाम धर्म की सुरक्षा के लिए भी शिक्षा अत्यंत ज़रूरी है।

 परंतु बड़ी अजीब सी बात है कि शिक्षा का विरोध करने वाले वह तथाकथित मुसलमान आतंकवादी हैं जो स्वयं तो अफीम का धंधा कर धन इकठ्ठा  करते हैं, फिर उसी धन से हथियार मुहैया करते हैं और उन हथियारों से बेगुनाह लोगों की जान लेते हैं। यही लोग बच्चों को स्कूल जाने से रोकते हैं, स्कूल भवन को विस्फोटों से उड़ाते हैं और स्कूल जाने वाले बच्चों को कत्ल कर देते हैं। जो इस्लाम किसी एक बेगुनाह व्यक्ति के कत्ल को पूरी मानवता के कत्ल की संज्ञा देता हो, वह इस्लाम इन दहशतगर्दों के इस प्रकार के काले कारनामों का जि़म्मेदार कैसे हो सकता है?
इस प्रकार के तालिबानी आतंकी मुसलमान तो क्या इंसान कहे जाने के योग्य भी नहीं हैं। आज दुनिया में इस्लाम फैलने का कारण तालिबानी प्रवृति की कारगुज़ारियां नहीं बल्कि हज़रत मोहम्मद का उदार स्वभाव, उनका चरित्र तथा आपसी प्रेम व भाईचारे की शिक्षा का प्रचार-प्रसार है। परंतु इसी इस्लाम के नाम पर कुछ स्वयंभू इस्लामी ठेकेदारों ने अपनी साम्राज्यवादी रणनीति के अंतर्गत् तथा अपने स्वार्थवश इस्लाम को इस प्रकार से पेश करना शुरु कर दिया है कि वही इस्लाम धर्म इन्हीं तालिबानों की क्रूरतापूर्ण हरकतों के कारण आज आतंक व बदनामी का पर्याय बनता जा रहा है।

इस्लाम में यह बात बहुत ज़ोर देकर कही गई है कि एक पढ़ी-लिखी औरत पूरे समाज को शिक्षित कर सकती है। पैगम्बर-ए-इस्लाम हज़रत मोहम्मद साहब ने फरमाया है कि जो शख्स बेटियों या बहनों का पालन-पोषण कर उन्हें अच्छी तालीम देता है और उनकी शादी बेहतर ढंग से करता है, अल्लाह उसको जन्नत अता फरमाता है। इस्लाम धर्म में केवल अपनी संतानों को ही नहीं बल्कि प्राचीन प्रथा में प्रचलित कनीज़ों (गुलाम महिलाओं)अथवा बांदियों की भी शिक्षा-दीक्षा देने का निर्देश दिया गया है।

यहां एक प्रश्न यह भी है कि जब इस्लाम एक विश्वव्यापी धर्म है तथा इसकी शिक्षाएं भी संपूर्ण मुस्लिम जगत के लिए एक जैसी हैं तो आखिर  भारतीय मुस्लिम धर्मगुरुओं के फतवों तथा तालिबानी आतंकवादियों द्वारा शिक्षा का विरोध किए जाने जैसे विचारों में इतना अंतर्विरोध क्यों है? भारत में इस समय देश के अधिकांश मदरसों में भी आधुनिक व उपयोगी शिक्षा ग्रहण करने पर ज़ोर दिया जा रहा है।

प्रत्येक वर्ष भारत की सर्वप्रमुख एवं सर्वाच्च सेवा परीक्षा समझे जाने वाली संघ लोक सेवा आयोग (यू पी एस सी) की परीक्षा में जहां कई मुस्लिम छात्रों की सफलता के समाचार मिलते हैं, वहीं गत् वर्ष देवबंद जैसे इस्लामी धार्मिक शिक्षण संस्थान के एक छात्र द्वारा भी इस परीक्षा में सफलता हासिल किए जाने का समाचार है। गत् वर्ष तो जम्मू-कश्मीर के एक छात्र शाह फैसल ने इसी यूपीएससी परीक्षा में देश में प्रथम स्थान प्राप्त कर भारतीय मुसलमानों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। शाह फैसल की पृष्ठभूमि भी कुछ अजीबोगरीब थी। उसके पिता की जहां आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी, वहीं उसकी शिक्षिका मां ने उसे पढ़ाई करने तथा यूपीएस सी की परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। 

