Friday, March 30, 2012

मुसलमान टुकड़ों में क्यों बंटे हैं?


‘‘जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही तुम्हारा उनसे कोई वास्ता नहीं, उनका मामला तो अल्लाह के सुपुर्द है और वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।’’ (क़ुरआन--पाक, 6:159) 

इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’ 

हमारे निकट पैग़म्बर हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे। 

ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे

नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था। 

क़ुरआन--पाक की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पाक सूरह की 67 वीं आयत में क़ुरआन--पाक में बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे। 

क़ुरआन--पाक हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’ कहने का आदेश देता है ।

यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है। तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। क़ुरआन--पाक में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः 

‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी, जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (क़ुरआन--पाक, 41:33) 

याद रहे कि यहाँ क़ुरआन--पाक कह रहा है कि 

‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’ दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’ 

हजरत मोहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64वीं आयत भी लिखवाते थेः 

‘‘हे नबी! कहो, हे किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर, जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’ 

इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए । 

हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रहॉ), इमाम हम्बल (रहॉ) और ईमाम मालिक (रहॉ), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं और रहेंगे। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।


शादी से पहले और शादी के बाद..


अभी शादी का पहला ही साल था,
खुशी के मारे मेरा बुरा हाल था,
खुशियाँ कुच्छ यूँ उमड़ रहीं थी,
की संभाले नही संभाल रही थी ..
सुबह सुबह मेडम का चाय ले कर आना
थोड़ा शरमाते हुए हमें नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिराना,
मुस्कुराते हुए कहना की..
डार्लिंग चाय तो पी लो, जल्दी से रेडी हो जाओ, 
आप को ऑफीस भी है जाना.
घरवाली भगवान का रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग़ पर पूरी तरह छायी थी,
साँस भी लेते थे तो नाम उसी का होता था,
एक पल भी दूर जीना दुश्वार होता था..
5 साल बाद........
सुबह सुबह मेडम का चाय ले कर आना,
टेबल पर रख कर ज़ोर से चिल्लाना,
आज ऑफीस जाओ तो मुन्ना को
स्कूल छोड़ते हुए जाना...
सुनो एक बार फिर वही आवाज़ आई,
क्या बात है अभी तक छोडी नही चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ना की टीचर्स को फिर खुद ही संभाल लेना....
ना जाने घरवाली कैसा रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग़ पर काली घटा छायी थी,
साँस भी लेते हैं तो उन्ही का ख़याल होता है,
अब हर समय जहाँ में एक ही सवाल होता है..
क्या कभी वो दिन लौट के आएँगे,
हम एक बार फिर कुंवारे हो जाएँगे.... ...!

Wednesday, March 28, 2012

ये शरीर मुझे अपना नहीं लगता, घृणा होती है!


सोनी सोरी का पत्र हिमांशु कुमार के नाम

sonisori
आप लोग कैसे हैं. गुरूजी मैं भी एक इंसान हूँ. इस शरीर को दर्द होता है. कबतक ऐसे अन्यायों को सहूँ, सहने की भी सीमा होती है. मुझे पेशी में पेश नहीं किया जा रहा है. ना ही कोई मिलने आ रहे हैं. ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ.
हमें तो ऐसा लगने लगा यदि मुझे कुछ हो भी जाये तो आपको मेरे पक्ष की खबर नहीं मिलेगी बल्कि विपक्ष की खबर मिलेगी. दिनांक १२.३.२०१२ को मेरी हालत गंम्भीर हो चुकी थी जिससे मुझे अस्पताल में भरती किया गया. भर्ती करने के बाद हमपर अनेक तरह का आरोप लगाया गया, ये महिला झूठ बोलती है, जानबूझकर नाटक करती है. इसलिये मैंने कहा था कि इलाज मैं यहाँ नहीं कराउंगी.
अगर मैं नाटक करती हूँ तो मुझे अंदरूनी में दर्द क्यों होता है? मैं तो छत्तीसगढ़ सरकार के लिये एक मजाक बनकर रह गई हूँ. जब मेरा सोनोग्राफी कराया गया, उससे पहले मुझे रोटी सब्जी खिलायी गयी और फिर सोनोग्राफी करायी गयी.सब तो कागजों पर लीपापोती करना था दूसरी बात न्यायालय का भी आदेश पालन नहीं किया गया. 
यदि मेरा चेकअप दिनांक 12 मार्च  से पहले होता तो शायद जो स्थिति पैदा हुई वो नहीं होती . गुरूजी आपके द्वारा दी गई शिक्षा की ताकत से बहुत सा मानसिक शारीरिक प्रताड़ना को सह रही हूँ. अब आपके शिष्य और नहीं सह सकती. दिनांक 6 मार्च  को मेरी पेशी थी.

जेलर मैडम जेलर अधीक्षक  से मेरी बहस हुई है. मैंने कहा कि इन सलाखों के अंदर रहकर हर नियमों का पालन कर रही हूँ. अबतक ऐसा कोई भी नियम का उल्लंघन नहीं किया जिससे आप कह सकें कि तुम गलती कर रही हो. मैं भी एक शासकीय कर्मचारी रही हूँ, इसलिए इतना तो समझती हूँ कि जो अनुशासन बना है उसे पालन करना हमारा अनिवार्य कर्तव्य है. फिर आप लोग मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो. पेशी ना ले जाना, स्वास्थ्य पर ध्यान ना देना, तब कहने लगा जेलर अधीक्षक कि ये सब मेरी जिम्मेदारी नहीं है.
तब मैंने कहा आप मुझे बंदी आवेदन दो ताकि सरकार को लेटर भेजकर पूछना चाहूंगी कि ये सब किसके जिम्मेदारी है. गैर जिम्मेदार व्यक्तियों और प्रशासन की देखरेख में हमें क्यों रखा गया. यदि आगामी दिनों में मुझे कुछ हो जाता है इसके जिम्मेदार कौन है. तब कहने लगा बिल्कुल लिखो जो करना है करो.
लेकिन बंदी आवेदन मांगती हूँ तो दे नहीं रहे हैं. कहते हैं ऐसी कोरा कागज पर लिखो.गुरूजी मैं क्या करूँ छत्तीसगढ़ में तो कानून व्यवस्था बनाये रखने वाले राहुल शर्मा जैसे ऑफिसर  अपमान, प्रताड़ना को सह नहीं पा रहे हैं और वे आत्महत्या कर ले रहे हैं.

आप सोचियेगा, इस वक्त मैं किन-किन हालातों से जूझ रही हूँ. ये शरीर मुझे अपना नहीं लगता, घृणा होती है. गुरूजी आपने हमें छोटे से बड़े होते देखा है. हम क्या थे और क्या हो गए.मिलने के लिये किसी को भेजियेगा, गलती पर क्षमा. छत्तीसगढ़ सरकार की अन्यायों से जूझती आपकी शिष्या की ओर से सभी को चरण स्पर्श, नमस्ते.

