Friday, September 28, 2012

एस.एफ.आई नेता रोहित कुमार की नृशंश हत्या, देश भर में विरोध




स्टुडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एस.एफ.आई)  के हमीरपुर जिले (हिमाचल प्रदेश) के नेता रोहित कुमार की 26 सितम्बर की सुबह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ए.बी.वी.पी) के गुंडों ने उनके कॉलेज (बी.बी.एन कॉलेज, चकमोह, हमीरपुर) के भीतर नृशंश हत्या कर दी। गत अगस्त माह में हुआ छात्र संसद चुनाव में चकमोह कॉलेज में ए.बी.वी.पी पर एस.एफ.आई की जीत के पीछे रोहित की बड़ी भूमिका थी। ए.बी.वी.पी के गुंडे तब से ही कामरेड रोहित को धमकियाँ दे रहे थे। उक्त वक्तव्य एस एफ आई के प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप पिप्पल और महासचिव शैलेश बोहरे ने दिया।

छात्र नेताओं ने बताया की गत शनिवार इन गुंडों ने एक छात्रा के साथ छेड़छाड़ की थी जिसका रोहित और एस एफ आई के अन्य छात्रों ने विरोध किया था। उसी दिन उन गुंडों ने रोहित को जान से मारने की धमकी दी थी। भाजपा संरक्षित इस छात्र संगठन के गुंडों के खिलाफ पुलिस में रोहित द्वारा दर्ज रिपोर्ट पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। तबसे रोजाना रोहित को धमकिया दी जा रही थी। 26 सितम्बर की सुबह ए बी वी पी के गुंडे 10.30 बजे के लगभग हथियारों से लैस होकर कॉलेज आये और रोहित व उनके साथियो पर हमला बोल दिया और रोहित को मौत के घाट उतार दिया।

एस एफ आई नेताओं ने बताया कि रोहित अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। रोहित की नृशंश हत्या की घोर निंदा करते हुए एस एफ आई की केंद्रीय कमेटी ने तत्काल दोषियों की गिरफ़्तारी और कडी सजा की मांग की है। एस एफ आई की हिमाचल राज्य कमेटी ने पूरे प्रदेश में कॉलेज बंद व कैम्पस बंद का आह्वान करते हुए कामरेड रोहित के परिवार को 25 लाख के मुआवजे की मांग की है। एस एफ आई की केंद्रीय कमेटी ने हिमाचल प्रदेश के छात्रों के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए गुरूवार को पूरे देश में शिक्षण संस्थाओ व अपनी इकाइयों में विरोध कार्यवाही करने का आह्वान किया है।

Thursday, September 27, 2012

Don’t give terror tag to innocent minority people: Supreme Court



Ensure that no innocent has the feeling of sufferance only because ‘my name is Khan, but I am not a terrorist,’ Bench tells Police
Police must ensure that no innocent person has the feeling of sufferance only because “my name is Khan, but I am not a terrorist,” a Bench of Justices H.L. Dattu and C.K. Prasad said on Wednesday. File photo
No innocent person should be branded a terrorist and put behind bars simply because he belongs to a minority community, the Supreme Court has told the Gujarat Police.

Police must ensure that no innocent person has the feeling of sufferance only because “my name is Khan, but I am not a terrorist,” a Bench of Justices H.L. Dattu and C.K. Prasad said on Wednesday.

It ordered the acquittal of 11 persons, arrested under the Terrorist and Disruptive Activities (Prevention) Act and other laws, and convicted for allegedly planning to create communal violence during the Jagannath Puri Yatra in Ahmedabad in 1994.

“We emphasise and deem it necessary to repeat that the gravity of the evil to the community from terrorism can never furnish an adequate reason for invading personal liberty, except in accordance with the procedure established by the Constitution and the law,” the Bench said.

Being an anti-terrorist law, the TADA’s provisions could not be liberally construed, the Bench said. “The District Superintendent of Police and the Inspector-General and all others entrusted with operating the law must not do anything which allows its misuse and abuse and [must] ensure that no innocent person has the feeling of sufferance only because ‘My name is Khan, but I am not a terrorist’.”

Writing the judgment, Justice Prasad said: “We appreciate the anxiety of the police officers entrusted with preventing terrorism and the difficulty faced by them. Terrorism is a crime far serious in nature, graver in impact and highly dangerous in consequence. It can put the nation in shock, create fear and panic and disrupt communal peace and harmony. This task becomes more difficult when it is done by organised groups with outside support.”

‘Means more important’
But in the country of the Mahatma, the “means are more important than the end. Invoking the TADA without following the safeguards, resulting in acquittal, gives an opportunity to many and also to the enemies of the country to propagate that it has been misused and abused.” In this case, Ashraf Khan and 10 others, who were convicted under the TADA, the Arms Act and the IPC were aggrieved that no prior approval of the SP, as mandated under the provisions, was obtained before their arrest and recording of statements.

Appeal allowed
Allowing their appeals against a Gujarat TADA court order, the Bench said: “From a plain reading of the provision, it is evident that no information about the commission of an offence shall be recorded by the police without the prior approval of the District Superintendent of Police. An Act which is harsh, containing stringent provisions and prescribing a procedure substantially departing from the prevalent ordinary procedural law, cannot be construed liberally. For ensuring rule of law its strict adherence has to be ensured.”

The Bench said: “In view of our finding that their conviction is vitiated on account of non-compliance with the mandatory requirement of prior approval under Section 20-A(1) of the TADA, the confessions recorded cannot be looked into to establish the guilt under the aforesaid Acts. Hence, the conviction of the accused under Sections 7 and 25(1A) of the Arms Act and 4, 5 and 6 of the Explosive Substances Act cannot also be allowed to stand.”

Wednesday, September 26, 2012

खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिकता का मुहतोड़ जवाब देना होगा



हाल ही में छतीसगढ़ में 14 लोगों को माओवादी बता कर गोलियों से छलनी कर दिया गया. थोड़ा पीछे जाएं तो गुजरात में इशरत जहां का वो फर्जी इनकाउंटर याद कीजिए… सिर्फ यही दो घटनाएं नहीं, बल्कि देश भर में फर्जी इनकाउंटर हो रहे हैं. कहीं आदिवासियों को माओवादी कहकर मारा जा रहा है तो कहीं मुसलमानों को आतंकी कह कर गोलियों से भूना जा रहा है.
 