दो दशकों से अफगानिस्तान व वज़ीरिस्तान क्षेत्र में खासतौर पर शिक्षा को लेकर जहालत, क्रूरता व बर्बरता का जो तांडव देखने को मिल रहा है, वह निश्चित रूप से न सिर्फ इस्लाम बल्कि पूरी इंसानियत को कलंकित करने वाला है। अफीम की आय पर पलने वाले यह तालिबान खुद तो नशे के कारोबार में पलते हैं जोकि कतई तौर पर गैर इस्लामी हैं। इस्लामी शिक्षाओं के मुताबिक़ तो नशीली चीज़ों के कारोबार की कमाई हुई रोटी भी हराम है न कि अधिकांश तालिबानी समाज इसी धंधे को अपने जीविकोपार्जन का मुख्य ज़रिया समझता है।

इन तालिबानों की रोज़मर्रा की हरकतों में औरतों को सरेआम बेइज़्ज़त करना, उनपर सार्वजनिक रूप से ज़ुल्म ढाना, उनकी हत्याएं करना, मानव बम बनाना तथा मानव बमों को इस्तेमाल करते हुए बेगुनाह लोगों को मारना आदि शामिल हैं। यह क्रूर तालिबानी इस प्रकार के गैर इस्लामी व मानवता विरोधी कार्य करके जहन्नुम के हकदार बनते हैं तथा साथ-साथ इस्लाम को भी कलंकित करते हैं।

Monday, November 28, 2011

पाकिस्तान का साम्राज्यवादियों के साथ रहने का हश्र



पाकिस्तान के बनने के बाद से ही वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ रहा है। साम्राज्यवादियों ने पाकिस्तान के विकास को पूरी तरह से अवरुद्ध किया और आर्थिक रूप से अपना गुलाम बना लिया। अफगानिस्तान के बहाने अब वह पाकिस्तान की संप्रभुता को पूरी तरह से नष्ट करने पर तुला हुआ है। जिसकी परिणिति ओसामा के एनकाउन्टर के रूप में हुई है और हद तो तब हो गयी कि जब अभी नाटो सेनाओं ने 28 पाकिस्तानी सैनिको को मार गिराया। इस नाटो हमले में काफी सैनिक घायल भी हुए हैं। पाकिस्तान बेचारा कर भी क्या सकता है। विरोध जताया उधर से माफ़ी नामा तुरंत आ गया। ब्रिटिश भारत में भी जिस राजा को तुरंत परास्त नही किया जा सकता था। उसके साथ भी इसी तरह की हरकतें ब्रिटिश साम्राज्यवादी करते थे और जब राजा विरोध करता था तो माफ़ी मांग लेते थे और फिर उसके बाद ब्रिटिश सेनायें के ताकतवर होते ही उस राज्य को अपने में मिला लेते थे।
पाकिस्तान के पास अमेरिकियों व नाटो सेनाओं से बचने का कोई विकल्प बाकी है तो वह चीन के साथ दोस्ती ही है। चीन की दोस्ती से उसकी लाज शायद ही बच सके क्यूंकि चीन भी उसकी रक्षा करने के लिये युद्ध में जाना पसंद नही करेगा।
साम्राज्यवाद मगरमच्छ है प्रतिदिन उसको भोजन के लिये मगरमच्छ की तरह मांस की आवश्यकता है। साम्राज्यवाद प्राकृतिक स्रोत्रों के दोहन के लिये उसको दुनिया के अधिकांश देशों को गुलाम बनाना उसकी मजबूरी है। भोजन के लिये दोस्त और दुश्मन का फर्क यहीं ख़त्म हो जाता है।

