Tuesday, October 30, 2012

फैज़ाबाद में हुए दंगे की ज़िम्मेदारी अखिलेश यादव को लेनी चाहिए



उत्तर प्रदेश में जब सरयू नदी के किनारे ठंडी हवा बह रही थी उसी वक़्त फिज़ा में ज़हर घोलने की साजिश रची जा रही थी और फिर कुछ लम्हों के बाद शहर के भीतर चौक में इंसान एक दूसरे के खून के प्यासे बने बैठे थे। फैजाबाद का चौक इलाका आतंक और उन्माद के हाथों फंस कर बुरी तरह जख्मी हो चूका था, यहाँ के रहने वाले गुफ़रान सिद्दीकी का कहना है की अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के वक़्त जब पूरा देश दंगो की चपेट में था तब भी हमारा शहर सुरक्षित था, फिर जाने कैसे ये दिन देखना पड़ा। हमारी ही आँखों के सामने इबादतगाह के भीतर तोड़ फोड़ की गयी, दुकानों और दफ्तर को जलाया गया, खुदा खैर करे हम उनके हाथ नही आये वरना वो हमे भी 'मोदी का गुजरात' बना देते।

फैजाबाद गंगा-जमुनी तहज़ीब का बेहतरीन नमूना है। यहाँ पर दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को जाने वाले जुलूस के ऊपर चौक वाली मस्जिद से पुष्प वर्षा की जाती रही है और ये सिलसिला इस बार दंगाइयों ने तोड़ दिया। फैजाबाद के साकेत पी.जी. कालेज के प्रोफ़ेसर अनिल कुमार सिंह का कहना है की दंगाई जैसे किसी ख़ास तरह की प्लानिंग के तहत मैदान में उतरे थे उनके सामने शिकार बनी बैठी बहुत सी चीज़े थी पर उन्होंने सिर्फ अल्पसंख्यकों की दुकानों को ही निशाना बनाया। इस दौरान पुलिस का कहीं अता-पता भी नही था। यूपी में हो रहे दंगो में पुलिस की निष्क्रियता कई सवाल खड़े करती है, ऐसे सवाल जिसमे खुद युवा और सोशलिस्ट मुख्यमंत्री भी फंसते हुए नज़र आते हैं।

उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के ऊपर लगातार हमले किये जा रहे हैं। प्रतापगढ़ की घटना किसी से छुपी नही । ऐसे में फैजाबाद की हिंसा न सिर्फ घाव हरे करेगी बल्कि राज्य सरकार पर से भरोसा भी उठा देगी। फैजाबाद और यूपी के अन्य दंगा पीड़ित शहरों के लोग भय में जीने को मजबूर हैं। यदि हालात ऐसे ही रहे तो इसका सियासी फायदा लेने के लिए राजनैतिक दलों में होड़ मच सकती है और फिर दंगे रोकने और करवाने का श्रेय लेने वालों की कतार लगने के बाद की स्थिति और भी विस्फोटक हो सकती है। ये सिर्फ एक पत्रकार के नाते मेरी बाते नही हैं बल्कि हर उस व्यक्ति की मनोदशा है जिसने धर्मं निरपेक्षिता के नाम पर अपना वोट दिया था ताकि राज्य में विकास को गति मिले और आपसी सौहार्द का सिलसिला कायम हो सके। लेकिन दंगो और प्रशासनिक लापरवाही ने उत्तर प्रदेश के लोगों में वर्तमान अखिलेश यादव सरकार के प्रति गुस्से और विरोध की ज्वाला भड़का दी है। यदि सरकार को इन बातों से कोई लगाव नहीं है कि उसकी जनता किस हाल में जीने को मजबूर है तो ऐसी सरकार या पार्टी के लोगों को अपने ‘घोषणा पत्र’ को फाड़ देने चाहिए।

देश के सबसे बड़े सूबे में सपा की सरकार है और सरकार को बने हुए छ माह से ऊपर हो चुके हैं। 'बचपन की गलतियों' का वक़्त भी बीत चूका है। जब इतने से कम वक़्त में सरकार साहिब का ये हाल है तो अभी पूरे 4 साल छ महीने बचे हुए हैं। यदि दंगों की गिनती की जाए और फिर सरकार के बाकी बचे वक़्त से उसका गुणा किया जाए तो ये संख्या हैरान कर देने वाली लगती है और इस हैरानी के पीछे प्रशासनिक अधकचरेपन से कहीं अधिक युवा मुख्यमंत्री की नीतियाँ हैं जिनमे आम आदमी की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह का प्रबंध नही किया गया है और न ही सांप्रदायिक शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए उचित उपाय। उत्तर प्रदेश को गुजरात बनने से बचा लीजिये अखिलेश यादव जी या फिर ‘नुक्कड़ और चौराहों’ पर किये अपने वादों की लिस्ट को फाड़ दीजिये क्योकि प्रदेश के मुखिया होने के नाते आपकी जवाबदेही बनती है, किसी विपक्ष की नही।

सपा सरकार दंगाइयों की सरकार



फैजाबाद (29 अक्टूबर 2012में हुए दंगों की जांच के लिए रिहाई मंच के एक जांच दल ने 28 अक्टूबर को फैजाबाद के कर्फ्यू ग्रस्त इलाकों का दौरा किया। जांच दल ने पाया कि दंगा पूर्वनियोजित थाजिसकी तस्दीक यह बात करती है कि बहुत कम समय में फैजाबाद के कई स्थानों पर टकराव, व तनाव का होना है। 21-22 सितंबर की रात देवकाली मंदिर की मूर्ती के चोरी होने और 23 अक्टूबर को उसके मिलने का प्रकरण और उस पर हुई सांप्रदयिक राजनीति इस दंगे की प्रमुख वजहों में से एक थी। हिन्दुत्वादी समूहों के अफवाह तंत्र ने आमजनमानस के भीतर इस बात को भड़काया कि देवकाली की प्रतिमा को मुसलमानों ने चोरी किया। केंद्रिय दुर्गा पूजा समिति फैजाबाद ने भी कहा था कि वो पूजा पांडालों पर विरोध स्वरुप पांडालों को कुछ घंटों तक दर्शन के लिए बंद रखा जाएगा। यहां गौरतलब है कि केंद्रिय दुर्गा पूजा समिति फैजाबाद के अध्यक्ष मनोज जायसवाल समाजवादी पार्टी के भी नेता हैं। पर ऐन वक्त 23 अक्टूबर को मूर्तियों के बरामद होने के बाद हिन्दुत्वादी शक्तियों के मंसूबे पस्त हुए। क्योंकि मूर्ति की चोरी में पकड़े गए लोग हिंदू निकले ऐसे में ऐन वक्त में पहले से प्रायोजित दंगों के लिए अफवाहों का बाजार गर्म करके जगह-जगह पथराव करके दंगे की शुरुआत की गई। पहले से तैयार भीड़ ने प्रायोजित तरीके से सैकड़ो साल पुरानी मस्जिद हसन रजा खां पर हमला बोला ओर उसके आस-पास की तकरीबन तीन दर्जन से ज्यादा दुकानों में लूटपाट व आगजनी की और पूरे फैजाबाद को दंगे की आग में झोक दिया।

पुलिस की निस्क्रियता का यह आलम रहा कि चैक इलाके की साकेत स्टेशनरी मार्ट को दंगे के दूसरे दिन 25 अक्टूबर को पुलिस की मौजूदगी में फूंका गया। बाद में जब दुकान के मालिक खलीक खां ने प्रशासन से एफआईआर दर्ज करने की मांग की तो यह कहकर पुलिस ने हिला हवाली की कि बिजली की शार्ट शर्किट की वजह से आग लगी।

