Thursday, August 20, 2015

दाभोलकर जैसों को मरना ही चाहिए!



 16वीं सदी में जब गैलीलियो ने कॉपरनिकस की उस थिअरी का समर्थन किया था कि बाकी ग्रह और सूरज धरती का चक्कर नहीं लगाते बल्कि धरती सूरज के चक्कर लगाती है, तब धर्म के ठेकेदारों ने उनका जीना मुहाल कर दिया था। उस वक्त बेहद शक्तिशाली रहे चर्च ने उन्हें कई तरह से सताया था। आज 21वीं सदी में जब इंसान ने साइंस के बूते इतनी तरक्की कर ली है, तब भी लगता है कि शायद हालात में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। अभी भी धर्म की सनक में लोग इतने अंधे बने हुए हैं कि उससे जुड़ी बातों को तर्क की कसौटी पर कसने वाले लोगों को गाहे-बगाहे धर्म के बद्दिमाग ठेकेदारों के हमले झेलने ही पड़ते हैं।

जादू-टोना, चमत्कार जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ 25 साल से लगातार जागरूकता अभियान चला रहे सामाजिक कार्यकर्ता और अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में हुई हत्या इसी बात की तरफ इशारा करती है। ऐसे हमलों से साबित होता है कि आज भी धर्म और आस्था से जुड़े सवालों को तर्क से परे रखने की बेतुकी धरणा ने समाज को मजबूती से जकड़ा हुआ है। और ऐसा सिर्फ भारत में नहीं है बल्कि दुनिया के हर कोने में सभ्यता के विकास को मुंह चिढ़ाते ऐसे उदाहरण मौजूद हैं।

आपको आयरलैंड में भारतीय मूल की डेंटिस्ट सविता हलप्पनवार की दर्दनाक मौत तो याद होगी ही? नहीं याद है तो चलिए आपकी मेमरी को ताजा कर देते हैं। सविता की कोख में जो गर्भ विकसित हो रहा था, उसे किसी गंभीर जटिलता के कारण गर्भपात कराने की स्थिति पैदा हो गई। 31 साल की सविता को गैलवे के अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन डॉक्टरों ने गर्भपात नहीं किया और इसके लिए हवाला दिया कि कैथलिक ईसाई देश होने के कारण वहां जीवित भ्रूण का गर्भपात नहीं किया जा सकता। इसके बाद दर्द से तड़पती सविता की मौत हो गई। यह मामला बताने का मेरा मकसद यही बताना है कि धर्म के नाम पर आज भी किस तरह से लोगों को जान गंवानी पड़ रही है।

आप सोच रहे होंगे कि मैं इसमें बार-बार धर्म को क्यों घसीट रहा हूं, तो आपको बता दूं कि आस्था और अंधविश्वास के बीच जो बेहद महीन लकीर है उसी की वजह से समाज में ऐसे लोगों के धंधे फल-फूल रहे हैं जो खुद को पंडित, पुरोहित, मौलवी, पादरी जैसे मुखौटों के जरिए लोगों को छल रहे हैं। और जैसा कि कई देशों के समाज में आस्था को हर तर्क और सवालों से परे रखा जाता है, तो इसी के सहारे ही ऐसे वाहियात किस्म के लोग बाबाओं के रूप में खुद को स्थापित कर पाते हैं। फिर ये तो जाहिर है कि ऐसे लोग उन लोगों को बिलकुल पसंद नहीं करेंगे जो तर्क और विज्ञान के आधार पर उन पर सवाल खड़े करें।

यही गलती डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने भी की। वह सवाल बहुत करते थे और जैसे-जैसे उनके सवालों का दायरा बढ़ रहा था, लोगों ने भी उनके साथ मिल कर ऐसे पाखंडियों से सवाल पूछने शुरू कर दिए थे। और तो और, उनकी कोशिशों के कारण देश में अपनी तरह का ऐसा पहला कानून बनने की भी बात उठने लगी, जिससे इन धर्म के ठेकेदारों का धंधा मंद पड़ सकता है। इसलिए उनकी आवाज को ही बंद कर दिया गया। लेकिन ये लोग भूल गए कि किसी की आवाज बंद कर देने भर से उन विचारों को नहीं मिटाया जा सकता जिसे करोड़ों की संख्या में तर्कशील लोगों का समर्थन मिल रहा हो।