नेहरू : गयासुद्दीन गाजी के वंशज


जवाहरलाल नेहरू
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जम्मू-कश्मीर में आए महीनों हो गए थे, एक बात अक्सर दिमाग में खटकती थी कि अभी तक नेहरू के खानदान का कोई क्यों नहीं मिला, जबकि हमने किताबों में पढ़ा था कि वह कश्मीरी पंडित थे। नाते-रिश्तेदार से लेकर दूरदराज तक में से कोई न कोई नेहरू खानदान का तो मिलना ही चाहिए था। नेहरू राजवंश कि खोज में सियासत के पुराने खिलाडिय़ों से मिला लेकिन जानकारी के नाम पर मोतीलाल नेहरू के पिता गंगाधर नेहरू का नाम ही सामने आया। अमर उजाला दफ्तर के नजदीक बहती तवी के किनारे पहुंचकर एक दिन इसी बारे में सोच रहा था तो ख्याल आया कि जम्मू-कश्मीर वूमेन कमीशन की सचिव हाफीजा मुज्जफर से मिला जाए, शायद वह कुछ मदद कर सके।

अगले दिन जब आफिस से हाफीजा के पास पहुंचा तो वह सवाल सुनकर चौंक  गई। बोली पंडित जी आप पंडित नेहरू के वंश का पोस्टमार्टम करने आए हैं क्या? कश्मीरी चाय का आर्डर देने के बाद वह अपने बुक रैक से एक किताब निकाली, वह थी रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज कि किताब "ए लैम्प फार इंडिया- द स्टोरी ऑफ मदाम पंडित।" उस किताब मे तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा था, जिसके अनुसार गंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान थे जिनका असली नाम था गयासुद्दीन गाजी।

इस फोटो को दिखाते हुए हाफीजा ने कहा कि इसकी पुष्टि के लिए नेहरू ने जो आत्मकथा लिखी है, उसको पढऩा जरूरी है। नेहरू की आत्मकथा भी अपने रैक से निकालते हुए एक  पेज को पढऩे को कहा।  इसमें एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगाधर थे। इसी तरह जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत बहादुरशाह जफर के समय में नगर कोतवाल थे। अब इतिहासकारो ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफर के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था। और खोजबीन करने पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे। लेकिन किसी गंगाधर नाम के व्यक्ति का कोई रिकार्ड नहीं मिला है। नेहरू राजवंश की खोज में मेहदी हुसैन की पुस्तक बहादुरशाह जफर और 1857 का गदर में खोजबीन करने पर मालूम हुआ।

गंगाधर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर के डर से बदला गया था, असली नाम तो था गयासुद्दीन गाजी। जब अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था तब मुगलों और मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था। जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं। अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे जो हिन्दू राजाओं-पृथ्वीराज चौहान ने मुसलमान आक्रांताओं को जीवित छोडकर की थी, इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया। लेकिन कुछ  मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाकों मे चले गये थे। उसी समय यह परिवार भी आगरा की तरफ कूच कर गया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगाधर को अंग्रेजों ने रोककर पूछताछ की थी लेकिन तब गंगाधर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया बाकी तो इतिहास है ही। यह धर उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है और इसी का अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह दर या डार हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है। लेकिन मोतीलाल ने नेहरू उपनाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे। इतने पीछे से शुरुआत करने  का मकसद सिर्फ  यही है कि हमें पता चले कि खानदानी लोगों कि असलियत क्या होती है।

आनंद भवन नहीं इशरत मंजिल: एक कप चाय खत्म हो गयी थी, दूसरी का आर्डर हाफीजा ने देते हुए के एन प्राण कि  पुस्तक द नेहरू डायनेस्टी निकालने के बाद एक पन्ने को पढऩे को दिया। उसके अनुसार जवाहरलाल मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर। यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू। कमला नेहरू उनकी माता का नाम था। जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी। कमला शुरु से ही इन्दिरा के फिरोज से विवाह के  खिलाफ थीं क्यों यह हमें नहीं बताया जाता। लेकिन यह फिरोज गाँधी कौन थे? फिरोज उस व्यापारी के बेटे थे जो आनन्द भवन में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था।

आनन्द भवन का असली नाम था इशरत मंजिल और उसके मालिक थे मुबारक अली। मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे। सभी जानते हैं की राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के  नाना के  साथ ही दादा भी तो होते हैं। फिर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या थाकिसी  को  मालूम नहीं, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान। एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाई करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में। नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया। फिरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था घांदी (गाँधी नहीं) घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था। विवाह से पहले फिरोज गाँधी ना होकर फिरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था। 

हमें बताया जाता है कि फिरोज गाँधी पहले पारसी थे यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है। इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं। शांति निकेतन में पढ़ते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था। अब आप खुद ही सोचिये एक तन्हा जवान लडक़ी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पड़ी हुई हों थोड़ी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी?