जांच दल के आलोक अग्निहोत्री, राजीव यादव और सुब्रत गुप्ता ने कहा कि प्रथम दृष्ट्या प्रयोजित दंगों में अफवाह तंत्र के सक्रिय होने और फैजाबाद प्रशासन की निष्क्रियता के चलते दंगाइयों का मनोबल बढ़ा और कुछ घंटों में उन्होंने प्रायोजित तरीके से आगजनी और लूट-पाट की। जांच दल के सामने यह तथ्य आये, कि दंगे को दशहरा-ईद-दीपावली के ऐन वक्त कराने के पीछे दंगाइयों की यह मानसिकता भी सामने आई की ज्यादा से ज्यादा लूट और आगजनी करके मुस्लिम समुदाय को नुकसान पहुंचाना।

रिहाई मंच द्वारा फैजाबाद दंगों के तथ्य संकलन का काम जारी है। मंच ने प्रथम दृष्ट्या तथ्यों के आधार पर यह वक्तव्य जारी करते हुए देश के विभिन्न मानवाधिकार सामाजिक व राजनीतिक संगठनों से अपील की है कि वो फैजाबाद के उक्त घटनाक्रम का संज्ञान लेते हुए अपनी जनपक्षीय प्रतिबद्धताओं व सरोकारों के साथ साम्प्रदायिक ताकतों का प्रतिरोध करें।

Monday, October 29, 2012

धोबी रिजर्वेशन पाए और मुस्लिम धोबी धक्के खाए: यह कैसा इन्साफ है ?



सेकुलरिस्म हिंदुस्तान की ज़रुरत है. ज़रुरत इसलिए क्योंकि हमारे मुल्क में मुक्तलिफ़ मजाहिब को मानने वाले लोग रहते हैं. हमने इरादतन अपने मुल्क का सेकुलर आईन बनाया ताकि सभी मजाहिब के मानने वालों के साथ इन्साफ हो सके. सेकुलर निजाम की ज़रुरत शायद इसलिए भी थी क्योंकि ऐसे निजाम में ही कमजोर, पिछड़े तबको और अकलियतों की तरक्की मुमकिन है. हमारा सेकुलर आईन सरकारों और उसके मुक्तलिफ़ विभागों को यह हिदायत देता है कि वो मजहब के आधार पर किसी भी तरह का कोई भेद भाव नहीं बरतेंगे. लेकिन इस देश में सरकारें आईन के सेकुलर उसूल के खिलाफ कई बार काम करती आयीं हैं. Presidential Order, 1950 , जो कि हिन्दुस्तानी आईन के दफा 341 के तहत लाया गया है, इसकी जीती-जागती मिशाल है. यह 1950 का आर्डर मजहब के आधार पर भेद भाव करता है. इसके तीसरे हिस्से में 1956 से पहले लिखा गया था कि हिन्दू मजहब के मानने वाले दलित समाज के लोग ही सिर्फ Scheduled Caste (SC ) माने जायेंगे. 1956 में इस आर्डर में तब्दीली की गयी और सिख मजहब के मानने वाले दलितों को इसमें शामिल कर लिया गया. इसके बाद 1990 में बौद्ध मजहब के मानने वाले दलित समाज के लोगों को भी इसमें जोड़ दिया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि सिख और बौद्ध मजाहिब के मानने वाले दलित समाज के लोगों को भी रिजर्वेशन के फायदे हिन्दू दलितों के साथ मिलने शुरू हो गए. लेकिन जो दलित समाज के लोग इस्लाम और इसाई मजाहिब में शामिल हुए उनको यह रिजर्वेशन का फायदा नहीं मिल पा रहा है क्योंकि यह लोग Presidential Order,1950 के दायरे में शामिल नहीं हैं. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो मजाहिब हिंदुस्तान में पैदा हुए इनके मानने वाले या बाद में इन मजाहिब में शामिल हुए दलित समाज के लोगों को तो रिजर्वेशन का फायदा मिल रहा है और जो दलित समाज के लोग हिंदुस्तान के बहार से आये मजाहिब जैसे इस्लाम और इसाई मजहब में शामिल हुए इनको रिजर्वेशन का हक नहीं है. यह तो साफ़ तौर पर नाइंसाफी है क्योंकि हिंदुस्तान में मजहब बदलने से जात-पात नहीं बदल जाती है. हिन्दू दलित समाज के लोग चाहे वो किसी भी मजहब में अपना मजहब बदल कर गए बदनसीबी से जात-बिरादरी उनके साथ ही गयी. मजहब की तब्दीली के बाद भी दलितों के तालीमी और समाजी हालात वही रहते हैं, इसलिए सिर्फ हिन्दू, सिख और बौद्ध मजाहिब में रहे या गए दलितों को को ही रिजर्वेशन देना और दूसरे मजाहिब जैसे इस्लाम, पारसी और इसाई में गए दलित समाज के लोगों को रिजर्वेशन से महरूम रखना आईनी एतबार से ठीक नहीं है. बड़ी अजीब बात है की हिंदुस्तान में जात-पात के निजाम ने इतनी मजबूत जड़े बना ली हैं कि इंसान अपना मजहब तो बदल सकता है पर जात नहीं. जात उसको ज़िन्दगी भर परेशान करती है और मरने के बाद भी पीछा नहीं छोडती.

1985 में सुप्रीम कोर्ट ने Soosai Versus Union of India 1985 (Supp SCC 590) के फैसले में कहा था कि जात मजहब बदलने के बाद भी जारी रहती है. इसलिए कोई भी दलित समाज का फर्द चाहे सिख, बौद्ध, इस्लाम और इसाई मजहब में जाये उसकी जात उसका पीछा नहीं छोडती. हिन्दुस्तानी समाज में जो नुकसानात जात से जोड़ दिए गए हैं वो उसका पीछा बदले हुए मजहब में भी करते हैं. कोई इसको माने या न माने पर हर धर्म के मानने वाले ज़यादातर लोग जात-बिरादरी के वायरस से आज भी उसी सिद्दत से बीमार हैं जैसा पहले थे और उन्होंने अपनी यह बिमारी आज के मॉडर्न ज़माने में भी कमोवेश जारी रखी हुई है. जात-बिरादरी से जुड़े नुकसानात उतने ही बराबर हैं चाहे दलित समाज के लोग किसी भी मजहब में जायें. फिर क्यों नहीं जो दलित समाज के लोग इस्लाम और इसाई मजहब में जाते हैं उनको Scheduled Caste का फायदा दिया जाता है? यह तो मजहब के आधार पर भेद भाव हुआ. जब मजहब बदलने पर तालीमी और समाजी हालात वही रहते हैं तो फिर यह भेद भाव क्यों?

सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवम्बर, 1992 को अपने Indra Sawhney Versus Union of India (Supp 3 SCC 217 ) के फैसले में माना था कि जात सिर्फ हिन्दुओं तक ही महदूद नहीं है, यह दूसरे मजाहिब के मानने वालों में भी पाई जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने बिलकुल सही पहचान की और यह सच्चाई भी है. हालांकि सिख, बौद्ध, इस्लाम और इसाई मजाहिब में जात-पात का कोइ तजकिरा नहीं है. यह सभी मजाहिब उसूलन इंसानों की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन इनके मानने वाले सिखों, बौद्धों, मुसलमानों और इसाईयों में जात-पात देखने को मिलती है. जात-पात समाज की एक कडवी हकीकत के तौर पर हमारे सामने मुंह बाए खड़ी रहती है. जो लोग हिन्दू दलितों से सिख, बौद्ध, मुस्लमान या इसाई बने वो आज भी अपनी जात-बिरादरी का दाग अपने सर पर ढौह रहे हैं. इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता.
दलित समाज से जो लोग मुस्लमान या इसाई बने उनके लिए Scheduled Caste दर्जे की मुफलिफत करने वाले लोग कहते हैं कि यह रिजर्वेशन का फायदा मुसलमानों और इसाईयों को नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस्लाम और इसाई मजहब में जात-बिरादरी का कोई तसव्वुर नहीं है. हाँ यह सच है. लेकिन अगर यह तर्क माने तो सिख और बौद्ध मजाहिब भी जात-पात के खिलाफ ही खड़े हुए और इनमे भी जात-पात की मनाही है पर इन मजाहिब के मानने वालों में भी जात-पात पायी जाती है और इसके वावजूद रिजर्वेशन का फायदा उनको मिल रहा है. फिर क्यों नहीं ये फायदा उन दलित समाज के लोगों तक पहुंचना चाहिए जिन्होंने इस्लाम या इसाई मजहब कबूल किया. यह कैसा इन्साफ है कि समाज में हसियत एक पेशा एक और सरकारी फायदों में भेद भाव. क्या यह इंसाफी है कि हिन्दू धोबी को तो रिजर्वेशन मिले लेकिन मुस्लिम धोबी का नहीं, जबकि समाज में इनकी एक ही हसियत है और पेशा भी. इन दोनों में ही तालीमी और समाजी पिछड़ापन है. फिर क्यों नहीं Scheduled Caste से जुड़े फायदे दोनों को ही दिए जाते हैं ?