आपकी शिष्या

बाजार की गिरफ़्त में मीडिया



आज पूरी दुनियाँ पर बाजारवाद का संकट गहराता जा रहा है। बाजार बहुत ही तेजी के साथ समस्त संसाधनों पर अपना कब्जा जमाता जा रहा है। चाहे वह प्राकृतिक संसाधन हो या गैर प्राकृतिक हो। उत्पादन शक्ति से लेकर उत्पादित वस्तु तक सभी बाजार की गिरफ़्त में आ गए हैं यहाँ तक की इंसान भी बाजार की एक वस्तु मात्र बनकर रह गया है।

पूँजीवादी सभ्यता ने साहित्य, कला, संस्कृति यहाँ तक की ज्ञान को भी बाजार की वस्तु बनाकर रख दिया है। दुनिया के सामने सच की तस्वीर रखने का दावा करने वाली हमारी मीडिया, समाचार पत्र भी आज बाजार की गिरफ्त में आ गए हैं। कभी-2 तो ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता पत्रकारिता न होकर पूँजीपतियों और सरकारों की चाटुकारिता करती नजर आती है। खास तौर से भारत की पत्रकारिता का एक बड़ा हिस्सा शोषकों और साम्राज्यवादी ताकतों की ही वकालत करता दिखाई देता है। ऐसा हो भी क्यों न क्योंकि आज की पत्रकारिता इन्हीं पूँजीपतियों, भ्रष्टाचारियों और जमाखोरों के विज्ञापन के बलबूते जीवित है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि आज का प्रकाशक, सम्पादक और पत्रकार जनसेवक नहीं अपितु वह देश के बड़े अमीरों की कतार में खड़ा होना चाहता है। आज का प्रकाशक, सम्पादक व मीडिया कर्मी यह पूरी तरह से भूल गया है कि पत्रकारिता के मायने क्या होते हैं और पत्रकारिता किसे कहते हैं।

भूमण्डलीकरण के इस वर्तमान दौर में भारतीय पत्रकारिता ने बाजार की शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए हैं वैसे तो भारतीय पत्रकारिता का दायरा बहुत बड़ा है। यही नहीं भारत में तो मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ भी कहा जाता है। इसके बावजूद भी भारतीय पत्रकारिता पूरी ईमानदारी के साथ जनहित में खड़ी होती नजर नहीं आती। पूरा मीडिया जगत जनसरोकारों की जगह बाजार से सरोकार रखने लगा है। अंग्रेजी पत्रकारिता तो तमाम सामाजिक सरोकारांे और नैतिक मूल्यों से पल्ला झाड़कर सीधे-2 बाजार से जुड़ गई है। लेकिन वर्तमान समय में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बहुसंस्करणीय अखबार भी अंग्रेजी पत्रकारिता के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं और इसके चलते उनकी अपनी कोई पहचान नहीं रह गई है। भूमण्डलीकरण और साम्राज्यवादी नीतियों के चलते भारत के आम आदमी का जीवन कष्टों का पर्याय बन गया है। इससे इनका कोई नाता नहीं है। साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ संघर्षरत श्रमिकों, किसानों व जन सामान्य के कष्टों से उदासीन हमारे भारतीय भाषाओं के बड़े कहे जाने वाले अखबार आम जनता के संघर्ष से कहीं भी जुड़े हुए दिखाई नहीं देते। सत्तासीन राजनैतिक पार्टियों के जोड़-तोड़ की राजनीति में ही मशगूल हैं। जनता के दर्द से इनका कोई भी लेना देना नहीं रह गया है।

जहाँ तक क्षेत्रीय अखबारों का प्रश्न है वे अपनी साधन हीनता के चलते अपने अस्तित्व को ही बचाने में लगे रहते हैं लेकिन अब इन अखबारों के प्रकाशकों के अंदर भी बाजारवादी मानसिकता घर करने लगी है जो कभी परिवर्तन कामी आन्दोलनकारी भूमिका निभाने की इच्छा रखते थे। अब यह भी बाजार के रंग में रंगने लगे हैं। वर्तमान समय में इन अखबारों के प्रकाशक और पत्रकार स्थानीय व्यापारियों, माफियाओं, सांसदों, मंत्रियों, और छुट-भइये नेताओं के विज्ञापन के नाम पर मोटी रकम काटने के चक्कर में इनकी दलाली व चापलूसी करते फिरते हैं। स्थानीय स्तर पर फूट रहे जन-आन्दोलनों और संघर्षों की रिर्पोटिंग न के बराबर ही करते हैं। यदि करते भी हैं तो आलोचनात्मक रिर्पोटिंग करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह जन आन्दोलनों को उत्साहित करने की जगह हतोत्साहित करते नजर आते हैं। भारत जैसे देश में, जिसे कृषि प्रधान देश कहा जाता है, जिस देश की 60 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर करती है उस देश में लगभग 40 हजार किसानों ने पिछले एक दशक के अंदर आत्महत्याएँ कर लीं। बेरोजगारी की मार से आज का शिक्षित युवा वर्ग आत्महत्या करने को विवश है, आई।टी. जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले विद्यार्थी आत्महत्या करने को मजबूर हैं। आज देश में शिक्षा का निजीकरण दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का व्यक्तिगत क्षेत्र में विलय होता जा रहा है लेकिन वर्तमान समय में पूरे देश की मीडिया मौन खड़ी है। आज जनता शासक वर्ग के खिलाफ दिनों दिन हथियार उठाती जा रही है। केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें अपने दमनात्मक अभियानों से उन जन आन्दोलनों को कुचलने का असफल प्रयास कर रही हैं। फिर भी ये जन आन्दोलन दिनो दिन बढ़ते ही जा रहे हैं। यह बात जुदा है कि आज का जन आंदोलन संगठित न होकर अनेक धाराओं में बँटा हुआ है और जनता का भारी समर्थन जुटाने में असफल है। इसके पीछे शासक वर्ग द्वारा मीडिया के माध्यम से किया जा रहा दुष्प्रचार, ज्यादा कारगर साबित हुआ, क्योंकि मीडिया का सबसे बड़ा हिस्सा, केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों, पूँजीपतियों व साम्राज्यवादी ताकतों से संचालित होता है और शासक वर्ग यह कभी नहीं चाहता है कि उसके खिलाफ खड़ा हो रहा कोई भी जन आन्दोलन मजबूत हो और उनकी शोषण परक व्यवस्था को नेस्तानाबूद कर जनता के लिए एक शोषण विहीन शासन व्यवस्था का निर्माण करे इसके लिए देश में जन सरोकारी मीडिया की अत्यन्त आवश्यकता है जो बाजार के चंगुल से मुक्त हो, जो जनता के अधिकारों के लिए काम करे, जो मानवीय संस्कृति, साहित्य, कला और शिक्षा का निर्माण करे और व्यापक जनता के पक्ष में खड़ी होकर जनपक्षधरता की बात करे, एक जनसंस्कृति के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करे। सही मायने में वही पत्रकारिता एक श्रेष्ठ पत्रकारिता होगी जो वास्तव में मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त कर एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने में अपनी महती भूमिका अदा करेगी।

