‘इस दृष्टिकोण से हिन्दुस्तान की विदेशी नस्लों को या तो निश्चित तौर पर हिन्दू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिन्दू धर्म का सम्मान तथा उस पर श्रद्धा रखना सीखना चाहिए, हिन्दू नस्ल और संस्कृति यानी हिन्दू राष्ट्र के गौरवान्वन के अलावा किसी और विचार को मन में नहीं लाना चाहिए और हिन्दू नस्ल में समाहित हो जाने के लिए अपनी पृथक पहचान त्याग देनी चाहिए या फिर वे इस देश में पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र के गुलाम होकर रह सकते हैं, बिना किसी दावे के, बिना किसी भी विशेषाधिकार के और उससे भी आगे बिना किसी भी वरीयतापूर्ण व्यवहार के, यहाँ तक कि उन्हें कोई नागरिक अधिकार भी नहीं मिलेंगे। उनके लिए कोई और रास्ता अपनाने की छूट तो कम से कम नहीं ही होनी चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं, हमें उन विदेशी नस्लों से जिन्होंने रहने के लिये हमारे देश को चुना है, ऐसे ही निपटना चाहिए जैसे प्राचीन राष्ट्र निपटते हैं’’-
आर.एस.एस के द्वितीय सरसंघचालक सदाशिव माधव गोलवलकर की किताब ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ से (पेज 47)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना से ही हिन्दू राष्ट्रवाद की स्थापना के लक्ष्य को लेकर संचालित रहा है। इसके प्रमुख सिद्धांतकार गोलवलकर और उनके प्रेरणास्रोत सावरकर इस हिन्दुत्व को स्पष्ट तौर पर एक ऐसे देश के रूप में परिभाषित करते हैं जिस पर केवल हिन्दुओं का हक है और इससे अलग धर्म को मानने वाले उनकी दृष्टि में केवल ‘विदेशी’ हैं। ऊपर उद्धृत किताब के पेज 43 पर गोलवलकर साफ कहते हैं कि ‘’हिन्दुस्तान एक प्राचीन हिन्दू राष्ट्र है और इसे निश्चित तौर पर होना ही चाहिए, और कुछ और नहीं केवल एक हिन्दू राष्ट्र। वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिन्दू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खाँचे से बाहर छूट जाते हैं।
हम दुहराते हैं- ‘हिन्दुओं की धरती हिन्दुस्तान में हिन्दू राष्ट्र रहता है और रहना ही चाहिए- जो आधुनिक विश्व की वैज्ञानिक पाँच जरूरतों को पूरा करता है। फलतः केवल वही आंदोलन सच्चे अर्थों में ‘राष्ट्रीय’ हैं जो हिन्दू राष्ट्र के पुनर्निर्माण, पुनरोद्भव तथा वर्तमान स्थिति से इसकी मुक्ति का उद्देश्य लेकर चलते हैं। केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति व राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्यत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो बौड़म हैं’’। यही संघ का सच है, उसका राष्ट्रवाद है और उसकी देशभक्ति है। इसीलिए इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वह अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रत्यक्ष-परोक्ष घृणा पर ही पलता है। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस इसी घृणा की सबसे आक्रामक अभिव्यक्ति थी। लेकिन उस दौर का उन्माद बनाए रख पाने में संघ और उसके गिरोह सफल नहीं हो पाए और केन्द्रीय सत्ता के साथ-साथ उत्तर-प्रदेश की सत्ता भी जल्दी ही उनके हाथों से निकल गई। हालाँकि यह मान लेना कि साम्प्रदायिकता के खूँखार दैत्य से भारत को मुक्ति मिल गई, नादानी और सरलीकरण ही होगा। गुजरात से लेकर कंधमाल तक देश के तमाम हिस्सों में हिन्दुत्व गिरोह ने आतंक के तार फैलाए हैं और पहले मालेगाँव मामले में प्रज्ञा ठाकुर की गिरफ्तारी और फिर अभिनव भारत तथा संघ से जुड़े तमाम लोगों के देशभर में आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के जो सबूत मिले हैं उसकी रोशनी में हम इसकी तैयारियों और खतरनाक मंसूबों को समझ सकते हैं। यहाँ यह बता देना समीचीन होगा कि दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय में वह डायरी आज भी उपलब्ध है जिसमें हेडगेवार के निकटस्थ सहयोगी बी0डी0 मुंजे ने मुसोलिनी से अपनी मुलाकात और संघ के सैन्यीकरण की योजनाओं पर विस्तार से लिखा है।