इस मसले पर बहुत सी कमीशन और कमेटियों की रिपोर्ट आ चुकी हैं. 1969 में एल्यापेरुमल कमेटी ने कहा था Scheduled Caste से जुड़े फायदे गैर-हिन्दू दलितों को भी मिलने चाहिए. मंडल कमीशन ने 1980 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जात-पात हिन्दू मजहब में है पर इसका असर दूसरे धर्मों में भी मिलता है. 1983 में गोपाल सिंह कमीशन ने भी माना था कि Presidential Order,1950 में तरमीम हो ताकि इसके फायदे दूसरे मजहिब में गए दलित समाज के लोगों को भी मिलें. मरकजी अकलियती कमीशन ने भी पुरजोर तरीके से कहा है कि 1950 के आर्डर में तरमीम करके मुस्लिम और ईसाई समाज में गए दलितों को रिजर्वेशन और दूसरे फायदे जो Scheduled Caste को मिलते हैं वो मिलने चाहिए. इस 1950 के आर्डर को गैर-आईनी करारे देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में 3 और मुक्तलिफ़ हाई कोर्ट्स में 7 रिट पेटिसन ज़ैरे गौर हैं. 21 मई 2007 को रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने भी 1950 के आर्डर को गैर-आईनी करार दिया है और अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस आर्डर में मजहब की बुनियाद ख़त्म की जाये और Scheduled Caste उन सभी दलितों को माना जाये जो किसी भी मजहब में चले गए हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह 1950 का आर्डर किसी भी हिन्दू दलित को कोई और मजहब अपनाने से रोकता है और यह हिन्दुस्तानी आईन में दी गयी उसकी मजहबी आजादी के हक की खिलाफ वर्जी है. इससे किसी भी इंसान को अपनी मर्ज़ी का मजहब अख्तियार करने पर रोक लगती है, क्योंकि अगर कोई हिन्दू दलित सिख और बौद्ध मजहब के अलावा कोई और धर्म अख्तियार करेगा तो उसको Scheduled Caste को दिए गए रिजर्वेशन के सारे फायदे से महरूम होना पड़ेगा. यह आईन की दफा 14 , 15 ,16 और 25 के खिलाफ है. आईन के मुताबिक न तो रिजर्वेशन मजहब के आधार पर हो सकता है और ना ही मजहब के आधार पर रिजर्वेशन छीना जा सकता है. लेकिन यह 1950 का आर्डर तो यही कर रहा है कि यह उन दलितों से रिजर्वेशन छीन लेता है जो गैर-हिन्दू मजाहिब जैसे इस्लाम, ईसाईयत, पारसी बगैरह में शामिल हो जाते हैं.

मुझे लगता है कि हिंदुस्तान में जो लोग दलितों की लडाई लड़ रहे हैं उनको Presidential Order, 1950 को तरमीम कराने की लडाई लड़नी होगी ताकि दलित समाज के लोग जो किसी भी मजहब में हों, जिनको समाज के ज़रिये सदियों के सताने और जुल्मात से जख्म मिले हैं, वो जख्म उनके भर सकें, वो तालीमी इदारों और नौकरियों में आ सकें. अगर दलित समाज के लीडरान ऐसा नहीं करते हैं तो यह सन्देश जायेगा कि दलित सिर्फ हिन्दू और उससे जुड़े मजाहिब से ही हो सकता और उन्ही को फायदा पहुंचे. और आम लोग यह भी सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि जो दलित समाज के लोग दूसरे मजहिब में चले गए उनकी दलित समाज के लीडरान को कोई चिंता नहीं है. मतलब यह निकलेगा कि अब भी दलित सिर्फ हिन्दू समाज में ही बंधा रहना चाहता है और बाबा साहेब भीम राव आम्बेडकर की वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ सारे संघर्षों को दलित लीडरान ने भुला दिया है. और अगर ऐसा नहीं है तो दलित समाज के लीडरान को पुख्तगी से Presidential Order , 1950 को तरमीम कराने की लडाई में साना- बसाना खड़े होना पड़ेगा.

सेकूलरिस्म हमारे आईन का अहम् उसूल है.लेकिन 1950 का यह आर्डर इस उसूल के बिलकुल खिलाफ है. इसे जितनी जल्दी दुरुस्त किया जायेगा उतना बढ़िया है. उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर जल्दी ही अपना फैसला सुनाएगा. मरकजी सरकार को भी इस गैर-आईनी आर्डर को जल्द से जल्द तरमीम करके मजहब की बुनियाद Scheduled Caste से हटा लेनी चाहिए. अगर इतनी सारी कमीशन और कमेटी की रिपोर्टों के बाद भी सरकार इस आर्डर को तरमीम नहीं करती है तो यह हमारे मुल्क के सेकुलर निजाम के लिए बढ़िया बात नहीं है. सभी मजाहिब में मौजूद दलित समाज के लोगों का विकास इससे जुडा हुआ है. इससे तालीमी इदारों में, नौकरियों में, सियासी रिजर्वेशन (पंचायतों, municipal corporation , विधान सभा और लोक सभा की सीटों में ) और जो कानून दलितों के ताफ्फुज़ में ,जैसे SC /ST (Prevention of Atrocities) Act , 1989 , Prevention of Civil Liberties Act ,1955, बनाये गए हैं इनका फायदा हर मजहब में मौजूद या गए हुए दलित समाज के लोगों को मिलेगा. सेकुलर आईन और निजाम में फायदे मजहब के आधार पर नहीं बल्कि तालीमी और समाजी हालात के आधार पर दिए जाने चाहिए.
अब्दुल हफीज गाँधी

बिहार में तेज चल ही है तेज़ाबी हवा, झुलस रही हैं स्त्रियां



समाज सड़ चुका है। विकास झूठ है, फरेब है। हाशिये के लोग इसकी सड़ांध झेलने को मजबूर हैं। महिलाएं और वो भी दलित हैं तो और भयानक शोषण और अत्याचार की शिकार हैं। विकास और सुशासन के नारों के बीच हाशिये के लोग लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वहीं बिहार का घमंडी राजा नीतीश राजसूय यज्ञ कर रहा है और महिलाएं सामंतवादियों के चंगुल में नरक भोग रही हैं। उन पर लगातार हमले हो रहे हैं। बिहार में अभी हाल के दिनों में लगातार महिलाओं और दलितों के खिलाफ हमले बढ़े हैं। दूर दराज ही नहीं, बल्कि राजधानी और इससे सटे इलाकों में लगातार लड़कियों के रेप और हत्या जैसे मामले सामने आये हैं। अभी रोंगटे खड़े कर देने वाला ताजा मामला बिहार में राजधानी पटना से सटे मनेर थाने के छितनावां गांव का है। दबंगों ने क्रूरता की हद पार करते हुए रविवार 21 अक्टूबर की देर रात घर में घुस कर दो दलित बहनों चंचल और सोनम को तेजाब डालकर बुरी तरह जला दिया। कारण वही सामंतवादी पुरुष ऐंठन। वही सामंतवादी सोच कि गरीब, दलित और स्त्री होकर ये सामंतवादी पुरुष के शोषण का विरोध कैसे कर सकती हैं? कैसे नहीं तैयार होगी शोषित होने को स्त्री? ये सामंतवादी ताकतें इतनी प्रभावशाली हो गयी हैं कि सरकार इनके इशारों पर चल रही है। और जैसे-जैसे हाशिये का समाज सशक्त होने की कोशिश कर रहा है, सामंतवादी ताकतों का दमन बढ़ता जा रहा है।