वैसे भी इंसानों का इतिहास खुद इस बात का गवाह रहा है कि दुनिया के हर कोने में ऐसी आवाज बुलंद करने वालों को ऐसे मक्कारों का सामना करना पड़ा है और सदियों से चले आ रहे इस आंदोलन में कई लोगों को शहादत भी देनी पड़ी है। साइंस और धर्म के बीच सबसे बड़ा फर्क यही है कि जीवन में साइंस नहीं था तब इसमें धर्म ही था। आज भी हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि धर्म और इस जैसी मान्यताओं को जहां प्राइवेट लाइफ तक सीमित होना चाहिए, लेकिन इसके उलट ये मान्यताएं पब्लिक लाइफ पर हावी होती हैं। तभी तो आज सरकारें लोगों की बुनियादी जरूरतों से कहीं ज्यादा ध्यान धार्मिक यात्राओं और आयोजनों पर रखती हैं।

अब बात करें उस अंधविश्वास विरोधी कानून की जिसके लिए डॉ. दाभोलकर इतने साल से संघर्ष कर रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि यह देश में अपनी तरह का पहला कानून होगा और उन मक्कारों पर काफी हद तक नकेल कसी जा सकेगी जो धर्म की आड़ में ऐसे घिनौने काम करते हैं। लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मेरा यह मानना है कि सिर्फ इस तरह के कानून से समाज में काफी गहराई तक घुसी हुई इस बुराई को खत्म करना बड़ा मुश्किल है। इसके लिए हमें अपने एजुकेशन सिस्टम से लेकर सरकारी नीतियों में कई बदलाव करने की जरूरत है, जिससे समाज में फैले अंधविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंका जा सके।

इसमें मीडिया और सिनेमा को भी बड़ा रोल निभाना होगा, क्योंकि न्यूज चैनलों में जिस तरह से बे सिर-पैर की बातें करने वाले बाबाओं को प्रमोट किया जा रहा है और सिनेमा जिस तरह से डायन और भूत जैसी वाहियात बातों का महिमामंडन कर रहा है, उससे लोग प्रभावित जरूर होते हैं।

हमारे संविधान के आर्टिकल 51 A(h) में भी यह कहा गया है कि देश के नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे मानवता के लिए साइंटिफिक माहौल बनाने में भूमिका निभाएं। अब समय आ गया है कि इसी साइंटिफिक माहौल को मजबूती देने के लिए ऐसे कानून और नीतियों में बड़े पैमाने पर सुधार किया जाए, वरना इसी तरह रोज अखबारों में डायन बता कर मारे जाने, धर्म के नाम पर मारकाट और बाबाओं द्वारा मासूमों के रेप की खबरों के आने का सिलसिला जारी रहेगा। और जारी रहेंगी इनके खिलाफ उठने वाली आवाजों के शांत करने की कोशिशें।

Saturday, August 15, 2015

आखिर यह कैसी आजादी है?

 

इस बार 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ मना रहे हैं। जाहिर सी बात है कि हर बार की तरह यह वर्षगांठ भी महज एक रस्म अदायगी मात्र ही है। हम सिर्फ यह कह-सुन कर आपस में खुश हो लेते हैं कि हम आजाद हैं, लेकिन सच में हम कितना आजाद हैं, यह तो हमारा दिल ही जानता है। यही वजह है कि आजादी का आंदोलन देख चुकी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी बड़े सहज भाव में कहती सुनाई देती है कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था।
 
