मणिपुर में मुझे तमाम बातें खास लगीं। ऐसी बातें जिन्हें आप पढ़ कर या देख कर जान तो सकते हैं, लेकिन जिन्हें महसूस करने के लिए आपको वहां जाना ही पड़ेगा। सच ये हैं कि मुझे वैसा कोई कड़वा अनुभव नहीं हुआ, जैसा आमतौर पर उत्तर भारत में रहने वालों के दिमाग में रहता है। लेकिन फिर भी चीजें कहीं न कहीं वैसे ही हैं, जैसे हम समझते हैं।
सबसे ज्यादा परेशान करने वाली थी कि वहां के बच्चे आपको देख कर मुस्कुराते नहीं। आप कितने ही बच्चों को देख कर अलग-अलग बार अलग-अलग जगहों पर इसकी कोशिश करके देख लें। आप निराश होंगे। वे आपको देख कर डरते तो नहीं, लेकिन असहज जरूर हो जाते हैं। वे आपको ऐसा आदमी समझते हैं, जो उनकी और उनके परिवार, गांव और समाज की मुश्किलें नहीं समझ सकता। सौभाग्य से सलाम भाई मेरे साथ था, इसलिए मुझे कुछ बच्चों से जुड़ने का मौका मिला। लेकिन सच यही है कि बौद्ध लामाओं से दिखने वाले ये बच्चे जब मुस्कुराहट की भाषा में बात नहीं करते, तो एक भारतीय होने, विकास करने और दुनिया में पहचान बनाने की भावना अजीब सी लगने लगती है।
दूसरी खास बात महिलाओं की जिंदगी को लेकर मैंने महसूस की। कितनी मुश्किलें हैं उनकी जिंदगी में और कितनी बड़ी भूमिका निभाती हैं वे। आप उन्हें वहां आते-जाते देख कर ही जान सकते हैं। गाढ़े लाल रंग (मैरून) का फनेक (पेटीकोट जैसा पहनावा) और गुलाबी रंग का दुपट्टा डाल कर वे दिखने में बेहद खूबसूरत लगती हैं। उनका आत्मविश्वास संतुलन अनुशासन और सबसे बढ़ कर चेहरे पर गरिमा। मणिपुर के बच्चों के चेहरों पर जो दर्द मासूमियत और अजनबीपन है, वह जैसे महिलाओं के चेहरों पर विस्तार पा गया है। दिल्ली में आप उन्हें हल्का और चीप समझ कर उन पर भद्दे कमेंट कर कितना बड़ा अपराध करते हैं – इसका एहसास आपको मणिपुर में उनकी असली जिंदगी देख कर ही होगा।
ऐसा नहीं कि उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत के गांवों में (मैं लखनऊ का हूं) महिलाएं मेहनत नहीं करतीं या उनमें कम गरिमा है, लेकिन उनके साथ हम अपने ही देश में बड़े शहरों में खास कर राजधानी दिल्ली में उतना घटिया बर्ताव भी तो नहीं करते।
वे घर का सारा काम करती हैं। पहाड़ पर चढ़ कर लकड़ियां काट कर लाती हैं। रोजी-रोटी के लिए मछलियां पकड़ती हैं। पीठ पर एक कपड़े से बच्चे को बांध कर साइकिल चलाती हैं। खूब पैदल चलती हैं और जरूरी होने पर टैक्सी भी लेती हैं।
एक घटना याद आ रही है। एक दिन मैं और सलाम भाई टैक्सी से लौट रहे थे, इंफाल से। टैक्सी में अंदर सीट नहीं थी। इसलिए हम पीछे की जगह पर खड़े होकर जा रहे थे। रास्ते में एक महिला ने हाथ हिला कर टैक्सी रुकवायी और अंदर जगह न होने की बात जान कर भी कुछ कहे बगैर पीछे हमारे साथ खड़ी हो गयी। टैक्सी चल पड़ी। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह महिला खूब सजी-धजी हुई थी और शायद किसी शादी में जा रही थी। उसने मेकअप भी कर रखा था। उसे पीछे खड़े होकर जाने में कोई झिझक नहीं हुई। यह है उनकी जिंदगी और हिम्मत। हमारे यहां शादी में जाने वाली महिलाएं उस दौरान कितने दिखावे की दुनिया में रहती हैं, ये हम सब जानते हैं। बाद में सलाम भाई ने बताया कि यहां ये कॉमन बात है। चाहे शादी में जाना हो, या कहीं और। अगर जगह नहीं है, तो वह पीछे खड़ी होकर भी जाएगी।
