Monday, January 31, 2011

इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में नया मोड़


इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में नया मोड़
गुजरात पुलिस ने इशरत जहाँ और तीन अन्य को चरमपंथी संगठन लश्कर का सदस्य बताकर उन्हें कथित मुठभेड़ में मार दिया था
गुजरात पुलिस मुठभेड़ की नए सिरे से छानबीन कर रहे विशेष जांच दल के एक सदस्य ने कहा है कि 2004 इशरत जहाँ और तीन दूसरे लोगों का मुठभेड़ फ़र्ज़ी था. शुक्रवार को गुजरात हाई कोर्ट में इस मामले पर एक लम्बी दलील पेश करते हुए सीनियर पुलिस अधिकारी सतीश वर्मा ने कहा कि इस मामले में एक नई प्राथिमिकी यानी एफ़आईआर दर्ज होनी चाहिए.
पहले हुए एक न्यायिक जांच में भी ये बात सामने आई थी कि 2004 में आतंकवादी बताकर इन लोगों को जिस तरह से मारा गया था वह मुठभेड़ फ़र्ज़ी थी. लेकिन अदालत ने उस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी.
सतीश वर्मा उस तीन सदस्यीय विशेष जांच दल के सदस्य हैं जो गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश पर पिछले साल बनाई गई थी. दो जजों की खंडपीठ के सामने एक हलफ़नामे में सतीश वर्मा ने कहा,”अभी तक सामने आए साक्ष्य उन बातों को नकारते हैं जो एफआईआर में कही गई हैं.
सबूत उन्होनें इसके सबूत के तौर पर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और दूसरे तथ्यों को अदालत के सामने रखा.
जाँच दल के सदस्य का कहना था कि इशरत जहाँ और तीन अन्य के शरीर से निकाली गई गोली उस पिस्तौल से मेल नहीं खाती जिसका इस्तेमाल पुलिस के अनुसार मुठभेड़ के दौरान किया गया था.
सतीश वर्मा का कहना था कि पुलिस ने इन चारों को ये कहकर मारा था कि ये लोग गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से गुजरात आए थे लेकिन इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया जा सका कि ये ख़बर पुलिस को किस आधार पर, कहाँ और कैसे मिली.
हालांकि अदालत की कार्रवाई के सामने जांच दल के भीतर की फूट भी सामने आई. दोनों जजों ने इस मामले में हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील योगेश लखानी को अदालत का दोस्त मुक़र्रर कर दिया है जो जाँच दल के बीच के मतभेदों पर बीच-बचाव करेंगें.

(साभार बीबीसी हिंदी)

लाल चौक ही क्यों, मुज़फराबाद में क्यों न फहराएं तिरंगा?


