हैरत तब लगभग हर किसी को हुई थी, जब पूरी दुनिया को योग, आत्मबल, मौन और शांति का पाठ पढ़ाने वाले रामदेव भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का विरोध करने वालों के खिलाफ कोई 11,000 लोगों की एक सशस्त्र यानी प्राइवेट सेना बनाने की बात करने लगे। यह किसी ने सोचा भी नहीं था। योग शिविरों में तरह-तरह के आसन के लाभ बताने की जगह हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जाए, यह बात आसानी से हजम होने वाली भी नहीं थी। इसलिए इस विचार का हर तरफ से विरोध भी हुआ। विरोध सामने आते ही खंडन भी आ गया। राजनीति की परंपरा को निभाते हुए सारा आरोप मीडिया के मत्थे मढ़ दिया गया। बात खुद रामदेव ने कही थी, लेकिन खंडन उनके प्रवक्ता की तरफ से आया। बात हरिद्वार में कही गयी थी, लेकिन खंडन दिल्ली में हुआ। खंडन में कहा गया कि यह सेना हथियारों की ट्रेनिंग देने के लिए नहीं, भ्रष्टाचार के खिलाफ युवकों को आत्मरक्षा सिखाने के लिए होगी।
बहरहाल पहला बयान जब आया, तो ऐसा लगा जैसे केंद्र सरकार इसी का इंतजार कर रही थी। इसीलिए गृहमंत्री पी चिदंबरम ने बिना कोई वक्त जाया किये ऐलान कर दिया कि बाबा रामदेव प्राइवेट सेना बनाएंगे, तो सरकार उससे निपटेगी। गृह मंत्री ने यह भी कहा कि ‘बाबा ने अपने असली रंग और इरादों का खुद ही पर्दाफाश कर दिया।’
फिलहाल सवाल यह नहीं है कि बाबा रामदेव ने जो बात पहले कही थी, उस पर विश्वास किया जाए या फिर बाद वाले खंडन पर। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की मुखालफत करने वालों से क्या कोई सशस्त्र ब्रिगेड निपट सकती है? यह सेना जो जंग लड़ेगी, वह जंग आखिर किसके खिलाफ होगी और क्यों होगी? एक सवाल यह भी है कि क्या इस सेना का इस्तेमाल आगे चलकर चुनावों में भी किया जाएगा? भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े लोगों का गुस्सा जायज हो सकता है, मगर क्या इस गुस्से को सशस्त्र दस्तों से ठंडा किया जा सकता है? प्राइवेट सेना क्या करती है?
इन सवालों के जवाब पाने के लिए हमें बिहार जाना होगा। इस राज्य में 1967 से 2005 तक तकरीबन हर राजनीतिक रंग की सेना दिखाई दी। हिंसा, बदला और खून-खच्चर के आलावा कुछ और नहीं हुआ। उस दौर में खून की हर छींट हिंसा की अगली कई घटनाओं की भविष्यवाणी कर देती थी। बिहार में सबसे पहले दशकों के सामंती दमन के खिलाफ नक्सलियों की लाल सेना ने हथियार उठाये। गरीबों, भूमिहीन किसानों के दस्तों को सशस्त्र ट्रेनिंग दी गयी और कयामत बरसती रही, खेत-खलिहान जलते रहे। फिर जमींदारों ने नक्सलवाद को मिटाने के नाम पर आवाज उठाने वाले गरीबों, दलितों और खेतिहर मजदूरों को कुचलने के लिए जाति के आधार पर प्राइवेट सेनाओं का गठन किया।
यदि 1979 भोजपुर के सामंती ठाकुरों ने ‘कुंवर सेना’ का गठन किया, तो उसी वर्ष पटना, जहानाबाद और गया के नव-धनाढ्य कुर्मी जाति के किसानों ने किसान सुरक्षा समिति का गठन किया। फिर 1983 में पटना, नवादा, नालंदा और जहानाबाद में कुर्मी किसानों की शक्तिशाली ‘भूमि सेना’ का गठन हुआ। इसके बाद तो जैसे राज्य में निजी सेनाओं की बाढ़ ही आ गयी। उसी क्षेत्र के यादव किसानों ने ‘लोरिक सेना’ का गठन किया। 