ऐसे में पिछले दिनों बाबरी मस्जिद पर हाईकोर्ट का जो फैसला आया उस पर इस गिरोह द्वारा अपनाई गई संत मुद्रा किसी को भी चैंका सकती थी। कल तक ‘आस्था के सवाल अदालत में हल न होने’ की बात करने वाले लोग ‘अदालत के फैसले के पूरे सम्मान’ की ही बात नहीं कर रहे थे अपितु ‘मसले को आपसी बातचीत से सुलझाने’ तक की बात कर रहे थे। इसका एक कारण तो अदालत द्वारा ‘आस्था को तर्क पर वरीयता’ देने वाला फैसला था जिस पर इतना कुछ लिखा और कहा जा चुका है कि कुछ अलग से कहने की जगह मैं बस जस्टिस राजेन्द्र सच्चर को उद्धृत करना चाहूँगा। समयांतर के नवंबर अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में वे कहते हैं- ‘यह फैसला बेतुका है, कोई अदालत हिन्दुओं की इस आस्था के आधार पर कि वह राम की जन्मस्थली है इस विवाद का फैसला कैसे कर सकती है? अदालत में आस्था का कोई अर्थ नहीं होता है।‘ और इसी वजह से संघ परिवार ने अपने पक्ष में दिए गए फैसले को बड़ी ‘उदारता’ से स्वीकार किया और इससे जुड़े लोगों ने इसे ‘राम जन्म भूमि आंदोलन के औचित्य’ के स्वीकार का प्रमाण से लेकर ‘राम के चरित्र की प्रामाणिकता पर मुहर भी माना’।
लेकिन यह इकलौता कारण नहीं था। देश भर में मीडिया, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों और आमजनों द्वारा किसी भी हाल में शांति बनाए रखने का और कम से कम तात्कालिक सांप्रदायिक सद्भाव का जो माहौल बनाया गया था उसमें किसी ‘विजय जुलूस’ या भड़काऊ बयान का जो उल्टा प्रभाव पड़ सकता था उससे संघ गिरोह बखूबी परिचित था। इसीलिए ‘फैसले का सम्मान’, ‘बातचीत से सुलझाने’ और अब ‘आगे बढ़ने’ जैसे धोखादेह शब्दों में उसने अपने असली मंसूबों को छिपाना उचित समझा। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता और स्थितियाँ सामान्य हुईं इन लोगों ने अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया है। अलग-अलग मंचों से जो बयान आए उनसे साफ है कि इन्हें उस दो तिहाई जमीन से भी संतोष नहीं जो अदालत ने इन्हें दी है, साथ ही शायद यह डर भी है कि अगर मुस्लिम पक्ष उच्चतम न्यायालय तक जाता है तो फैसला कुछ और भी हो सकता है। इसीलिए जहाँ एक तरफ चाशनी पगे शब्दों की कूटनीति से उन्हें अदालत में दुबारा जाने से रोकने की कोशिश की गई वहीं संत सम्मेलन जैसे मंचों से पूरी जमीन कब्जाने और मुसलमानों को ‘पंचकोशी की पवित्र सीमा के भीतर मस्जिद न बनाने देने’ जैसी बातें करके अपने असली उद्देश्य को पूरा करने की भी भरपूर कोशिश की जा रही है। संघ के इतिहास को जानने वाले लोग उसके दोमुँहेपन से बखूबी परिचित हैं। ऊपर जिस साक्षात्कार का जिक्र किया गया है उसमें जस्टिस सच्चर एक वाजिब सवाल उठाते हैं कि आखिर मुसलमानों से ही क्यों कहा जाए कि आप आगे बढ़ें? यह सवाल संघ परिवार के सामने भी तो रखा जा सकता है। वे क्यों नहीं आगे बढ़ते? यहाँ तक कि इस फैसले के साथ वह जीत का अनुभव तो कर रहे हैं लेकिन संतुष्ट नहीं हैं। वे वहाँ पूरी भूमि पर राम मंदिर का निर्माण करना चाहते हैं। यदि यह हिन्दू आस्था का सवाल है, तो क्या यह मुस्लिम आस्था का सवाल नहीं है?’
