दिल्ली के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ की सफलता ने सभी को चैंका दिया है. लोग हतप्रभ हैं कि आखिर ये क्या हो गया. अब लोग लाल बुझक्कड़ की तरह ‘आप’ की जीत का विश्लेषण करने में लगे हैं. यहां तक कि वामपंथ की हुंकार भरने वाले कुछ लोगों को ये इंकलाब की ओर ले जाने वाली पार्टी लग रही है और वे अपनी वर्गीय लाइन और वर्ग चरित्र की राजनीति को भूल गए हैं.
ये लोग आप की जीत पर उसकी शान में
कसीदे पढ़ रहे हैं. जीत का ये गुबार इतना ज्यादा है कि सही तस्वीर लोगों को दिखाई
नहीं दे रही है. वास्तव में आप की दिल्ली विधानसभा की जीत भारतीय राजनीति में
एनजीओ के बढ़ते हस्तक्षेप का परिचायक है. यह पार्टी न तो किसी विचारधारा पर आधारित
है और न ही इसका कोई आर्थिक और सामाजिक दर्शन लोगों के सामने आया है.
आप की जीत में उच्च मध्यम वर्ग और
मध्यम वर्ग के असंतुष्ट समूह की बड़ी भूमिका है. यह वह वर्ग है, जिसको उदारीकरण के दौर में सबसे आर्थिक
लाभ हुआ है और सबसे अधिक सुविधाएं मिली हैं. जब तक इसे लगातार सुविधाएं मिल रहीं
थीं तब तक इसमें कोई असंतोष नहीं था, लेकिन
जैसे ही इसकी सुविधाओं में कटौती हुई जैसे गैस के सिलेंडरों की संख्या निर्धारित
करना, डीजल पेट्रोल के दाम बढ़ना, सब्जियों विशेषकर प्याज के दाम आसमान
पहुंचना, इसमें असंतोष फैलने लगा.
इस असंतोष को स्वर दिल्ली में आप ने
दिया. भाजपा तो खैर उन्हीं आर्थिक नीतियों पर चलेगी, जिस पर कांग्रेस चल रही है, वामपंथ
भी इस मुद्दे पर ठोस पहलकदमी लेने में नाकाम रहा. इस राजनीतिक रिक्तता को भरा है
आप ने. आप की जीत का दूसरा बड़ा कारण उसका बेहतर चुनाव प्रबंधन है. कई ऐसे कामों
को उसने किया, जिसे आज राजनीतिक पार्टियां नहीं कर
रही हैं.
लेकिन आप खुद में क्या है. बड़े-बड़े
एनजीओ संचालकों का संगठन. ये एनजीओ घनघोर मुनाफाखोर पूंजीवाद का मानवीय चेहरा हैं, जहां पूंजीपति अपने बेतहाशा मुनाफाखोरी
में से एक छोटा सा हिस्सा परोपकार के कामों में लगाकर वाहवाही लूटता है. वह इस
परोपकार के काम को करने के लिए एनजीओ को जन्म देता है.
एनजीओ का काम सरकार को बेकार साबित कर
अपने दानदाता की ‘जय जयकार...’ करवाना होता है. इसके साथ ही असमानता के खिलाफ होने
वाली लड़ाई को भटकाने का काम भी करते हैं. इन एनजीओ के कारण ही आज समाज में
राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता खत्म हो गए हैं.
वे युवा जो राजनीति और सामाजिक क्षेत्र
में परिवर्तन के लिए काम करने की इच्छा रखते थे, एनजीओ के साथ जुड़ रहे हैं और इस भ्रम में हैं कि हम समाज में
परिवर्तन तो ला नहीं सकते,
तो क्यों न समाज के कमजोर वर्ग का ही
भला कर दें. यह भी कि परिवर्तन जैसा कष्टसाध्य काम करने से बेहतर है कि एक सरल
रास्ता अपनाया जाए.
-प्रेम पुनेठा