लाल चौक ही क्यों, मुज़फराबाद में क्यों न फहराएं तिरंगा?
राष्ट्रीयध्वज के स्वाभिमान की आड़ में भारतीय जनता पार्टी द्वारा गत् दिनों एक बार फिर भारतवासियों की भावनाओं को झकझोरने का राजनैतिक प्रयास किया गया जो पूरी तरह न केवल असफल बल्कि हास्यास्पद भी रहा। कहने को तो भाजपा द्वारा निकाली गई राष्ट्रीय एकता नामक यह यात्रा कोलकाता से लेकर जम्मू-कश्मीर की सीमा तक 12 राज्यों से होकर गुज़री। परंतु यात्रा के पूरे मार्ग में यह देखा गया कि आम देशवासियों की इस यात्रा के प्रति कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई। हां इस यात्रा के बहाने अपना राजनैतिक भविष्य संवारने की होड़ में लगे शीर्ष नेताओं से लेकर पार्टी के छोटे कार्यकर्ताओं तक ने इसे अपना समर्थन अवश्य दिया। भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना राजनैतिक जनाधार तलाश करने के लिए पहले भी इस प्रकार की कई ‘भावनात्मक यात्राएं निकाली जा चुकी हैं। लिहाज़ा जनता भी अब इन्हें पेशेवर यात्रा संचालक दल के रूप में ही देखती है। फिर भी भाजपा ने अपने कुछ कार्यकर्ताओं के बल पर निकाली गई इस यात्रा को जम्मू-कश्मीर व पंजाब राज्यों की सीमा अर्थात्  लखनपुर बार्डर पर जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा रोके जाने को इस प्रकार प्रचारित करने की कोशिश की गोया पार्टी के नेताओं ने राष्ट्रीयध्वज के लिए बहुत बड़ा बलिदान कर दिया हो अथवा इसकी आन-बान व शान के लिए अपनी शहादत पेश कर दी हो।
परंतु राजनैतिक विशेषक इस यात्रा को न तो ज़रूरी यात्रा के रूप में देख रहे थे न ही इसे भाजपा के चंद नेताओं की राष्ट्रभक्ति के रूप में देखा जा रहा था। बजाए इसके तिरंगा यात्रा अथवा राष्ट्रीय एकता यात्रा को भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में देखा जा रहा था। तमाम विशेषकों का मानना है कि भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया। जबकि कुछ का मत है कि इस सच्चाई के अलावा इस यात्रा से जुड़ी एक सच्चाई यह भी थी कि हिमाचल प्रदेश के मु यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र एवं सांसद अनुराग ठाकुर भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष होने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की बुनियाद डालना चाह रहे थे। अत: तिरंगा यात्रा की आड़ में देशवासियों की भावनाओं को भड़काने तथा अपने नाम का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने का इससे ‘बढिय़ा अवसर और क्या हो सकता था। यदि यह यात्रा भाजपा नेताओं की आपसी होड़ का परिणाम न होती तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह महात्मा गांधी की समाधि पर 26 जनवरी को जाकर धरने पर क्यों बैठते। भाजपा का अथवा भाजपा नेताओं का महात्मा गांधी या उनकी नीतियों से वैसे भी क्या लेना-देना।
परंतु भाजपा नेता अरुण जेटली व सुषमा स्वराज तथा नीरा राडिया टेप प्रकरण में चर्चा में आने वाले अनंत कुमार बार-बार देश को मीडिया के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते रहे कि हमें लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका गया। इनका आरोप है कि जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के इशारे पर हमें श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका है। इन नेताओं द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि लाल चौक पर हमें झंडा फहराने से रोककर कश्मीर की उमर सरकार व केंद्र सरकार दोनों ही ने कश्मीर के अलगाववादियों तथा वहां सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं। बड़ी अजीब सी बात है कि यह बात उस पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है जिसके नेता जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान पूरी दुनिया के सामने तीन खूंखार आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रिहा करवा कर कंधार ले जाकर तालिबानों की देख-रेख में आतंकवादियों  के आगे घुटने टेकते हुए उन्हें आतंकियों के हवाले कर दिया। जिनके शासन काल में ही देश की अब तक की सबसे बड़ी आतंकी घुसपैठ कारगिल घुसपैठ के रूप में हुई। देश के इतिहास में पहली बार हुआ संसद पर आतंकी हमला इन्हीं के शासन में हुआ। परंतु अब भी यह स्वयं को राष्ट्र का सबसे बड़ा पुरोधा व राष्ट्रभक्त बताने से नहीं हिचकिचाते।
जिस उमर अब्दुल्ला की राष्ट्रभक्ति पर आज यह संदेह जता रहे हैं वही अब्दुल्ला परिवार जब इनके साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सहयोगी दल हो तो वही परिवार राष्ट्रभक्त हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि 24 अप्रैल 1984 को भारतीय संविधान को फाड़ कर फेंकने वाले प्रकाश सिंह बादल आज इनकी नज़रों में सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बने हुए हैं। जैसे कि उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगाने का बीड़ा उठाने वाले बाल ठाकरे जैसे अलगाववादी प्रवृति के राजनीतिज्ञ इनके परम सहयोगी बने हुए हैं। मु यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा की तिरंगा यात्रा को लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोकने का प्रयास इसलिए किया था कि उनके अनुसार वे नहीं चाहते थे कि भाजपा की इस यात्रा से प्रदेश के हालात बिगड़ जाएं। अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं जबकि लगभग पूरी कश्मीर घाटी कश्मीरी अलगाववादी ताकतों की चपेट में आकर पत्थरबाज़ी का शिकार हो रही थी। इस घटना में सैकड़ों कश्मीरी तथा कई सुरक्षाकर्मी आहत भी हुए। इससे पूर्व अमरनाथ यात्रा को ज़मीन आबंटित किए जाने के मामले को लेकर जम्मू में जिस प्रकार तनाव फैला था तथा पूरी घाटी शेष भारत से कई दिनों तक कट गई थी यह भी पूरे देश ने देखा था। ऐसे में एक ओर भाजपा ने जि़द की शक्ल अि तयार करते हुए जहां श्रीनगर के लाल चौक  पर गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने की घोषणा की थी वहीं कुछ अलगाववादी नेताओं ने भी यह चुनौती दे डाली था कि भाजपा नेताओं में यदि हि मत है तो वे लाल चौक पर तिरंगा फहराकर दिखाएं। ऐसे में पार्टी के कई शीर्ष नेताओं सहित भाजपा की यात्रा में शामिल सभी कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की जि़ मेदारी भी राज्य सरकार की हो जाती है। लिहाज़ा यदि राज्य के वातावरण को सामान्य रखने तथा भाजपा नेताओं की सुरक्षा के मद्देनज़र उनकी जि़द पूरी नहीं की गई तो इसमें स्वयं को अधिक राष्ट्रभक्त व राष्ट्रीय ध्वज का प्रेमी बताना तथा दूसरे को राष्ट्रद्रोही या तिरंगे को अपमानित करने वाला प्रचारित करना भी राजनैतिक स्टंट मात्र ही है।
हम भारतवासी होने के नाते बेशक यह मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परंतु यह भी एक कड़वा सच है कि हमारा यह कथन न तो पाकिस्तान के गले से नीचे उतरता है न ही पाकिस्तान से नैतिक,राजनैतिक तथा पिछले दरवाज़े से अन्य कई प्रकार का समर्थन पाने वाले कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के गले से। यदि मसल-ए-कश्मीर इतना ही आसान मसला होता तो हम आम भारतीयों की ही तरह भाजपा नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही कहा होता कि कश्मीर का मसला भारतीय संविधान के दायरे के अंतर्गत ही हल होना चाहिए। परंतु इसके बजाए उन्होंने भी यही कहना उचित समझा कि कश्मीर समस्या का समाधान इंसानियत के दायरे में किया जाना चाहिए। लिहाज़ा वर्तमान समय में इंसानियत का तक़ाज़ा यही था कि कश्मीर घाटी में बामुश्किल कायम हुई शांति को बरकरार रहने दिया जाए तथा उन कश्मीरी अवाम का दिल जीतने का प्रयास किया जाए जो मु_ीभर अलगाववादी नेताओं के बहकावे में आकर कभी हथियार उठा लेते हैं तो कभी पत्थरबाज़ी करने लग जाते हैं। बजाए इसके कि 2014 के संभावित लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र स्वयं को राष्ट्रभक्त,शहीद तथा देशप्रेमी प्रचारित करने के लिए लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की जि़द को पूरा किया जाए।
गौरतलब है कि आज ज मु-कश्मीर राज्य के सभी जि़ला मु यालयों पर भारतीय तिरंगा स्वतंत्रता  दिवस तथा गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रत्येक वर्ष फहराया जाता है। राज्य के सभी सेना,पुलिस एवं सरकारी मु यालयों पर तिरंगा फहराया जाता है। हां यदि हम ज मु-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानते हैं तो समूचा कश्मीर भारतीय मानचित्र की परिधि में ही आता है। यही कारण है कि जिस कश्मीर को हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं पाकिस्तान कश्मीर के उसी भाग को आज़ाद कश्मीर के नाम से पुकार कर दुनिया को गुमराह करता है।
तनवीर जाफरी लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं संपर्क tjafri1@gmail.कॉम tanveerjafriamb@gmail.
कितना बेहतर हो कि केवल भाजपा ही नहीं बल्कि देश के सभी राजनैतिक दल, देश में विशेषकर जम्मू-कश्मीर राज्य में ऐसा वातावरण पैदा करें कि जम्मू-कश्मीर की अवाम स्वयं अपने हाथों में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज लेकर मुजफराबाद की ओर कूच करें तथा मुज़फराबाद पर झंडा लहराने जैसे दूरगामी एवं अति आवश्यक मिशन पर कार्य करें। परंतु लाल चौक पर तिरंगा लहराने की जि़द पूरी करने के पहले तो भाजपा को नक्सल,आतंकवाद तथा अलगाववाद से  प्रभावित तमाम ऐसे इलाकों की िफक्र करनी चाहिए जहां तिरंगा फहराना तो दूर की बात है भारतीय शासन या व्यवस्था को ही स्वीकार नहीं किया जाता।

