आज फिर यह कहना ज़रूरी है कि ना मुझे मस्जिद से मोहब्बत है ना मंदिर से। मैं समझता हूं कि सारे मस्जिदों-मंदिरों और दूसरी ऐसी जगहों को स्कूल में बदल देना चाहिए।
माना कि फ़ैसला मुश्किल था, मगर मुश्किल फैसले के वक़्त ही ये तय होता है कि कौन कितने पानी में है। मुझे इस फ़ैसले में भारतीय धर्मनिरपेक्षता डूबी हुई नज़र आई। ऐसा लगा कि 1992 की नफ़रत, अवैज्ञानिक सोच और बर्बर ताक़त का सैलाब; सेक्युलरिज्म, जूडिशियरी और संविधान को बहा कर ले गया। 1947 में अंग्रेजों, हिंदू और मुसलमान ताकतों ने मुल्क का दो हिस्सों में बंटवारा किया था, मगर इस बार तो जज़ों ने मुल्क को तीन हिस्सों में बांट दिया। जब अदालत यह कहती हे कि राम हैं और यहां पैदा हुए तो मेरे जैसे नास्तिक के लिए कोई जगह नहीं बचती। अगर ये फैसला पाकिस्तान में आता तो मुझे शिकायत न होती। ये फ़ैसला उन शक्तियों को मज़बूत करेगा जो हिंदुस्तान को 'हिंदू पाकिस्तान' में बदलना चाहती हैं।
इस फैसले के बारे में 'राम के नाम' जैसी शानदार और तथ्यपरक फिल्म बनाने वाले, आनंद पटवर्द्धन, का कहना है :
फिर भी, यह कुल-मिलाकर एक हिंदू शरिया फैसला है। हालांकि, एक आतंकित मुसलमान जज ने इस फैसले का समर्थन किया है। और पराजयबोध से ग्रस्त लाखों मुसलमानों का कहना है कि मस्जिद के लड़ने से बेहतर है शांति बनाए रखना।
विशेषतौर पर 2002 में गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम के बाद, मैं उनकी इस स्थिति को समझ सकता हूं और उनसे पूरी सहानुभूति रखता हूं।
लेकिन मेरे जैसे लोगों का क्या, जो पैदाइश से हिंदू हैं, और जो हमेशा यह मानते रहे कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है, जहां कानून के समक्ष सभी बराबर होने चाहिए थे?
मेरे लिए यह एक कड़वी सच्चाई है जिसे स्वीकारना बेहद मुश्किल है। यह फैसला 1949 में मस्जिद का ताला तोड़ने और मूर्तियां रखने को वैध ठहराता है। यह फैसला 1992 में मस्जिद को तोड़े जाने को वैध ठहराता है। एक जज ने तो इस बात से ही इंकार कर दिया कि वहां कोई मस्जिद थी। वास्तव में, उन्होंने अपने निर्णय में एक तरह से राम भजन ही गाया है। उन्होंने राम को वादी, जो उनके अनुसार अवयस्क हैं, ठहराया है जिसे यह मुकदमा लड़ने के लिए अभिभावक की जरूरत है।
हमारा देश इस तरह की विशुद्ध बकवास को कैसे सह सकता है?
अब मुझे पता चला है कि सरकार पिछले सप्ताह टीवी पर 'राम के नाम' को प्रसारित क्यों नहीं होने देना चाहती है। उन्होंने हेडलाइन्स टुडे को मजबूर किया कि वह दोबारा उसे न दिखाए। वे नहीं चाहते कि लोगों को 1949 में मस्जिद में की गई आपराधिक घुसपैठ याद आए जब केंद्रीय गुंबद में चुपचाप राम की मूर्तियां रख दी गई थीं। वह नहीं चाहती कि लोगों को दिसंबर 1992 में किया गया दूसरा आपराधिक कृत्य याद आए।
वे नहीं चाहते कि उनसे यह प्रश्न पूछा जाए ''आप जब यह नहीं जानते की राम कब पैदा हुए थे तो आप यह कैसे जान सकते हैं कि राम कहां पैदा हुए थे।''
यह उन लोगों के लिए एक दुखद दिन है जो इस देश को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र मानते हैं।
लो क सं घ र्ष !
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