1984 में भोजपुर, औरंगाबाद और जहानाबाद के भूमिहार किसान समिति ने ‘ब्रह्मर्षि सेना’ का गठन किया। 1984 में ही पलामू, गढ़वा (अब झारखंड में) और औरंगाबाद के ठाकुर-ब्राह्मण भूस्वामियों ने किसान संघ का गठन किया। फिर उसी क्षेत्र में ठाकुर भूस्वामियों ने किसान सेवक संघ का गठन किया। 1989 के आते-आते एक खूंखार सेना का गठन हुआ, जिसका नाम था ‘सनलाइट सेना’ और इसमें शामिल थे पलामू, गढ़वा, औरंगाबाद और गया के मुस्लिम सामंती पठान और ठाकुर। 1990 में गया-जहानाबाद क्षेत्र के भूमिहार किसानों ने सवर्ण ‘लिबरेशन फ्रंट’ का गठन किया। 1990 में भूमिहार भूपतियों ने एक और सेना बनायी, जिसका नाम पड़ा किसान संघ। 1990 में ही ‘गंगा सेना’ का जन्म हुआ था। और फिर भूमिहार किसानों, नेताओं और कुछ भूमिहार प्रोफेशनल्स की ‘रणवीर सेना’ का जन्म हुआ, जिसका काम न केवल नक्सलियों और माओवादी संगठनों से लोहा लेना था, बल्कि अपने इलाके में डकैती और किडनैपिंग के खिलाफ भी लड़ना था।
जब इतने सारे अत्याधुनिक हथियारों से लैस नौजवान सैनिक गांवों और शहरों में घूम रहे हों, तो भगवान बुद्ध की अहिंसा की फिलॉसफी भला वहां कैसे चलती? इसीलिए चारों तरफ, खास तौर से मध्य बिहार के जिलों में जनसंघर्ष का सिलसिला शुरू हुआ। रक्तपात के इन तीन दशकों के भीतर लगभग 600 लोग (सरकारी आंकड़ों के अनुसार) मौत के घाट उतार दिये गये। हर हत्या या नरसंहार का जवाब नरसंहार से दिया जाने लगा। इन्हीं प्राइवेट सेनाओं के कारण बिहार डार्क जोन या जंगल राज के नाम से पुकारा जाने लगा। जब हाथ में हथियार हो और जेब में पैसा, तो कोई भी किसी तरह से लोगों को आतंकित कर सकता है। इसलिए हथियारबंद उच्च और मध्यम जाति के नौजवान दस्ते बेकारी में यानी जब मारने को नक्सली-गरीब नहीं मिलते थे, तो वे इजी मनी के लिए लूट-खसोट में लग गये। ये सशस्त्र निजी संगठन और जनसंहार केवल भूमि संबंधी संघर्ष का ही हिस्सा नहीं थे। इनके कई सामाजिक-राजनीतिक आयाम भी थे। समाज विज्ञानियों के अनुसार, यह धीरे-धीरे सामाजिक नेतृत्व और वर्चस्व का हिस्सा बन गया। ठेकों की लूट और बूथ कैप्चरिंग तक की जिम्मेदारी इन हथियारबंद सेनाओं के जिम्मे थी, ताकि जिस जाति की सेना थी, उसी जाति के नेता एमएलए और एमपी बनें और उन्हें संरक्षण मिले।
इसीलिए जब योगगुरु बाबा रामदेव ने पिछले दिनों सशस्त्र दस्ता या प्राइवेट सेना बनाकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का विरोध करने वालों से मोर्चा लेने की बात की, तो लोगों की रूह कांप गयी। लोगों को याद आ गया बिहार का वह अंधकार भरा युग। वे सभी लोग, जिन्होंने उस युग का बिहार देखा है, वे कभी नहीं चाहेंगे कि देश के किसी भी हिस्से में कोई निजी सेना बने। उस निजी सेना का मकसद चाहे जितना भी अच्छा क्यों न बताया जाए।
(फरजंद अहमद। वरिष्ठ पत्रकार। इंडिया टुडे से जुड़े रहे हैं। बिहार में लंबे समय तक रिपोर्टिंग की। पिछले कुछ सालों से लखनऊ में। उनसे farzahmed@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
assalam allaikum anwar bhai, apka blog dekha.pahli bar.kai post padh dala.
ReplyDeletekhoob behtar.aapki fikr se waqif hua. aapka link apne yahan muslin duniya k tihat de raha hun.kabhi hamzabaan zaroor dekhen.