-http://hastakshep.com/?p=2274

Hindutva terror: Aseemanand says no to ‘saffron’ lawyers


By TCN Staff Reporter,
Jaipur: In a surprising turn of event which has left Hindutva groups stunned, Swami Aseemanand, an accused in Samjhauta Express, Ajmer, Mecca Masjid and Malegaon blasts, has rejected offers of legal help from lawyers who are allegedly associated with saffron groups. Instead he has asked for a government counsel.
According to S.S. Ranawat, the Additional Superintendent of police, Rajasthan ATS, some lawyers had contacted Aseemanand and offered their services but he categorically refused to entertain their offer. In fact, according to reports, after this refusal on the Swami’s behalf, several lawyers representing other accused in Ajmer blast case, expressed apprehensions whether he has turned approver for the state.


In Saffron company- Swami Aseemanand ( 2nd from R) with Narendra Modi (3rd from R)
But few lawyers in the state capital also believe that at this stage it would be far fetched to believe that Aseemanand has agreed to become an approver. Instead, they think that Aseemanand refused to take services of private lawyers, just because he claims to have little or no money, which is why he wants a government lawyer.

[Photo: Outlookindia]

Protest registered against demolition of mosques in Indore

File Photo

By Pervez Bari, TwoCircles.net,
Bhopal: As a protest against demolition of mosques in Indore, which are coming in the way of widening of roads, Advocate Mohammad Haroon, president Jamiat-e-Ulama Hind, (JUH), Madhya Pradesh unit, has submitted a memorandum to the state Governor Rameshwar Thakur.
Mr. Haroon, who is also president of MP, Congress Committee's minority cell, urged the Governor to prevail over the concerned authorities, and prevent the demolition of mosques by using alternative means of widening of roads; otherwise it might disturb the communal harmony of the city. The memorandum has also been sent to Government of India and chairman of the state Waqf Board.
Mr. Haroon warned the central government, the state government, Indore district administration and the state Waqf Board about the reported plans to demolish Bilal Masjid in Chhoti Khajrani locality of Indore, for widening of a road. He said the mosque is registered in the Waqf Board and is listed in the 1989 Gazette Notification and prayers are being offered in the mosque since independence of the country. pervezbari@eth.net
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Dr. Zakir Naik to Debate on Islam and 21st Century With Oxford Union (UK)





The debate will be telecasted LIVE on PEACE TV on Friday the 11th of 
February 2011.