Tuesday, March 27, 2012

तकदीर लिखिए, तदबीर नहीं


कभी समुद्र में गहरे उतरे हैं आप? मौका मिले तो ऐसा जरूर कर देखिएगा। अथाह लगने वाली गहराई में आप ज्यों-ज्यों धंसते जाते हैं, हर पल एक नई दुनिया सामने आती जाती है। जहां सूरज की किरणें तक नहीं पहुंचतीं, वहां एक समूची दुनिया सांस ले रही होती है। जल का अपना जीवन होता है। इतिहास का भी। जाने बूझे सत्य, तथ्य और कथ्य को जितना हिलाइए-डुलाइए उतने अर्थ नजर आते हैं। क्यों न हम भी ऐसा कुछ करें? आजादी की वर्षगांठ के इस महीने के पहले हफ्ते देश की मौजूदा चुनौतियों को गुजरे जमाने की घटनाओं से जोड़कर देखेंगे। आखिर हमारा आज गुजरे कल पर टिका है, जैसे आने वाला कल वर्तमान पर।
क्या हो रहा था अगस्त 1947 के पहले हफ्ते में। साफ हो चुका था, हजारों साल से चला आ रहा यह राष्ट्र अब दो मुल्कों में बंटने जा रहा है। बंटवारा मजहब के नाम पर हुआ था, लिहाजा सदियों से साथ रहते आए लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। हर ओर लहूलुहान आशंकाएं बिखरी पड़ी थीं। क्या विडंबना थी! पीढ़ियों से संग जिंदगी गुजार रहे लोग अपनी ही जमीन से धकिया दिए गए थे। उनका खून-पसीना पोंछने के लिए जो हाथ उठ रहे थे, वे अपरिचित थे। पंजाब, सिंध और बंगाल का हाल सबसे बुरा था। इसके लिए जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना इसी हफ्ते के अंतिम दिन अपने सपनों के पाकिस्तान के लिए रवाना होने वाले थे, हालांकि जो सरजमीं उनका खैरमकदम करने वाली थी, वह तब तक हिन्दुस्तान का ही हिस्सा थी।
देश को दो हिस्सों में बांटने का संकल्प लेकर आए लॉर्ड माउंटबेटन के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी। वह कानून और व्यवस्था का पालन करवाने में नाकाम साबित हो रहे थे। उधर जिन्ना की गरदन के बल कायम थे। राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी एक बार फिर हिम्मत संजो रहे थे, पर सवाल उभर रहा था कि क्या वह भारतीय समाज और राजनीति के लिए कुछ नया कर सकेंगे?
जवाहरलाल नेहरू के स्वप्नजीवी भाषण लोगों के दिल-दिमाग पर छाए हुए थे। नेहरू आम आदमी में उम्मीद का संचार करने में भले ही कामयाब लग रहे थे, पर भारत नाम का यह देश कैसा होगा, इस पर कई सवालिया निशान थे। हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर के शासकों ने अभी तक विलय प्रस्ताव पर दस्तखत नहीं किए थे। इनके बिना भारतीय गणराज्य की कल्पना अधूरी थी।
उधर उत्तर-पूर्व में कुछ लोग अलगाव की दुकान चला रहे थे। मसलन, मणिपुर में तत्कालीन मुख्यमंत्री इरबोट सिंह खुद को संप्रभु राष्ट्र का सर्वेसर्वा साबित करने पर आमादा थे। वहां के राजा की हालत पतली थी। किसी को यकीन नहीं था कि घने जंगलों, पहाड़ों और दुर्गम घाटियों से बने ‘सतबहनी’ के राज्य कभी लोकतंत्र की किलकारियों से खुद को आनंदित महसूस करेंगे। हमारी धरती पर उभर रही चारदीवारियों के दोनों तरफ कुछ ऐसे लोग थे, जो हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र के सपने बुन रहे थे। अगस्त के उस पहले हफ्ते तक लाखों लोग यह जान चुके थे कि सिर्फ एक हफ्ते बाद उनमें से कुछ की पहचान बदल जाएगी। वे हिन्दुस्तानी से पाकिस्तानी बन जाएंगे।
पर बहुत कुछ अनजाना और अनकहा था। मसलन, सिर्फ छह महीने बाद अनहोनी घटने जा रही थी। एक ऐसे आदमी की हत्या, जो यकीनन उस समय दुनिया का सबसे लोकप्रिय शख्स था। जी हां, किसी ने सोचा भी न था कि खुद को हिंदुओं का प्रतिनिधि बताने वाला कोई युवक गांधी जी की हत्या कर देगा। खुद गांधी आश्वस्त थे कि ऐसा नहीं होगा। सिर्फ दस दिन पहले 20 जनवरी, 1948 को भी उन पर हत्यारों की इसी टोली ने हमला बोला था, पर वह सुरक्षा बढ़ाने पर राजी नहीं हुए। नेहरू के शब्दों में अपनी नियति खुद लिखने वाले राष्ट्र में एक प्रवृत्ति उभर रही थी, वक्ती लोकप्रियता अजिर्त करने की। अर्धसत्य को संपूर्ण सच साबित करने की। आने वाले वक्त में यह पुख्ता होती गई।
तीन उदाहरण देना चाहूंगा। अगस्त 1977 में हम अति आशावाद के शिकार थे। मार्च में जनता पार्टी शासन में आ चुकी थी। ऐसा लग रहा था कि हिन्दुस्तानी जम्हूरियत जवान हो गई है। वंशवाद का नामोनिशान मिट गया है। कुछ ही सालों में हम सबसे बड़े ही नहीं, बल्कि आदर्शतम लोकतंत्र के तौर पर जाने और माने जानेवाले हैं। यह सपना दो साल भी नहीं चला। ठीक इसी तरह स्वघोषित ‘सत्य’ और ‘ईमानदारी’ की राह पर चलते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनके अलंबरदार अगस्त के पहले हफ्ते में दहाड़ रहे थे। परिणाम? ढाक के तीन पात।  1992 के अगस्त का पहला हफ्ता। पूरा देश हिंदू लहर में डूब-उतरा रहा था। और तो और नाथूराम गोड्से के भाई गोपाल गोड्से शहर-दर-शहर घूमकर प्रचार कर रहे थे कि उन्होंने अपने भाई के साथ गांधी जी पर गोली क्यों चलाई? वह इसे ‘हत्या’ नहीं, ‘वध’ मानते थे। उनकी पुस्तक ‘गांधी वध और मैं’ की बिक्री जोरों पर थी। नतीजतन, अयोध्या का राम मंदिर उन लोगों की महत्वाकांक्षा का हिस्सा बन गया था, जिनके पुरखों ने भी कभी अयोध्या में कदम नहीं रखे थे। सब जानते हैं। न मंदिर बना, न हिंदू राष्ट्र अलबत्ता सदा सर्वदा के लिए भारतीय राजनयिकों से सफाई मांगने का बहाना हमसे द्वेष रखने वाले देशों को मिल गया।
इसीलिए आज जब कुछ लोग खुद को 121 करोड़ की आबादी वाले महान देश की ‘सिविल सोसाइटी का नुमाइंदा’ बताकर बयानबाजी करते हैं, तो डर लगता है। लोगों को पहले भी शब्दों की आडंबरी आंधियों में उड़ाने का काम किया गया है। तनी हुई पतंग की तरह हवा में ऊपर जाना तो अच्छा लगता है, पर जब कटी पतंग की तरह अरमान धूल चाटते हैं, तो कुंठाएं पैदा होती हैं। ये तीन उदाहरण इस सच को बताने और जताने के लिए काफी हैं। मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि यकीनन इस समय देश के सामने महंगाई और भ्रष्टाचार सबसे बड़े मुद्दे हैं, पर इनसे जूझने के लिए एक सामूहिक रणनीति की जरूरत है। लोकप्रिय बयानबाजी की नहीं। पहले भी इसको देश भोग चुका है।
अगस्त 1947 के पहले हफ्ते से मौजूदा हालात की तुलना करें, तो आपका सिर यकीनन गर्व से ऊंचा हो उठेगा। अब हम एक लहूलुहान देश नहीं हैं। हमारी ताकत का लोहा दुनिया मानती है। यह बात अलग है कि कुछ मूलभूत समस्याएं आज भी कायम हैं। पर ऐसा संसार के किस देश में नहीं है? क्या सबसे ताकतवर देश अमेरिका में, जिसने अभी आजादी की 234वीं वर्षगांठ मनाई है, गरीबी नहीं है? क्या वहां बेरोजगारी के आंकड़े नहीं बढ़ रहे? क्या ओबामा पहले अश्वेत राष्ट्रपति नहीं हैं? क्या अभी तक वहां किसी भी महिला को राष्ट्रपति बनने का मौका मिला है? क्या धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला यह देश अंदरूनी तौर पर कंपकंपी का शिकार नहीं है? अगर यह सच है, तो शर्म के बजाय गर्व कीजिए। हमने गए 64 सालों में बेहद महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की हैं।
भूलिए मत। सफलताएं तभी बरकरार रहती हैं, जब नई चुनौतियां पैदा होती हैं। सिर्फ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में यह जबरदस्त परिवर्तन का दौर है। बदलाव अंधी गुफाओं में भटकने का अभ्यस्त होता है। उसके साथ चलते-दौड़ते अक्सर लगता है कि हम भटक गए हैं। पर हर अंधेरी रात के आगे उजला सवेरा होता है।

