‘‘जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही तुम्हारा उनसे कोई वास्ता नहीं, उनका मामला
तो अल्लाह के सुपुर्द है और वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।’’
(क़ुरआन-ए-पाक,
6:159)
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों
से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों।
किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’
तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे।
ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी
या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे?
नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की
तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
क़ुरआन-ए-पाक की सूरह 3,
आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम
भी मुसलमान ही थे। इसी पाक सूरह की 67 वीं आयत में क़ुरआन-ए-पाक में बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई
यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
क़ुरआन-ए-पाक हमे स्वयं को
‘‘मुस्लिम’’ कहने का आदेश देता है ।
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है। तो उत्तर में
उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। क़ुरआन-ए-पाक में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी, जिसने
अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (क़ुरआन-ए-पाक, 41:33)
याद रहे कि यहाँ क़ुरआन-ए-पाक कह रहा है कि
‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’
दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’
हजरत मोहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)
जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते
थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64वीं आयत भी लिखवाते थेः
‘‘हे नबी! कहो, हे किताब
वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर, जो हमारे और
तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह
के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना
ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल
अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’
इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए ।
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित
अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि
अलैहि), इमाम शफ़ई (रहॉ), इमाम हम्बल (रहॉ) और ईमाम मालिक
(रहॉ), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर
के पात्र हैं और रहेंगे। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी
दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की
विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो
जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना
चाहिए।