वस्तुत: हमारी आजादी आधी अधूरी ही है। इसकी वजह ये है कि हम 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों की दासता से तो मुक्त हो गए, मगर जैसी शासन व्यवस्था है, उसमें अब हम अपनों की ही दासता में जीने को विवश हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद और सांप्रदायिक विद्वेष की। इसके चलते देश के अनेक इलाकों में आजाद होने के बावजूद व्यक्ति को अगर अपने ही घर में संगीनों के साए में रहना पड़े, तो यह कैसी आजादी। लचर कानून व्यवस्था और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण संगठित अपराध इतना बढ़ गया है कि हम निर्भीक होकर सड़क पर चल नहीं सकते। हमारी बहन-बेटियों को अपने ही मोहल्लों में अपनी अस्मिता का भय बना रहता है। हम अपने ही देश में न्याय के लिये भटकते रहते हैं। शासन और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिये यदि हमें फिल्म शोले के वीरू की तरह टंकी या टॉवर पर चढना पड़े या आत्मदाह की कोशिश करनी पड़े तो उसे आजादी कैसे कहा जा सकता है।

ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी आजादी के लिये अपना बलिदान दिया था? क्या महात्मा गांधी ने ऐसी ही आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था? क्या हम सिर्फ फिरंगियों की सत्ता से घृणा करते थे? फिरंगियों की सत्ता से हमने भले ही मुक्ति पा ली, लेकिन फिरंगी मानसिकता से आज हम 68 साल बाद भी मुक्त नहीं हो सके हैं। जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहीं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है। ‘फूट डालो, राज करो की जगह ‘फूट डालो और वोट पाओ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है।

संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले हम फिंरगियों के जुल्म सहते थे, अब अपनों के जुल्म सह रहे हैं। पहले भी सत्ता के खिलाफ बोलने पर आवाज बंद करने की कोशिश की जाती थी, आज भी ऐसा चल रहा है। पहले आजादी के संघर्ष में जान जाती थी, आज तो पता नहीं, कब चली जाए। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। पहले भी सत्ता की ओर से तुगलकी फरमान जारी होते थे, आज भी ऐसे फरमान जारी हो रहे हैं। आजादी के लिए बलिदान देने वालों को देश भुला चुका है। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। पहले भी लोग भूख से मरते थे, आज भी मर रहे हैं। सत्ता से चिपके रहने वाले लोग फिंरगी शासन में भी ऐश कर रहे थे, आज भी सत्ता से चिपके रहने वाले ही सारे सुख भोग रहे हैं। आखिर यह कैसी आजादी है? क्या आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है? क्या आम आदमी को उसके जीवन की गांरंटी दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है? जाहिर है, इनके जवाब ना में ही होंगे। और जब ऐसा है, तब फिर इस आजादी के आम आदमी के लिए क्या मायने?

दरअसल, अब हम एक ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओ के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके, तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं। लोगों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष तो है, मगर व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई तैयार नहीं है।

हर भारतीय की इच्छा है कि आजादी केवल किताबों और शब्दों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखनी चाहिये। हमें गाँधी के सपनों का भारत चाहिये। हमें देश के महान क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। विडंबना यह है कि हम आजादी के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। हम सिर्फ इस दिन रस्म अदायगी करते हैं। सुबह झंडा फहरा कर और बड़े-बड़े भाषण देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और दूसरे ही दिन पुराने ढर्ऱे वाली आपाधापी में व्यस्त हो जाते हैं।

-तेजवानी गिरधर

Friday, August 07, 2015

दंगाइयों को कोई अदालत दोषी नहीं ठहरा सकती, राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई होगी