Monday, March 26, 2012

एलपीजी का फेर


रसोई गैस लेने वालों की गैस गोदाम पर सुबह छह बजे से लंबी लाइन लगी हुई थी। वक्त बढ़ने के साथ लाइन लंबी होती जा रही थी। लंबी लाइन देखकर देर से आने वाले लोगों के माथे पर शिकन पड़ रही थीं। सबके मन में यही अंदेशा था कि पता नहीं आज भी गैस मिल पाएगी नहीं। बहुत लोग ऐसे थे, जो तीन दिन से लगातार आ रहे थे, लेकिन उन्हें कोई न कोई बहाना बनाकर टरका दिया जाता था। लगभग 60 साल की एक बुजुर्ग महिला लगभग 14-15 साल के किशोर के साथ गैस लेने आई थी। महिला लाइन के लगभग बीच में गैस सिलेंडर पर वह कपड़ा डालकर बैठी हुई थी, जिसमें वह सिलेंडर लपेट कर लायी होगी। उसके साथ आया किशोर अपनी साइकिल के कैरियर पर बैठा बेजारी से इधर-उधर देख रहा था। बुजुर्ग महिला बड़ी आस से गोदाम के बड़े से लोहे के गेट को टकटकी लगाए देख रही थी। थोड़ी देर बाद किशोर बुजुर्ग महिला के पास आया और बोला, ‘अम्मा पता नहीं आज भी गैस मिलेगी या नहीं? कोई कह रहा था कि ट्रक अभी तक नहीं आया है।’ महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। किशोर फिर बोला, ‘तीन दिन हो गए लगातार आते-आते, रोज बिना गैस के ही वापस जाना पड़ता है।’ महिला ने इस बार मुंह खोला और बोली, ‘आज तो मैं गैस लेकर ही जाऊंगी। बाजार से 60 रुपये किलो की गैस तीन बार छोटे सिलेंडर में भरवा चुकी हूं। कमबख्त सारी गैस ब्लैक में बेच देते हैं।’ महिला के बराबर में खड़े एक अधेड़ को जैसे बहाना मिल गया। वह बोला, ‘बहन जी मैं कल भी आया था। पूरा एक ट्रक गैस सिलेंडरों का बाहर निकला था, जो हर हाल में ब्लैकियों को ही गया होगा।’ थोड़ी देर बाद गोदाम का गेट खुला। लाइन में तेज हलचल हुई और गैस सिलेंडरों के खिसकने और एक दूसरे से टकराने की आवाजें गूंजने लगीं। बुजुर्ग महिला भी सिलेंडर पर से खड़ी हो गई। गेट से एक छोटा ट्रक बाहर आता दिखा, जिसमें सिलेंडर भरे हुए थे। ट्रक के साथ कुछ लोग चल रहे थे, जो शक्ल से गुंडे लग रहे थे। लाइन एक झटके में भीड़ में तब्दील होकर ट्रक के चारों ओर जमा हो गई। कुछ नौजवान सिलेंडर बाहर ले जाए जाने का विरोध करने लगे। गोदाम कर्मचारियों और कुछ लोगों में धक्का-मुक्की होने लगी। ट्रक भीड़ के बीच में फंस गया था। ड्राइवर ने कई बार ट्रक को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन उसके आगे से लोग हटने को तैयार नहीं थे। कर्मचारियों और लोगों में तकरार बढ़ती जा रही थी। कुछ ही देर में पुलिस की जीप धड़धड़ाती हुई वहां आकर रुकी। चार-पांच पुलिसवाले उसमें से डंडे लेकर फुर्ती से उतरे और भीड़ पर बरसाने शुरू कर दिए। चंद क्षणों में ही भीड़ तीतर-बीतर हो गई। ट्रक के आगे जाने का रास्ता साफ हो गया। ड्राइवर ने विजयी मुस्कान के साथ ट्रक आगे बढ़ा दिया। पुलिसवाले डंडे फटकार कर लोगों से दोबारा लाइन में लगने की हिदायत देने लगे। बुजुर्ग महिला, जो पहले लाइन के बीच में थी, सबसे पीछे पहुंच गई।
एक बार फिर लोग गोदाम का गेट खुलने का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद बड़े गेट में लगा छोटा गेट खोलकर एक कर्मचारी प्रकट हुआ और बोला, ‘हमारे पास सिर्फ सौ सिलेंडर हैं बांटने के लिए। शुरू के सौ आदमी रुक जाएं। बाकी को दो दिन बाद गैस मिलेगी।’ बुजुर्ग महिला ने उचककर देखा और मायूसी से अपने साथ आए किशोर को वापस चलने के लिए कहा। किशोर ने सिलेंडर को उठाकर साइकिल के कैरियर पर बांधना शुरू कर दिया।

भारतीय रेलवे की कष्टकारी यात्रा


indian-train
पिछले दिनों लखनऊ से ग्वालियर जाना हुआ। लखनऊ से बरौनी ग्वालियर मेल आमतौर पर इस रूट की सबसे अच्छी गाड़ी मानी जाती है। इसी लिहाज से तत्काल कोटे में रिजर्वेशन कराकर स्लीपर कोच में अपनी बर्थ पर पहुँच गया। गाड़ी स्टेशन से छूटी भी नहीं थी कि कोई न कोई सवारी आकर किसी-किसी सीट पर एक दूसरे से थोड़ा बिठाने की गुजारिश करती दिखाई देने लगी।

मानवता के नाते ही शायद उन लोगों ने उन्हें बैठने के लिए अपनी आरक्षित सीट में भी जगह दे दी। गाड़ी जैसे-जैसे अगले स्टेशनों पर रुकती जाती, इसी तरह के सज्जनों की संख्या बढती गयी। एक महानुभाव ने हमारी सीट पर आकर भी रौब मारते हुए कहा ‘सरकिये जरा।’ हालांकि उनमें रौब मारने जैसा कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा था, पर शायद हो सकता है किसी वरदहस्त के कारण वह उछल रहे हों।

उस समय इस तरह बैठे हुए लोगों को देखकर मुझे लगा कि प्रतीक्षा सूची में इनकी सीट निश्चित नहीं हो पायी होगी, इसलिए ये सब कह रहे हैं। दूसरे सहयात्रियों कि तरह यही समझते हुए मैंने भी उसे बैठने के लिए जगह दे दी। धीरे-धीरे सीटों पर उन लोगों का आधिपत्य इस कदर बढ़ता चला गया कि थोडी ही देर में हम जैसे यात्री उनकी पहली जैसी स्थिति मे आ गये।