ठीक चार साल पहले दिल्ली के बटला हाउस में भी ऐसे ही मुस्लिम युवकों को पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा था. वही बटला हाउस ‘इनकाउंटर’ जिसको कांग्रेस के ही महासचिव दिग्विजय सिंह ने फर्जी इनकाउंटर बताया है. लेकिन इस इनकाउंटर के बाद भी पूरे देश से निर्दोष मुसलमान नौजवानों को पुलिस द्वारा पकड़ा जाना बंद नहीं हुआ है.
सिर्फ आजमगढ़ से सात नौजवानों को गायब कर दिया गया तो वहीं बिहार के दरभंगा से लगातार नौजवानों को पकड़ा जा रहा है. यहां तक कि एक नौजवान कतील सिद्दिकी की पूणे जेल में हत्या भी कर दी गयी. वहीं भारतीय खुफिया एजेंसियों ने दरभंगा बिहार के रहने वाले इंजीनियर फसीह महमूद को सउदी अरब के उनके घर से उनकी पत्नी निकहत परवीन के सामने से उठा लिया. जिन पर कोई तार्किक आरोप तक भारत सरकार नहीं लगा पायी है. बावजूद इसके भारत सरकार उनकी पत्नी को फसीह महमूद से मिलने तक नहीं दे रही है. इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में सीबीआई ने आईबी की भूमिका को जांच के दायरे में लाने का काम किया.
सरकार या कहें कि खुफिया एजेंसियों का सबसे दुखद और दमनकारी चेहरा उस समय सामने आता है जब इन फर्जी गिरफ्तारियों का विरोध कर रहे पत्रकार एसएमए काज़मी को आतंकी कहकर पकड़ लिया जाता है.
इसी तरह हाल ही में इन सवालों को लेकर काम कर रहे मानवाधिकार संगठन आतंकवाद के नाम पर कैद निर्दोषों का रिहाई मंच की ओर से बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की चौथी बरसी पर लखनऊ के यूपी प्रेस क्लब में आयोजित कांग्रेस-सपा और खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिकता के खिलाफ सम्मेलन को पुलिसिया दबाव बना के विफल करने की कोशिश की गई. हालांकि अपने नापाक मंसूबे में वे कामयाब नहीं हो पाएं. लेकिन फिर भी सवाल उठना लाजिमी है कि जिस कार्यक्रम के बारे में लगभग सभी अखबार, मुख्यमंत्री से लेकर तमाम बड़े अफसर और नेताओं को पहले से जानकारी भेजी जाती हो, जो कार्यक्रम सार्वजनिक जगह यूपी प्रेस क्लब में हो रहा हो वहां इतनी संख्या में पुलिस की तैनाती की क्यों ज़रुरत आन पड़ी.
पुलिस को जवाब देने की ज़रुरत है कि आखिर ऐसी कौन सी आफ़त आन पड़ी कि एक पूरी तरह से अहिसंक और शहर के सम्मानित बुद्धिजिवियों की उपस्थिति वाले इस कार्यक्रम में पुलिसिया पहरा बिठाना पड़ा. पुलिसिया पहरा न सिर्फ प्रेस क्लब के भीतर था बल्कि क्लब के आसपास और सामने वाले पार्क में भी भारी संख्या में पुलिस मौजूद थी. कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए लोगों को ये पुलिस वाले ऐसे देख रहे थे मानों कितने बड़े गुनहगार हैं यह सब…
इसी कार्यक्रम में एक प्रस्ताव भी पास किया गया, जिसमें कहा गया कि खुफिया एजेंसियों के द्वारा सामाजिक और राजनीतिक संगठनों पर दी जा रही रिपोर्ट को आरटीआई के दायरे में लाया जाय. इस स्थिति में ये बहुत हास्यास्पद स्थिति है कि खुफिया विभाग के साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ किये जा रहे सम्मेलन में खुद खुफिया विभाग के लोग मौजूद थे और फिर यही लोग सरकार को इस कार्यक्रम की रिपोर्ट भी सौपेंगे. ऐसे में उस रिपोर्ट की निष्पक्षता पर कितना विश्वास किया जा सकता है.
दरअसल ये पूरा मामला सत्ता के टेकओवर का है. आज स्थिति ये है कि देश की सत्ता को खुफिया विभाग वालों ने टेकओवर कर रखा है. देश के खुफिया विभाग को कोई जनतांत्रिक सरकार नहीं चलाती बल्कि ये सीआईए, मोसाद और इन्टरपोल से सीधे संचालित होने लगीं हैं और सुरक्षा संबंधी आन्तरिक नीतियों को वैसे ही नियंत्रित करने लगीं हैं जैसे देशी-विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियां हमारी आर्थिक नीतियां नियंत्रित करती हैं. जिसका नजारा बार-बार हम कोडनकुलम, छतीसगढ़, झारखण्ड से लेकर नर्मदा घाटी में देख सकते हैं.
तब यह मांग उठना जायज ही है कि इन खुफिया एजेंसियों को मिलने वाले आर्थिक लाभ की भी जांच होनी चाहिए. भारतीय मीडिया भले पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को व्यव्सथा बिगाड़ू चरित्र का बताती हो. सच्चाई ये है कि खुद भारतीय खुफिया एजेंसियां भी उसी चरित्र की हैं. इन्हीं के दबाव में देशद्रोह जैसे काले कानून को हटाने का साहस कोई भी सरकार नहीं कर पायी है.
लेकिन कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, कि चाहे लाख कोशिश कर लो दबाने की हमें… सम्मेलन के आरम्भ में ही रिहाई मंच के राजीव यादव ने पुलिस के सामने ही उन्हें ललकारने के तेवर के साथ जब खुफिया एजेंसियों और पुलिस विभाग को बेनकाब करना शुरु किया तो सम्मेलन कक्ष में मौजूद पुलिस वाले बगले झांकने लगे और थोड़ी देर में ही कक्ष से बाहर खिसक लिये.
फिर भी ये सवाल मौजूं-ए-बहस है कि क्या हम सच में एक फासिस्ट और हिटलरशाही वाले लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं?

बर्मा को मिलिट्री मदद व हथियार देना बंद करे भारत…


बर्मा में हो रहे रोहिंग्या मुसलमानों पर ज़ुल्म में सैकड़ों मुसलमान बीते जून 2, 2012 से जारी हिंसा में मारे गए और हज़ारों बेघर हुए. माना जाता है कि रोहिंग्या मुस्लिम्स दुनिया की पहली प्रजाति हैं जिनका दुनिया में आज कोई अपना वतन नहीं. फिजी, मारीशस, जावा, सुमात्रा और बर्मा को अंग्रेज़ ग़ुलाम भारत के मज़दूरों को ले गए थे. यह लोग वहां कामगार बनके रहे और वहीं रच बस गए. उपरोक्त देशों में अनेकों प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बने, बर्मा भारत के आस पास ही आज़ाद हुआ, लेकिन आगे जा कर मिलिट्री जुंटा ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया और जम्हूरियत का गला फिर एक बार घोंट दिया गया.

