Wednesday, March 09, 2011

संघ के दागदार चेहरे की प्लास्टिक सर्ज़री की कवायद

कुछ माह पूर्व गृह मंत्री चिदंबरम ने एक बयान दिया था कि भगवा आतंकवाद से सावधान रहने की आवश्यकता है। इस पर भाजपा तथा उसके पैरेंटल आर्गनाइजेशन आरएसएस ने जबरदस्त बवाल मचाया था। वेंकैया नायडू तथा राजनाथ सिंह जैसे नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस हिंदुओं को बदनाम कर रही है उसे इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। भाजपा तथा आर एस एस का कहना था कि हिंदू कभीआतंकवादी घटनायें कर ही नहीं सकता।
इसका अप्रत्यक्ष मतलब यह था कि आतंकवादी कृत्य केवल मुसलमानों का ही पुश्तैनी धंधा है। राजनीतिक लाभ उठा कर सत्ता की मलाई उड़ाने का सबसे अच्छा हथियार सांप्रदायिक दुर्भावना ही है। यदि इस हथियार का प्रयोग बहुसंख्यक हिंदुओं के हृदयों को अल्पसंख्यक मुसलमानों के विरुध्द कलुषित करने के लिये किया जाय तो हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाय वाली बात हो जाती है क्योंकि कौमी नफरत के सामने देश की स्वतंत्रता के लिये स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा किये गये बलिदान जिसमें हिंदुओं के साथ मुसलमान भी बराबरी से शामिल थे, देश का विकास, राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्मिता जैसे विषय कमजोर पड़ जाते हैं। मसलन, सैकड़ों वर्ष पूर्व किसी मुसलमान शासक ने जान बूझ कर या अनजाने में कोई गलती की थी, उसका हिसाब आज के मुसलमानों से मांगा जा रहा है जिनका उस घटना तथा संबंधित शासक से कोई रिश्ता नहीं है किंतु भोली भाली जनता को बरगलाने के लिये इसे माध्यम बना कर 92-93 के देश व्यापी दंगे तथा 2002 के गुजरात दंगे कराये गये जिसमें हजारों निरपराध मारे गये तथा देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी हुई। खैर, देश की चिंता किसे है, भाजपा अपने अभिभावक आरएसएस से आशीर्वाद ले कर सांप्रदायिक दुर्भावना का गांडीव ले कर आगे बढ़ती रही है, इसमें उसे काफी सफलता भी मिली। पाकिस्तान से माइग्रेट हो कर भारत आये आडवाणी दादा जो आरएसएस तथा भाजपा दोनों में ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, ने सांप्रदायिक दुर्भावना फैलाने की ऐसी ऐसी तकनीकों का आविष्कार किया कि उनके सहयोगी भी दंग रह गये। केंद्र में सत्ता मिल गई किंतु स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, समर्थन की बैसाखी के सहारे संभल संभल कर कदम रखना पड़ता था, क्या पता कब बैसाखी हांथ से छूट जाये और धड़ाम से गिर पड़ें। आर एस एस तथा भाजपा को नफरत के परमाणु बम के सहारे सत्ता प्राप्ति का चस्का लग चुका था इसलिये गुजरात में इस बम का वृहद परीक्षण किया गया। आडवाणी के शिष्य नरेंद्र मोदी की अगुवाई में यह परीक्षण सफल रहा। दंगों के तत्काल बाद गुजरात विधान सभा के चुनाव करा दिये गये जिसमें मोदी को सफलता मिली, वे दोबारा मुख्यमंत्री बन गये। संघ के सम्मेलनों में मोदी का स्वागत महानायकों की तरह किया जाने लगा। एनडीए के सहयोगी भी भाजपा तथा संघ के दबाव में आ गये, किसी ने भी दंगों का विरोध नहीं किया। इससे उत्साहित हो कर इस नफरत के परमाणु बम को प्रयोग पूरे देश में करने का निर्णय लिया गया प्रवीण तोगडिया ने दिल्ली के रामलीला मैदान से घोषणा कर दी कि हम पूरे देश को गुजरात बना देंगे, तोगडिया के खिलाफ कोई एक शब्द नहीं बोल सका, कानूनी कार्यवाही तो दूर। किंतु नफरत का कारोबार ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। इस हथियार की हवा जल्द ही निकल गई। भारत की धर्म निरपेक्ष जनता ने भाजपा तथा उसके सहयोगियों को नफरत का जवाब नफरत से ही दिया। भाजपा तथा एनडीए के घटक दल 2004 के लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिरे तब सभी को होश आया, कई घटक दलों ने भाजपा से किनारा कर लिया। कांग्रेस को 2004 में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अन्य दलों ने समर्थन दिया और यूपीए के रूप में उसे बैठे बैठाये सत्ता मिल गई। भाजपा तथा आर एस एस को ठोकर खा कर सुधर जाना चाहिये था किंतु आरएसएस की स्थिति उन वृध्द पिताओं की तरह है जो आधुनिक युग से बेखबर पुरातनपंथी बेडियों में जकड़े रहते हैं और अपनी संतानों को भी जात पांत, छुआ छूत, ऊंच नीच, अमीर गरीब के भेदभाव की शिक्षा देते हैं। संतान भाजपा भी अपने अभिभावकों की इच्छा के विरुध्द जाने में डरती है क्योंकि उन्हें भय है कि कहीं अभिभावक उन्हें अपनी संपत्ति (कट्टर हिंदूवादी वोटबैंक) से बेदखल न कर दें। भाजपा के