Monday, January 03, 2011

इस्लाम मे सामाजिक व्यवस्था

अच्छे समाज में अच्छे परिवार पनपते हैं, अच्छे परिवार में अच्छे इन्सान बनते हैं। इसी तरह अच्छे व्यक्तियों से अच्छे परिवार बनते हैं और अच्छे परिवारों से अच्छा समाज बनता है। यानी व्यक्ति, परिवार और समाज एक-दूसरे के पूरक-संपूरक और परस्पर सहयोगी व सहायक होते हैं किसी अच्छी सामूहिक व्यवस्था और सभ्यता-संस्कृति के बनने में।

इस्लाम व्यक्ति और परिवार की उत्तम सृजन-व्यवस्था करके समाज-सृजन की ओर ध्यान देता है। वह अपने अनुयायियों को शिक्षा देता है कि समाज में नेकियों, भलाइयों को फैलाना व स्थापित करना तथा बुराइयों को रोकना तथा उनका उन्मूलन करना तुम्हारा प्रमुख उत्तरदायित्व है (कु़रआन, 3:104, 7:157, 9:67,71, 22:41, 31:17)। कोई भी व्यक्ति यह सोचने का औचित्य नहीं रखता कि ‘‘कुछ भी हो रहा है, हम से क्या मतलब!’’ समाज में शराफ़त, नेकी, अच्छाई, भलाई का प्रचलन हो; नाइन्साफ़ी, बुराई, बदी, अत्याचार, अनाचार, अन्याय; बेहयाई, अश्लीलता, नग्नता और बेशर्मी आदि का उन्मूलन हो, इसके लिए इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि ‘‘बुराई को देखो तो उसे हाथ से (अर्थात् बलपूर्वक) रोक दो; अगर इसकी क्षमता न हो तो ज़बान से (अर्थात्, बोलकर) रोको; अगर इसकी क्षमता भी न हो तो कम से कम, उस बुराई को दिल से तो बुरा जानो......लेकिन (सुन लो कि) यह अन्तिम स्थिति ईमान की सबसे अन्तिम, न्यूनतम श्रेणी है।’’

इस्लाम एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था देता है जिसमें समाज का हर व्यक्ति, हर परिवार, हर घर आपसी मेल-मिलाप द्वारा एक-दूसरे से निरंतर जुड़ा रहे। लोग अलग-थलग, अपनी खाल में मस्त, अपनी व्यक्तिगत दुनिया में मग्न, अपने व्यक्तित्व या अपने परिवार के अन्दर सीमित, और अपने ही लाभ व स्वार्थ के चारों ओर कोल्हू के बैल की तरह घूमते न रहें।

इस्लाम ने पाँच वक़्त की नमाज़ें, प्रतिदिन, सामूहिक रूप से अदा करने का आदेश दिया है। इससे समाज के लोग रोज़ाना पाँच बार अनिवार्य रूप से एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं। एक-दूसरे के दुख-सुख से सहज-रूप से अवगत होते, एक-दूसरे के काम आते और यथाअवसर, आवश्यकतानुसार एक-दूसरे की सहायता व सहयोग करने का वातावरण बनता है। इसी तरह रमज़ान के रोज़ों के महीने में आपसी मेल-जोल और ज़रूरतमन्दों की मदद का वातावरण बनाया जाता है, सामाजिक संबंध घनिष्ट होते हैं।

पड़ोसियों में ख़राब तअल्लुक़ अक्सर एक सामाजिक अभिशाप बनकर उभरता है। इस्लाम ने आदेश दिया है कि पड़ोसी को कष्ट मत दो, उसे सताओ मत, वह कमज़ोर हो तो उसे दबाओ मत। उसे कभी हल्की-सी आशंका भी न हो कि तुम से उसके मान-सम्मान को या उसके धन-सम्पत्ति को कभी कोई क्षति हो सकती है, नुक़सान पहुँच सकता है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने चेतावनी दी कि तुममें से कोई भी व्यक्ति सही मायने में, सच्चा मुस्लिम नहीं है जो पेट भरकर सोए और उसका पड़ोसी (निर्धनता या किसी और कारणवश) भूखा सोए। इसी तरह आप (सल्ल॰) ने यह भी फ़रमाया कि वह व्यक्ति मुस्लिम नहीं है जिसकी शरारतों और उद्दंडता से उसका पड़ोसी सुरक्षित और अमान में न हो। इस्लाम अपनी सामाजिक व्यवस्था में ‘पड़ोसी से संबंध’ के बारे में इतना ज़्यादा संवेदनशील (Sensitive) है कि पैग़म्बर (सल्ल॰) ने आदेश दिया है कि फल खाकर छिलके घर के बाहर मत डाल दो ताकि तुम्हारे (ग़रीब) पड़ोसी के बच्चे छिलके देखकर महरूमी महसूस करके उदास और दुखी न हो उठें।

किसी की मृत्यु हो जाए तो उसे दफ़न करने से पहले, इस्लाम ने उसकी सामूहिक नमाज़े जनाज़ा पढ़ने का हुक्म दिया है, और जनाज़े के साथ क़ब्रिस्तान तक जाने और दफ़न-क्रिया में शरीक होने का। फिर यह आदेश भी दिया गया है कि समाज के लोग, उसके परिजनों को तीन दिन तक खाना बनाकर, घर ले जाकर खिलाने का बन्दोबस्त करें। इससे दुखी परिवार को आभास व एहसास होता है कि पूरा समाज उसके दुख में शरीक है। लोग उसे अपना समझते हैं।

इस्लाम ने आदेश दिया है कि समाज में कोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास लोगों को जाते रहना चाहिए। सहयोग करना चाहिए और उसके स्वास्थ्य के लिए दुआ करनी चाहिए।

इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में, ग़रीबों, निर्धनों, असहायों, अनाथों, बीमारों, पीड़ितों, असहाय विधवाओं आदि की हर प्रकार की, संभव सहायता करने के आदेश हैं। इस्लाम ने कहा है कि तुम ऐसा करोगे तो यह उन पर तुम्हारा कोई उपकार या एहसान न होगा, बल्कि अल्लाह ने (जिसने तुम्हें धन आदि दिया है) तुम्हारे धन व संसाधनों में उन ज़रूरतमन्दों का हिस्सा रखा है। इस भ्रम में मत पड़ो कि जो कुछ तुम्हारे पास है वह कुल का कुल तुम्हारा है। और देखो, उन पर ख़र्च करो तो उन पर एहसान जताकर उनको कष्ट मत पहुँचाना, उनका अपमान मत करना, उनसे कोई प्रतिदान, कोई बदला मत चाहना। प्रतिदान तो तुम्हें अल्लाह देगा; इस जीवन में भी, और परलोक जीवन में तो पुरस्कार व प्रतिदान की मात्र अत्यधिक, चिरस्थाई होगी। इसीलिए मुस्लिम समाज (अपनी बहुत सारी कमज़ोरियों, ख़राबियों और त्रुटियों के बावजूद) एक बंधा हुआ, गठा हुआ, कल्याणकारी व परोपकारी समाज है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इस्लाम ने मानवजाति को एक उत्तम व उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था प्रदान की है। बहुत से बाहरी कारणों से और बहुत से आन्तरिक कारकों से वर्तमान का मुस्लिम समाज, सही मायने में ‘इस्लामी समाज’ के मानदंड पर पूरा नहीं उतरता, फिर भी अन्य समाजों की तुलना में इसमें अच्छाइयाँ बहुत ज़्यादा, बुराइयाँ काफ़ी कम हैं। निस्सन्देह इस स्थिति का श्रेय इस्लाम को जाता है।

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