दुनिया में जम्हूरियत की हवा ने वहां के शहरियों को जन्म के आधार पर नागरिकता की बुनियाद डाली, लेकिन 1982 में बर्मा में तानाशाह सरकार ने फासिस्ट नस्ली आधार पर नागरिकता देने के रास्ता चुना और ग़ुलाम भारत से बर्मा गए रोहिंग्या मज़दूर जिसमें अधिकतर मुसलमान थे, उनकी नागरिकता रद्द कर दी गयी. और उन्हें द्वितीय दर्जे का शहरी बना दिया गया.
स्पष्ट रहे कि खुद बर्मा में जम्हूरियत के समर्थक नेताओं की आवाज़ को कुचल डाला गया था. खुद बर्मा की लीडर ‘अंग सुंग सु की’ को अपने ही देश मे दशकों से जेल मे डाल दिया गया था. बर्मा की जुंटा हुकूमत ने पहले रोहिंग्या को ‘स्टेटलेस’ बना दिया. यह दुनिया के पहले लोग हैं, जिनका कोई देश नहीं है. और इसके बाद बर्मा के राष्ट्र-अध्यक्ष  Thein Sein’s  ने यूनाईटेड नेशन को गुहार लगाई कि वो इन रोहिंग्या को किसी तीसरे देश मे बसाये.
इस याचिका को कई बार यूएन ने ख़ारिज कर दिया. हिंसा की शुरुआत मई 28, 2012 को एक बुद्धिस्ट लड़की के साथ तीन संदिग्ध रोहिंग्या मुस्लिम नौजवानों के रेप के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि यह राज्य में रह रहे बुद्धिस्ट और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच क़त्लेआम का एक मामला बन गया. इसके बदले में जून 3 को ‘तौंगोप’ में एक बड़े वर्ग ने एक बस में 10 मुसलमानों का क़त्ल कर दिया.
एचआरडब्लू की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस ने अब तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं की है. इसका बदला लेने की फ़िराक में मॉंगदाव टाऊन में जुमे की नमाज़ में 8 हज़ार लोग दंगे से प्रभावित हुए. फिर यह आग सितवे खित्ते के पूरे इलाके मे फ़ैल गयी. और दोनों वर्गो के बीच चले खुनी संघर्ष में हजारो जान गयीं, और तकरीबन 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित हुआ.
यह कहना ग़लत ना होगा कि जुंटा सरकार ने इसे खूब हवा दी और इसी घटना के बहाने रोहिंग्या को देश से बाहर निकालने की मुहिम को हवा मिली. 1947 से यह रोहिंग्या मजदूर वर्ग जो बर्मा की संस्कृत, बोल चाल, रीती रिवाज में रच बस गया था, मूलतः तब के संयुक्त भारत के (अब बंग्लादेश में) मूल निवासी थे. इस सन्दर्भ मे  2,50,000 रोहिंग्या को बंग्लादेश सरकार ने बसाने  के बाद उनका फिर बंग्लादेश में जाना निषेध कर दिया और उसने अपनी समंदर से लगी सरहदों पर कड़े पहरे लगा दिए.
अलजज़ीरा से प्राप्त रिपोर्ट से पता चलता है कि जब उन्हें जबरन रोहिंग्या से निकला गया और उबलते समंदर में बच्चों-बूढों को धकेल दिया गया. उन्हें जब बंग्लादेश ने अपनाने से मना किया तब वही भारत की सरकार ने हजारो रोहिंग्या अल्पसंख्यकों को शरण दी है. बर्मा में लोकतंत्र की मज़बूत आवाज़ “अंग संग सु की” ने जुलाई में दिए बर्मा की संसद में पहले भाषण में इस विषय पर चिंता ज़ाहिर की और सभी बर्मीज़ को एक समान अधिकार मिले, इस विषय की वकालत की है. यह झगड़ा पूरे बर्मा में बुद्धिस्ट और मुसलमानों के बीच का बिलकुल नहीं है, जैसा कि भारत में सांप्रदायिक ताक़तों ने हवा देने की कोशिश की है. बर्मा की 73 मिलियन आबादी में  7 मिलियन मुस्लिम अल्पसंख्यक रहते हैं, लेकिन यह मामला सिर्फ अराकीन राज्य से सम्बंधित है.
इस समस्या के हल के लिए विश्व समुदाय खासकर भारत को चाहिए कि वो जुंटा तानाशाह की सरकार को रोहिंग्या को नागरिकता देने पर विचार और 1982 का नागरिक कानून में संशोधन (जहां नागरिकता नस्ल की बुनियाद पर आधारित है ना कि जन्म पर) और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहे, क्योंकि दशकों से रह रहे रोहिंग्या अल्पसंख्यकों का देश और भविष्य  बर्मा ही है. क्योंकि वो 100 साल से उपर से बर्मा के निवासी हैं और उनका जीवन-यापन और संस्कृति एक आम बर्मीज़ मूल निवासी सा ही है.
इधर भारत के असम में इसी तर्ज़ की घटना घटी. मुस्लिम सांप्रदायिक संघटनों ने इसे दुनिया में मुसलमान को संगठित तरीके से क़त्ल करने का मामला बताया और पूरे भारत उपमहाद्वीप में उपद्रव मचाया गया और सोशल साईट्स पर कुछ अतिवादी ताक़तों ने फोटोशॉप में तस्वीरें एडिट करके यह दिखाने की कोशिश की, जिसमें बर्मी बुद्धिस्ट को मुसलमानों का मास-मर्डर करते दिखाया गया और कई मस्जिदों को गिराते हुए दिखाकर मुसलमानों के जज़्बात को भड़काया गया.
एक जानकारी के मुताबिक बर्मीस यूथ फेडरेशन के हजारो बुद्धिस्ट नेता, सांसद और कई मज़हबी रहनुमा भारत के दिल्ली में रहते हैं, जिन्हें वहां से निकाल दिया गया. क्योंकि वो लोकतंत्र के समर्थक और तानाशाह ‘थान श्वे’ के विरोधी थे. बर्मा में लोकतंत्र के समर्थन में दिल्ली सीपीआई के यूथ ऑफिस में ही असाईलम में रह रहे नेताओं का भी दफ्तर है. इसलिए यह लड़ाई बुद्धिस्ट-मुसलमानों की बिलकुल नहीं, जो लोग तस्वीरों को देख भड़ककर मुम्बई के आज़ाद मैदान में दंगे किये, वो पाकिस्तान में बैठे वो अतिवादी जो भारत के युवाओं को भड़काना चाहते थे, किसी हद तक कामयाब हुए. लेकिन भारतीय युवाओं ने इस साज़िश को बहुत जल्दी भांप लिया और देश की सभी बड़ी सेक्यूलर पार्टियों, सिविल सोसायटीज़ ने दिल्ली स्थित बर्मीस दूतावास को घेरा और बर्मा में हो रहे क़त्लेआम को जल्द रोकथाम करने का जवाब माँगा. यहाँ एक बात अहम है कि इसके बाद भारतीय विदेश-मंत्रालय के हरकत में आने के बाद रंगून में स्थित सभी मुस्लिम संगठनों के साथ बर्मा सरकार की बैठक हुयी जिसमें मुसलमानों को अराकीन राज्य में शांति के लिए उठाये गए क़दमों में शामिल किया गया.
लेकिन यह आज साफ़ है कि आज बर्मा की तरक्की में भारत सरकार का बहुत हाथ है, जिसमें उनकी मिलिट्री को ट्रेंड करना, बर्मा में सड़क और दूसरे विकास कार्यों के लिए मनमोहन सरकार ने अरबो डॉलर की मदद दी है. अगर यह सरकार दबाव बनाये तो दुबारा रोहिंग्या मुसलमानों को उन्हीं के देश में बसाया जा सकता है और 1982 के नागरिक अधिकार में परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जा सकता है. यही एक रास्ता है.
वैसे भी अपनी ज़मीन, खेत और अधिकार की लड़ाई के लिए, लोकतंत्र के लिए अपनी ज़मीन पर रहकर ही लड़ना होगा. अगर भारत में अल्पसंख्यकों के साथ कोई हादसा जैसे ओडिसा में ईसाई या गुजरात में मुसलमान के साथ कुछ होता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि ईसाई इसका हल ढूंढ़ने वो रोम चले जाएं या मुसलमान पाकिस्तान…
खैर, हमें भारत की सरकार को लोकतान्त्रिक तरीके से बताना होगा कि  वो बर्मा के तानाशाह ‘थान श्वे’ को मिलिट्री मदद और हथियार देना बंद करे. इसके साथ ही यह बात साफ़ है कि बर्मा में जल्द ही आज़ाद हुई ‘अंग सु की’ को और बढ़ावा देना ही आने वाले बर्मा का भविष्य होगा, जिसमें लोग खुली हवा में एक साथ साँस ले पाएंगे…

Tuesday, September 25, 2012

कम से कम तालीम तो दो हमें !