बडी हैरानी की बात है साहब- तत्काल में रिजर्वेशन लिया, सीट निश्चित है फिर भी खडे होकर जाना पड़ रहा है। प्रथम दृष्टया लगा शायद क्षेत्रीयता का खून इन लोगों की नसों में प्रवाहित है इसीलिए ऐसा हो रहा हो। पर कोई बात नहीं भारतीय रेलवे तो क्षेत्रवाद से ग्रस्त नहीं है उसके सामने इस बात को कहेंगे।

वहां से जैसे ही हटने कि कोशिश की पूरी गैलरी ऐसी लगी कि सामान्य कोच की यादें ताजा हो गयी, क्योंकि अक्सर नियम उन्हीं खूटियों में टंगे होते हैं, जिनमें यात्री अपना सामान टांग दिया करते हैं। एक सज्जन से पूछने पर कि ‘साहब टिकट निरीक्षक आयेंगे क्या?’ आंखे फैलाते हुए उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे देखा ओर कहा सीट नहीं मिली है शायद आपको, बाहर बात नहीं की होगी। देखिये शायद आ जाये, नहीं तो खड़े रहिए, कौन सी बड़ी समस्या है?

मैंने उनकी बात बीच मे ही काटते हुए कहा ‘नहीं सीट तो है मेरे पास, पर कुछ सज्जन जो उस सीट पर पसर गये हैं उनका कहना है कि टीटीई साहब ने कह दिया है। मुझे लग रहा है कि शायद कोई त्रुटि हो गई है इसलिए मेरी सीट पर किसी ओर का आवंटन कर दिया होगा।' मेरे इतना कहने पर उनके चेहेरे पर ऐसा भाव आया कि जैसे उन्हें पूरी बात की जानकारी हो। वे कहने लगे 'टीटीई क्या करेगा, उसी के आदेश पर तो हम लोग अन्दर बैठे हैं।'

इतना कहते ही उनके जैसे चार-छः लोगों ने अट्ठाहास करना शुरू कर दिया। मेरी समझ मे कुछ भी नही आ रहा था। मुझे ऐसी हालत में देखकर मेरे एक सहयात्री ने जो काफी देर से मेरे पीछे खडा था कहने लगा ‘साहब क्यों अपना मजाक बनवा रहे हो, खडे रहिए बस कुछ घंटों की ही तो बात है। पर मेरे रिजर्वेशन का तर्क देने पर उन्होंने तपाक से कहा 'सरकारी नौकरी या दाखिला लेने की जगह थोड़ी है साहब जो आपके रिजर्वेशन को ध्यान में रखा जाये। और वैसे भी साहब इस रूट पर तो यही होता है। अभी कुछ रोज पहले ही रास्ते के एक स्टेशन पर कुछ लोगों ने आपकी ही तरह विरोध करने पर सब पर पत्थर बरसाये थे। आप शायद पहली बार इधर चल रहे हैं इसीलिए ऐसा लग रहा है। अगर आना-जाना लगा रहा तो यकीन मानिये, आदत पड़ जायेगी।’

मेरे सामान्य ज्ञान को बढाते हुए उन्होंने कहा ‘नीचे टीटीई की सेवा की है इन सबने, तब उनकी कृपा से इन्हें सीट प्राप्त हुई है। आप बिना वजह बात को बढा रहे हैं।’ ये सुनकर मै अंचभित हो गया। फिर भी थोडी हिम्मत जुटाकर कहा ‘नहीं ऐसे कैसे हो जायेगा। आम यात्री की समस्या ये नहीं सुनेंगे तो क्या, आरपीएफ है स्टेशन मास्टर से कहेंगे, शिकायत पत्र भेजेंगे।’

इतना सुनने पर उन्होंने अपनी पूर्ण स्वीकृति जताते हुए हमें आगे कि ओर जाने का इशारा किया और उस भीड़ की धक्कामुक्की ने मुझे वहां से दरवाजे के पास तक लाने में जरा भी देरी नहीं की। दरवाजे के पास खड़े-खड़े दिमाग यक्ष प्रश्न मे उलझा हुआ खुद से ही सवाल जवाब करने लगा कि बताओ ये भी कोई तरीका है, कितनी अव्वयवस्था है, कोई समाधान ही नहीं है। स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले इसकी शिकायत करूँगा। इन्ही तानों-बानों के साथ गाड़ी रुकती रहती, चलती रहती। मेरे जैसे लोगों की आमद बढने लगी, पर सुनने वाला वहाँ कोई भी दिखायी नहीं पड़ा।

रात के नौ बजे के आसपास गाडी स्टेशन पर पहुँचती है और प्लेटफार्म संख्या 3 पर रुक जाती है। एक जिम्मेदार नागरिक की तरह सोचते हुए सर्वप्रथम मैं आरपीएफ थाने पहुँचा तो सामने बैठे दारोगा जी ने बड़े अनमने मन से हमारी बात सुनी ओर टरकाने की हरसंभव कोशिश भी की. साथ ही यह नसीहत भी दी कि आपकी बहस की वजह से ही ऐसा हुआ होगा। मेरा आवेशित होना स्वाभाविक था, फिर भी संयम से काम लेते हुए मैंने कहा ‘अपने अधिकार के बारे में कहना अगर बहस है, अव्यवस्थाओं के बारे में बात करना बहस है तो आप मान लीजिए मैंने बहस की है।’

इतना सुनते ही उन्होंने हमे बाहर की ओर जाने का रास्ता दिखा दिया। जैसे ही मैं वहां से चला, बगल में ही स्टेशन अधीक्षक का कार्यालय था। यह सोचकर की ये सही जगह है इस बात को बताने की, मैंने उन्हें सारी राम कहानी सुनाई तो महज बहकाने के अलावा उनके पास भी कोई चारा दिखाई नहीं दिया। मुझे इस तरह के बर्ताव की कतई उम्मीद नहीं थी। बाहर आकर सोचा शिकायत पेटिका मे अपनी बात लिखकर डाल देता हूं शायद कभी कोई सुधार हो जाये।

यही सोचकर उस पत्र को डालने के लिए जैसे ही शिकायत पेटिका खोली तो उसकी स्थिति तो मुझसे भी बदतर थी। गुटखे, तंबाखू, बीडी- सिगरेट के पाउच, पान की पीक के निशानों के साथ-साथ कुछ अंधनगे चित्र और कूड़ा-कबाड़ से पटा हुआ था। मैं सन्न रह गया और ट्रेन में कही उस आदमी की बात को याद करने लगा कि ‘साहब, क्यों अपना मजाक उड़वाते हो।’

मैं खुद को कोस रहा था कि बिना वजह रिजर्वेशन के लिए इतनी लम्बी लाइन में सुबह-सुबह जाकर लगा। क्या जरूरत थी किसी से कुछ कहने की, क्यों मुझसे चुप नहीं रहा जाता। किसी को कोई शिकायत ही नहीं होती होगी, तभी तो उस शिकायत पेटिका को इस प्रयोग में लाया जा रहा है। मैं ही क्यों इन अव्यवस्थाओं के बारे में सोचूं।

यही झल्लाहट अपने आप पर उतारते हुए उस पत्र को हाथ में लेकर असहाय स्थिति में स्टेशन से बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर आ गया तो देखा सामने एक बड़े से होर्डिंग पर लिखा था ‘भारतीय रेलवे सदैव आपकी सेवा में तत्पर।‘ मैंने उसे देखा और फिर अपने आप को।

