इजराइल एक ऐसा देश है जिसे मिथक से उठा कर जमीन पर बसाया
गया है। वह एक ऐसा देश भी है जो फिलस्तीनी जनता की मूल भूमि को हड़प कर स्थापित
किया गया है। इस तरह आधुनिक विश्व इतिहास में इजराइल का निर्माण अमेरिका और
ब्रिटेन के साम्राज्यवादी कुचक्रों से लगातार हारती और निराश होती अरब जनता का भी
इतिहास है।
महेंद्र मिश्र की पुस्तक 'फिलस्तीन और अरब-इस्रायल संघर्ष' इजराइल के निर्माण और उसमें निहित फिलस्तीन समुदाय के अंतहीन विस्थापन को पुख्ता
साक्ष्यों के साथ कविता जैसी मार्मिकता के साथ बयान करती है। शीर्षक की साफगोई के
बावजूद पाठकों को शुरू में यह भ्रम-सा होता है कि यह किताब शायद अरब की हालिया
घटनाओं का विश्लेषण है। लेकिन जैसे-जैसे हम इस पुस्तक में अध्याय-दर-अध्याय आगे
बढ़ते जाते हैं तो यह कुहासा एक रूपक का अर्थ ग्रहण करने लगता है जिससे बाहर आकर
हमारे सामने एक अप्रत्याशित उद्घाटन होता है कि दरअसल जिसे हम सिर्फ फिलस्तीन और
इजराइल का संघर्ष समझते रहे हैं, उसे
समूचे अरब विश्व के अंतर्गंुफित इतिहास से जुदा करके नहीं समझा जा सकता। तथ्यगत
सूचनाओं, बेलाग विश्लेषण और भू-राजनीतिक मसलों की अचूक समझ
के अलावा इस किताब को केवल इस आधार पर भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है कि इससे
गुजरते हुए पाठक के भीतर यह समझ जगती जाती है कि आधुनिक विश्व की ज्यादातर
विभीषिकाएं किस तरह साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की संकर कोख से निकलती हैं और वे
उस तरह इकहरी और साफ नहीं होतीं जिस तरह
बयान की जाती हैं।
एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में इजराइल की औपचारिक स्थापना 1948 में मानी जाती है, लेकिन उसका
विचार और उसे लेकर यहूदियों की राजनीतिक लामबंदी लगभग छह दशक पहले शुरू हो गई थी।
इस आंदोलन की बुनियादी धारणा यह थी कि फिलस्तीन यहूदियों का देश है और इस नाते
उन्हें वहां वापस लौटने और राज्य स्थापित करने का अधिकार होना चाहिए। शुद्ध यहूदी
राष्ट्र के इस विचार को सार्वजनिक कल्पना में रोपित करने का काम थियोडोर हर्ज्ल
जैसे लोगों ने किया। 'द ज्यूइश स्टेट' नामक
अपनी पुस्तक में थियोडोर ने इजराइल की योजना को मूर्त रूप दिया और दुनिया भर में बिखरे
यहूदियों के बीच इजराइल के सपने को इस तरह प्रचारित किया कि अगर यहूदी संगठित हो
जाएं तो उनकी कल्पना का देश फिलस्तीन में बसाया जा सकता है। इसे प्रचार का असर
कहिए कि 1914 में पहला महायुद्ध शुरू होते-होते फिलस्तीन में यहूदियों की संख्या
पचासी हजार हो गई थी। इन आप्रवासी यहूदियों ने दूरस्थ और अनुपस्थित सामंतों से
जमीन खरीद कर उस पर काम करने वाले किसानों को बेदखल करना शुरू कर दिया। फिलस्तीन
अरबों और आप्रवासी यहूदियों के बीच स्थायी संघर्ष की शुरुआत या दूसरे शब्दों में,
मूलवासियों और संगठित घुसपैठियों की जंग यहीं से शुरू हुई।
इजराइल राष्ट्र के विचार को महायुद्ध के दौरान लगातार तराशा
जाता रहा। 1917 की बाल्फोर घोषणा के तहत ब्रिटेन ने एक तरह से यहूदी नेतृत्व की