‘मुंबई बम विस्फोट अयोध्या और मुंबई में क्रमश: दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 की ‘संपूर्ण घटनाअों’ की प्रतिक्रिया नजर आती है।’ -जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण रिपोर्ट से जस्टिस श्रीकृष्ण एकदम सही हैं : यदि मुंबई में 92-93 में दंगे नहीं होते तो शृंखलाबद्ध विस्फोट भी नहीं होते। ठीक वैसे ही जैसे गोधरा में ट्रेन नहीं जलाई जाती तो गुजरात में 2002 के दंगे नहीं होते या इंदिरा गांधी की हत्या नहीं होती तो 1984 का सिख विरोधी खून-खराबा नहीं होता। हम यह भी दलील दे सकते हैं कि यदि बाबरी मस्जिद न गिराई गई होती तो बाद में दंगे नहीं होते; यदि इंदिरा गांधी सेना को स्वर्ण मंदिर में नहीं भेजतीं तो सिख आतंकवाद पर काबू पा लिया गया होता; यदि विश्व हिंदू परिषद अयोध्या में कार-सेवा नहीं करती तो किसी ट्रेन को निशाना नहीं बनाया जाता। हिंसा की किसी भी घटना की जड़ की तलाश करने में खतरा होता है। क्रिया-प्रतिक्रिया के ये सिद्धांत हमें कितने पीछे ले जाएंगे और क्या अंतत: वे हिंसा को तर्कसंगत साबित कर देंगे?

और इसके बावजूद, जैसा कि जस्टिस श्रीकृष्ण ने ध्यान दिलाया, मुंबई विस्फोटों को इसके पहले हुए दंगों से अलग करना नामुमकिन है। इसीलिए मुंबई बम विस्फोट के दोषी याकूब मेमन की फांसी से जुड़ी बहस में दंगों पर गौर किए जाने से नहीं बचा जा सकता। मुंबई के माहिम में सफल चार्टर्ड अकाउंटेंसी फर्म (मेमन एंड मेहता, उसके गुजराती हिंदू पार्टनर) स्थापित करने वाला याकूब ‘केवल मुस्लिम’ वाले क्रूर आतंकी षड्यंत्र का हिस्सा क्यों बना? क्या उसमें आए बदलाव का संबंध सांप्रदायिक दंगों के दौरान माहिम के सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में शामिल होने से था? या यह कि दंगों में उसके भाई के ऑफिस पर हमला हुआ, उसके परिवार को फोन पर धमकाया गया और शिव सैनिकों ने वहां के मुस्लिमों को ‘पाकिस्तान जाने’ की चेतावनी दी थी।
यह पक्का नहीं है कि याकूब विस्फोटों की पूरी साजिश से वाकिफ था। माना तो यही जाता है कि यह साजिश उसके भाई टाइगर ने अंजाम दी थी। परंतु सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 1993 के विस्फोटों में उसकी भूमिका पर दशकभर पुरानी बहस खत्म होनी चाहिए और व्यापक हिंसा से हमारी व्यवस्था जिस पक्षपात के साथ निपटती है, उसे ठीक करने के प्रयास शुरू होने चाहिए। टीवी की कर्कश चर्चाओं में जोर दिया गया कि याकूब को दी गई कड़ी सजा आतंकियों को ऐसे काम करने से दूर रखेगी और विस्फोटों के शिकार 257 लोगों के परिवारों को न्याय देगी। परंतु बहुत कम लोगों ने मुंबई दंगों के आरोपियों के खिलाफ ऐसी कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। हिंसा में 900 से ज्यादा लोग मारे गए, लेकिन सिर्फ तीन लोग दोषी पाए गए और उन्हें एक साल कैद की सजा सुनाई गई। एक की मौत हो गई, दूसरा जमानत पर बाहर है।