Sunday, March 25, 2012

ऐसे बनेगी मुसलमानों की तकदीर

"दुनिया की चौथाई आबादी होने के बाद भी आज मुसलमान वैज्ञानिक-तकनीकी तौर पर पिछड़े हैं, राजनीतिक रूप से भी हाशिये पर हैं और आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब ऐसा क्यों है? विश्व के सकल घरेलू उत्पाद, जो 60 ट्रिलियन डॉलर है, में मुसलमानों की भागीदारी केवल 3 ट्रिलियन डॉलर है, जो फ्रांस जैसे छोटे देश, जिसकी जनसंख्या 70 मिलियन है, से भी कम है और जापान के सकल घरेलू उत्पाद की आधी है तथा अमेरिकाजिसकी जनसंख्या 300 मिलियन है, के सकल घरेलू उत्पाद का पांचवां हिस्सा है. ऐसा क्यों है?"
अमेरिका स्थित पिऊ रिसर्च सेंटर की हाल में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे विश्व में एक बिलियन और 570 मिलियन मुसलमान हैं. मतलब दुनिया का हर चौथा आदमी मुसलमान है. क्या इस रिपोर्ट में कुछ ऐसा है, जिस पर खुश हुआ जा सके? मेरे हिसाब से तो नहीं. अलबत्ता मुसलमानों के लिए यह एक विचारणीय बात है और उन्हें इस पर चिंतन करना चाहिए. दुनिया की चौथाई आबादी होने के बाद भी आज मुसलमान वैज्ञानिक-तकनीकी तौर पर पिछड़े हैं, राजनीतिक रूप से भी हाशिये पर हैं और आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब. ऐसा क्यों है? विश्व के सकल घरेलू उत्पाद, जो 60 ट्रिलियन डॉलर है, में मुसलमानों की भागीदारी केवल 3 ट्रिलियन डॉलर है, जो फ्रांस जैसे छोटे देश, जिसकी जनसंख्या 70 मिलियन है, से भी कम है और जापान के सकल घरेलू उत्पाद की आधी है तथा अमेरिका, जिसकी जनसंख्या 300 मिलियन है, के सकल घरेलू उत्पाद का पांचवां हिस्सा है. ऐसा क्यों है? यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि विश्व की 35 फ़ीसदी जनसंख्या ईसाई है, लेकिन यही 35 फ़ीसदी लोग विश्व की 70 फ़ीसदी धन-संपत्ति के मालिक हैं.

मानव विकास सूचकांक यानी एचडीआई में भी यदि कुछ तेल निर्यात करने वाले देशों को छोड़ दिया जाए तो बाक़ी सभी मुसलमान देश बहुत नीचे आते हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी मुसलमान देश बहुत पीछे हैं. विज्ञान के क्षेत्र में बस पांच सौ शोध प्रबंध यानी पीएचडी जमा होते हैं. यह संख्या अकेले इंग्लैंड में तीन हज़ार है. 1901 से लेकर 2008 तक लगभग पांच सौ नोबल पुरस्कारों में से यहूदियों को 140 बार यह पुरस्कार पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो लगभग 25 फ़ीसदी है, जबकि यहूदियों कि जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की केवल 0.2 फ़ीसदी है. इसके विपरीत आज तक मात्र एक मुसलमान को यह पुरस्कार पाने का अवसर मिला है. (एक और भी था, लेकिन पाकिस्तान ने उसे ग़ैर मुसलमान घोषित कर दिया) मतलब यह कि मुसलमानों की इस पुरस्कार में भागीदारी 0.2 फ़ीसदी है. यानी विज्ञान के क्षेत्र में मुसलमानों का योगदान नगण्य है. एक और नकारात्मक तथ्य निकल कर आया शंघाई विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के आधार पर. इसमें विश्व के चार सौ सबसे बढ़िया विश्वविद्यालयों की एक सूची है और इस्लामी देशों का एक भी विश्वविद्यालय इस सूची में नहीं है. यह बड़ी दु:खद बात है, क्योंकि सातवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक दुनिया के सबसे बड़े और आलिम विश्वविद्यालय मुस्लिम देशों में स्थित थे. कोरडोबा, बग़दाद और काइरो इस्लामिक तालीम के नामचीन केंद्र थे.

विज्ञान के जाने-माने इतिहासकार जिलेस्पी ने ऐसे 130 महान वैज्ञानिकों एवं और प्रौद्योगिक विशेषज्ञों की सूची बनाई है, जिनका मध्य युग में बहुत बड़ा योगदान था. इनमें से 120 ऐसे थे, जो मुसलमान देशों से थे और केवल चार यूरोप से थे. क्या यह तथ्य खुद में इतना अर्थपूर्ण नहीं कि मुसलमान अपने भूत को विवेचित करें, अपने आज को ईमानदारी से देखें और अपने भविष्य की तार्किक रूप से कल्पना करें. मैं मुसलमानों की इस आबादी के बारे में कुछ और रोचक तथ्य बता सकता हूं, जो अलग-अलग संस्थाओं द्वारा किए गए शोधों पर आधारित हैं. आज की प्रजनन रफ़्तार से मुसलमानों की जनसंख्या अगले 50सालों में दोगुनी हो जाएगी. तब मुसलमान संख्या में ईसाइयों से अधिक हो जाएंगे, जिनकी जनसंख्या भी दोगुनी होगी. मतलब यह कि मुसलमानों की समस्याएं और बढ़ जाएंगी. आज की बेरोज़गारी और आर्थिक ग़रीबी, जो मुस्लिम समाज और मुस्लिम देशों में व्याप्त है, वह ज़ाहिर तौर पर और बढ़ेगी. अगले पचास सालों में अगर मुस्लिम जनसंख्या बढ़कर दोगुनी हो गई तो मुसलमान और ईसाई देशों के बीच आर्थिक विकास की दूरी और बढ़ेगी. प्रश्न फिर यह उठता है कि इस शताब्दी या आने वाली सदी में विश्व पर किसकी सार्वभौमिकता और प्रभुसत्ता रहेगी, पांच फीसदी संसाधन वाले मुसलमानों की या 70 फीसदी संसाधन वाले ईसाइयों की?