इंदिरा गांधी या मैमूना बेगम: इसी बात का फायदा फिरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली। नाम रखा मैमूना बेगम। नेहरू को  पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए लेकिन  अब क्या किया जा सकता था। जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को  मिली तो उन्होंने नेहरू को  बुलाकर समझाया। राजनैतिक छवि की  खातिर फिरोज को  मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले, यह एक  आसान काम  था कि एक  शपथ पत्र के जरिये बजाय धर्म बदलने के  सिर्फ  नाम बदला जाये तो फिरोज खान घांदी बन गये फिरोज गाँधी। विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और सत्य के  साथ मेरे प्रयोग नामक आत्मकथा लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक नहीं नहीं किया। 

खैर, उन दोनों फिरोज और इन्दिरा को  भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुन: वैदिक  रीति से उनका विवाह करवाया गया ताकि  उनके  खानदान की ऊँची नाक का भ्रम बना रहे। इस बारे में नेहरू के सेकेरेटरी एम.ओ. मथाई अपनी पुस्तक प्रेमेनिसेन्सेस ऑफ  नेहरू एज (पृष्ठ 94 पैरा 2 (अब भारत में प्रतिबंधित है किताब) में लिखते हैं कि पता नहीं क्यों नेहरू ने सन 1942 में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक  विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी जबकि उस समय यह अवैधानिक था का कानूनी रूप से उसे सिविल मैरिज होना चाहिये था । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फि रोज अलग हो गये थे हालाँकि तलाक  नहीं हुआ था। फिरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान  किया करते थे और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे। तंग आकर नेहरू ने फिरोज के  तीन मूर्ति भवन मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। मथाई लिखते हैं फिरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बड़ी राहत मिली थी। 1960 में फिरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी जबकी  वह दूसरी शादी रचाने की  योजना बना चुके  थे।

संजय गांधी और इंदिरा: संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था। ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था, इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था। अफवाहें यह भी है कि संजय गांधी इंदिरा गांधी के उनके सचिव युनुस खान से संबंधों के सच थे यह बात संजय गांधी को पता थी। अब संयोग पर संयोग देखिये संजय गाँधी का विवाह मेनका आनन्द से हुआ। कहा जाता है मेनका जो कि एक सिख लडक़ी थी संजय की रंगरेलियों की वजह से उनके पिता कर्नल आनन्द ने संजय को  जान से मारने की धमकी दी थी फि र उनकी शादी हुई और मेनका का  नाम बदलकर मानेका किया गया क्योंकि इन्दिरा गाँधी को  यह नाम पसन्द नहीं था। फिर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ एक तौलिये में विज्ञापन किया था। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को  ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कामो पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने कि छूट दी।

सन्यासिन का सच: एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ 206 पर लिखते हैं - 1948 में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था। वह संस्कत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे। वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृत की अच्छी जानकार थी। नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी. उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए। चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था। नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये। मथाई के शब्दों में एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा वह बहुत ही जवान खूबसूरत और दिलकश थी। एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं।

नवम्बर 1949 में बेंगलूर के एक कान्वेंट से एक  सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया। उसने कहा कि उत्तर भारत से एक  युवती उस कान्वेंट में कुछ  महीने पहले आई थी और उसने एक  बच्चे को जन्म दिया। उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को  वहाँ छोडकर गायब हो गई थी। उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया। मथाई लिखते हैं। मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफी कोशिश की लेकिन कान्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस जो कि एक विदेशी महिला थी बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक  शब्द भी किसी से नहीं क हा लेकिन मेरी इच्छा थी  कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कथोलिक संस्कारो में बड़ा करूँ चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था। नेहरू राजवंश की कुंडली जानने के बाद घड़ी की तरफ देखा तो शाम पांच बज गए थे, हाफीजा से मिली ढेरों प्रमाणिक जानकारी के लिए शुक्रिया अदा करना दोस्ती के वसूल के खिलाफ था, इसलिए फिर मिलते हैं कहकर चल दिए।

(दिनेश चंद्र मिश्र लखनऊ में रहनेवाले पत्रकार हैं। यह खोजबीन उन्होंने अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान की है)