फिलस्तीन में यहूदियों के स्वराष्ट्र बसाने की मांग का अनुमोदन कर दिया। युद्ध की
समाप्ति पर जब साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा मध्यपूर्व का बंटवारा किया गया तो
फिलस्तीन ब्रिटेन के नियंत्रण में आ गया। तब से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध तक इस
क्षेत्र में यहूदियों की एक के बाद दूसरी खेप लगातार आती गर्इं।
गौर करें कि बाल्फोर घोषणा में यहूदियों के स्वराष्ट्र की
मांग का समर्थन करते हुए यह भरोसा भी दिया गया था कि इस संभावित देश में क्षेत्र
की गैर-यहूदी जनता के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को अक्षुण्ण रखा जाएगा। लेकिन 1920 से लेकर इजराइल की औपचारिक स्थापना तक का पूरा काल फिलस्तीनी जनता और इजराइल
के निर्माताओं के बीच मुसलसल टकराव का इतिहास रहा है। यरुशलम और जाफा के दंगों से
शुरू हुआ यह सिलसिला साल-दर-साल पहले से ज्यादा उग्र और भयावह होता गया। उदाहरण के
लिए 1936 से 1939 के बीच हुए विद्रोह में जहां ब्रिटिश सेना और यहूदी पक्ष के केवल
साढ़े पांच सौ सैनिकों की जान गई, वहीं
अरब खेमे के पांच हजार लड़ाके मारे गए,
इससे तीन गुना लोग घायल हुए और सैकड़ों लोगों को फांसी दी गई।
इजराइल और अरब देशों के टकराव में यह बात अलग से याद रखी
जानी चाहिए कि जानमाल की तबाही के मामले में इजराइल और अरब जनता का अनुपात
मोटा-मोटी एक और सौ के बीच बैठता है। और मजे की बात यह है कि इजराइल अपनी हमलावर कार्रवाइयों को हमेशा आत्मरक्षा में उठाया गया कदम बताता रहा है।
अंध और आक्रामक राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर खड़े किए गए इस
नकली देश ने सिर्फ फिलस्तीन को, बल्कि
समूचे अरब क्षेत्र को स्थायी सन्निपात में धकेल दिया है। मसलन, 1948 में जैसे ही इजराइल की स्वतंत्र देश के रूप में घोषणा की गई तो उसके
तत्काल बाद इजराइल और अरब जगत के बीच युद्ध छिड़ गया जिसमें मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान और
अन्य अरब देश शामिल हुए। दूसरा युद्ध 1956 में शुरू हुआ जो मुख्यत: मिस्र के खिलाफ
लड़ा गया। इसमें एक तरफ इजराइल, इंग्लैंड और फ्रांस थे तो
दूसरी तरफ अकेला मिस्र! इसी तरह 1967 के इजराइल-अरब युद्ध में मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक के अलावा
सऊदी अरब, मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, सूडान, लीबिया और
पीएलओ ने भी भाग लिया। इन सारे युद्धों में अरब देशों की हार के साथ यह तथ्य भी
गौरतलब है कि इजराइल की तुलना में अरब
देशों का नुकसान कई गुना ज्यादा रहा। इजराइल ने इसी युद्ध में गाजापट्टी, पश्चिमी तट और गोलन पहाड़ियों पर कब्जा किया था। यह भूभाग आज तक इजराइल के
कब्जे में है। और वह खासतौर पर उन क्षेत्रों में लगातार यहूदी बस्तियां बसाता जा
रहा है जहां मुख्यत: फिलस्तीनी जनता रहती आई है।
पुस्तक से पता चलता है कि 1973 के अंतिम अरब-इजराइल युद्ध
के बाद फिलस्तीन समस्या को सुलझाने के लिए 1993 का ओस्लो समझौता, सन 2000 का कैंप डेविड शिखर सम्मलेन और 2002 में यूरोपीय संघ, रूस, संयुक्त