मीडिया में भी खबरें आयी हैं कि प्रेम और शादी से इनकार करने पर दोनों दलित बहनों पर मनचलों ने तेजाब डाला है। बात साफ है कि यह वही पुरानी सामंतवादी सोच काम कर रही है कि स्त्री और वो भी गरीब और दलित कैसे पुरुष को अस्वीकार करने की हिम्मत जुटा रही है। तेजाब की शिकार चंचल को दबंग लगातार छेड़ते रहते थे। बाजार या पढ़ने आते-जाते वे लगातार उसे परेशान कर रहे थे। दबंगों के डर से वह चुप रह परिजनों को बताने से बचती रही, लेकिन दबंगों के सामने घुटने भी नहीं टेके। वे लगातार उसे बुरे परिणाम भुगतने की धमकी भी देते रहे। पर चंचल झुकी नहीं। हाल ये हुआ कि इन सामंतवादी पुरुषों के अहम को ठेस लगी और इन्होंने चंचल को अपनी क्रूरता का शिकार बना डाला। देर रात घर में घुस कर छत पर सो रही चंचल और उसकी छोटी बहन सोनम पर तेजाब डाल कर जला दिया। दलितों और महिलाओं के विरोध को कुचलने के लिए ही सामंतवादी ताकतें इतनी क्रूरता पर उतर आयी हैं। बिहार में आये दिन दलितों के खिलाफ हो रही हिंसा इसी सामंतवादी सोच को जाहिर कर रहे हैं। इससे पहले भी वैशाली में एक दलित छात्रा को दबंग परेशान करते रहे और विरोध करने पर उन्होंने उसके साथ बालात्कार कर के उसे कुएं में मार कर फेंक दिया था।

दबंगों की क्रूरता का शिकार हुई इंटर में पढ़ी रही चंचल बैंक में नौकरी करना चाहती थी। उसका यही सपना था ताकि गरीब मां-बाप को बेहतर जिंदगी दे सके। इसके लिए वह खूब मन लगा कर पढ़ाई भी कर रही थी। अपने सपनों को उड़ान देने के लिए उसने मनेर से दूर दानापुर में एक निजी संस्थान से कंप्यूटर के डीसीए कोर्स में भी दाखिला ले लिया था। वह रोज ऑटो से पढ़ने आया जाया करती थी। वहीं इसकी छोटी बहन सोनम सातवीं में पढ़ रही थी। सोनम की एक आंख पहले से ही खराब थी, इस हमले के बाद वह और सकते में है। वह भी पढ़-लिख कर मां-बाप की गरीबी दूर करना चाहती थी। लेकिन दबंगों ने तेजाब से न केवल इनके शरीर और आंखों को जलाया है बल्कि इनके सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है।

चंचल का चेहरा पूरी तरह से झुलस चुका है। छाती, गला, पीठ और पैर भी तेजाब से जले हुए हैं। शरीर का कुल 28% भाग जल चुका है। वहीं छोटी बहन सोनम का 20% भाग, हाथ और पीठ-पैर झुलसा है। चंचल की दशा इतनी बुरी है कि वह बोल भी नहीं पा रही है। बड़ी मुश्किल से कराहते हुए वह कहती है “बैंक में नौकरी पा कर मां-बात की गरीबी दूर करना चाहती थी। अब क्या होगा समझ में नहीं आ रहा। जिंदगी बर्बाद हो गयी है”। ये बताते हुए उसको रोते हुए साफ महसूस किया जा सकता है, लेकिन हालत ऐसी है कि उसके आंसू भी पता नहीं चलते। बस सुनाई पड़ती है तो सिसकियां और दर्द भरी कराह।

चंचल के पिता शैलेश पासवान के लिए बेटियां ही सब कुछ थीं। ऐसे वक्त में जब बेटियों की चाह कोई नहीं रखता, इन्हें हमेशा बेटियों की ही चाह थी। दो बेटियां होने के बाद इन्होंने और कोई औलाद नहीं चाही। वे फफकते हुए कह पड़ते हैं, “चाहते थे कि बेटियां अपने पैरों पर खड़ा होकर नाम रोशन करेगी। हमारी गरीबी भी दूर होगी। इसलिए बेटियों को पढ़ा भी रहे थे। लेकिन अब बेटियों के इस हाल के बाद भविष्य अंधकारमय हो गया है”।

पीड़ित दलित परिवार बेहद गरीब है। परिवार इंदिरा आवास से उपलब्ध घर में ही रहता है। कमरों का अभाव होने के कारण ही ठंड शुरू हो जाने के बावजूद भी बहनों को छत पर सोना पड़ रहा था। मां-बाप मेहनत मजदूरी करके गुजारा करते हैं। बड़ी मुश्किल से बेटियों की पढ़ाई हो रही थी। सोनम गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाई कर पा रही थी। चंचल जैसे-तैसे कंप्यूटर कोर्स कर रही थी। वहीं अब इस घटना के बाद परिवार को कुछ सूझ नहीं रहा है। चंचल और सोनम के इलाज में भी पैसे लगेंगे। फिलहाल तो पटना के पीएमसीएच में मुफ्त में इलाज चल रहा है, लेकिन दवाएं बाहर से भी खरीदनी पड़ रही हैं। चंचल की हालत इतनी नाजुक है कि इलाज लंबा चलेगा। पूरी तरह से ठीक होने में लंबा वक्त लगेगा। चेहरा इतना झुलसा है कि कैसे ठीक होगी, कहना मुश्किल है। बेहतर सर्जरी के लिए अच्छे अस्पताल और इलाज खर्च की जरूरत है। जबकि परिजन इसमें सक्षम नहीं हैं। फिलहाल पीएमसीएच में इलाज चल रहा है लेकिन ऐसे हाल में जब बिना काम किये परिजनों का गुजारा मुश्किल है, इलाज कैसे चलता रहेगा कहना मुश्किल है। बार-बार पत्रकारों और संगठनों की पूछताछ से खीज चुकी चचंल की मां सुनैना देवी गुस्से में कहती हैं, “कुछो तो नहीं हो रहा है खबर छपे के। कउनो फायदा नहीं हो रहा। रोजे अखबार में छपइत है लेकिन अभी तक कोई मुआवजे न मिलल”