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जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री

जन्म      - 14 नवंबर 1889           
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु      - 27 मई 1964
राजनैतिक दल - कांग्रेस
जीवन संगी      - कमला नेहरू

जवाहर लाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद में एक धनाढ्य वकील मोतीलाल नेहरू के घर हुआ था। उनकी माँ का नाम स्वरूप रानी नेहरू था। वह मोतीलाल नेहरू के इकलौते पुत्र थे। इनके अलावा मोती लाल नेहरू को तीन पुत्रियां थीं। नेहरू कश्मीरी वंश के सारस्वत ब्राह्मण थे। जवाहरलाल नेहरू ने दुनिया के कुछ बेहतरीन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की थी।

उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा हैरो से, और कॉलेज की शिक्षा ट्रिनिटी कॉलेज, लंदन से पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने अपनी लॉ की डिग्री कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पूरी की। इंग्लैंड में उन्होंने सात साल व्यतीत किए जिसमें वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया। जवाहरलाल नेहरू 1912 में भारत लौटे और वकालत शुरू की। 1916 में उनकी शादी कमला नेहरू से हुई। 1917 में जवाहर लाल नेहरू होम रूल लीग में शामिल हो गए। राजनीति में उनकी असली दीक्षा दो साल बाद 1919 में हुई जब वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए। उस समय महात्मा गांधी ने रॉलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय लेकिन शांतिपूर्ण, सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे आकर्षित हुए। गांधी ने भी युवा जवाहरलाल नेहरू में भारत का भविष्य देखा और उन्हें आगे बढने के लिए प्रेरित किया। नेहरू ने महात्मा गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। जवाहरलाल और मोतीलाल नेहरू ने पश्चिमी कपडों और महंगी संपत्ति का त्याग कर दिया। वे अब एक खादी कुर्ता और गाँधी टोपी पहनने लगे।

जवाहर लाल नेहरू ने 1920-1922 में असहयोग आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया और इस दौरान पहली बार गिरफ्तार किए गए। कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो वर्ष तक सेवा की। यह उनके लिए एक मूल्यवान प्रशासनिक अनुभव था जो उन्हें तब काम आया जब वह देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने कार्यकाल का इस्तेमाल सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार, स्वास्थ्य की देखभाल और स्वच्छता के लिए किया।

1926 में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया. 1926 से 1928 तक, जवाहर लाल ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का समर्थन किया।

मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने  के लिए दो साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।

दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें भारत की स्वतंत्रता की मांग की गई। 26 जनवरी, 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया. जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 प्रख्यापित किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लडऩे का फैसला किया। नेहरू चुनाव के बाहर रहे लेकिन ज़ोरों के साथ पार्टी के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया।

कांग्रेस ने लगभग हर प्रांत में सरकारों का गठन किया और केन्द्रीय असेंबली में सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की। नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 1936, 1937 और 1946 में चुने गए थे, और राष्ट्रवादी आंदोलन में गांधी के बाद द्वितीय स्थान हासिल किया। उन्हें 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 1945 में छोड दिया गया। 1947 में भारत और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में महत्वपूर्ण भागीदारी की। 1947 में वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया।

जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. उन्होंने योजना आयोग का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई।.जवाहर लाल नेहरू ने जोसेफ ब्रॉज टीटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक निर्गुट आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद सुलझाने, और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे।

पश्चिम बर्लिन, ऑस्ट्रिया, और लाओस के जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में पर्दे के पीछे रह कर भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्हें वर्ष 1955 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया। लेकिन नेहरू पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान के साथ एक समझौते तक पहुँचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में सीमा विवाद रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन 1962 में चीन ने धोखे से आक्रमण कर दिया। नेहरू के लिए यह एक बड़ा झटका था और शायद उनकी मौत भी इसी कारण हुई। 27 मई, 1964 को जवाहरलाल नेहरू को दिल का दौरा पडा जिसमें उनकी मृत्यु हो गई.