अगर मैं कहूं कि तालीम इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है तो यह कहा जा सकता है कि मैं कोई नयी बात नहीं कह रहा हूँ, इस हकीकत को तो बहुत पहले तस्लीम किया जा चुका है. हाँ, यह मैं भी मानता हूँ. मगर किसी बात को बार बार कहा जाये तो वह अपना असर दिखाती है. कहने और सुनने में बहुत ताक़त होती है. इसलिए इंसान को बार बार इस हकीकत से रूबरू कराने में कोई हर्ज़ नहीं है. आज की दुनिया में हर जगह तालीम की ज़रुरत महसूस की जाती है. जो समाज तालीम से महरूम हो, वो समाज कभी तरक्कीआफ़्ता नहीं हो सकता. तारिख गवाह है कि जिन समाजों ने तालीम को अहमियत नहीं दी वो समाज दुनिया के नक़्शे से मिट गए. तालीम एक ऐसा औज़ार है जो न सिर्क इंसानों बल्कि समाजों का भी तआफुज़ करता है. जिन ममालिक ने तालीम पर जोर दिया वो दुनिया की दौड़ में बहुत आगे है.
हिंदुस्तान ने भी तालीम के मैदान में काफी कामयाबी हासिल की है. आज हिंदुस्तान में कई मरकज़ी विश्वविधालय, आई. आई. टी., आई. आई. एम्. , मेडिकल कॉलेज, लाखों स्कूल और टेक्नीकल इदारे हैं. इन तालीमी इदारों में करोड़ों तालिबे इल्म फैज्याब हो रहे हैं. हमारे यहाँ दुनिया के बेहतरीन तालीमी इदारे हैं लेकिन इन सबके बाबजूद हम सब को तालीम नहीं दे पा रहे हैं. कुछ तो हमारी मजबूरियां हैं और कुछ हमारी तंगनज़री कि हम समाज के हर ख़ित्ते तक तालीम को नहीं पहुंचा पाए हैं. कमजोर तबकों को तालीम मुहयिया कराना हर मुल्क और समाज का फ़र्ज़ है क्योंकि इन तबकों की तरक्की के बिना मुल्क की तरक्की का ख्याव अधुरा ही रहेगा. आज के दौर में एस सी, एस टी, ओ बी सी और अक्लियतें तरक्की के हर पैमाने पर पिछड़े हुए हैं. एस सी, एस टी और ओ बी सी समाज का रिज़र्वेसन होने से कुछ तो हालात सुधरे हैं और इसलिए इन समाजों से जुड़े हुए लोग सरकारी तालीमी इदारों और नौकरियों में दिखाई देते हैं, पर उस तादात में नहीं जिस में इन्हें होना चाहिए. लेकिन अगर हम अकलियतों के हालात देखें तो पता चलता है कि यह तो सरकारी तालीमी इदारों और नौकरियों से नदारत हैं. अकलियतों में मुस्लिम अकलियत के हालात तो और भी ख़राब हैं. सच्चर कमेटी रिपोर्ट ने मुस्लिम अकलियत के तालीमी,समाजी और आर्थिक हालात को सामने रखा है. इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ मायनो में मुस्लिम अकलियत इस देश के दलित समाज से भी पीछे है. तालीम भी इनमे एक पहलु है, जहाँ मुस्लिम अकलियत बाकी समाजों से बहुत पीछे दिखाई देती है. सवाल पैदा होता है कि इसकी वजह क्या है ? मेरे हिसाब से इसकी दो एहम वुजुहात हैं. पहली वजह यह कि सरकारें अकलियतों के विकास को लेकर उतनी संजीदा नहीं रहीं जितना उनको होना चाहिए था और दूसरी वजह मुस्लिम अकलियत के सियासी, समाजी और मजहबी रेहनूमाओं के जरिये तालीमी ज़रूरतों को नज़रंदाज़ करना है. मैं इन दोनों वुजुहात पर तफसील से रोशनी डालना चाहता हूँ.
कितने अफ़सोस का मुकाम है कि किसी को आजादी के 65 साल बाद बताया जाये कि तुम्हारे हालात बद से बदतर हो गए हैं, कि तुम तालीमी इदारों में न के बराबर हो और कि तुम सरकारी नौकरियों में नदारत हो. सच्चर कमेटी बताती है कि मुस्लिम अकलियत सरकारी नौकरियों में सिर्फ 4.2 फीसद हैं. तालीमी इदारों में भी यही हालात हैं. आई आई टी जैसे इदारों में 3.3 फीसद और आई आई एम् में 1.3 फीसद मुस्लिम अकलियत की तादात है. अफसरशाही में सिर्फ 2.5 फीसद मुस्लिम अकलियत के लोग नौकरी में हैं. मेरी नज़र में इस सबकी एक बड़ी वजह मुसलमानों का तालीम के मैदान में पिछड़ना है. यह पिछड़ाव सरकार की अनदेखी से आया है. सरकारी योजनायों की मुनादी तो हो जाती है पर वह कितनी ज़मीनी लेवल पर अमल में लायी जा रही है इस पर सरकार का ध्यान नहीं जाता है. सच्चर कमेटी की सिफारिसात के बाद मरकज़ी सरकार ने वजीरे-आज़म का 15 नुकाती प्रोग्राम शुरू किया. इसमें 90 अकलियती अक्सरियत वाले जिलों की पहचान की गयी. इन जिलों के लिए कई प्रोग्राम चलाये गए, इनमे से एक प्रोग्राम ' Multi-sectoral Development Program (MsDP) in Minority Concentrated Districts ' को 2008-09 में शुरू किया गया. Standing Committee on Social Justice and Empowerment (2011-2012) की 27 वी रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजिस्ता 3 सालों में इस प्रोग्राम के तहत 2008 से 2359.39 करोड़ रूपया सरकार ने मुहयिया कराया था पर इसमें से सिर्फ 1174.93 करोड़ ही अलग-अलग रियासती सरकारों ने खर्च किया है. मतलब यह कि सिर्फ 49 फीसद पैसा ही लगा और 51 फीसद पैसा कर्च ही नहीं किया गया. और जो कर्च भी किया वह ऐसे ब्लोकों में जहाँ गैर-अकलियत के लोग रहते हैं. इसलिए इस Parliamentary Standing Committee ने सिफारिश की है कि ब्लाक को इस प्रोग्राम का यूनिट माना जाये. कमेटी ने पाया है कि चूँकि जिला बड़ा होता है इसलिए यह पैसा उन ब्लोकों में लग जाता है जहाँ अकलियत के लोग नहीं रहते. इस कमेटी ने यह भी सिफारिश की है कि किसी जिले को अकलियती जिला मानने के लिए 25 फीसद वाली शर्त घटा कर 15 फीसद कर देनी चाहिए. अभी पुरे मुल्क में 90 ऐसे जिले हैं, लेकिन अगर यह शर्त घटा के 15 फीसद कर दी जाती है तो और भी कई जिले प्रोग्राम के अंदर आ जायेंगे.
