Wednesday, December 19, 2012

गैंगरेपः घड़ियाली आंसू बहाना नेताओं का काम है, आपका नहीं



 क्या सड़कों पर हैवानियत अचानक दौड़ी? क्या जो हुआ वो सिर्फ कुछ सिरफिरे दरिंदों की करतूत थी? पीड़िता का दर्द बयां करने में टीवी एंकरों का गला रूंध गया. अखबारों के पहले पन्ने काले हो गए. दरिंदगी और हैवानियत की कहानी लिखने के लिए पत्रकारों को शब्द नाकाफी लगे. सड़कें चिल्लाईं… संसद रोई… नेताओं के आंसू बहे तो महिला अधिकारों की बात करने वालों ने सीना पीटा.
2 घंटे के घटनाक्रम ने सदियों की मानवता पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए. अचानक हर चेहरा संदिग्ध नज़र आने लगा. हर लड़की बेबस तो हर मां खौफज़दा. हर बाप चिंतित… राह चलती लड़की पर सीटियां मारने वाले लड़के भी बहनों के भाई हो गए.
लेकिन क्या यह सबकुछ अचानक हुआ? क्या 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ हुई घटना के बाद की हमारी प्रतिक्रियाएं भावुकता की अतिश्योंक्ति नहीं है? क्या हम संवेदनशील होने का दिखावा मात्र नहीं कर रहे हैं?
रविवार रात दिल्ली में हुए घटनाक्रम को किसी लड़की का दुर्भाग्य या कुछ सिरफिरों की दरिंदगी कहकर नहीं टाला जा सकता. सफ़दरजंग अस्पताल में मौत से जूझ रही छात्रा के साथ गैंगरेप दरिंदों ने नहीं बल्कि हमारे सिस्टम ने किया है. और जो सिस्टम आज है उसके लिए जितने पुलिस वाले और नेता जिम्मेदार हैं उससे कहीं ज्यादा हम.
नोएडा से दिल्ली जाने वाली चारटर्ड बसों में सफ़र करने वाली कौन सी लड़की ड्राइवर और कंडक्टर के व्यवहार से परिचित नहीं है? कौन सी चौकी ऐसी है जहां इन बसों से हफ्ता नहीं पहुंचता? क्या हमारी नंगी आंखें इस सच को नहीं देखती?
नोएडा से ही दिल्ली जाने वाली 392 नंबर बस में सफ़र करने वाला कौन सा यात्री ऐसा है जो प्राइवेट बसों की मनमानी और डीटीसी बसों की बेबसी (कभी-कभी मजबूर किया जाता है तो अक्सर खरीद लिया जाता है) से परिचित नहीं है? क्या ये सब अचानक हुआ है. ये तो  होता आ रहा है सालों से और शायद होता रहेगा. सड़कों के चिल्लाने और संसद के रोने के बाद भी. क्योंकि दिखावे मात्र से बदलाव नहीं आता.