Saturday, November 26, 2011

लिए कटोरा हाथ में


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भारत में प्राइवेट विमानन कंपनियों के सी.ई.ओ प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ बैठक की और बैठक में जेट ऐयरवेज के नरेश गोयल, इंडिगो राहुल भाटिया, स्पाईस जेट नील मील, गो एयर के जे वाडिया ने ए.टी.ऍफ़ (विमान ईधन) में छूट की मांग की तथा विमानन कंपनियों में विदेशी निवेश की अनुमति मांगी। इस बैठक में विमानन मंत्री वायलर रवि भी शामिल थे। विजय माल्या से लेकर प्राइवेट हेड की सभी विमानन कम्पनियाँ घाटे का रोना रोकर घोषित व अघोषित रूप से बेल आउट पैकेज की मांग कर रही हैं।
भारत में इससे पहले निजी कम्पनियाँ घाटा दिखा कर उनका सरकारीकरण करने की माहिर रही हैं। जब किसी कारखाने की उत्पादन क्षमता समाप्त हो जाती है। तब उद्योगपति उन कारखानों को एक तरह से छोड़ देता है क्यूंकि उस कारखाने पर उसकी लागत मूल्य से ज्यादा सरकारी बैंको का कर्जा लदा हुआ होता है और विभिन्न सरकारी विभागों का करोडो रुपये टैक्स बाकी रहता है मजबूरी में सरकार उस कारखाने का सरकारीकरण करती रही है और अब इन उद्योगपतियों ने सीधे-सीधे कटोरा हाथ में लेकर सरकारों से बेल आउट पैकेज की मांग करनी शुरू कर दी है। मुनाफा हो तो इनका, घाटा हो तो सरकार का।
सार्वजानिक क्षेत्र में अगर भ्रष्टाचार समाप्त कर दिया जाये और सारे संपादन का दायित्व निश्चित कर दिया जाए तो इससे बेहतर उत्पादन प्रक्रिया कोई नहीं है। भाप की ताकत की खोज के बाद उत्पादन प्रक्रिया में जो तेजी आई है उसमें जब तक मुनाफा होता रहा है तबतक इन कंपनियों के डायलाग सार्वजानिक क्षेत्र के खिलाफ होते रहे हैं। जब इनके फ्राडों की वजह से मंदी का दौर आता है तो यह कटोरा लिए हुए सरकार के सामने खड़े होते हैं।

संवैधानिक पद पर बैठे मुख्यमंत्री के असंवैधानिक विचार

''स्कूलों में हर हाल में देंगे गीता का ज्ञान।'' - शिवराज सिंह चौहान
 
 क्या कोई व्यक्ति जिसकी रक्षा की कसम खाता है उसी की हत्या कर सकता है???

               मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगभग यही कर रहे हैं। शिवराज सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री है। प्रत्येक मंत्री चाहे वह केन्द्र का हो या राज्य का उसे राष्ट्रपति या राज्यपाल शपथ दिलाते हैं। इस शपथ के बाद ही कोई व्यक्ति मंत्री बन सकता है। उस शपथ के अनुसार मंत्रियों पर संविधान की रक्षा कर उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। हमारे संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। संविधान के अनुसार राजसत्ता का कोई अपना धर्म नहीं होगा। उसके विपरीत संविधान भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने का अधिकार प्रदान करता है।

                शिवराज सिंह चौहान ने दिनांक 13 नवंबर को इंदौर में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा कि वे ''स्कूलों में हर हाल में देंगे गीता का ज्ञान।'' उन्होंने यह भी कहा कि यदि इससे किसी को तकलीफ होती है तो होती रहे। चौहान ने कहा कि स्कूलों में हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ ''गीता'' का ज्ञान जरूर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि ''जब भी स्कूलों में गीता पढ़ाने की बात करते हैं तो कुछ लोगों को बड़ी तकलीफ होती है। अगर इससे उन लोगों को तकलीफ होती है तो होती रहे हम बच्चों को गीता का ज्ञान हर हाल में देकर रहेंगे।''