पास अभिभावकों की जायदाद पर ही गुजर बसर करना मजबूरी है क्योंकि उन्होने मेहनत मशक्कत (विकास कार्य) कर अपनी स्वयं की जायदाद (जनाधार वोटबैंक) बनाने का प्रयास नहीं किया केवल अभिभावकों की संपत्ति तथा भाग्यवश प्राप्ति (सत्ता के विरुध्द मतदान, गठबंधन के सहयोगी दलों के वोट बैंक आदि) पर ऐश करते रहे। अभिभावक भी नहीं चाहते थे कि संतान उनकी रूढिवादी विचार धारा की गिरफ्त से आजाद हो कर आधुनिक जीवन शैली (धर्म निरपेक्षता तथा विकास) अपनाये। एक कहावत है कि हीरा चुक जाता है किंतु झीरा नहीं चुकता यानि अगर बैठ कर खाया जाय तो कितनी भी संपत्ति हो एक दिन खत्म हो जायगी किंतु यदि आदमी मेहनत से थोड़ा भी कमाये तो वह झिरा (स्त्रोत) कभी समाप्त नहीं होता है। यह बात भाजपा तथा आरएसएस की समझ में अब आई है। पूरे देश के हिंदू मतदाता आर एस एस की संपत्ति नहीं हैं, यह बात कई बार सिध्द हो चुकी है। हिंदू वोटों का किसी पार्टी विशेष के पक्ष में धरुवीकरण नहीं होता क्योंकि उन्हें अपने जान माल, इज्जत आबरू की सुरक्षा की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि मुसलमान आपस में कतई एक जुट नहीं हैं किंतु दंगे फसाद के डर से उनके मतों का धृवीकरण किसी भी ऐसे नेता की तरफ हो जाता है जो उनके पक्ष में कम से कम दो शब्द बोल सके। मुसलमानों की इस कमजोरी का फायदा उठा कर कभी कांग्रेस ने कभी मुलायम सिंह ने कभी लालू तथा पासवान ने सत्ता के मजे लूटे, मुसलमानों को केवल लिप सिंपैथी देते रहे, उनकी भलाई के लिये कुछ नहीं किया। अब आरएसएस को यह रहस्य समझ में आ चुका है इसलिये वे भी इस फार्मूले का प्रयोग भाजपा को सत्ता दिलाने के लिये करना चाहते हैं। इसके लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक मुस्लिम मोर्चा का गठन कर दिया गया है । कुछ दिनों पहले भगवा मौलाना शीर्षक से एक खबर राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुई थी जिसमें बताया गया था कि कुछ मुसलमान आरएसएस के कार्यकर्ताओं के साथ लखनऊ जैसे बड़े शहरों के मुस्लिम इलाकों में जा जा कर यह बता रहे हैं कि आरएसएस मुसलमानों का विरोधी नहीं बल्कि हितैषी है। इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इसी कड़ी में अब आरएसएस ने मालेगांव ब्लास्ट के आरोपियों से न केवल पल्ला झाड़ लिया है बल्कि उनसे अपने प्रमुख नेताओं की जान को खतरा भी बताना शुरू कर दिया है। हाल ही में संघ के वरिष्ठ नेता सुरेश जोशी ने प्रधान मंत्री को पत्र लिखा है कि कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे संघ प्रमुख मोहन भागवत तथा इंद्रेश कुमार की हत्या करना चाहते थे। अपने कथन को मजबूती प्रदान करने के लिये उन्होंने महाराष्ट्र एटीएस की रिपोर्ट का हवाला दिया है।
उल्लेखनीय है कि कल तक महाराष्ट्र एटीएस द्वारा की जा रही कार्यवाहियों तथा खुलासों पर संघ को कड़ा एतराज होता था। वे महाराष्ट्र एटीएस के खुलासों को कांग्रेस द्वारा प्रायोजित तथा हिंदूवादी संगठनों के नेताओं की गिरफ्तारियों को हिंदू विरोधी कार्यवाही बताते थे। शहीद हेमंत करकरे जब अपने जीवन काल में रोज नये नये खुलासे और कट्टर हिंदूवादी संगठनों से जुड़े लोगों को गिरफ्तार कर रहे थे तब वे आरएसएस की आंख का कांटा बने हुये थे, उनकी शहादत के बाद से एटीएस की सक्रियता काफी कम हो गई और आरएसएस को राहत मिली। करकरे को पाकिस्तानी आतंकी कसाब ने मारा था फिर भी उनकी शहादत को हिंदूवादी संगठनों ने महत्व तथा सम्मान नहीं दिया। आज जिस प्रकार हिंदू कट्टरवादी एक के बाद एक आतंकवादी गतिविधियों में फंसते जा रहे हैं तथा उनके खिलाफ पुख्ता सबूत मिलते जा रहे हैं उससे आरएसएस को अपनी छवि बचाना मुश्किल हो रहा है। यदि अभिभावक की ही छवि खराब हो गई तो संतान भाजपा की नौकरी (सत्ता) का क्या होगा क्योंकि एंप्लायर (जनता) ने तो अभिभावक का लिहाज कर ही संतान को नौकरी दी थी। इसलिये अब आरएसएस के पास अपने ही योध्दाओं से पिंड छुड़ाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है इसी कारण पहले यह कहा गया कि आरएसएस में कट्टरवादियों के लिये कोई जगह नहीं है, अब प्रधानमंत्री से अनुरोध किया गया है कि मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी बर्खास्त कर्नल पुरोहित तथा दयानंद पांडे संघ के प्रमुख नेताओं की हत्या करना चाहते थे, इसकी जांच कराई जाय। संभव है यह सारी कवायद संघ के दागदार हो रहे चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करने का एक प्रयास हो।

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