सरकार को सच्चर कमेटी रिपोर्ट के बाद यह पता चल चुका है कि इस मुल्क की मुस्लिम अकलियत तालीम में काफी पीछे है, इसलिए सरकार को कुछ मज़बूत कदम उठाने होंगे. इन कदमों में सबसे पहले तो जो 90 अकलियती जिले हैं उनमे नवोदय और सेंट्रल स्कूलों की तर्ज पर स्कूल खोलने की ज़रुरत है. इन स्कूलों में जदीद और साईंस की तालीम दी जाये और वह भी अंग्रेजी मीडियम में, ताकी तालीम हासिल करने के बाद मार्केट में रोजगार तलासना आसान हो जाये. सरकारों को अपनी सरकारी सोच और समझदारी से आगे निकलना होगा. आज जो सरकारी समझदारी है, उसके हिसाब से मुसलमानों को उर्दू पढाना, मदरसों को modernise करना और मुसलमानों को उर्दू टीचरों की नौकरी मुहयिया कराना है. सरकारी सोच यह सोच ही नहीं पाती कि मुस्लिम अकलियत को भी जदीद तालीम, सरकारी नौकरियां और multi-national companies में काम चाहिए. उसे भी अंग्रेजी से लबरेज़ मेनस्ट्रीम तालीम की ज़रुरत है, उसे भी अपने इलाके में बिजली, पानी, डिस्पेंसरी, बढ़िया सडकें, सफाई का इंतज़ाम और बैंकों की उतनी ही ज़रुरत है जितनी किसी दुसरे शहरी को. मुल्क की तरक्की सभी की तरक्की में है, किसी एक ख़ास समाज को विकास से दूर रख कर इस मुल्क की तरक्की का सपना देखना बईमानी है.
यह सही है कि सरकार से हमें उम्मीद लगानी चाहिए पर यह भी उतना ही सही है कि सरकार तो सरकारी रफ़्तार से ही काम करेगी. हम आज मांग करेंगे तो उसे पूरा करने में सरकार को सालों लग जायेंगे. तो फिर रास्ता क्या है? रास्ता है कि मुस्लिम समाज को खुद कोशिश करनी होगी. ऐसा नहीं है कि हमारे सामने मिसालें नहीं हैं. इसी मुल्क में हमारे इसाई समाज के लोगों ने तालीम में अपनी पहचान बनाई है और अपने समाज के लोगों को तालीमीआफता बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसाई समाज में इसलिए न के बराबर लोग अनपढ़ मिलेंगें. जब मिसालें भी हैं और लोगों में अपने बच्चों को पढ़ाने की ललक भी तो मुस्लिम समाज में ऐसे बदत्तर हालात क्यों बने हुए हैं ? एक वजह तो गरीबी हो सकती है पर यह देखा गया है कि बहुत से परिवार जो पैसे से ठीक-ठाक हैं उनमे भी तालीम की कमी है. मेरी समझ से हमारे सियासी, समाजी और मजहबी रहनुमाओं ने तालीम की ज़रुरत और उसको आगे बढाने के लिए बेदारी पर तब्बजो न के बराबर दी है. ऐसा क्यों है की सर सयैद के बाद किसी ने छोटे या बड़े तालीमी इदारे समाज के लिए बनाने की कोशिश नहीं की ? अगर अपने इन सभी रहनुमाओं से यह सवाल किया जाये कि मदरसों के अलावा मुस्लिम समाज के पास तालीम की फरोग के लिए क्या है, तो उनको जवाब देना मुश्किल हो जायेगा.
हमारे पास क़ौमी रहनुमा सर सयैद अहमद खां को खिराजे-अकीदत पेश करने के नाम पर सिर्फ डिनर और मुशायरे रह गए हैं. क्या मुस्लिम अकलियत समाज में पैसे वालों की कमी है ? नहीं. लेकिन अगर कमी है तो सोच और जज्वे की. सियासी रहनुमा सिर्फ अकलियतों को वोटों से जियादा कुछ नहीं समझते. वह मुस्लिम अकलियतों को फिरकापरस्त ताक़तों का डर दिखा कर वोट लेते आ रहे हैं और विकास के नाम पर खोकले नारों के आलावा समाज को देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है. समाजी रहनुमा सरकार से अपनी बनाई हुई एन. जी. ओ., जो महज एक दुकान से जियादा कुछ भी नहीं, के लिए पैसे लेने में दिन रात एक किये हुए रहते हैं और तालीम के तिजारत से जियादा उनके लिए मायने नहीं हैं. मजहबी रहनुमाओं के बारे में जितना कहा जाये कम है. उन्हें तो बस यही दिखता कि मुसलमान पाबन्दी से पांच वक़्त की नमाज़ वाजमात मस्जिद में पढ़ ले और उसका बच्चा मदरसे से फारिग हो जाये. मजहबी रहनुमाओं का दिमाग इससे जियादा सोचता ही नहीं है. अगर सोचता तो आज मुस्लिम अकलियत का इतना बुरा हाल ना होता. अफ़सोस हमने इस्लाम को कितना महदूद कर दिया है. इस्लाम में तालीम पर जो जोर दिया है उसको हमारे रहनुमा भूल ही गए हैं. अगर मुसलमानों की तरक्की तालीम के बगैर हो सकती तो कोई बात नहीं थी. पर ऐसा है नहीं. मजहब के कुछ ज़रूरी फराईज़ को निभाने के साथ-साथ मजहब में जो और भी ज़रूरी चीजें हैं उनकी तरफ भी आम मुसलमान का ध्यान खीचना होगा. इसमें हमारे मजहबी रहनुमा नुमाया किरदार अदा कर सकते हैं.
इस्लाम में तालीम को बहुत एहमियत दी गयी है. पर पर अफ़सोस हमारे मजहबी रहनुमाओं को दीनी तालीम के आलावा कुछ और दिखाई ही नहीं देता. यह सच है कि आज भी मुस्लमान बड़ी तादात में इन मजहबी रहनुमाओं पर यकीन रखता है और इनका कहना मानता है. क्या बढ़िया ना होता कि हम अपनी मसाजिद और मदरसों का इस्तेमाल दीनी तालीम के साथ जदीद उलूम जैसे कंप्यूटर, इन्टरनेट, टेक्निकल कोर्स, अंग्रेजी जुबान सिखाना, साईंस और सोसल साईंस जैसे कोर्स को सीखने में करते ? आप कह सकते हैं कि यह सिखाने की जिम्मेदारी सिर्क मजहबी रहनुमाओं की ही नहीं है. तो में कहूँगा आप सही कह रहे हैं. लेकिन मेरे मानना है कि यह सब सिखाने में तो इन रहनुमाओं को कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए और ना ही उन्हें इसकी खिलाफत करनी चाहिए. अगर हम चाहते हैं कि अकलियतों के बच्चे भी सरकारी नौकरियां पाएं और बढ़िया से बढ़िया तालीमी इदारों में दाखिला लें तो हमें हर लेवल पर कोशिश करनी होगी. हमारे मजहबी रहनुमाओं का यहाँ पर अहम् रोल हो जाता है क्योंकि आज भी जियादातर लोग इनका कहना मानते हैं.