               मुख्यमंत्री ने उस संविधान की रक्षा करने की शपथ ली है जो पंथ निरपेक्ष (या धर्म निरपेक्ष) है। पंथ निरपेक्ष संविधान होने के कारण राजसत्ता किसी भी धार्म के प्रचार प्रसार नहीं कर सकती। हाँ संविधान प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता की गांरटी अवश्य देता है। मुख्यमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि गीता हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ है। इस स्वीकार्यता से कि गीता हिन्दू ग्रन्थ है और उसका सार स्कूल के बच्चों को बताया जाएगा तो यह हिन्दू धर्म का प्रत्यक्ष प्रचार होगा जिसकी संविधान में  मनाही है। इसके बावजूद भी यदि मध्यप्रदेश के स्कूलों में सरकार के आदेश के अनुसार गीता पढ़ाई जाती है तो वह स्पष्टत: संविधान का उल्लंघन होगा। एक मंत्री (एक प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री समेत) मंत्री पद स्वीकार करते हुये तो संविधान की रक्षा की शपथ तो लेता ही है उसके पूर्व भी वह दो बार संविधान के प्रति अपनी प्रतिबध्दता की शपथ लेता है। ऐसा वह चुनाव के पूर्व अपनी उम्मीदवारी का पर्चा दाखिल करते समय करता है। उसके विधायक या सांसद चुने जाने पर उसे स्पीकर भी ऐसी शपथ दिलवाता है उसके बाद यदि वह मंत्री बन जाता है तो पुन: संविधान की रक्षा की शपथ लेता है। जिस व्यक्ति ने संविधान की रक्षा की शपथ ली हो वहीं यदि संविधान के विपरीत आचरण करता है तो वह उस पद पर बने रहने की पात्रता खो देता है। मुख्यमंत्री ने यह घोषणा करके कि वह हर हालत में हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ ''गीता'' का ज्ञान स्कूलों के बच्चों को देंगे मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने की पात्रता खो दी है।


 मुख्यमंत्री ने अपने भाषण में संविधान में निहित ''सेक्यूलरिज्म'' (धर्मनिरपेक्ष) की परिभाषा को चुनौती है। संविधान की मंशा के अनुसार राजसत्ता न तो  किसी विशेष धर्म को संरक्षण देगी और न ही वह किसी धर्म विशेष का प्रचार करेगी। संविधान में कतई देश के सभी नागरिकों को उसी तरह धर्म निरपेक्ष बनाने की मंशा नहीं है जैसी राजसत्ता को बनाया गया है। एक ऐसा देश होने के जिसमें अनेक धर्मों के मानने वाले रहते हैं, राजसत्ता का धर्म के मामले में तटस्थ रहने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं था। संविधान निर्माताओं ने इसी रास्ते को चुना और चूँकि यह रास्ता चुना गया था इसलिए भारत के राष्ट्र एक रूप में अस्तित्व में है। इसलिए यदि राजसत्ता सेक्यूलरिज्म की वर्तमान परिभाषा  को त्यागकर अन्य परिभाषा को स्वीकार करती है तो इससे संविधान की नींव कमजोर होगी। इंदौर में मुख्यमंत्री सरस्वती शिशु मंदिरों के शिक्षकों के सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने अपने संबोधन में सरस्वती शिशु मंदिर को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया। सरस्वती शिशु मंदिरों का संचालन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है। इन शिक्षण संस्थाओं का उपयोग संघ की विचारधारा के प्रचार के लिए किया जाता है। सरस्वती मंदिरों में कुछ ऐसी पुस्तके पढ़ाई जाती है जिनमें दूसरे धर्मों के प्रति घृणा फैलाने वाली बातें शामिल हैं। विशेषकर इस्लाम और ईसाई धर्म के बारे में भ्रामक बातें बताई जाती हैं। फिर इन पुस्तकों में ऐसी बातें भी शामिल हैं जो इतिहास को तो छोड़ दें किवन्दती को भी तोड़ मरोड़ कर पेश करती हैं। जैसे राम मंदिर किसने बनवाया इस प्रश्न को उत्तर में बताया गया कि राम मंदिर राम के पुत्र लवकुश ने बनवाया है। क्या इस तथ्य पर भरोसा किया जा सकता है। फिर उन पुस्तकों में ऐसी बातें है जो तर्क एवं अनुभव के माप-दंड़ पर खरी नहीं उतरती है जैसे एक किताब में उल्लेख है कि गंगा का पानी वर्षों बोतल में रखने के बाद खराब नहीं होता है। क्या इस तरह के शिक्षा संस्थाओं को संविधान सम्मत सरकार द्वारा ''हर संभव सहायता'' दी जानी चाहिए।  