दरअसल, संघ के लिए राम मंदिर आस्था का नहीं राजनीति का सवाल है। वह इसे अपने व्यापक मंसूबों की राह के मील का पत्थर बनाना चाहता है जिससे एक तरफ वह अपने समर्थकों को एक झूठे राष्ट्रवादी गौरव से भर कर और अधिक आक्रामक होने के लिए प्रेरित कर सके तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के मन में भय और पराजयबोध इस क़दर भर जाए कि वे अपनी स्थिति को देश के भीतर ‘दोयम दर्जे’ के नागरिक की तरह स्वीकार कर लंे। वह इस राम चबूतरे पर चढ़ कर हिन्दू राष्ट्र के सिंहासन तक पहुँचना चाहता है। दुर्भाग्य से हमारी वर्तमान राजनीति में सक्रिय अधिकांश दल इस हकीकत को या तो समझ नहीं रहे या हिन्दू मतों की लालच में सब जानते-बूझते हुए खामोश हैं। यह एक ख़तरनाक लक्षण है- हमारे लोकतंत्र के लिए भी और हमारी उस साझा विरासत के लिए भी जिससे देश की अखंडता निर्धारित होती है। राजनैतिक नेतृत्व और न्यायपालिका से भरोसा उठ जाने का जो परिणाम होता है वह हम कश्मीर और उत्तर-पूर्व में पहले से ही देख रहे हैं। असद जैदी समयांतर के उसी अंक में जब यह सवाल उठाते हैं कि ‘क्या हिंदुत्ववादी गिरोह और आपराधिक पूँजी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्रों और टी.वी. चैनलों और उनके शिकंजे में फँसे असुरक्षित, हिंसक और लालची पत्रकार और ‘विशेषज्ञ’ अब इस कल्पित और गढ़ी गई आस्था के लिए परंपरा, ज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, कानून, इंसाफ, लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों की बलि देंगे? यह अधिकार इन्हें किसने दिया है?’ तो उसके मूल में यही चिंता है।
इसीलिए आज सवाल सिर्फ किसी एक मस्जिद या मंदिर का नहीं रह गया है। सवाल इससे कहीं अधिक व्यापक है। सवाल संघ गिरोह के मंसूबों को पहचानने और इसके खिलाफ व्यापक अभियान चलाए जाने का है। सवाल राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के लम्बे दौर में अर्जित साझा विरासत की रक्षा का है। सवाल भगत सिंह के शोषणमुक्त समाज की स्थापना का है। सवाल यह है कि जब राजनैतिक व्यवस्था के प्रमुख खिलाड़ी, कार्यपालिका और न्यायपालिका उस विरासत को झुठला कर बहुसंख्यक आस्था को अल्पसंख्यक आस्था पर वरीयता दे रहे हैं तो हम क्या इस देश को चुपचाप यूँ ही एक गृहयुद्ध और सर्वसत्तावादी धार्मिक राष्ट्रवाद की गोद में चले जाने देंगे? इस देश के सभी न्यायप्रिय तथा लोकतंत्र समर्थक लोगों के लिए ये सवाल अब केवल अकादमिक बहस नहीं जीवन-मरण के सवाल हैं। हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहाँ हमारी चुप्पी आने वाली पीढ़ियों को एक बर्बर युग की ओर ढकेल देगी।
-अशोक कुमार पाण्डेय
मोबाइल- 09425787930
(लेखक सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं)
ali bhai bahut hi badiya kaam kiya he aapne hume lagta he ab desh ki sewa sirf hum log hi nhi humare sath wo hindu vichardara ke log bhi hai jo sahi me sanatan dharm ke adarsh ko samjhte he ab zarurat hindu or muslimo ko sath milkar un aatanwadiyo ko jwab dene ki he jo hindutwa ke naam par logo ko aatankwadi bna rhe he.
ReplyDelete@ Aftab bhai, Atankwadi ka koi dharm nahi hota ab bahut se log samjhne lage hain.
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