ऐसा क्यों है कि आज भी मुस्लिम समाज में लड़के और लड़की की तालीम में फर्क किया जाता है ? लड़के को बढ़िया तालीमी इदारों में भेजते हैं और लड़कियों की तालीम की कम चिंता सताती है हमें. होना तो यह चाहिए कि दोनों की उम्दा तालीम हो. लड़कियों की उम्दा तालीम इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि तालीमीआफ्ता हो कर वह दो घरों को रोशन करती हैं- पहला तो अपने वालिद के घर को और दूसरा अपने ससुराल को. अगर माँ ही अनपढ़ होगी तो वह बच्चों को क्या तालीम देगी ? माँ की गोद बच्चे का पहला स्कूल होता है. इसलिए माँ का पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है और माँ ही तो बच्चे के साथ जियादा वक़्त रहती है, इसलिए माँ की गोद को बच्चे की तरबियत के लिए इस्तेमाल ना करना अकलमंदी नहीं कही जा सकती. किसी भी समाज को बेहतर बनाने के लिए उसके हर फर्द का पढना ज़रूरी है. लड़के और लड़की का फर्क करने से समाज कभी तरक्कीआफ़्ता नहीं हो सकता. अगर हम पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो मुस्लिम लड़कियों ने अंग्रेजी और उर्दू मीडियम दोनों के 10 वीं और 12 वीं जमातों के इम्तीहानात में लड़कों से बढ़िया रिजल्ट दिया है. इस बात का खुलासा सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी करती है. इसलिए ऐसी कोई वजह नज़र नहीं आती कि लड़कियों को तालीम से महरूम रखा जाये.
ऐसी कई studies हुई हैं जिनसे पता चलता है कि २००२ गुजरात के दंगों के बाद मुस्लिम समाज में पढाई की तरफ रुझान बड़ा है. माँ-बाप गरीब ही क्यों ना हों पर वह अपने बच्चे को अच्छी तालीम देने के ख्वायीशमंद हैं. ऐसे में समाज के पढ़े-लिखे और अमीर लोगों का फ़र्ज़ बनता है कि ज़रूरतमंदों के सपनो को अमली जामां पहनाने के लिए आगे आयें और जदीद उलूम के लिए स्कूल और कालेज खोलें. पहले तो जो लोग समाज की फलाहबेह्बुदगी के काम में लगे हुए हैं, वो एक जगह मिलें और एक लम्बी स्ट्रेटजी तैयार करें कि तालीम को फरोग देने के लिए क्या क्या अमल करने होंगे. आज अकलियत समाज को प्रोफेसनल और टेक्नीकल तालीम की सबसे जियादा ज़रुरत है. इसके लिए प्रोफेसनल और टेक्नीकल इदारे खोले जायें. इन इदारों में पढने लिए बच्चे कहाँ से आयेंगे इस बात पर भी गौर किया जाये. प्रोफेसनल और टेक्नीकल इदारों में तालिबे-इल्मों को लाने के लिए मॉडर्न स्कूल हर मुस्लिम अकलियत इलाके में खोले जाये जो फीडिंग सेण्टर का कम करेंगे. इन सभी इदारों में अंग्रेजी मीडियम में तालीम मुहयिया कराई जाये. आज के माहौल में जब अंग्रेजी connecting और global जुबान बन चुकी है तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अंग्रेजी का दामन थामें. प्रोफेसनल और टेक्नीकल कोर्सेस करने के बाद तालिबे-इल्मों को मार्केट में काम मिलने में इन्तहाई आसानी होगी.
एक बात और क्योंकि आज भी अकलियत समाज में लड़कियों को लड़कों के इदारे में पढाने पर थोडा एतराज़ है, इसलिए जब तक माहौल नहीं बदलता तब तक अकलियतों के इलाकों में गर्ल्स स्कूल खोले जायें. बढ़िया बात तो यह होगी की दिल्ली और दुसरे शहरों की तर्ज पर सिर्फ लड़कियों के लिए अलग से कोलेज खुलें. मैं लड़के और लड़कियों की एक जगह तालीम हो इस सोच का हूँ पर जब तक माहौल इसके लिए नहीं बनता तब तक क्या हम लड़कियों को आला तालीम से महरूम रखेंगे ? नहीं. हमें उन्हें ऐसा माहौल देना ही होगा जहाँ वो खुल कर अपनी पढ़ाई मुकम्मल कर सकें.
होना तो यह चाहिए कि मुस्लिम अकलियत में जो पढ़ जाये उसे कम से कम अपने मोहल्ले के तालीमी निजाम को सुधारने के लिए कोशिश करनी चाहिए. पर ऐसा हो नहीं रहा है. हम अपनी तालीम मुकम्मल करके अपनी ज़िन्दगी को और बेहतर बनाने में लग जाते हैं. क्या बढ़िया बात होती कि जो पढ़ जाता वो आगे लोगों को पढ़ता या उनके पढाने के लिए काविशें करता. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और इसलिए आज मुस्लिम अकलियत का ऐसा हाल हुआ.
ज़रुरत हमारे सियासी, समाजी और मजहबी रहनुमाओं के जागने की है. उन्हें यह एहसास होने की है कि तालीम के बगैर समाज की तरक्की का तसव्वुर मुमकिन नहीं. आईये हम सभी आगे आयें और प्रोफेसनल,टेक्नीकल,जदीद और अंग्रेजी से लबरेज तालीमी निजाम की इफ्तिता करें.
हमें कमज़ोर तबकों की बात करते रहना होगी. देखते हैं कब तक सरकारें और हमारे रहनुमा इन मसाईल पर चुप्पी साधे रहते हैं? कभी तो यह चुप्पी टूटेगी और हालात सुधरेंगे. आईये बेदारी पैदा करें कि सरकार अपनी सरकारी सोंच से आगे सोंचे ताकी हिंदुस्तान की अकलियतों को उनका वाजिब हक मिल सके. अकलियतों को भी मेनस्ट्रीम से जुड़ना है और इसलिए उसे भी जदीद तालीम के मौके फरहाअम करने होंगे. तभी जा कर हम एक तरक्कीआफता हिंदुस्तान का सपना साकार कर सकते हैं. हिंदुस्तान की तरक्की सभी की तरक्की में है.