Saudi Arab Time: 10 PM (Friday 11th February)



Bangladesh Time: 01 AM (Saturday 12th February)



India Time: 12:30 AM (Saturday 12th FEBRUARY)



Pakistan Time: 12 AM (Saturday 12th FEBRUARY)



Botswana Time: 09 PM (Friday 11th February)

मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिन

लेरी कार्लिस और डोमनिक लेपियर द्वारा १९७५मे  लिखी पुस्तक 'फ्रीडम एट मिदनेटमें भारतीय स्वाधीनता सब्ग्राम की आद्योपांत कहानी का वर्णन है ...इसमें गांधी जी की हत्या का विषद और प्रमाणिक वर्णन भी है .....
   मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिनकी दिन चर्या में सूर्योदय से पहले लगभग ०३.३० बजे उनका जागना और ईश्वर आराधना .दोपहर के आराम के बाद वे १०-१२ प्रतीक्षारत आगंतुको से मिले ,बातचीत की .अंतिम मुलाकाती के साथ चर्चा उनके लिए घोर मानसिक वेदना दायक रही .वे अंतिम मुलाकाती थे सरदार वल्लव भाई पटेल . उन दिनों पंडित जी और पटेल के बीच नीतिगत मतभेद चरम पर थे . पटेल तो संभवत: नेहरु  मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के मूड में थे लेकिन गांधीजी उन्हें समझा रहे थे कि यह देश हित में नहीं होगा .
          गांधीजी ने समझाया कि नवोदित स्वाधीन भारत के लिए यह उचित होगा कि तमाम मसलों पर हम तीनो -याने गांधीजी .नेहरूजी और पटेल सर्वसम्मत राय बनाए जाने कि अनवरत कोशिश करेंगे .आपसी मतभेदों में वैयक्तिक अहम् को परे रखते हुए देश को विश्व मानचित्र पर पहचान दिलाएंगे .पटेल से बातचीत करते समय गांधीजी कि निगाह अपने चरखे और सूत पर ही टिकी थी .जब बातचीत में तल्खी आने लगी तो मनु और आभा जो श्रोता द्वय थीं ,वे नर्वस होने लगीं ,लगभग ग़मगीन वातावरण में उन दोनों ने गांधीजी को इस गंभीर वार्ता से न चाहते हुए भी टोकते हुए याद दिलाया कि प्रार्थना का समय याने पांच बजकर दस मिनिट हो चुके हैं .
       पटेल से बातचीत स्थिगित करते हुए गांधीजी बोले 'अभी मुझे जाने दो. ईश्वर कि प्रार्थना -सभा में जाने का वक्त हो चला है आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर गाँधी जी अपने जीवन कि अंतिम पद यात्रा पर चल पड़े ,जो बिरला हौऊस के उनके कमरे से प्रारंभ हुई और उसी बिरला हाउऊस के बगीचे में समाप्त होने को थी .....
    अपनी मण्डली सहित गांधीजी उस प्रार्थना सभा में पहुंचे जो लान के मध्य थी और जहाँ .नियमित श्रद्धालुओं कि भीड़ उनका इंतज़ार कर रही थी और उन्ही के बीच हत्यारे भी खड़े थे .गांधीजी ने सभी उपस्थित जनों के अभ्वादानार्थ नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ..... करकरे कि आँखें नाथूराम गोडसे पर टिकी थीं ...जिसने जेब से पिस्तौल निकालकर दोनों हथेलियों के दरम्यान छिपा लिया .....जब गांधीजी ३-४ कदम फासले पर रह गए तो नाथूराम दो कदम आगे आकार बीच रास्ते आकार खड़ा हो गया ...उसने नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ,वह धीमें -धीमें अपनी कमर मोड़कर झुका और बोला "नमस्ते गाँधी 'देखने वालों ने समझा कि कोई भल मानुष है जो गांधीजी के चरणों में नमन करना चाहता है ...मनु ने कहा भाई बापू को देर हो रही है प्रार्थना में ..जरा रास्ता दो ...उसी क्षण नाथूराम ने अपने बाएं हाथ से मनु को धक्का दिया ...उसके दायें हाथ में पिस्तौल चमक उठी .उसने तीन बार घोडा दवाया ...प्राथना स्थल पर तीन धमाके सुने गए ...महात्मा जी कि मृत देह को बिरला भवन के अंदर ले जाया गया आनन् -फानन लार्ड  माउन्ट वेटन,सरदार पटेल ,पंडित नेहरु और अन्य हस्तियाँ उस शोक संत्र्प्त माहोल के बीच पहुंचे ...जहां श्रध्धा सुमन अर्पित करते हुए अंतिम ब्रिटिश प्रतिनिधि ने ये उदगार व्यक्त किये .....'महात्मा गाँधी को ...इतिहास में वो सम्मान मिले जो बुद्धईसा को प्राप्त हुआ ....

 "आज नई दिल्ली में शाम के पांच बजकर सत्रह मिनिट पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हो गई " उनका हत्यारा एक हिन्दू है वह एक ब्राम्हण  है उसका नाम नाथूराम गोडसे है स्थान बिरला हॉउस ..........ये आल इंडिया रेडिओ है ........{पार्श्व में शोक धुन }......
           उस वैश्विक शोक काल में तत्कालीन सूचना और संचार माध्यमों ने जिस नेकनीयती और मानवीयता के साथ सच्चे राष्ट्रवाद का परिचय दिया वह भारत के परिवर्तीसूचना और संचार माध्यमों  का दिक्दर्शन करने  का प्रश्थान बिंदु है. यदि गाँधी जी का हत्यारा कोई अंग्रेज या मुस्लिम होता तो भारतीय उपमहादीप की धरती रक्तरंजित हो चुकी होती.तमाम आशंकाओं के बरक्स आल इडिया रेडिओ और अखवारों की तातकालिक भूमिका के परिणाम स्वरूप देश एक और महाविभीशिका  से बच गया .........
    श्रीराम तिवारी

Sunday, January 30, 2011

अंत में उनका शरीर मंदिर बन गया था

mahatma-gandhi.jpg (300×250)