हम अगर ये जानना चाहें कि मणिपुर के लोगों का हमारे प्रति और भारत के प्रति चिढ़ने वाला नजरिया क्यों है, तो ये कोई मुश्किल काम नहीं है। बशर्ते हम ईमानदारी से अपने और उनके हालात को जानें। उनको, खास कर दिल्ली में तो चिंकी पिंकी या फिर नेपाली कह कर अपमानित करने से क्या वे हमको इज्जत देंगे? वो उसी दृष्टि से देखेंगे, जो हम उनको देखते हैं। सबसे बड़ा कारण तो अफसपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) है। इस कानून ने वहां के लोगों की जिंदगी को तबाह कर दिया है। इस कानून की वजह से वहां के लोग उत्तर भारतीयों को मयांग (बाहरी आदमी) कह कर पुकारते हैं।
मैं दिल्ली में रहता हूं और मेरे पास पानी लेने के लिए यहां चार तरह के इंतजाम हैं। किचन में एक टंकी है। एक बाथरूम में, एक टॉयलेट में और एक बेसिन में। मणिपुर के गांवों में कहीं भी टंकी तो दूर, सरकारी नल भी नहीं है। हर घर के पास एक पोखर है, जिसमें बारिश का पानी इकट्ठा किया जाता है। सबकी कोशिश होती है कि पोखर के पानी को साफ रखें। वहां कुत्ते नहीं दिखते, शायद इसलिए कि वे पानी को गंदा कर सकते हैं। गाय भी कम पाली जाती है। लोगों को चाय पीने की आदत नहीं है। सुबह मछली-चावल खाने के बाद लोग देर शाम को खाना खाते हैं। बीच में चाय-नाश्ते की कोई आदत नहीं। दिन भर काम करना और रात को जल्दी सो जाना।
सड़कें यहां जरूर बनी हैं और सड़कों पर आर्मी की ओर से रात में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सफेद लाइटें जगमगाती रहती हैं, लेकिन सच यह है कि ये लाइटें नाउम्मींदी के गहरे अंधेरे की तरह हैं। क्योंकि घरों में बिजली एक दिन आती है, अगले दिन नहीं आती। यूपी के गांवों में जिस तरह से सरकारी नल लगवाना या शौचालय बनवाना आसान हो गया है, उसे देख कर आप खुद से ही सवाल पूछेंगे कि पानी, बिजली और शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम रखे गये इन लोगों का कुसूर आखिर क्या है?
यहां प्राकृतिक खूबसूरती है। शांत माहौल है। लोग मेहनती हैं। उनके चेहरे पर मेहनत और आत्मसम्मान की गरिमा है, लेकिन वे दिल से खुश नहीं है। खुश शायद हम उत्तर भारत यूपी, बिहार और दिल्ली के लोग भी नहीं हैं, लेकिन हमारे लिए इसकी वजहें दूसरी हैं। हम शहरों की ओर भाग रहे हैं। हम जाति-धर्म, दहेज और दिखावों में जकड़े हुए लोग हैं, जो मौकों को दूसरों से छीनना चाहते हैं। हमारे साथ सरकारें उस तरह का बर्ताव हर्गिज नहीं कर रहीं, जैसा नार्थ ईस्टा के साथ किया जा रहा। उनका गुस्सा बिल्कुल जायज है। आखिर क्यों वे आपसे घुले मिलें, क्यों आपको अपनी मुसीबतों का साझीदार बनाएं, इसलिए कि आप उन्हें आदिवासी, पिछड़ा और हिंसक करार दे कर उनके अधिकारों से महरूम कर दें? आपकी दया का पात्र बन कर वे नहीं जीना चाहते। उनका भी एक इतिहास है। ये देश उनका भी उतना ही है, जितना आपका। इसके बावजूद आप चाहते हैं कि आप उनका साथ ऐसा बर्ताव करें, जैसे वे किसी दूसरे देश से आये हैं या इस देश में आपसे कम दर्जे के नागरिक हैं।
(दीपक भारती। युवा पत्रकार। दैनिक हिंदुस्तान के दिल्ली संस्करण से जुड़े हें। लखनऊ विश्वविद्यालय से पढ़ाई-लिखाई। छात्र राजनीति से भी जुड़े रहे हैं। उनसे deepakbharti2008@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
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