(लेखक: जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय में रिसर्च स्कोलर और अलीगढ मुस्लिम विश्वविधालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं. उनसे abdulhafizgandhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है).

Sunday, September 23, 2012

भाजपा, अल्पसंख्यक और 2014 के चुनाव



मुंबई में हाल में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी ने कहा कि भाजपा को 2014 का चुनाव जीतने के लिए अल्पसंख्यकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करना चाहिए। गोवा का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि गोवा में पार्टी, अल्पसंख्यकों का समर्थन हासिल करने में सफल रही और सत्ता हासिल कर सकी। उन्होंने कहा कि गोवा के अनुभव से सीख लेकर पार्टी को पूरे देश में अल्पसंख्यकांे को अपना समर्थक बनाने के लिए अभियान चलाना चाहिए।
गडकरी, जिन्हें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा की कमान सौंपी है, शायद नन्हंे से गोवा के चुनाव और पूरे भारत के आमचुनाव में अंतर नहीं समझ पा रहे हैं। गोवा में मात्र कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं जबकि पूरा भारत, जिसकी आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 15 फीसदी है, इतनी विविधताओं और जटिलताओं से भरा हुआ है कि गोवा से उसकी तुलना करना हास्यास्पद ही कहा जा सकता है। दूसरे, गोवा के ईसाई अल्पसंख्यकों के भाजपा के प्रति दृष्टिकोण की मुसलमानों के भाजपा के प्रति नजरिए से तुलना नहीं की जा सकती। भाजपा ने गोवा के ईसाईयों के खिलाफ कोई अपराध नहीं किया है। इसके विपरीत, भारतीय मुसलमानों की नजरों में भाजपा उनकी अपराधी है।
भाजपा सन् 2014 में होने वाले आमचुनाव में सत्ता में आने के लिए छटपटा रही है। पिछले आमचुनाव में भाजपा को 19 प्रतिशत वोट मिले थे परंतु कांग्रेस, जिसकी वोटों मे हिस्सेदारी 27 प्रतिशत थी, ने अन्य दलों से गठबंधन कर यूपीए-2 सरकार बनाने में सफलता हासिल कर ली। भाजपा और कांग्रेस को प्राप्त मतों के बीच केवल 8 प्रतिशत का अंतर था और भाजपा इस अंतर को पाटने के लिए बेताब है। भाजपा जानती है कि अगर उसे मुसलमानों के एक तबके का भी समर्थन मिल गया तो वह इस अंतर को बहुत आसानी से पाट सकेगी।
दुर्भाग्यवश, भाजपा के चुनावी गणित से भी उसकी साम्प्रदायिक सोच उसी तरह झलकती है जैसी कि उसकी अन्य नीतियों और कार्यक्रमों से। भाजपा शायद यह मानती है कि देश के पूरे मुसलमान और पूरे हिन्दू एकसार समुदाय हैं और उनके सभी सदस्य एक ही पार्टी या गठबंधन का समर्थन करते हैं। भाजपा की शायद यह मान्यता है कि केवल साम्प्रदायिक दृष्टिकोण ही मुसलमानों और हिन्दुओं की राजनैतिक पसंद को निर्धारित करता है और इसमें उनके क्षेत्रीय, भाषाई और वर्गीय हितों की कोई भूमिका नहीं होती। भाजपा हमेशा से दिन-रात मुसलमानों के खिलाफ विषवमन इस उम्मीद से करती आ रही है कि इससे मतदाताओं का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण हो जावेगा, हिन्दू उसके झंडे तले आ जावेंगे और उनके मतों के सहारे वह सत्ता पर काबिज हो जाएगी। भारत को स्वतंत्र हुए आज 65 साल हो चुके हैं परंतु इस अवधि में एक बार भी भाजपा का यह स्वप्न पूरा नहीं हो सका है।
सन् 1975 में भाजपा (जब वह जनसंघ थी) श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली जनता पार्टी का हिस्सा बन गई। उसने गांधीवादी समाजवाद को अपनी नीति बताया और यह शपथ ली कि वह कभी साम्प्रदायिक राजनीति का सहारा नहीं लेगी। परंतु जनता पार्टी के भाजपाई सदस्यों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता त्यागने से इंकार कर दिया और दोहरी सदस्यता के इसी मुद्दे पर जनता पार्टी बिखर गई। इसके बाद सन् 1980 के बाद जनसंघ, भाजपा कहलाने लगा और उसने एक बार फिर अपना साम्प्रदायिक दुष्प्रचार शुरू कर दिया।
जनता पार्टी प्रयोग असफल हो जाने के बाद भाजपा और अधिक साम्प्रदायिक हो गई। उसने सन् 1980 के दशक में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे को उछालकर भारत का इस हद तक साम्प्रदायिकीकरण कर दिया जितना कि उसके पहले कभी न हुआ था। उसका यह वादा खोखला साबित हुआ कि वह साम्प्रदायिकता का सहारा नहीं लेगी। यह स्पष्ट हो गया कि जनता पार्टी काल में तत्कालीन जनसंघ द्वारा जो कुछ किया और कहा गया था वह शुद्ध अवसरवादी राजनीति थी। भाजपा बहुत दिनों तक धर्मनिरपेक्ष होने का नाटक भी नहीं कर पाई। यह तो साफ है कि जिस दौर में वह गांधीवादी समाजवाद की बात करती थी उस समय भी उसके असली इरादे कुछ और ही थे। उसने अपना रूप केवल रणनीतिक कारणों से बदला था। उसकी आंतरिक सोच में कोई बदलाव नहीं आया था।
हर ऐसे कार्यक्रम और नीति का भाजपा भरसक विरोध करती है जिससे मुसलमानों का जरा सा भी लाभ पहुंचने की संभावना हो। वह सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने का अपने पुराने नारे,“मुसलमानों का तुष्टिकरण बंद हो“, के नाम पर विरोध कर रही है। भाजपा की नरेन्द्र मोदी सरकार, मुस्लिम बच्चों को छात्रवृत्ति देने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा भेजी गई धनराशि का इस आधार पर उपयोग नहीं कर रही है कि वह धर्म के नाम पर भेदभाव में विशवास नहीं रखती। कर्नाटक और मध्यप्रदेश की भाजपा सरकारों ने गौहत्या के विरूद्ध अत्यंत कड़े कानून बनाए हैं जिनके निशाने पर भी मुख्यतः मुसलमान हैं। ये कानून पुलिस को मुसलमानों को जबरन परेशान करने का एक और हथियार मुहैय्या कराएंगे। मैं यह नहीं कहता कि मुसलमानों को गौमांस खाना चाहिए-जैसा कि जमियतुलउलेमा ने भी मुसलमानों को सलाह दी है, उन्हें अपनी ओर से यह घोषणा कर देनी चाहिए कि वे हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए गौमांस का भक्षण नहीं करेंगे। परंतु उन्हें एक कानून बनाकर उनकी पसंद के भोजन से वंचित करना और उन्हें पुलिस के हाथों प्रताडि़त होने के लिए छोड़ देना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। गौहत्या के विरूद्ध बनाए गए कानून अत्यंत कड़े हैं और इनका
विरोध वे दलित समुदाय भी कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से गौमांस भक्षण करते आए हैं। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के दलित छात्रों ने अभी हाल में बीफ फेस्टिवल का विश्वविद्यालय प्रांगण में आयोजन किया था।
मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने स्कूलों के पाठ्यक्रम में सूर्य नमस्कार जैसे विशुद्ध हिन्दू क्रियाकलापों को शामिल कर दिया है। उसे मुसलमानों की भावनाओं की तनिक भी चिंता नहीं है। जब भी भाजपा सत्ता में आती है वह अन्य समुदायों पर हिन्दू परंपराएं और कर्मकाण्ड लादने की कोशिश करती है। ऐसा नहीं है कि हिन्दू परंपराओं और कर्मकाण्डों में कुछ भी गलत है परंतु किसी समुदाय की भावनाओं की परवाह न करते हुए उस पर कुछ भी लादा जाना प्रजातांत्रिक मूल्यों का हनन ही कहा जा सकता है।