दरिंदों के पक्ष में दैनिक जागरण:
पटना में दैनिक जागरण महिलाओं के मामले में जिस तरह रिपोर्टिंग कर रहा है, उससे इसकी सामंतवादी सोच का पता चलता है। पिछले दिनों पटना में गैंग रेप की शिकार लड़की को जहां बेबुनियादी तर्कों के आधार पर वह कठघरे में खड़ा कर रहा था, वहीं इस मामले में भी कुछ ऐसे ही सवाल खड़े कर रहा है। 26 अक्टूबर को अखबार लिखता है कि चंचल के फर्द बयान पर उसका अंगूठा क्यों लगा, जबकि वह इंटर की छात्रा है, हस्ताक्षर होना चाहिए था। इससे काफी कुछ पता चलता है कि गड़बड़ है। अब यह अखबार केवल इस बात से दबंगों पर आरोप को संदिग्ध बता रहा है। जबकि चंचल की हालत बिल्कुल नाजुक थी। वह निस्‍तेज पड़ी रहती थी। बोल पाने में असक्षम थी। ऐसे नाजुक हाल में हस्ताक्षर के बजाय अंगूठा ले लिया गया होगा। दैनिक जागरण आगे लिखता है कि अपराधियों को घर में किसी ने नहीं देखा। देर रात सारे लोग सोये थे। सोयी अवस्था में तेजाब डाल अपराधी भाग खड़े हुए। ऐसे हाल में अपराधियों को कैसे पहचाना जा सकता था। दैनिक जागरण की रिपोर्ट से साफ है कि वह पीड़ित परिवार को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।

इस सुशासन में अपराधियों के मनोबल का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मीडिया में इसकी खबर प्रकाशित होने और तीन गिरफ्तारियों होने के बावजूद दबंगों का हौसला कम नहीं हुआ है। दबंग लगातार परिजनों को धमकी देते फिर रहे हैं। चंचल के चाचा मिथिलेश पासवान बताते हैं, “26 अक्टूबर की रात को दबंगों ने दुबारा घर पर हमला बोला। रात में दरवाजे पर धक्का देते रहे, जंजीर खटखटाते रहे और दरवाजा न खोलने पर घर उड़ा देने की धमकी दी। वहीं 27 अक्टूबर को कुछ संदिग्ध युवक पीएमसीएच तक पहुंच कर छात्राओं के बारे में पूछते पाए गये”। ऊपर से पुलिस का वही पुराना रटा-रटाया जवाब मिल रहा है कि धड़-पकड़ जारी है। ऐसे हाल में परिजन भय में जी रहे हैं और सुशासन कान में तेल डाल कर सो रही है।

पीड़ित परिवार जहां बेहद गरीब है, वहीं इनकी मदद को कोई सामने नहीं आ रहा है। एपवा और एक-दो दलित संगठनों ने पीड़ितों से मुलाकात के बाद सरकार से मुआवजे और अपराधियों की गिरफ्तारी की मांग जरूर की है। भाकपा माले ने भी विरोध प्रदर्शन भी किया है। लेकिन इनका दायरा केवल सरकार से मांग तक सीमित होने के कारण कोई तात्कालिक सहायता नहीं पहुंची है। बिहार राज्य अनुसूचित जाति आयोग ने मुआवजे की बात कही है लेकिन अभी तक कोई सहायता राशि परिजनों को नहीं मिली है। कोई सामाजिक संगठन या एनजीओ ने भी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं ली है, जबकि पीड़ित परिवार बेहद गरीब है। बहरहाल चंचल और सोनम के सपने टूट चुके हैं और इनको मदद की जरूरत है।

ऐसे हाल में जब महिलाओं के खिलाफ लगातार हिंसा सामने आ रही है, राजधानी में पटना में पिछले दिनों कई गैंग रेप के मामले सामने आये हैं, दलित छात्राओं के रेप और हत्या के मामले सामने आये हैं, कुछ ही किलोमीटर दूर मनेर में दबंग इतने हौसले में हैं कि तेजाब से जलाने और गिरफ्तारी के बाद भी दबंगई से बाज नहीं आ रहे हैं… ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अधिकार यात्रा के आयोजन में व्यस्त हैं। अपराधियों का हौसला यों ही नहीं बढ़ा हुआ है। बल्कि इस सुशासन में इन्हीं लोगों की सहभागिता है। चार नवंबबर को होने वाले अधिकार सम्मेलन को लेकर बाहुबली अनंत सिंह से लेकर सुनील पांडेय और हुलास पांडेय जैसों के विशालकाय होर्डिंग से पटना की सड़कें पटी पड़ी हैं। और तो और, अधिकार सम्मेलन के लिए भारी रंगदारी वसूली जा रही है। 28 अक्टूबर को जदयू के पूर्व सासंद पर अधिकार रैली के लिए सात करोड़ रुपये रंगदारी मांगने का आरोप लगा है। हाजीपुर के एक निजी शैक्षणिक ग्रुप डायरेक्टर ने यह आरोप लगाया है। साफ है कि सरकार में कौन लोग हैं। ऐसे लोग ही सत्ता में शामिल हैं और अधिकार की मांग कर रहे हैं। जहां हाशिये के लोगों के अधिकार छीने जा रहे हैं, शोषण किया जा रहा है। आखिर सुशासन बाबू किनके अधिकारों की बात कर रहे हैं? अपराधियों की ही न! हाशिये के लोगों के अधिकारों की तो न सुशासन बाबू को फिक्र है न प्रशासन को, फिर सत्ता में सामंतवादी और अपराधी ही तो शामिल हैं। तो क्यों न अपराधियों और सामंतवादियों का मनोबल बढ़े?

एक व्यक्तिगत अपील: पीड़ित दलित परिवार बेहद गरीब है। मजदूरी से ही खर्चा चलता है। ऐसे हाल में तेजाब से बुरी तरह झुलसी छात्राओं का पूरी तरह ठीक होना कैसे संभव है, कह नहीं सकता। सरकारी पीएमसीएच अस्पताल में मुफ्त इलाज के सिवा और कोई मदद अभी तक सामने नहीं आयी है। इलाज और सर्जरी वगैरह में लाखों रुपये खर्च हो सकते हैं। संस्थाओं या व्यक्तियों से अनुरोध है कि हो सके तो पीड़ित परिवार की मदद करें।