हमारे संविधान में जहां नागरिकों को अधिकार दिये गये है वही उनसे कुछ कर्तव्यों के पालन की अपेक्षा भी की गई है। इनमें एक कर्तव्य यह है कि नागरिकों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानर्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना चाहिए। इसलिए यदि किसी शिक्षा संस्थान में ऐसी बातें पढ़ाई जाती हैं जिनसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में बाधा पड़ती है तो ऐसी शिक्षा संस्थान को सरकारी सहायता कतई नहीं दी जानी चाहिए। ऐसा करना भी संविधान की मंशा के विपरीत होगा। वैसे यह वास्तविकता है कि शिवराज सिंह चौहान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रशिक्षित राजनीतिज्ञ है परंतु उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वह राज्य पर संघ की विचारधारा लादें।

Saturday, November 19, 2011

चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?

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भारत सरकार हाल के दिनों में लगातार असंगठित मजदूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना का ढोल पीटती रही है। इसने नयी पेंशन योजना बनायी है, जिसमें कामगारों की योगदान राशि को निश्चित किया गया है, किंतु पेंशन कितना मिलेगा, इसका कोई आश्वासन नहीं है। नीचे कतिपय बीड़ी कामगारों की सूची और उन्हें मिलनेवाले पेंशन रकम उल्लिखित है, जिनसे पता चलता है कि कामगार पेंशन योजना 1995 के अंतर्गत किस प्रकार दृरिद्रों को मिलनेवाले पेंशन से भी कम मजदूरों का पेंशन निर्धारित किया गया है। उड़ीसा के बीड़ी मजदूर बिजली पटेल का पेंशन 4 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। क्या यह पेंशन योजना का मजाक नहीं है?
पेंशनरों के नाम     पेंशन रकम    एफ एकाउंट नंबर           प्रदेश
बिजली पटेल             4/-         ओआर438/705              उड़ीसा
मल्लाम्मा               66/-       एपी/5276/14950           आंध्र प्रदेश
के. राजेश्वरी             42/-        एपी/5276/14903          आंध्र प्रदेश
इला बाई                42/-       एपी/5276/14908           आंध्र प्रदेश
वेंकट लक्ष्मी             64/-       एपी/5276/14944           आंध्र प्रदेश
इमाम बी               92/-        एपी/5276/14932          आंध्र प्रदेश
वी. राजेश्वरी             55/-        एपी/5276/14892          आंध्र प्रदेश
राजू                    66/-        एपी/5207/6640           आंध्र प्रदेश
वीरालक्ष्मी               54/-        एपी/5276/14318          आंध्र प्रदेश
आरूधाम                47/-        टीएन/8213/1549           तमिलनाडु
रामायी                 93/-        टीएन/8213/1522           तमिलनाडु
सागर                  90/-        टीएन 19844/91            तमिलनाडु
एम. मुरगन             72/-       टीएन 21270/2634           तमिलनाडु
मुरगन                 94/-         टीएन 9627/98             तमिलनाडु
जय लक्ष्मी              69/-        टीएन 23092/120           तमिलनाडु
मो. मेहबुबिया           134/-        एपी/5276/14880           आंध्र प्रदेश
...............             116/-        एपी/8213/1563            आंध्र प्रदेश
चौ. कट्टक्का             197/-       एपी/5276/14953           आंध्र प्रदेश
एम. मल्लम्मा           114/-       एपी/5276/14902           आंध्र प्रदेश
इंदराम                 120/-       टीएन 8213/1549          तमिलनाडु
सेमिउल्लाह             132/-        टीएन 19844/132          तमिलनाडु
अल्लाबकश             163/-        टीएन 18420/17           तमिलनाडु
एम. राजी              107/-        टीएन 21270/279          तमिलनाडु
वी.पी.  समराज         184/-        टीएन 18787/94           तमिलनाडु
के. चेन्नप्पन           318/-        टीएन 1270/2655          तमिलनाडु
के.पी. मणि            150/-        टीएन 18657/988          तमिलनाडु
उपर्युक्त नाम केवल सांकेतिक उदाहरण है। अनुमान किया जाता है कि केवल बीड़ी मजदूरों की संख्या पांच लाख है, जिन्हें दो सौ  रूपये मासिक के आस-पास पेंशन निर्धारित किया गया है।