संघ परिवार का प्रजातंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। गुजरात की पाठ्यपुस्तकों में हिटलर को एक महान व्यक्ति बताया गया है। राजस्थान में जब भाजपा सत्ता में थी, उस समय पाठ्यपुस्तकों में फासीवाद का जमकर महिमामंडन किया गया था। यह तर्क भी दिया गया था कि फासीवाद, भारत के लिए अत्यंत उपयुक्त है क्योंकि इस शासन व्यवस्था में नेता सही समय पर सही निर्णय ले सकता है। यह जानकर आपको धक्का लग सकता है परंतु यह सच है। मैंने इस ओर तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह का ध्यान आकर्षित किया था और उन्हें भी यह विशवास नहीं हुआ था कि किसी भारतीय पाठ्यपुस्तक में फासीवाद को सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था बताया जा सकता है। फासीवाद और नाजीवाद- ये दोनों राजनैतिक विचारधाराएं अल्पसंख्यक-विरोधी हैं और धार्मिक बहुवाद के प्रति अत्यंत असहिष्णु। पाठ्यपुस्तकों में इन विचारधाराओं की प्रशंसा की जाना गैर-प्रजातांत्रिक है और हमारे देश की सहिष्णुता और बहुवाद की सदियों पुरानी परंपरा के खिलाफ है। यह असंवैधानिक भी है।
संघ परिवार, भारत के स्वतंत्र होने के समय से ही, मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा भड़काता रहा है। वह अक्सर यह आरोप लगाता है कि मुसलमान भारत के प्रति वफादार नहीं हैं और वे पाकिस्तान से प्रेम करते हैं। वह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के सारे मुसलमानों की देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाता आ रहा है। इससे बड़ा झूठ शायद ही कोई हो सकता है।
गुजरात के सन् 2002 के कत्लेआम की जिम्मेदारी लेने तक से नरेन्द्र मोदी ने साफ इंकार कर दिया। -खेद प्रकट करने या मुसलमानों से क्षमायाचना करने का तो विचार भी संभवतः उनके मन में नहीं आया होगा। उल्टे, वे मुसलमानों से “भूल जाओ और आगे बढ़ो“ की नीति अपनाने की अपेक्षा करते हैं। मुसलमानों से माफी मांगने की बजाए वे “सद्भावना अभियान“ चला रहे हैं जिसके अंतर्गत उन्होंने गुजरात के कई जिला मुख्यालयों में एक दिन का उपवास रखा। गुजरात के मुसलमानों ने मोदी के बिछाए इस जाल में फंसने से इंकार कर दिया। सद्भावना रैलियों में मुसलमान शामिल नहीं हुए। केवल बोहरा मुसलमानों ने इनमें भाग लिया क्योंकि उनके धर्मप्रमुख सैय्यदाना मोहम्मद बुरहानुद्दीन अपने निहित स्वार्थों के चलते मोदी को प्रसन्न रखना चाहते हैं (गुजरात की वक्फ संपत्तियों और वहां स्थित मजारों से सैय्यदाना को भारी-भरकम आय होती है जिसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता)।
अब तो नरेन्द्र मोदी के प्रतिद्वंदी श्री संजय जोशी तक उनपर आरोप लगा रहे हैं कि मोदी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए सन् 2002 में गुजरात में दंगे करवाए। मोदी के समर्थकों ने एक पोस्टर जारी किया है जिसमें कहा गया है, “मैं आरएसएस का सदस्य हूं। मैं जमीनों की खरीद-फरोख्त नहीं करता। मैं सत्ता की खातिर कत्लेआम नहीं करवाता। मैं सत्ता के लिए रंग नहीं बदलता (सद्भावना रैलियों के संदर्भ में)“।
गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल ने भी नरेन्द्र मोदी पर हल्ला बोल दिया है। उन्होंने पटेल बिरादरी से अपील की है कि वह मोदी के खिलाफ उठ खड़ी हो और अगले विधानसभा चुनाव में उनकी हार सुनिष्चित करे। “पार्टी विथ ए डिफरेन्स“ इन दिनों “पार्टी विथ डिफरेन्सिस“ बन गई है। भाजपा के नेताओं में मतभेद तो हैं हीं, मनभेद भी हैं। भाजपा, कांग्रेस से अधिक नहीं तो कम से कम उसके बराबर भ्रष्ट है। भाजपा “भ्रष्ट कांग्रेस“ को हराने के लिए अन्ना का समर्थन कर रही है और अन्ना भी केवल कांग्रेस को निशाना बना रहे हैं। भाजपाईयों के भ्रष्टाचार के बारे में वे अपना मुंह तक नहीं खोलते।
अगर भाजपा सचमुच मुसलमानों का समर्थन चाहती है तो उसे सबसे पहले बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के लिए मुसलमानों और पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए और इस बात पर सहमति देनी चाहिए कि बाबरी मस्जिद का उसी स्थान पर पुनर्निमाण हो जहां वह पहले थी। भाजपा को नरेन्द्र मोदी को इस बात के लिए मजबूूर करना चाहिए कि वे सन् 2002 के कत्लेआम के लिए मुसलमानों से माफी मांगे। भाजपा को देश को यह विशवास दिलाना होगा कि आज के बाद वह साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा का सहारा नहीं लेगी और किसी भी स्थिति में देश को धोखा नहीं देगी।
इससे भाजपा के पाप नहीं धुल जावेंगे परंतु इससे मेलमिलाप का रास्ता खुलेगा और हम सब-हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई व आदिवासी-मिलजुलकर भारतीय राष्ट्र को आगे बढ़ा सकेंगे और उसे एक शांतिपूर्ण व समृद्ध राष्ट्र बना सकेंगे। भाजपा को कंधमाल (उड़ीसा) में हुए दंगों के लिए ईसाईयों से भी क्षमायाचना करनी चाहिए। तभी हम एक ऐसा सच्चा राष्ट्र बन सकेंगे जो धर्म, जाति और नस्ल के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं करता।
ऐसा होने पर अल्पसंख्यक भाजपा को सत्ता में आने का मौका अवश्य देंगे बशर्ते वह अपने आश्वासनों से पीछे न हटे और सन् 70 के दशक की तरह, देश से विश्वासघात न करे। दक्षिण अफ्रीका में ठीक इसी रास्ते पर चल कर शान्ति और सद्भाव का वातावरण निर्मित किया गया था। सत्य, भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है और क्षमाभाव, प्राचीन भारत की अमूल्य विरासत है। अगर भाजपा को सचमुच भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर गर्व है तो उसे इस राह पर चलने में संकोच नहीं होना चाहिए।
मुसलमानों की वक्फ संपत्तियां बचाने जैसे सतही वादों-जैसा कि श्री नितिन गडकरी ने किया है- से मुसलमान भाजपा के झंडे तले नहीं आएंगे। मुसलमानों ने भाजपा और उसकी साम्प्रदायिक राजनीति के चलते पिछले साठ सालों में बहुत दुःख झेले हैं। केवल वक्फ संपत्तियों को बचाने से वे ये सब नहीं भूल जाएंगे। भाजपा नेताओं को हम यह विशवास दिलाना चाहते हैं कि कांग्रेस, केवल भाजपा का भय दिखाकर, मुसलमानों के वोट नहीं पा सकेगी। उसकी साम्प्रादयिक सोच का भी पर्दाफाश हो सकेगा और उसे भी मुसलमानों का दिल जीतने के लिए मेहनत करनी होगी। तभी इन दो महान राजनैतिक दलों के बीच सच्ची प्रतियोगिता हो सकेगी और देश के सभी नागरिकों के बीच एकता का भाव पनपेगा। यही हमारी राजनीति का अंतिम लक्ष्य है। हमारा देश जिंदाबाद, हमारी एकता अमर रहे!
-डॉ. असगर अली इंजीनियर