मुसलमानों को यह याद रखने की ज़रूरत है कि आज के वैज्ञानिक विकास से परिभाषित विश्व में किसी भी देश की इज़्ज़त और शक्ति उसकी जनसंख्या पर आधारित नहीं है. आज के विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास ही शक्ति, इज़्ज़त और संसाधनों की गारंटी है. ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां अधिक जनसंख्या के साथ आर्थिक पिछड़ापन और कम सामरिक सामर्थ्य है. यहूदी देश इजराइल को देखिए, इतना छोटा देश पूरे अरब पर हावी रहता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह एक आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से समृद्ध देश है, जिसके सामने पिछड़ेपन के शिकार अरब देशों को झुकना पड़ता है, हार मान लेनी पड़ती है. एक तरफ वे मुसलमान हैं, जो आज पश्चिमी देशों में रहते हैं और अपनी समृद्धि से खुश हैं. जबकि वहीं वे मुसलमान भी हैं, जो मुस्लिम बाहुल्य देशों के वाशिंदे हैं और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे हुए हैं. यूरोप में रहने वाले 20 मिलियन मुसलमानों का सकल घरेलू उत्पाद पूरे भारतीय महाद्वीप के 500 मिलियन मुसलमानों से अधिक है.
निस्सीम हसन एक ख्याति प्राप्त इस्लामिक विद्वान हैं. वह कहते हैं कि मुसलमानों में ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति ही उनके आर्थिक और राजनीतिक पतन का मुख्य कारण है. हमने सदियों से मानवता का नेतृत्व छोड़ दिया है. हम लकीर के फ़कीर बनकर रह गए हैं. महातिर मोहम्मद, जो मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री हैं, ने मुसलमानों को सही सलाह दी. उन्होंने ओआईसी की मीटिंग में कहा कि मुसलमानों को अपनी रूढ़िवादिता छोड़कर नए समय में नई पहचान बनानी चाहिए, क्योंकि सामाजिक परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं. यह याद रखने की बात है कि आठवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच जब मुसलमान स्पेन पर राज करते थे, तब स्पेन की आमदनी बाक़ी सारे यूरोप से अधिक थी. ऐसा इसलिए था, क्योंकि स्पेन तब उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करता था. आज स्थिति उलट-पुलट हो गई है. आज ईसाई स्पेन का सकल घरेलू उत्पादन विश्व के बारह तेल निर्यात करने वाले मुस्लिम देशों से कहीं अधिक है. मुस्लिम शासन के दौरान सभी देशों का इतना ही अच्छा हाल था. बग़दाद, डमास्कस, काहिरा एवं त्रिपोली अपनी वैज्ञानिक दूरदृष्टि के लिए विख्यात थे. इन मध्ययुगीन शताब्दियों में मुस्लिम देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक रूप से बहुत विकसित माना जाता था. इसके विपरीत डोनाल्ड कैम्बेल (सर्जन-फ्रांस) के अनुसार, जब मुस्लिम देशों में विज्ञान की आंधी चल रही थी, तब यूरोप अंधकार में जी रहा था. जब इस्लाम का उद्भव हो रहा था और वह संसार पर हावी हो रहा था, तब मुसलमानों की जनसंख्या बमुश्किल 10 फीसदी थी.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था कि यह सारी स्थिति सोलहवीं शताब्दी से बदलने लगी. इस समय मुस्लिम समाज निष्क्रिय हो गया और यूरोपीय अंधकार को अपनाने लगा. वहीं दूसरी ओर ईसाई जनता मुस्लिम विज्ञान की ओर उन्मुख हो रही थी. ऐसे में वही हुआ, जिसका डर था. वह मुसलमान समाज, जिसने पूरी दुनिया को आठ सौ सालों तक अपना मुरीद बनाए रखा, उभरते हुए यूरोप के सामने झुक गया. इस संदर्भ में मौलाना अबुल हसन अली नदवी, जो एक बहुत बड़े इस्लामविद्‌ थे, का कथन बहुत प्रासंगिक है कि सोलहवीं शताब्दी के बाद मुसलमानों ने तर्क और विज्ञान को छोड़ दिया. इसलिए इस समाज में कोई महान व्यक्तित्व नहीं उभर पाया और मुसलमान अपनी परंपरागत जीवनशैली में बंधकर रह गए. कुछ समय पहले सैमुअल हंटिंग्टन ने पश्चिम और मुस्लिम देशों के बीच के विवाद को दो सभ्यताओं का विवाद कहा था. यह बिल्कुल ग़लत बात है. यह विवाद अमीर और ग़रीब देशों का है, अमीर मनमानी करना चाहते हैं और ग़रीब पिस रहे हैं.

दुनिया के ग़रीब देशों को समझ लेना चाहिए कि अमीर देशों से बिन बात के झगड़ों से उनकी ही हानि होगी और वह भी तब, जब यह झगड़ा धर्म के नाम पर हो. ग़रीब देशों (मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम) की भलाई विश्व शांति में ही अधिक है. मुस्लिम समाज की भलाई का एक ही रास्ता है कि वह यूरोप के पुनर्जागरण जैसे वैज्ञानिक रास्ते पर चले और वह भी आज के यूरोप से तेज़ रफ़्तार में. सबसे पहले मुसलमानों को अपने मन से कट्टरपंथ और चरमपंथ को उखाड़ फेंकना होगा और सच्चे इस्लाम के तहत भाईचारे और सहिष्णुता को अपनाना होगा. पश्चिम के विरोध और पश्चिमी देशों के वीसा और ग्रीन कार्ड हासिल करने की जद्दोजहद में बहुत बड़ा विरोधाभास है. कुछ अरब देशों के शासकों की सराहना करनी होगी, क्योंकि हाल में उन्होंने विश्व के धर्मों में आपसी तालमेल को बढ़ावा देने के लिए जो क़दम उठाए हैं, वे निश्चय ही दूरगामी हैं. एक कांफ्रेंस के दौरान सऊदी अरब के राजा अब्दुल्लाह ने कहा कि इस्लाम को चरमपंथ से दूर रहना होगा. कुछ मुसलमानों ने कट्टरपंथ की आड़ में सच्चे इस्लाम पर बट्टा लगाया है. हमें पूरी दुनिया को बताना होगा कि इस्लाम मानवता की आवाज़ है, सहिष्णुता की पुकार है और मेलजोल का हिमायती.

आज मुसलमानों को खोखले शब्दों और आश्वासनों की ज़रूरत नहीं है. उन्हें धार्मिक असहिष्णुता की भी दरकार नहीं है. अब समय आ गया है कि मुस्लिम देश पश्चिम के देशों के साथ ज़िम्मेदाराना बातचीत के रास्ते पर आएं. उन्हें बराक ओबामा द्वारा काहिरा में दिए गए बयान का आदर करना चाहिए, जिसमें उन्होंने मुस्लिम देशों को पश्चिमी देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विश्व शांति के लिए काम करने का न्योता दिया. ओबामा के हाथ और मज़बूत करने चाहिए, यही आज समय की मांग है. आज मुस्लिम देशों को ओबामा के साथ कदम से क़दम मिलाकर चलने की ज़रूरत है.


Saturday, March 24, 2012

आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनते भिखारी


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हमारे देश में एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ से भी अधिक लोग भीख मांगकर अपना जीवन यापन करते हैं। इन भिखारियों में जहां तमाम मजबूरगरीबलाचारशारीरिक रूप से असहाय व अति वृद्ध ऐसे लोग शामिल हैं जो वास्तव में दया के पात्र होते हैं, वहीं इनमें काफी बड़ी संख्या ढोंगीनिखट्टूहट्टे-कट्टेआलसी व अपराधी प्रवृति के भिखारियों की भी है जो इन्हीं के बीच अपनी पैठ बनाकर तमाम प्रकार के अपराधिक कार्यों को अंजाम देते हैं।

हमारे देश का शायद ही कोई ऐसा रेलवे स्टेशन हो जो आज भिखारी व भगवा वेशधारियों की गिरफ्त में न हो। देश के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे रेलवे स्टेशन, उनके यात्री विश्राम गृह, प्लेटफार्म तथा आसपास के क्षेत्रों पर धीरे-धीरे इनका नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। यहां तक कि रेलवे लाईनों पर अपने जाने की प्रतीक्षा में खड़े  रैक में भी इस निकृष्ट समाज के लोग बैठकर जुआनशाव्यभिचार तथा अन्य प्रकार के अपराध करते रहते हैं।