Thursday, October 25, 2012

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) का विदायी अभिभाषण


आपने पहले ईश्वर की प्रशंसा, स्तुति और गुणगान किया, मन-मस्तिष्क की बुरी उकसाहटों और बुरे कामों से अल्लाह की शरण चाही; इस्लाम के मूलाधार ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ की गवाही दी और फ़रमाया :
ऐ लोगो! अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है, वह एक ही है, कोई उसका साझी नहीं है। अल्लाह ने अपना वचन पूरा किया, उसने अपने बन्दे (रसूल) की सहायता की और अकेला ही अधर्म की सारी शक्ति को पराजित किया।
लोगो मेरी बात सुनो, मैं नहीं समझता कि अब कभी हम इस तरह एकत्र हो सकेंगें और संभवतः इस वर्ष के बाद मैं हज न कर सकूँगा।
लोगो, अल्लाह फ़रमाता है कि, इन्सानो, हम ने तुम सब को एक ही पुरुष व स्त्री से पैदा किया है और तुम्हें गिरोहों और क़बीलों में बाँट दिया गया कि तुम अलग-अलग पहचाने जा सको। अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अच्छा और आदर वाला वह है जो अल्लाह से ज़्यादा डरने वाला है। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरबी पर, किसी ग़ैर-अरबी को किसी अरबी पर कोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं है। न काला गोरे से उत्तम है न गोरा काले से। हाँ आदर और प्रतिष्ठा का कोई मापदंड है तो वह ईशपरायणता है।
सारे मनुष्य आदम की संतान हैं और आदम मिट्टी से बनाए गए। अब प्रतिष्ठा एवं उत्तमता के सारे दावे, ख़ून एवं माल की सारी मांगें और शत्रुता के सारे बदले मेरे पाँव तले रौंदे जा चुके हैं। बस, काबा का प्रबंध और हाजियों को पानी पिलाने की सेवा का क्रम जारी रहेगा। कु़रैश के लोगो! ऐसा न हो कि अल्लाह के समक्ष तुम इस तरह आओ कि तुम्हारी गरदनों पर तो दुनिया का बोझ हो और दूसरे लोग परलोक का सामन लेकर आएँ, और अगर ऐसा हुआ तो मैं अल्लाह के सामने तुम्हारे कुछ काम न आ सकूंगा।
कु़रैश के लोगो, अल्लाह ने तुम्हारे झूठे घमंड को ख़त्म कर डाला, और बाप-दादा के कारनामों पर तुम्हारे गर्व की कोई गुंजाइश नहीं। लोगो, तुम्हारे ख़ून, माल व इज़्ज़त एक-दूसरे पर हराम कर दी गईं हमेशा के लिए। इन चीज़ों का महत्व ऐसा ही है जैसा तुम्हारे इस दिन का और इस मुबारक महीने का, विशेषतः इस शहर में। तुम सब अल्लाह के सामने जाओगे और वह तुम से तुम्हारे कर्मों के बारे में पूछेगा।
देखो, कहीं मेरे बाद भटक न जाना कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून बहाने लगो। अगर किसी के पास धरोहर (अमानत) रखी जाए तो वह इस बात का पाबन्द है कि अमानत रखवाने वाले को अमानत पहुँचा दे। लोगो, हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है और सारे मुसलमान आपस में भाई-भाई है। अपने गु़लामों का ख़्याल रखो, हां गु़लामों का ख़्याल रखो। इन्हें वही खिलाओ जो ख़ुद खाते हो, वैसा ही पहनाओ जैसा तुम पहनते हो।
जाहिलियत (अज्ञान) का सब कुछ मैंने अपने पैरों से कुचल दिया। जाहिलियत के समय के ख़ून के सारे बदले ख़त्म कर दिये गए। पहला बदला जिसे मैं क्षमा करता हूं मेरे अपने परिवार का है। रबीअ़-बिन-हारिस के दूध-पीते बेटे का ख़ून जिसे बनू-हज़ील ने मार डाला था, मैं क्षमा करता हूं। जाहिलियत के समय के ब्याज (सूद) अब कोई महत्व नहीं रखते, पहला सूद, जिसे मैं निरस्त कराता हूं, अब्बास-बिन-अब्दुल मुत्तलिब के परिवार का सूद है।
लोगो, अल्लाह ने हर हक़दार को उसका हक़ दे दिया, अब कोई किसी उत्तराधिकारी (वारिस) के हक़ में वसीयत न करे।
बच्चा उसी के तरफ़ मन्सूब किया जाएगा जिसके बिस्तर पर पैदा हुआ। जिस पर हरामकारी साबित हो उसकी सज़ा पत्थर है, सारे कर्मों का हिसाब-किताब अल्लाह के यहाँ होगा।
जो कोई अपना वंश (नसब) परिवर्तन करे या कोई गु़लाम अपने मालिक के बदले किसी और को मालिक ज़ाहिर करे उस पर ख़ुदा की फिटकार।
क़र्ज़ अदा कर दिया जाए, माँगी हुई वस्तु वापस करनी चाहिए, उपहार का बदला देना चाहिए और जो कोई किसी की ज़मानत ले वह दंड (तावान) अदा करे।
स किसी के लिए यह जायज़ नहीं कि वह अपने भाई से कुछ ले, सिवा उसके जिस पर उस का भाई राज़ी हो और ख़ुशी-ख़ुशी दे। स्वयं पर एवं दूसरों पर अत्याचार न करो।
औरत के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह अपने पति का माल उसकी अनुमति के बिना किसी को दे।
देखो, तुम्हारे ऊपर तुम्हारी पत्नियों के कुछ अधिकार हैं। इसी तरह, उन पर तुम्हारे कुछ अधिकार हैं। औरतों पर तुम्हारा यह अधिकार है कि वे अपने पास किसी ऐसे व्यक्ति को न बुलाएँ, जिसे तुम पसन्द नहीं करते और कोई ख़्यानत (विश्वासघात) न करें, और अगर वह ऐसा करें तो अल्लाह की ओर से तुम्हें इसकी अनुमति है कि उन्हें हल्का शारीरिक दंड दो, और वह बाज़ आ जाएँ तो उन्हें अच्छी तरह खिलाओ, पहनाओ।
औरतों से सद्व्यवहार करो क्योंकि वह तुम्हारी पाबन्द हैं और स्वयं वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकतीं। अतः इनके बारे में अल्लाह से डरो कि तुम ने इन्हें अल्लाह के नाम पर हासिल किया है और उसी के नाम पर वह तुम्हारे लिए हलाल हुईं। लोगो, मेरी बात समझ लो, मैंने तुम्हें अल्लाह का संदेश पहुँचा दिया।
मैं तुम्हारे बीच एक ऐसी चीज़ छोड़ जाता हूं कि तुम कभी नहीं भटकोगे, यदि उस पर क़ायम रहे, और वह अल्लाह की किताब (क़ुरआन) है और हाँ देखो, धर्म के (दीनी) मामलात में सीमा के आगे न बढ़ना कि तुम से पहले के लोग इन्हीं कारणों से नष्ट कर दिए गए।
शैतान को अब इस बात की कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि अब उसकी इस शहर में इबादत की जाएगी किन्तु यह संभव है कि ऐसे मामलात में जिन्हें तुम कम महत्व देते हो, उसकी बात मान ली जाए और वह इस पर राज़ी है, इसलिए तुम उससे अपने धर्म (दीन) व विश्वास (ईमान) की रक्षा करना।
लोगो, अपने रब की इबादत करो, पाँच वक़्त की नमाज़ अदा करो, पूरे महीने के रोज़े रखो, अपने धन की ज़कात ख़ुशदिली के साथ देते रहो। अल्लाह के घर (काबा) का हज करो और अपने सरदार का आज्ञापालन करो तो अपने रब की जन्नत में दाख़िल हो जाओगे।
अब अपराधी स्वयं अपने अपराध का ज़िम्मेदार होगा और अब न बाप के बदले बेटा पकड़ा जाएगा न बेटे का बदला बाप से लिया जाएगा ।
सुनो, जो लोग यहाँ मौजूद हैं, उन्हें चाहिए कि ये आदेश और ये बातें उन लोगों को बताएँ जो यहाँ नहीं हैं, हो सकता है, कि कोई अनुपस्थित व्यक्ति तुम से ज़्यादा इन बातों को समझने और सुरक्षित रखने वाला हो। और लोगो, तुम से मेरे बारे में अल्लाह के यहाँ पूछा जाएगा, बताओ तुम क्या जवाब दोगे? लोगों ने जवाब दिया कि हम इस बात की गवाही देंगे कि आप (सल्ल॰) ने अमानत (दीन का संदेश) पहुँचा दिया और रिसालत (ईशदूतत्व) का हक़ अदा कर दिया, और हमें सत्य और भलाई का रास्ता दिखा दिया।
यह सुनकर मुहम्मद (सल्ल॰) ने अपनी शहादत की उँगुली आसमान की ओर उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार फ़रमाया, ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना! ऐ अल्लाह, गवाह रहना।

Wednesday, October 24, 2012

अछूत समस्‍या से छूटने के लिए धर्म खोज रहे थे अंबेडकर



सन 1936 के आसपास, सिक्ख धर्म के प्रति अंबेडकर का आकर्षण हमें पहली बार दिखलाई देता है। यह आकर्षण अकारण नहीं था। सिक्ख धर्म भारतीय था और समानता में विश्वास रखता था। और अंबेडकर के लिए ये दोनों बातें महत्वपूर्ण थीं। अंबेडकर को इस बात का एहसास था कि हिंदू धर्म के “काफी नजदीक” होने के कारण, सिक्ख धर्म अपनाने से उन हिंदुओं में भी अलगाव का भाव पैदा नहीं होगा, जो कि यह मानते हैं कि धर्मपरिवर्तन से विदेशी धर्मों की ताकत बढ़ेगी। सन 1936 में अंबेडकर, हिंदू महासभा के अखिल भारतीय अध्यक्ष डाक्टर मुंजे से मिले और उन्हें इस संबंध में अपना एक विचारों पर आधारित एक वक्तव्य सौंपा। बाद में यह वक्तव्य, एमआर जयकर, एमसी राजा व अन्यों को भी सौंपा गया। यह दिलचस्प है कि जहां डाक्टर मुंजे ने कुछ शर्तों के साथ अपनी सहमति दे दी, वहीं गांधी ने सिक्ख धर्म अपनाने के इरादे की कड़े शब्दों में निंदा की।