राष्ट्र और अमेरिका द्वारा प्रस्तावित शांति मसविदे जैसी कितनी ही शांति वार्ताएं
हो चुकी हैं, लेकिन फिलस्तीन की जनता आज भी इजराइल की सैनिक
घेरेबंदी में ही जी रही है। पश्चिमी तट और गाजा में इजराइल का नियंत्रण एक
औपनिवेशिक घेरे की तरह है जिसमें फिलस्तीनी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था एक धीमी मगर
तयशुदा मौत की तरफ बढ़ रहे हैं। यहां गरीबी का स्तर सत्तर से अस्सी फीसद हो चुका है
और बेकारी इस कदर फैल चुकी है कि फिलस्तीनी जनता का बड़ा हिस्सा दान के भोजन पर
गुजर कर रहा है।
फिलस्तीनी जनता का जो हिस्सा इजराइल में रह गया है उसकी
हैसियत दोयम दर्जे के नागरिक की भी नहीं है। आवास, शिक्षा और संसाधन के लिहाज से वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक अमानवीय स्थिति में जीता
आ रहा है। और जो लोग इस अंतहीन अपमान को सह नहीं सके वे लेबनान, जॉर्डन, सीरिया या पश्चिमी देशों में शरणार्थियों का
जीवन बिता रहे हैं। इन देशों के लोग अब उन्हें बोझ मानते हैं। इस तरह इजराइल की
आक्रामक मौजूदगी ने फिलस्तीन के साथ पूरे अरब जगत को स्थायी अस्थिरता का शिकार बना
दिया है।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने इजराइल के निर्माण के पीछे खड़ी
और उसके अस्तित्व को अभयदान देने वाली
नव-उपनिवेशवादी तिकड़मों को जरूरी विस्तार देते हुए इस बात का भी खयाल रखा
है कि परोक्ष ब्योरों से कथ्य बोझिल न हो जाए। पुस्तक पढ़ते हुए पाठक लेखक की
विषयगत समझ और विद्वत्ता के अलावा उनकी न्यायपूर्ण पक्षधरता से भी मुतासिर होंगे।
वे फिलस्तीन के अतिवादी संगठनों की हिंसा को जायज नहीं ठहराते, लेकिन साथ ही यह भी बताते चलते हैं कि
इजराइल हिंसा और उत्पीड़न को नृशंसता के किस स्तर पर ले जा चुका है। लेखक हिंसा के
इस पारस्परिक असंतुलन को लक्षित करते हुए आग्रह करते हैं कि हमास के एक रॉकेट हमले
के बदले इजराइल जब टैंकों और युद्धक विमानों का इस्तेमाल करता है तो हिंसा के इन
दो रूपों में फर्क किया जाना चाहिए।। कहना न होगा कि फिलस्तीन लड़ाकों की हिंसा
कमजोर और व्यथित की हिंसा होती है, जबकि इजराइल की हिंसा
हमेशा एक आततायी सत्ता की व्यवस्थित हिंसा। इसे लेखक की गहन राजनीतिक दृष्टि का
निदर्शन ही कहा जाएगा कि वे सिर्फ यह बता कर नहीं रह जाते कि इजराइल और अरब देशों
के अंतहीन युद्धों में कितने लोग हताहत हुए, बल्कि बात को
कुछ इस तरह रखते हैं कि अमेरिका और यूरोप के साम्राज्यवादी देश नंगे दिखने लगते
हैं।
हिंदी में ऐसी किताब का लिखा जाना इस बात का सबूत माना जा
सकता है कि इस भाषा में साहित्य के अलावा भी मौलिक और स्तरीय लेखन किया जाता है।
वैसे अगर संदर्भ ग्रंथों की सूची के साथ पुस्तक में अनुक्रमणिका भी दे दी जाती तो
उसे सामान्य पाठकों के अलावा शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी बनाया जा सकता था।
नरेश गोस्वामी
फिलस्तीन
और अरब-इस्रायल संघर्ष: महेंद्र मिश्र; वाणी प्रकाशन, 4695,
21-ए, दरियागंज, नई
दिल्ली; 450 रुपए।