सवाल है कि क्या जीआरपीआरपीएफ, रेलवे  अधिकारी इन अपराधी प्रवृति के भिखारियों की कारगुज़ारियों की तरफ से अपनी आंखें मूंदे रहते हैं। कोई भी पुलिसकर्मी या अधिकारी इनके सामानों की तलाशी लेना मुनासिब नहीं समझता। कोई इनसे किसी प्रकार के सवाल-जवाब या टोका-टाकी भी नहीं करता। यही वजह है कि इस प्रकार के असामाजिक तत्व शराबस्मैक व नशीली दवाईयों वाले इंजेक्शन प्रयोग कर रेलवे स्टेशन व आस-पास के क्षेत्रों में गालियां बकते, एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते, सरेआम पास के क्षेत्रों में बड़ी बेशर्मी के साथ शौच आदि करते तथा चारों ओर गंदगी फैलाते दिखाई देते हैं। इतना ही नहीं इनका नेटवर्क रेल यात्रियों के सामानों की चोरीअवैध सामानोंहथियारों व तमाम नशीली सामग्रियों की खरीद-फरोख्त आदि से भी जुड़ा होता है।

पिछले दिनों गुजरात के सूरत शहर से इत्तेफाक से क्राईम ब्रांच द्वारा एक भगवाधारी साधू को गिरफ्तार किया गया। उसके सामानों की तलाशी लेने पर एक पिस्तौल तथा सात जीवित कारतूस पकड़े गए। इस गिरफ्तारी के बाद जब क्राईम ब्रांच के लोगों ने उससे आगे पूछताछ की तथा उसके ठिकाने पर छापा मारा तो क्राईम ब्रांच के लोगों के कान खड़े हो गए। उसकी रिहाईशगाह पर नौ पिस्तौल व 58 जीवित कारतूस पाए गए।

उस  वेशधारी ने बताया कि दिल्ली का कोई व्यक्ति जोकि स्वयं भी इसी भेष में रहता था वह उसे हथियार लाकर देता था। गोया इस वेश में पूरा नेटवर्क काम कर रहा था जोकि गैरकानूनी तरीके से हथियारों को देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में इसी साधू वेश की आड़ में पहुंचा रहा था। यह तो क्राईम ब्रांच की सतर्कता के चलते एक मामला उजागर हो गया। अन्यथा यदि देश का क्राईम एवं सतर्कता विभाग अपनी पूरी चौकसी व तत्परता के साथ इन भिखारी वेशधारियों पर नज़र रखे तो इस प्रकार के व इससे भी गंभीर और न जाने कितने मामले सामने आ सकते हैं।

अवांछित, असामाजिक व अपराधी प्रवृति के लोगों का इस प्रकार बेलगाम होकर रेलवे स्टेशन, रेलवे प्लेटफार्म व इसके आसपास बने रहना रेल संपत्ति की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा खतरा है।  रेलवे स्टेशन के आसपास के शराब के ठेकों के सबसे पहले ग्राहक यही भिखारी व भगवा वेशधारी होते हैं।  इन भिखारियों के झुंड में कई बार महिलाएं व छोटे बच्चे भी दिखाई देते हैं। आप इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि वह महिला किस भिखारी की पत्नी है और यह बच्चे किस माता-पिता की संतान।  भिखारियों के गैंग में यह महिलाएं कभी किसी एक भिखारी के साथ नज़र आती हैं तो कभी किसी दूसरे भिखारी के साथ। इसी प्रकार इनके साथ रहने वाले बच्चे भी अपने अलग-अलग अस्थाई संरक्षक भिखारियों के साथ दिखाई देते हैं।

इससे साफ ज़ाहिर होता है कि ऐसी महिलाएं व बच्चे भी संदिग्ध होते हैं।  इन भिखारियों के झुंड में तमाम ऐसे हट्टे-कट्टे व दबंग स्वभाव के व्यक्ति भी देखे जा सकते हैं जो लड़ाकू व अपराधी प्रवृति के  होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे दिखाई देने वाले भिखारी वेशधारी लोगों में तमाम ऐसे भी हैं जोकि अपने-अपने क्षेत्रों में अपराध कर तथा पुलिस व कानून की आंखों में धूल झोंककर साधू व भिखारियों का वेश धारणा कर अपनी जान बचाए फिरते हैं।

 रेलवे प्लेटफार्म के प्रतीक्षालयों,स्नानगृहों व शौचालयों पर भी इनका नियंत्रण रहता है।  प्लेटफार्म पर पीने के पानी की लगी टूंटी पर यह भिखारी कब्ज़ा जमा कर नहाते व कपड़े धोते रहते हैं। एक सीधी-सादा व शरीफ यात्री इनकी हरकतों को देखकर स्वयं बिना पानी पिए आगे बढ़ जाता है। इसी प्रकार प्लेटफार्म पर रखी बैंच जोकि यात्रियों की सुविधाओं के लिए रेल विभाग लगाता है उस पर यह मुफ्तखोर भिखारी लेटे-बैठे व कब्ज़ा जमाए रहते हैं।

खासतौर पर उन बेंच पर तो सबसे पहले कब्ज़ा करते हैं जिनके ऊपर पंखे लगे होते हैं। इसके अतिरिक्त रेलगाडिय़ों में बिना टिकट यात्रा करना, ट्रेन  के डिब्बों के बीच में रास्ते में बेशर्मों की तरह बैठना व अपना सामान रखना, बिना टिकट यात्रा करने के बावजूद स्वयं सीटों पर कब्ज़ा जमाना इनकी प्रवृति में शामिल है।  इन अवांछित लोगों से आप सीट छोडऩे को कहें फिर यह यात्री को अपमानित करने व उसे गाली देने में भी देर नहीं लगाते.

प्रशासन को ऐसे तत्वों से सख्ती से निपटना चाहिए तथा इन्हें नियंत्रित रखने व इनपर गहरी नज़र रखने के प्रयास करने चाहिए। इनको बेलगाम छोडऩे व इनकी गतिविधियों को नज़र अंदाज़ करने का अर्थ है देश में अपराधों को और अधिक बढ़ावा देना। इन्हें रेलवे स्टेशन सहित सभी सरकारी भवनों से दूर रहने के लिए बाध्य करना चाहिए। इनके सामानों की भी समय-समय पर तलाशी ली जानी चाहिए। देश के सभी रेलवे स्टेशन, प्लेटफार्म व यात्री विश्रामग्रहों को भिखारियों से पूरी तरह मुक्त कराया जाना चाहिए।  ट्रेन में उनके बिना टिकट घूमने-फिरने की आज़ादी को भी समाप्त किए जाने की ज़रूरत है।

गौरतलब है कि भिखारियों या भगवा वेशधारियों से टिकट निरीक्षक द्वारा टिकट के विषय में न पूछे जाने की चर्चा आज पूरे देश में इतनी आम हो चुकी है कि तमाम निखट्टू व नकारा बिना टिकट रेल यात्रा करने के 'शौक़ीन' लोग भी भगवा वस्त्रों को रेल यात्रा हेतु एक वर्दी अथवा फ्री रेल पास के रूप में प्रयोग करने लगे हैं। खासतौर पर धार्मिक स्थलों की ओर जाने वाली गाडिय़ों में यह ज़रूर देखा जा सकता है। यदि भगवा अथवा भिखारी वेशधारियों की इस प्रकार की बेलगाम व अनियंत्रित अपराधी गतिविधियों पर नज़र नहीं रखी गई तो निश्चित रूप से देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए यह वर्ग कभी भी बड़ा खतरा बन सकता है।