और इसके बावजूद, जो लोग दंगा पीड़ितों के लिए न्याय की मांग उठाते हैं उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी,’‘प्रेस्टीट्यूट्स’ और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। यह तो सिलेक्टिव एम्नेशिया (स्मृतिनाश) का मामला है, जिसमें मुंबई हिंसा का सफर 12 मार्च 1993 को शुरू होता है और इसके पहले का सुविधाजनक रूप से भुला दिया गया। और यदि अाप याद करने की कोशिश करें तो आप पर ‘आतंकियों’ का हिमायती होने का आरोप लगेगा, जैसे धर्म के नाम पर हत्या करने वाले दंगाई की तुलना आरडीएक्स से लैस आतंकी के साथ नहीं की जा सकती। चूंकि सुविचारित राय को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया, तो क्या यह आश्चर्य की बात है कि विरोध के स्वर को असदुद्‌दीन ओवैसी जैसे लोगों ने हथिया िलया है? हैदराबाद से एमआईएम के सांसद उदारवादी नहीं हैं, बल्कि जमीनी राजनेता हैं, जिन्हें उत्तेजना व ध्रुवीकरण के माहौल में ‘मुस्लिम हितों’ के रखवालेे के रूप में खुद को पेश करने का मौका नज़र आया। एक अर्थ में यह मामला बाल ठाकरे से अलग नहीं है। उन्होंने 92-93 की हिंसा में खुद को हिंदुओं का ‘संरक्षक’ माना, एक ऐसी छवि जिसने अंतत: उन्हें 1995 के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में सत्ता दिला दी। प्रवीण तोगड़िया और यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने खुद को कैसे 2002 में हिंदू हृदय सम्राट और गुजराती अस्मिता के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। या राजीव गांधी की कांग्रेस ने 1984 के आम चुनाव में घातक अभियान चलाया, जिसका लक्ष्य सिखों को आतंकी बताने का था। फर्क सिर्फ यह है कि तब हमारे सामने इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी गुटों द्वारा वैश्विक ‘जेहाद’ छेड़े जाने का परिदृश्य नहीं था। अब ऐसे गुटों का बढ़ता प्रभाव और तीव्र अलगाव के कारण मुस्लिम युवा तेजी से कट्‌टरपंथ की ओर जा रहे हैं, जो उन्हें ‘प्रतिशोध’ लेने की ओर धकेल रहा है। ऐसी दशा में राज्य को चाहिए कि वह न्यायपूर्ण और समान व्यवहार करता नज़र आए। घटिया जांच के लिए और कुछ स्पष्ट मामलों में पूरी तरह पक्षपाती राजकीय तंत्र के लिए अब यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि आतंकवादी षड्यंत्र की बजाय दंगों के मामले में सबूत इकट्‌ठा करना अत्यधिक कठिन होता है।

मुंबई विस्फोट के फैसले को तब आतंकवाद को न बख्शने की नीति का संकेत नहीं समझा जाएगा जब हिंदू अतिवादी गुटों से जुड़े मालेगांव और अजमेर विस्फोट मामलों में बहुत से गवाह मुकर जाएं। मुंबई विस्फोट मामले के सरकारी वकील उज्ज्वल निकम को हीरो क्यों समझना चाहिए जबकि मालेगांव विस्फोट के वकील को धमकियां दी जा रही हों? आप हाशिमपुरा फैसले की व्याख्या कैसे करेंगे, जिसमें 42 मुस्लिमों के मारे जाने के लगभग तीन दशक बाद किसी को दोषी नहीं पाया जाता? यदि गोधरा ट्रेन अग्निकांड के दोषियों को आजीवन कारावास या मृत्युदंड सुनाया जाता है और वे जेल में ही कैद रहते हैं तो नरोडा पाटिया मामले के दोषी जमानत पर कैसे छूट जाते हैं और सरकार उन्हें ज्यादा कड़ी सजा दिलाने पर जोर क्यों नहीं देती। खेद की बात है कि बंटे हुए समाज में ऐसे प्रश्न उठाने पर शायद ‘राष्ट्र विरोधी’ होने का तमगा लगाकर पाकिस्तान का टिकट कटाने की पेशकश कर दी जाए। किंतु इसे दूसरे नज़रिये से देखिए : ये प्रश्न वास्तव में ‘असुविधाजनक सत्य’ हैं और परिपक्व लोकतंत्र को इनका सामना करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि हम एक और पाकिस्तान न बन जाएं!

पुनश्च : वर्ष 1993 में मैं तीन दिन श्रीकृष्ण आयोग के सामने पेश हुआ। मैं जब कोर्ट से बाहर आ रहा था तो एक शिव सैनिक मेरे सामने आकर कहने लगा : ‘भूलो मत, बालासाहेब हमारे ईश्वर हैं, हमारे उद्धारक, कोई अदालत उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकती।’ वह सही सिद्ध हुआ। 1995 में महाराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार ने श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को कूड़े में डाल दिया। वर्ष 2012 में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी। 


~राजदीप सरदेसाई