आज से ठीक तिरसठ साल पहले एक धार्मिक आतंकवादी की गोलियों से महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी थी. कुछ लोगों को उनकी हत्या के आरोप में सज़ा भी हुई लेकिन साज़िश की परतों से पर्दा कभी नहीं उठ सका. खुद महात्मा जी अपनी हत्या से लापरवाह थे. जब २० जनवरी को उसी गिरोह ने उन्हें मारने की कोशिश की जिसने ३० जनवरी को असल में मारा तो सरकार चौकन्नी हो गयी थी लेकिन महत्मा गाँधी ने सुरक्षा का कोई भारी बंदोबस्त नहीं होने दिया. ऐसा लगता था कि महात्मा गाँधी इसी तरह की मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे. इंसानी मुहब्बत के लिए आख़िरी साँसे लेना उनका सपना भी था. जब १९२६ में एक धार्मिक उन्मादी ने स्वामी श्रद्धानंद जी महराज को मार डाला तो गाँधी जी को तकलीफ तो बहुत हुई लेकिन उन्होंने उनके मृत्यु के दूसरे पक्ष को देखा. २४ दिसंबर १९२६ को आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी की बैठक में गाँधी जी ने कहा किस्वामी श्रद्धानंद जी की मृत्यु मेरे लिए असहनीय है. लेकिन मेरा दिल शोक माने से साफ़ इनकार कर रहा है. उलटे यह प्रार्थना कर रहा है कि हम सबको इसी तरह की मौत मिले. (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी अंक ३२). अपनी खुद की मृत्यु के कुछ दिन पहले पाकिस्तान से आये कुछ शरणार्थियों के सामने उन्होंने सवाल किया था क्या बेहतर है? अपने होंठों पर ईश्वर का नाम लेते हुए अपने विश्वास के लिए मर जाना या बीमारी, फालिज या वृद्धावस्था का शिकार होकर मरना. जहां तक मेरा सवाल है मैं तो पहली वाली मौत का ही वरण करूंगा ” ( प्यारेलाल के संस्मरण)
महात्मा जी की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू का वह भाषण तो दुनिया जानती है जो उन्होंने रेडियो पर देश वासियों को संबोधित करते हुए दिया था. उसी भाषण में उन्होंने कहा था कि हमारी ज़िंदगी से प्रकाश चला गया है. लेकिन उन्होंने हरिजन (१५ फरवरी १९४८) में जो लिखावह महात्मा जी को सही श्रद्धांजलि है. लिखते हैं कि उम्र बढ़ने के साथ साथ ऐसा लगता था कि उनका शरीर उनकी शक्तिशाली आत्मा का वाहन हो गया था. उनको देखने या सुनने के वक़्त उनके शरीर का ध्यान ही नहीं रहता था, लगता था कि जहां वे बैठे होते थेवह जगह एक मंदिर बन गयी है‘ अपनी मृत्यु के दिन भी महात्मा गाँधी ने भारत के लोगों के लिए दिन भर काम किया था. लेकिन एक धर्माध आतंकी ने उन्हें मार डाला.

आर एस एस और देशभक्ति


स्वाधीनता संग्राम से गद्दारी

हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता’ के अलावा भी गोलवरकर का तमाम ऐसा लिखा और कहा उपलब्ध है जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वह भी अपने गुरु हेडगेवार की ही तरह स्वाधीनता आंदोलन से नफ़रत करते थे। आज़ादी के काफ़ी बाद मध्यप्रदेश के इन्दौर में मार्च 1960 को आर एस एस के उच्च-स्तरीय कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए वे स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपने दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में व्यक्त करते हैं-

रोज़मर्रा के कामों में हमेशा उलझे रहने की ज़रूरत के पीछे एक और कारण है। देश में समय-समय पर विकसित होने वाली स्थितियों के कारण लोगों के दिमाग़ में कुछ बैचैनी बनी रहती है। 1942 में ऐसी ही उथल-पुथल थी। उसके पहले 1930-31 का आंदोलन (असहयोग आंदोलनथा। उस समय कई दूसरे लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस प्रतिनिधिमण्डल ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन स्वाधीनता दिलायेगा और संघ को भी पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय जब एक सज्जन ने डाक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने को तैयार है तो डाक्टर जी ने कहा, ‘ज़रूर जाइये। लेकिन फिर आपके परिवार का ख़्याल कौन रखेगाउस सज्जन ने जवाब दिया, ‘मैने न केवल दो वर्षों तक घर चल जाने लायक अपितु आवश्यकतानुसार आर्थिक दण्ड के भुगतान की भी पर्याप्त व्यवस्था कर दी है।’ इस पर डाक्टर जी ने उनसे कहा, ‘अगर आपने पर्याप्त धन की व्यवस्था कर ली है तो दो वर्षों तक संघ का कार्य करने के लिये आ जाईये।घर लौटने के बाद वह सज्जन न तो जेल गये और न ही संघ कार्य करने के लिये आगे आये।[1]

यह घटना स्पष्ट तौर पर दिखाती है कि संघ नेतृत्व किस तरह ईमानदार देशभक्त लोगों को हतोत्साहित कर आज़ादी की लड़ाई के उद्देश्य से हटाने में लगा था।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में असहयोग आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलनमील के दो महान पत्थर थे और यहाँ आप देखिये कि संघ के महान गुरु (गोलवलकरकी आज़ादी की लड़ाई की इन दो महान घटनाओं पर क्या थीसिस है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले ब्रिटिश विरोधी इन दो महान आंदोलनो पर ख़ुले तौर पर कीचड़ उछालते हुए वह कहते हैं-

