गरीबी के समुद्र में अमीरी के टापू सुरक्षित नहीं रह सकते। जहां 'एक ओर अंधी दौलत की पागल ऐशपरस्ती' हो और दूसरी ओर 'जिस्मों की कीमत रोटी से भी सस्ती' हो, वहां राक्षसी वातावरण के पक्ष में अश्लील गीत-संगीत, सिनेमा-नाटक, कविता-शायरी करने वाले कलावंत जनद्रोही नहीं तो और क्या कहे जाएंगे। संवेदनशील मानवतावादी कवि-कलाकारों को व्यभिचारियों के बिस्तर बनने से इंकार करना होगा। उन्हें सरकश तराने लिखने होंगे। मश्नोई ख्वाब आवर तरानों से बचना होगा और अपने सरकश तरानों की हकीकत को बयान करना होगा; बकौल साहिर लुधियानवी:
मेरे सरकश तरानों की हकीकत है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूं भूख से मारे किसानों को
गरीबों, मुफलिसों को, बेकस-बेसहारों को
सिसकती नाजनीनों को, तड़फते नौजवानों को
हुकूमत के तशद्दुद को, अमीरत के तकब्बुर को
इन फटे चीथड़ों को और इन शहंशाही खजानों को
तो मेरा दिल तावे निशाते ष्इशरत ला नहीं सकता
मैं लाख चाहूं तो भी ख्वाव आवर तराने गा नहीं सकता।
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