Sunday, January 02, 2011

इस्लाम मे पारिवारिक व्यवस्था

परिवार, पति-पत्नी और बच्चों से बनता है। इसमें माता-पिता और भाई-बहन के संबंध भी होते हैं। इस्लाम एक दृढ़ व उत्कृष्ट दाम्पत्य-व्यवस्था देने के बाद एक अच्छे से अच्छे परिवार की सृजन की ओर ध्यान देता है। वह परिवारजनों में, कर्तव्य-अधिकार संहिता (Code of Duties and Rights) के द्वारा एक-दूसरे के प्रति अच्छे संबंध स्थापित रखने का प्रावधान करता है।

पति-पत्नी के बीच अधिकारों-कर्तव्यों की नैतिक शिक्षाएँ देने के साथ इस्लाम ने एक विशाल व विस्तृत क़ानूनी प्रावधान भी किया है। इसमें पत्नी के अधिकारों का और पति के कर्तव्यों का बाहुल्य है। पति के अधिकार पत्नी के मुक़ाबले में कम और कर्तव्य ज़्यादा हैं। इसी प्रकार पत्नी के कर्तव्य पति के मुक़ाबले में कम और अधिकार ज़्यादा हैं। जैसा कि पहले लिखा जा चुका, पत्नी के भरण-पोषण की पूरी (100 प्रतिशत) ज़िम्मेदारी पति पर और आश्रित बच्चों के भरण-पोषण की पूरी ज़िम्मेदारी पिता पर है। पत्नी (और माँ) को इस ज़िम्मेदारी से पूर्णतः आज़ाद रखा गया है। पति के धन-दौलत में पत्नी का पूरा हक़ है लेकिन पत्नी के व्यक्तिगत धन-दौलत-संपत्ति में पति का कुछ भी हक़ नहीं। पति की मृत्यु के बाद उसकी छोड़ी हुई धन-सम्पत्ति में बेटों, बेटियों के साथ-साथ विधवा पत्नी का भी निश्चित हक़ है।

माता-पिता का कर्तव्य इस्लाम ने सिर्फ़ यह नहीं बताया है कि वे अपनी संतान की केवल भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करें; बल्कि आदेश दिया गया है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा व प्रशिक्षण भी इस प्रकार करें कि संतान नेक, ईमानदार, सज्जन, सभ्य, ईशपरायण और चरित्रवान बने। उन्हें नैतिक गुणों से सुसज्जित किया जाए और दुर्गुणों व दुष्कर्मों से बचाया जाए। इसी तरह संतान के लिए माता-पिता का आदर-सम्मान और सेवा-सुश्रूषा करने के साथ-साथ उनका पूर्ण आज्ञापालन भी करने का हुक्म दिया गया है (अलबत्ता माता-पिता का कोई भी ऐसा हुक्म मानने से मना कर दिया गया है जिसमें अल्लाह की नाफ़रमानी होती, यानी गुनाह व पाप होता हो)।

माता-पिता, जीवन के किसी भी चरण में अगर आर्थिक रूप से स्वावलंबित न रहकर असहाय हो जाएँ ख़ास तौर से बुढ़ापे में, तो इस्लाम ने नैतिक स्तर के साथ-साथ क़ानूनी स्तर पर भी, उनके भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी बेटों पर डाली है। बहुओं को इसमें रुकावट डालने की कुचेष्टा हरगिज़ नहीं करनी चाहिए। कु़रआन में (17:23) हुक्म दिया गया है कि माँ-बाप को (डाँटना, झिड़कना तो बहुत दूर की बात है) कभी ‘उँह’ तक भी मत कहो। माता-पिता की नाफ़रमानी व अवज्ञा करने को, उन्हें मानसिक या भावनात्मक दुख देने को, उन्हें शारीरिक कष्ट देने को, और उनका अनादर व अपमान करने को ‘हराम’ क़रार दिया गया है और कहा गया है कि माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार करने वाली संतान चाहे कितनी ही नेकियाँ, पुण्य कार्य और इबादत-पूजा-पाठ करके दुनिया से जाए, परलोक में वह नरक की भागी होगी। माता-पिता के जीवित रहते बेटों की मृत्यु हो जाए तो इस्लाम ने बेटों की धन-सम्पत्ति में माँ-बाप का हिस्सा रखा है।

इस्लाम में ‘संयुक्त परिवार’ को पसन्द नहीं किया गया है क्योंकि इसमें प्रायः बड़ी ख़राबियाँ पैदा हो जाती है। अक्सर भाइयों और जेठानियों, देवरानियों में संबंध बहुत बिगड़ जाते हैं, दुश्मनी भी हो जाती है। अलबत्ता रिश्तों को जोड़े रखने का हुक्म दिया गया है। ख़ून के रिश्तों को कमज़ोर करने से सख़्ती से रोका गया है और इन्हें तोड़ने, ख़त्म करने को वर्जित कर दिया गया है। आदेश है कि परिवार और ख़ून के रिश्तों के लोग तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार भी करें तो भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार, उपकार और सहयोग व सहायता की नीति पर चलो। एक अच्छे परिवार, एक अच्छे ख़ानदान के सृजन व स्थापन के लिए सहानुभूति, आदर, प्रेम, सहयोग, क्षमाशीलता, उदारता, संयम, सहिष्णुता, उत्सर्ग, त्याग, शुभेच्छा, उत्सर्ग आदि नैतिक गुणों के साथ-साथ इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने यह शिक्षा भी दी है कि ‘‘कमाल यह नहीं है कि तुम्हारे रिश्तेदार और परिजन तुम्हारे साथ सद्व्यवहार करें तब तुम (बदले में) उनके साथ सद्व्यवहार करो। कमाल इस में है कि यदि वे तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करें तब भी तुम बदले में दुर्व्यवहार नहीं, सद्व्यवहार और परोपकार करो।’’

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