निश्चित तौर पर इस संघर्ष के बुरे परिणाम होंगे। 1920-21 के आंदोलन (असहयोग आंदोलनके बाद लड़के उद्दण्ड हो गये। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने की कोशिश नहीं है। लेकिन ये संघर्ष के अवश्यंभावी परिणाम थे। बात यह है कि हम इनके नतीजों को सही तरीके से नियंत्रित नहीं कर पाये। 1942 के बाद लोग अक्सर ऐसा सोचने लगे कि अब क़ानून के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है।[2]

इस प्रकार गोलवरकर चाहते थे कि भारतीय अमानवीय ब्रिटिश शासकों के बर्बर तथा दमनकारी क़ानूनों का सम्मान करें!जैसा कि हम आगे देखेंगेगोलवरकर ने यह स्वीकार किया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ के रवैये की चतुर्दिक आलोचना के बावज़ूद तत्कालीन संघ नेतृत्व (उस समय गोलवरकर संघ के सरसंघचालक थेस्वाधीनता संग्राम से अलग रहने के अपने स्टैण्ड से नहीं डिगा।

‘1942 में भी कई लोगों के हृदय में बड़ी प्रबल भावनायें थीं। उस समय भी संघ का रोज़मर्रा का काम ज़ारी रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया। बहरहालसंघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल मची हुई थी। ऐसा केवल बाहरी लोगों ने नहीं बल्कि स्वयंसेवकों ने भी कहा कि संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था हैवे फालतू बातें करते हैं। वे बुरी तरह से नाराज़ भी हुए।[3] 

बहरहालसंघ का ऐसा एक भी प्रकाशन या दस्तावेज़ नहीं है जो भारत छोड़ो आंदोलन या उस समय चल रही आज़ादी की लड़ाई में संघ द्वारा किये गये अप्रत्यक्ष कामों पर कुछ प्रकाश डाल सके। हालाँकि उस दौर के जन उभार को देखते हुए यह मुमकिन है कि संघ से जुड़े कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर किन्हीं ब्रिटिश विरोधी संघर्षों में हिस्सेदारी की होलेकिन वे इक्की-दुक्की पृथक घटनायें रही होंगी। बहरहालएक संगठन के तौर पर संघ ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ या दमित भारतीय जनता के अधिकारों के लिये कोई संघर्ष नहीं छेड़ान ही संघ का उच्च नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा रहा।

गोलवरकर और संघ विदेशी शासन के ख़िलाफ़ किसी भी आंदोलन के प्रति अपना विरोध छिपा पाने में कभी भी सफल नहीं हुए। यहां तक कि मार्च 1947 में भी जब ब्रिटिश शासक सिद्धांत रूप में भारत छोड़कर चले जाने का फैसला कर चुके थेदिल्ली में संघ के वार्षिक दिवस समारोह को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा कि संकुचित दृष्टि वाले नेता ब्रिटिश राज्यसत्ता के विरोध का प्रयास कर रहे हैं। इस बिन्दु को और विस्तारित करते हुए उन्होंने कहा कि देश की बुराईयों के लिये शक्तिशाली विदेशियों को दोषी ठहराना उचित नहीं। उन्होंने विजेताओं से अपनी घृणा के आधार पर राजनैतिक आंदोलन शुरु करने की प्रवृति’ की निन्दा की।[4] इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिये उन्होंने एक घटना का वर्णन भी किया :

‘एक बार एक सम्माननीय वरिष्ठ सज्जन हमारी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिये एक नया संदेश लाये थे। जब उन्हें बोलने का मौका दिया गया तो वह बड़े प्रभावी तरीके से बोले, ‘अब केवल एक काम कीजिये। अंग्रेज़ों को पकड़ियेउनकी पिटाई कीजिये और उन्हें खदेड़ दीजिये। बाद में जो होगा देखा जायेगा।’ उन्होंने बस इतना कहा और बैठ गये। इस तरह की विचारधारा के पीछे राज्यसत्ता के प्रति दुख और क्षोभ की भावना और घृणा पर आधारित प्रतिक्रियावादी प्रवृति है। आज के राजनैतिक संवेदनावाद की बुराई यह है कि इसका आधार प्रतिक्रियाक्षोभ और क्रोध और दोस्ताने को भुलाकर विजेताओं का विरोध है।[5]

गोलवरकर के प्रति पूरी इमानदारी बरतते हुए यह कहना होगा कि उन्होंने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि संघ ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ था। 5 मार्च 1960 को इंदौर में दिये गये भाषण के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि :

बहुत सारे लोगों ने अंग्रेज़ों को बाहर निकाल कर देश को आज़ाद कराने की प्रेरणा से काम किया। अंग्रेज़ों की औपचारिक विदाई के बाद यह प्रेरणा कमज़ोर पड़ गयी। असल में इस तरह की प्रेरणा धारण करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। हमें याद रखना चाहिये कि अपनी प्रतिज्ञा में हमने देश को धर्म तथा संस्कृति रक्षा के द्वारा आज़ाद कराने की बात की है। उसमें अंग्रेज़ों की विदाई का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है।[6]  