अप्रैल 1936 में अंबेडकर अमृतसर पहुंचे, जहां उन्होंने सिक्ख मिशन द्वारा अमृतसर में आयोजित सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने कई भीड़ भरी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने सम्मेलन में कहा कि हिंदू धर्म त्यागने का निर्णय तो ले लिया है, परंतु अभी यह तय नहीं किया है कि वे कौन सा धर्म अपनाएगें। इस सम्मेलन में उनका भाग लेना, “जात-पात तोड़क मंडल” को नागवार गुजरा। मंडल ने उन्हें लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था, परंतु आयोजक चाहते थे कि वे अपने भाषण से वेदों की निंदा करने वाले कुछ हिस्से हटा दें। अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और भाषण को “जाति का विनाश” शीर्षक से स्वयं ही प्रकाशित करवा दिया। इस भाषण में, एक स्थान पर वे कहते हैं, “सिक्खों की राजनीतिक क्रांति के पहले, गुरु नानक के नेतृत्व में, धार्मिक व सामाजिक क्रांति हुई थी।” महाराष्ट्र के “सुधारवादी” भक्ति आंदोलन के विपरीत वे सिक्ख धर्म को क्रांतिकारी मानते थे। अंबेडकर का तर्क यह था कि सामाजिक व राजनीतिक क्रांति से पहले, मस्तिष्क की मुक्ति, दिमागी आजादी जरूरी हैः “राजनीतिक क्रांति हमेशा सामाजिक व धार्मिक क्रांति के बाद ही आती है”।

उस समय, सिक्ख धर्म को चुनने के पीछे के कारण बताने वाला उनका वक्तव्य दिलचस्प है। “शुद्धतः हिंदुओं के दृष्टिकोण से अगर देखें तो ईसाइयत, इस्लाम व सिक्ख धर्मों में से सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? स्पष्टतः सिक्ख धर्म। अगर दमित वर्ग, मुसलमान या ईसाई बनते हैं तो वे न केवल हिंदू धर्म छोड़ेंगे बल्कि हिंदू संस्कृति को भी त्यागेंगे। दूसरी ओर, अगर वे सिक्ख धर्म का वरण करते हैं तो कम से कम हिंदू संस्कृति में तो वे बने रहेंगे। यह हिंदुओं के लिए अपने-आप में बड़ा लाभ है। इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल करने से, दमित वर्गों का अराष्ट्रीयकरण हो जावेगा। अगर वो इस्लाम अपनाते हैं तो मुसलमानों की संख्या दोगुनी हो जाएगी और देश में मुसलमानों का प्रभुत्व कायम होने का खतरा उत्पन्न हो जावेगा। दूसरी ओर, अगर वे ईसाई धर्म को अपनाएंगे तो उसके ब्रिटेन की भारत पर पकड़ और मजबूत होगी।”

उस दौर में बहस का एक विषय यह भी था कि क्या सिक्ख (या कोई और) धर्म अपनाने वालों को पूना पैक्ट या अन्य कानूनों के तहत अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें मिलने वाले अधिकार मिलेंगे। मुंजे का कहना था कि सिक्ख धर्म अपनाने वालों को ये अधिकार मिलते रहेंगे।

अंततः, 18 सितंबर 1936 को अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के एक समूह को सिक्ख धर्म का अध्ययन करने के लिए अमृतसर के सिक्ख मिशन में भेजा। वे लोग वहां अपने जोरदार स्वागत से इतने अभिभूत हो गये कि – अपने मूल उद्देश्य को भुलाकर – सिक्ख धर्म अपना लिया। उसके बाद उनके क्या हाल बने, यह कोई नहीं जानता।

सन 1939 में बैसाखी के दिन, अंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ अमृतसर में अखिल भारतीय सिक्ख मिशन सम्मलेन में हिस्सेदारी की। वे सब पगड़ियां बांधे हुए थे। अंबेडकर ने अपने एक भतीजे को अमृत चख कर खालसा सिक्ख बनने की इजाजत भी दी।

बाद में, अंबेडकर और सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गये। तारा सिंह, निस्‍संदेह, अंबेडकर के राजनीतिक प्रभाव से भयभीत थे। उन्हें डर था कि अगर बहुत बड़ी संख्या में अछूत सिक्ख बन गये तो वे मूल सिक्खों पर हावी हो जाएंगे और अंबेडकर, सिक्ख पंथ के नेता बन जाएंगे। यहां तक कि, एक बार अंबेडकर को 25 हजार रुपये देने का वायदा किया गया परंतु वे रुपये अंबेडकर तक नहीं पहुंचे बल्कि तारा सिंह के अनुयायी, मास्टर सुजान सिंह सरहाली को सौंप दिए गये।

इस प्रकार, अपने जीवन के मध्यकाल में अंबेडकर का सिक्खों और उनके नेताओं से मेल-मिलाप बढ़ा और वे सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित भी हुए। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अंततः उन्होंने सिक्ख धर्म से मुख क्यों मोड़ लिया।

निस्‍संदेह, इसका एक कारण तो यह था कि अंबेडकर इस तथ्य से अनजान नहीं थे कि सिक्ख धर्म में भी अछूत प्रथा है। यद्यपि, सिद्धांत में सिक्ख धर्म समानता में विश्वास करता था तथापि दलित सिक्खों को – जिन्हें मजहबी सिक्ख या ‘रविदासी’ कहा जाता था – अलग-थलग रखा जाता था। इस प्रकार, सिक्ख धर्म में भी एक प्रकार का भेदभाव था। सामाजिक स्तर पर, पंजाब के अधिकांश दलित सिक्ख भूमिहीन थे और वे प्रभुत्वशाली जाट सिक्खों के अधीन, कृषि श्रमिक के रूप में काम करने के लिए बाध्य थे।

असल में, जिन कारणों से अंबेडकर सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित हुए थे, उन्हीं कारणों से उनका उससे मोहभंग हो गया। अगर सिक्ख धर्म “हिंदू संस्कृति का हिस्सा” था, तो उसे अपनाने में क्या लाभ था? जातिप्रथा से ग्रस्त “हिंदू संस्कृति’ पूरे सिक्ख समाज पर हावी रहती। सिक्ख धर्म के अंदर भी दलित, अछूत ही बने रहते – पगड़ी पहने हुए अछूत।

अंबेडकर को लगने लगा के बौद्ध धर्म इस मामले में भिन्न है। सिक्ख धर्म की ही तरह वह “विदेशी” नहीं बल्कि भारतीय है और सिक्ख धर्म की ही तरह, वह न तो देश को विभाजित करेगा, न मुसलमानों का प्रभुत्व कायम करेगा और न ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हाथ मजबूत करेगा।

बौद्ध धर्म में शायद एक तरह की तार्किकता थी, जिसका सिक्ख धर्म में अभाव था। अंबेडकर, बुद्ध द्वारा इस बात पर बार-बार जोर दिये जाने से बहुत प्रभावित थे कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुभव और तार्किकता के आधार पर, अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए – अप्‍प दीपो भवs (अपना प्रकाश स्वयं बनो)। इस तरह, अंबेडकर का, सिक्ख धर्म की तुलना में, बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण अधिक शक्तिशाली और स्थायी साबित हुआ। यद्यपि बौद्ध धर्म उतना सामुदायिक समर्थन नहीं दे सकता था जितना कि सिक्ख धर्म परंतु बौद्ध धर्म को अंबेडकर, दलितों की आध्यात्मिक और नैतिक जरूरतों के हिसाब से, नये कलेवर में ढाल सकते थे। सिक्खों का धार्मिक ढांचा पहले से मौजूद था और अंबेडकर चाहे कितने भी प्रभावशाली और बड़े नेता होते, उन्हें उस ढांचे के अधीन रहकर ही काम करना होता।

