उत्तर
प्रदेश में जब सरयू नदी के किनारे ठंडी हवा बह रही थी उसी वक़्त फिज़ा में ज़हर घोलने
की साजिश रची जा रही थी और फिर कुछ लम्हों के बाद शहर के भीतर चौक में इंसान एक
दूसरे के खून के प्यासे बने बैठे थे। फैजाबाद का चौक इलाका आतंक और उन्माद के
हाथों फंस कर बुरी तरह जख्मी हो चूका था, यहाँ के रहने वाले गुफ़रान सिद्दीकी का कहना है की
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के वक़्त जब पूरा देश दंगो की चपेट में था तब
भी हमारा शहर सुरक्षित था, फिर जाने कैसे ये दिन देखना पड़ा।
हमारी ही आँखों के सामने इबादतगाह के भीतर तोड़ फोड़ की गयी,
दुकानों और दफ्तर को जलाया गया, खुदा खैर करे हम उनके हाथ
नही आये वरना वो हमे भी 'मोदी का गुजरात' बना देते।
फैजाबाद
गंगा-जमुनी तहज़ीब का बेहतरीन नमूना है। यहाँ पर दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को जाने
वाले जुलूस के ऊपर चौक वाली मस्जिद से पुष्प वर्षा की जाती रही है और ये सिलसिला
इस बार दंगाइयों ने तोड़ दिया। फैजाबाद के साकेत पी.जी. कालेज के प्रोफ़ेसर अनिल
कुमार सिंह का कहना है की दंगाई जैसे किसी ख़ास तरह की प्लानिंग के तहत मैदान में
उतरे थे उनके सामने शिकार बनी बैठी बहुत सी चीज़े थी पर उन्होंने सिर्फ
अल्पसंख्यकों की दुकानों को ही निशाना बनाया। इस दौरान पुलिस का कहीं अता-पता भी
नही था। यूपी में हो रहे दंगो में पुलिस की निष्क्रियता कई सवाल खड़े करती है, ऐसे सवाल जिसमे खुद युवा
और सोशलिस्ट मुख्यमंत्री भी फंसते हुए नज़र आते हैं।
उत्तर
प्रदेश में अल्पसंख्यकों के ऊपर लगातार हमले किये जा रहे हैं। प्रतापगढ़ की घटना
किसी से छुपी नही । ऐसे में फैजाबाद की हिंसा न सिर्फ घाव हरे करेगी बल्कि राज्य
सरकार पर से भरोसा भी उठा देगी। फैजाबाद और यूपी के अन्य दंगा पीड़ित शहरों के लोग
भय में जीने को मजबूर हैं। यदि हालात ऐसे ही रहे तो इसका सियासी फायदा लेने के लिए
राजनैतिक दलों में होड़ मच सकती है और फिर दंगे रोकने और करवाने का श्रेय लेने
वालों की कतार लगने के बाद की स्थिति और भी विस्फोटक हो सकती है। ये सिर्फ एक
पत्रकार के नाते मेरी बाते नही हैं बल्कि हर उस व्यक्ति की मनोदशा है जिसने धर्मं
निरपेक्षिता के नाम पर अपना वोट दिया था ताकि राज्य में विकास को गति मिले और आपसी
सौहार्द का सिलसिला कायम हो सके। लेकिन दंगो और प्रशासनिक लापरवाही ने उत्तर
प्रदेश के लोगों में वर्तमान अखिलेश यादव सरकार के प्रति गुस्से और विरोध की
ज्वाला भड़का दी है। यदि सरकार को इन बातों से कोई लगाव नहीं है कि उसकी जनता किस
हाल में जीने को मजबूर है तो ऐसी सरकार या पार्टी के लोगों को अपने ‘घोषणा पत्र’
को फाड़ देने चाहिए।
देश के
सबसे बड़े सूबे में सपा की सरकार है और सरकार को बने हुए छ माह से ऊपर हो चुके
हैं। 'बचपन की गलतियों' का वक़्त भी बीत चूका है। जब इतने से कम वक़्त में सरकार साहिब का ये हाल
है तो अभी पूरे 4 साल छ महीने बचे हुए हैं। यदि दंगों की गिनती की जाए और फिर
सरकार के बाकी बचे वक़्त से उसका गुणा किया जाए तो ये संख्या हैरान कर देने वाली
लगती है और इस हैरानी के पीछे प्रशासनिक अधकचरेपन से कहीं अधिक युवा मुख्यमंत्री
की नीतियाँ हैं जिनमे आम आदमी की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह का प्रबंध नही किया
गया है और न ही सांप्रदायिक शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए उचित उपाय। उत्तर
प्रदेश को गुजरात बनने से बचा लीजिये अखिलेश यादव जी या फिर ‘नुक्कड़ और चौराहों’
पर किये अपने वादों की लिस्ट को फाड़ दीजिये क्योकि प्रदेश के मुखिया होने के नाते
आपकी जवाबदेही बनती है, किसी विपक्ष की नही।