यहाँ तक कि संघ औपनिवेशिक शासन को एक अन्याय मानने के लिये भी तैयार नहीं था। जून 1942 को जब देश अभूतपूर्व ब्रिटिश दमन के दौर से गुज़र रहा था संघ कार्यकर्ताओं के अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति के अवसर पर दिये गये भाषण में गोलवरकर ने घोषणा की :

समाज की वर्तमान पतित अवस्था के लिये संघ किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों के सर पर दोष मढ़ने लगते हैं तो उसके मूल में उनकी अपनी कमज़ोरी होती है। कमज़ोरों के प्रति होने वाली नाइंसाफ़ी को मज़बूतों के सर मढ़ना बेकार हैसंघ अपना बेशक़ीमती वक़्त दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है तो उस बड़ी मछली पर आरोप लगाना निरा पागलपन है। अच्छा हो या बुरा – क़ुदरत का नियम हमेशा सही होता है। यह कह देने से कि यह अन्यायपूर्ण हैवह नियम बदल नहीं जाता।[7]

इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गोलवरकर के नेतृत्व में संघ ने आज़ादी की पूरी लड़ाई के दौरान एक अत्यंत विश्वासघाती भूमिका निभाई। सभी साक्ष्य इसकी तोड़फोड़ की कार्यवाहियों की ओर तथा इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि यह संगठन और इसका नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं रहे। आर एस एस का इकलौता महत्वपूर्ण योगदान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के उभरते हुए  एकताबद्ध संघर्ष को हिन्दू राष्ट्र के अपने अत्यन्त पृथकतावादी नारे से लगातार बाधित करना था।  

(शमसुल इस्लाम की किताब 'ए क्रिटीक टू वी आर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड' से, अनुवाद मेरा)       


[1] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-4, पेज़-39-40, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर1981
[2] वहीपेज़ 41
[3] वहीपेज़ 40
[4] देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-1, पेज़-109, प्रकाशक- भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981
[5]वही पेज़-109
[6] वहीपेज़-2
[7] वही,  पेज़ 11-12

लेखक:

ईसाई भी शिकार हैं संघ प्रेरित आतंकवाद के


@ फादर डॉमनिक एमानुएल
स्वामी असीमानंद द्वारा मालेगॉवहैदराबाद की मक्का मस्जिदअजमेर की दरगाह शरीफ और समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोटों में अपना हाथ होना स्वीकार करने के पश्चात् मीड़िया व सार्वजनिक क्षेत्र में विवाद इस बात को लेकर नही है कि अब इसे हिन्दु आंतकवाद की संज्ञा दी जाए अथवा गेरुआ आंतकवाद। 

विवाद अब एक ओर इस बात को लेकर है कि स्वामी असीमानंद के साथ आर.एस.एस. के इन्द्रेश कुमार सहित अन्य कार्यकर्ताओ का कितना हाथ होना  और दूसरी ओर आर.एस.एस. के मुखिया   मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा कांग्रेस पर यह आरोप लगाना कि यह सब 2जी स्पेक्ट्रम व कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटालों से ध्यान हटाने की एक चाल है अर्थात उनका कहना है कि हिन्दु संगठनों के आंतकी हमलों में न तो  आर.एस.एस. का हाथ है और न ही स्वामी असीमानंद द्वारा रहस्योदघाटन में कुछ सच्चाई है।

चंद अखबारों और टीवी चैनलों को छोड़ करसामान्यरुप मीड़िया बम के जवाब में बम’ नीति में लिप्त पाए गये अपराधियों  के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा नही कर रहा है। मीड़िया में एक और महत्वपूर्ण मुददा जो अभी तक उजागर नही हुआ है और जिसके लिए मैं पिछले दो साल से प्रयत्नरत् हूं कि मीडिया व जांच पड़ताल करनी वाली संस्थाऐं क्योंकर केवल मुस्लिम ठिकानों पर बम विस्फोट को ही हिन्दू संगठनों के आतंकवाद तक सीमित रखे हुए है मुझे इस बात से बेहद हैरानी है कि ना तो मीड़िया ने और ना ही अन्य संस्थाओं ने;  इन्ही  हिन्दू संगठनों द्वारा ईसाई समुदाय पर हुए जानलेवा हमलों को हिन्दू आतंकवाद से जोड़ने की बात सोची। पिछले कुछ वर्षो में इन संगठनों द्वारा ईसाई संस्थानों व उनके नन व पादरियों पर हमलों की संख्या  प्रतिवर्ष एक हजार की संख्या पार कर चुकी है। मध्यप्रदेश  में चर्च के प्रवक्ता फादर आनंद मुटुगंल की अगुवाई में दायर एक याचिका पर मध्यप्रदेश उच्च  न्यायलय ने मध्यप्रदेश  सरकार से इस बात का स्पष्टीकरण मांगा है कि वहॉ पर जब से भाजपा की सरकार आई हैईसाईयों पर हिन्दू संगठनों द्वारा 180 से अधिक हमले कैसे हुए?