इस तरह, अंततः, अंबेडकर और उनके लाखों अनुयायियों के स्वयं के लिए उपयुक्त धर्म की तलाश बौद्ध धर्म पर समाप्त हुई और सिक्ख धर्म पीछे छूट गया।

शरद पूर्णिमा की शाम महिषासुर की शहादत का शोक मनेगा



महिषासुर शहादत दिवस को लेकर जवाहर लाल नेहरु विश्‍वविद्यालय में तनाव

ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम (AIBSF) द्वारा लगाये गये कुछ पोस्टडर को फाड़ दिया गया है।
AIBSF की बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) शाखा भी स्थानीय स्‍तर पर शहादत दिवस का आयोजन करेगी जबकि लखनऊ यूनिवर्सिटी व भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, बिहार के छात्र बड़ी संख्या में शहादत दिवस में भाग लेने 29 अक्टूबर को जेएनयू आएंगे।
राजा महिषासुर
जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (JNU) में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन को लेकर तनाव का महौल बनने लगा है। ऑल इंडिया बैकवर्ड स्‍टूडेंट फोरम (AIBSF) द्वारा लगाये गये कुछ पोस्‍टर को फाड़ दिया गया है। पोस्‍टर में संगठन ने महिषासुर को भारत के आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का पूर्वज बताते हुए 29 अक्‍टूबर (शरद पूर्णिमा) को उनकी शहादत मनाने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया था।
ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष जितेंद्र यादव व जेएनयू अध्‍यक्ष विनय कुमार ने बताया कि तीन दिन पहले कैंपस में इससे संबंधित 30 बड़े पोस्‍टर विभिन्‍न स्‍‍थानों पर लगाये गये थे। इन पोस्‍टरों में अकादमिक जगत की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ में प्रकाशित कवर स्‍टोरी में प्रकाशित शोध को दर्शाया गया था, जिसके अनुसार ‘असुर’ एक जनजाति है, जो आज भी झारखंड में पायी जाती है।
सुषमा असुर
छात्र नेताओं के अनुसार, संगठन के सदस्‍यों ने उन स्‍थानों पर, जहां पोस्‍टर लगाये गये थे, का मुआयना करने पर पाया कि लाइब्रेरी के सामने व केसी मार्केट कांप्‍लेक्‍स में लगाये गये पोस्‍टर फाड़ दिये गये हैं। संगठन यह मुद्दा जेएनयूएसयू व विश्‍वविद्यालय प्रशासन के सामने उठाएगा। उन्‍होंने आरोप लगाया कि पोस्‍टर दक्षिणपंथी-हिंदूवादी राजनी‍ति से जुड़े असामाजिक तत्‍वों ने फाड़े हैं।
छात्र नेताओं ने बताया कि कैंपस में महिषासुर शहादत दिवस मनाने की तैयारी जोरों पर चल रही है। ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूकडेंट फोरम (AIBSF) की बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) शाखा भी स्‍थानीय स्‍तर पर बीएचयू में शहादत दिवस का आयोजन करेगी, जबकि लखनऊ यूनिवर्सिटी व भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, बिहार के विद्यार्थी बड़ी संख्‍या में शहादत दिवस में भाग लेने 29 अक्‍टूबर को जेएनयू आएंगे। उन्‍होंने कहा कि महिषासुर शहादत दिवस भारत के बहुजनों के सांस्‍कृति आजादी की लड़ाई है, अपनी जड़ों की ओर लौटना है तथा अपने पूर्वजों के प्रति सम्‍मान व्‍यक्‍त करना है।
AIBSF के अनुसार, विजयादशमी को राष्ट्रीय शर्म दिन के रूप में घोषित करने के लिए आंदोलन किया जाएगा क्योंकि यह हमारे पूर्वजों के हत्या का जश्न है।
शिबू सोरेन ने महिषासुर को अपना पूर्वज बताते हुए कहा है कि मुझे ‘असुर होने पर गर्व है’।
जेएनयू कैंपस में AIBSF द्वारा लगाये गये बड़े-बड़े में पोस्टर में कहा गया है कि महिषासुर इस देश के बैकवर्ड समाज के नायक थे, जिनकी हत्या आर्यों ने दुर्गा के माध्यम से की। पोस्टर के पहले पेज पर झारखंड की ‘असुर’ जा‍ति की कवयित्री सुषमा असुर की तस्‍वीर यह कहते हुए दी गयी है कि ‘देखो मुझे, महाप्रतापी महिषासुर की वंशज हूं मैं’।
जेएनयू की दीवार पर चिपके पोस्‍टर
पोस्टर के एक अंश में अका‍दमिक पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ में प्रकाशित झारखंड के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्‍यमंत्री शिबू सोरेन से बातचीत दी गयी है। शिबू सोरेन ने महिषासुर को अपना पूर्वज बताते हुए कहा है कि मुझे ‘असुर होने पर गर्व है’। पोस्‍टर के माध्‍यम से कहा गया है कि ‘फारवर्ड प्रेस’ के अक्‍टूबर, 2012 अंक में प्रकाशित आवरण कथा में आदिवासी मामलों के विख्‍यात अध्‍येता अश्विनी कुमार पंकज ने दशहरा को असुर राजा महिषासुर और उसके अनुयायियों के आर्यों द्वारा वध और सामूहिक नरसंहार का अनुष्ठान बताया है, इसलिए भारत के बहुजनों को दुर्गा की पूजा का विरोध करना चाहिए। संगठन ने कहा है कि विजयादशमी को राष्ट्रीय शर्म दिन के रूप में घोषित करने के लिए आंदोलन किया जाएगा, क्योंकि यह हमारे पूर्वजों के हत्याओं का जश्न है।
एआईबीएसएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जितेंद्र यादव का कहना है कि राजा महिषासुर की हत्या के बाद पूर्णिमा की रात को असुरों ने शोक सभा की थी। इसलिए संगठन देश भर में इस दिन (शरद पूर्णिमा) को शहादत दिवस के रूप में मनाएगा।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष जेएनयू में महिषासुर-दुर्गा पोस्टर के कारण बैकवर्ड फोरम और विद्यार्थी परिषद के छात्रों से हुई मार-पीट और मुकदमेबाजी हुई थी। इस संबंध में जेएनयू प्रशासन ने संगठन के प्रमुख जितेंद्र यादव को धार्मिक भावनाओं के आहत करने के कारण नोटिस जा‍री किया था जिसके कारण इस मामले ने और तूल पकड़ लिया था। परंतु अंततः विश्वविद्यालय प्रशासन को इस मामले में माफी मांगनी पड़ी थी।
एआईबीएसएफ के जेएनयू अध्यक्ष विनय कुमार ने जानकारी दी कि शहादत दिवस के लिए सभी तैयारियां पूरी कर ली गयी हैं। इस अवसर पर ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका की संपादक व आदिवासी मामलों पर काम करने वाली चर्चित लेखिका रमणिका गुप्‍ता, बिहार के चर्चित साहित्‍यकार प्रेमकुमार मणि समेत बैकवर्ड समाज के जाने-माने बुद्धिजीवी और पत्रकार उपस्थित रहेंगे।

संपर्क:
जितेंद्र यादव, राष्ट्रीय अध्यक्ष, एआईबीएसएफ (All India Backward Students’ Forum), 345, सतलज, जेएनयू, मोबाइल – 9716839326, 4859439496
विनय कुमार, जेएनयू अध्यक्ष, एआईबीएसएफ158, साबरतमी जेएनयू मोबाइल – 9871387326