बम विस्फोटों की गंभीर घटनाओं की छानबीन के बाद अब जाकर मीड़िया का ध्यान असीमानंद जैसे लोगों पर आकर टिका है। ये वही असीमानंद है जिन्होनें गुजरात के डांग जिले में ईसाईयों को निशाना बनाने का भार अपने कंधों पर लिया था। स्वामी असीमानंद बंगाल से 1995 में डांग में आकर बसे और उसी क्षण से उन्होनें वहॉ के ईसाईयों के विरुद्व काम करना आरंम्भ कर दिया। दिसंबर 1998 में क्रिसमस के ही दिन जब ईसाई बड़ी मात्रा में क्रिसमस मनाने एकत्र हुए तो उन्होनें ठीक उसी स्थान पर एक विशाल  हिन्दू रैली का आयोजन किया। ईसाईयों की भीड़ में अपने आदमी को भेजकर अपनी रैली पर पत्थर फिकवाएं और उसके बहाने ईसाईयों के खिलाफ आंतकवादी गतिविधियों का जो सिलसिला जारी किया वह पूरे बारह दिनों तक चलता रहा जिसमें असीमानंद से प्रेरित आंतकवादियों ने डांग जिले के कई गिरजाघरों और स्कूलों में जमकर आगजनी की और ईसाई ननों व पादरियों के साथ मारपीट व अभद्र व्यवहार किया। उस समय पीडित ईसाई समाज को समझ नही पड़ रहा था   कि वे सहायता के लिए किस ओर झांके क्योंकि गुजरात में भी भाजपा की सरकार और केन्द्र में भी थी भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार। 

उसी दौरान तत्कालीन प्रधांनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बयान दिया कि देश  में धर्म परिर्वतन पर बहस होनी चाहिए। इस बयान ने ईसाईयों के जले पर नमक छिडकने का काम किया। इससे  ईसाईयों के विरुद्व असीमानंद और लक्ष्मानंद सरस्वती जैसे आंतक फैलाने वालों को तो यह स्पस्ट संदेश  मिल ही गया कि वे ईसाईयों के विरुद्व अपना काम बेधड़क रुप से चलने दें। उन्हें न तो सरकार काना पुलिस का और न ही छानबीन करने वाली संस्थाओं का कोई डर था। बम के बदले बम की नीति अपनाने से पहले और ईसाईयों पर और अधिक कहर ढहाने के उददेष्य से असीमानंद ने ही डांग जिले में 2006 में पहली बार शबरी कंभ का आयोजन यह नारा देकर किया ‘‘हर एक आदमी जो ईसाई बनता है उससे देश  का एक दुश्मन  बढ़ता है।’’

स्वामी असीमानंद के 1998 के षड़यंत्र के तर्ज पर 2007 में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने भी वही खेल उड़ीसा के कंधमाल में दोहराया। 23 दिसंबर 2007 को कंधमाल जिले के गॉव में जब ईसाई क्रिसमस की तैयारी में सजावट कर रहे थे तो स्वामी लक्ष्मणानंद ने अपने कुछ चेलों के साथ वहॉ पहुचकर उन्हें सब बंद करने को कहा क्योंकि वे वहॉ पर कुछ हिन्दू त्यौहार मनाना चाहते थे। उस समय शुरु हुई छोटी सी झड़प ने दंगों का रुप धारण कर लिया और लक्ष्मणानंद के लोगों ने वहॉ के ईसाईयों और उनकी संस्थाओं पर लगातार आठ दिनों तक हमला किया। आठ महीने बाद 23 अगस्त 2008 में स्वामी लक्ष्मणानंद की माओवादियों ने हत्या कर दी और पुलिस के कथन और माओवादियों द्वारा उनकी हत्या की जिम्मेदारी लेने के बावजूद इन हिन्दू आंतकवादियों ने लगातार 42 दिनों तक ईसाईयों पर इस कदर बेरहमी से आक्रमण किया कि उसमें 100 लोगों की जानें गई,कई घायल हुए,147 गिरजाघर व ईसाई संस्थानों को और 4000 से ज्यादा घरों को जलाया और तोड़ा गया जिसके फलस्वरुप लगभग 50,000 लोग बेघर हो गये।

 ग्लेंडिस स्टेंस के पति और उनके मासूम बेटों की हत्या के बाद दारा सिंह जैसे आंतकवादी को ग्लेडिस द्वारा क्षमा प्रदान करने का  भी ईसाईयों के विरुद्व घृणा से भरे इन क्रूर लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा।

कर्नाटक में जब से भाजपा की सरकार बनी हैवहॉ पर ईसाईयों पर हमलों की संख्या दिन दुगनी और रात चौगुनी हो गई है। कर्नाटक उच्च न्यायलय के न्यायधीश जस्टिस माइकल सलडाना के अनुसार कर्नाटक में 500 दिनों के भीतर ईसाईयों और उनकी संस्थाओं पर 1000 आक्रमण हुए और ये केवल राम सेना के कार्यकर्ताओं ने नही किए थे,इनमें बजरंग दलविश्व हिन्दू परिषद,आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ता शामिल है।

 ईसाई समुदाय का मानना है कि बम विस्फोटों में लिप्त कार्यकताओं को अवष्य ही हिन्दू आंतकवाद के नाम पर पकड़ा जाना चाहिएपरंतु फिर भी उनका सवाल मीडियासरकार और छानबीन करने वाली संस्थाओं से है कि उनके समुदाय पर इतनी बड़ी संख्या में इन्ही आंतकवादियों द्वारा किये गए हमलों को कोई गम्भीरता से क्यों नही लेता। वोट बैक की तलाश  में रहने वाले राजनीतिक दलों से तो कोई उम्मीद नही की जा सकती पर मीडिया से तो उम्मीद की ही जा सकती है कि कम से कम वह तो उनकी बात को अवष्य ही आम लोगों के सामने लेकर आयेगा।