बेशर्मी देखिए! सिस्टम को रोज़ बिकता देखकर, रोज बद से बदतर होता देखकर, और कभी-कभी इसे दूषति करने वाले ही हाथों में कैंडल लेकर मार्च निकाल रहे हैं. क्यों हमारी संवेदनशीलता इंतजार करती है किसी लड़की की जिंदगी के तबाह होने का?
क्यों हम एक ट्रैफिक हवलदार को रिश्वत देते हुए यह नहीं सोचते कि हम महिलाओं की, बच्चों की, बुजुर्गों की सुरक्षा देने वाले सिस्टम को प्रदूषित कर रहे हैं. क्यों एक बेबस रेहड़ी वाले, छोले कूलचे बेचकर अपने परिवार का पेट पालने वाले, सड़क किनारे सब्जी बेचने वाले से पुलिसवालों को रिश्वत लेते देखकर हमारे मन में यह ख्याल नहीं आता कि इन पुलिसवालों का काम रिश्वत लेना नहीं, समाज को सुरक्षित रखना है?
सड़क पर चलते हैं और पुलिसवालों को वसूली करते नहीं देखा? दोबारा सोचिए जनाब, या तो आप झूठ बोल रहे हैं या फिर भारत नहीं किसी और मुल्क की सड़कों पर चलते हैं. कितनी बार आपने वसूली रोकने की कोशिश की. अंतिम बार कब था जब आपके मन में ख्याल आया कि सिस्टम प्रदूषित हो रहा है. और क्या कभी ऐसा हुआ कि आपने अपने इस विचार पर दोबारा सोचा हो और कुछ किया हो?
अच्छा सड़कछाप बातें छोड़िए. आप तो हाई क्लास सिटिजन हैं. आपसे आपके स्तर की बात करते हैं. कभी कनॉट प्लेस या फिर प्रगति मैदान ट्रेड फेयर गए हैं? तो आईसक्रीम तो खाई होगी. कभी रेट पर गौर किया है?
20 रुपये की आईसक्रीम 25 में मिलती है और 25 वाली 30 में. कभी पूछिएगा. आइस्क्रीम बेचने वाला बताएगा कि हर आइस्क्रीम का रेट 5 रुपये महंगा क्यों हैं? वो बताएगा कि गश्त करके महिलाओं को सुरक्षित महसूस करवाने वाली पीसीआर वैन की असल ड्यूटी क्या है. वो आपको बताएगा कि संसद में जब गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे पीसीआर की गश्त बढ़ाने की बात कर रहे थे तो उनका असल मतलब महिलाओं को सुरक्षित महसूस कराना नहीं बल्कि अधिक वसूली करने की मंजूरी देना था.
और देखिए अपने पत्रकार साथियों को, कैसे इनका गला रूंध गया है. छात्रा के रेप के बाद आधी रात को सड़कों पर उतर आए हैं हकीकत जानने के लिए. जैसे कभी इन्होंने अपने दफ्तर के नीचे गोलगप्पे बेचने वाले बच्चे से हफ्ता वसूलते पुलिसवालों को कभी देखा ही नहीं. कितनी मासूमियत से ये सिस्टम की वो हकीकत खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसे इनकी आंखें हर दिन अनदेखा करती हैं.
चलिए छोड़िए ये बेकार की बातें. सिस्टम पर अपना फ्रस्ट्रेशन निकालते हैं. एक दो कैंडल हाथ में थामते हैं. मार्च निकालते हैं. और अब तो नारेबाजी की भी दो साल की प्रेक्टिस हो गई है. हल्लाबोल करते हैं. सड़क संसद को हिलाते हैं. अगर पांच रुपये महंगी आइस्क्रीम खा सकते हैं, 100 रुपये ट्रैफिक हवलदार को थमा सकते हैं तो फिर 2 रुपये की कैंडिल तो खरीद ही सकते हैं. और अगर यह भी नहीं कर सके तो फिर फेसबुक-ट्विटर तो है ही, संवेदनशीलता के फूहड़ प्रदर्शन के लिए…
वैसे अगर दिखावे से परे आप कुछ करना चाहते हैं तो प्रतिरोध कीजिए लेकिन सिर्फ शब्दों से नहीं. रिश्वत लेते सिपाही को टोकिए. वसूली करते अफसर पर सवाल उठाइये. पूछिए कि अवैध बसें कैसे चल रही हैं. ऑटो वाला अधिक किराया मांगे तो 100 नंबर पर कॉल कीजिए क्योंकि कैंडल मार्च निकालकर आप किसी की जिम्मेदारी तय नहीं कर सकते. शिकायत करके, टोक कर, सबूत जुटा कर सकते हैं. और यकीन जानिए. जिस दिन पुलिस अपना काम करने लगी उस दिन किसी की हिम्मत नहीं होगी जो किसी बहन, बेटी या बहू पर नज़र टेढ़ी कर सके. लेकिन क्या हम यह लांग टर्म उपाय अपनाने के लिए तैयार हैं? जब प्रदर्शन के शॉर्टकट से काम चल रहा है तो क्या हम शिकायत करने, गलत को गलत कहने, वसूली रोकने का जोखिम उठा पाएंगे?
~दिलनवाज पाशा

Tuesday, December 04, 2012

मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको




आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा, 'काका, तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िंदा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें'

बोला कृष्ना से - 'बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से'

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर
देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर

'क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
न पुट्ठे पे हाथ रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी'

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी सँभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
'जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर
इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर, 'माल वो चोरी का तूने क्या किया?'

'कैसी चोरी माल कैसा?' उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

'कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं'

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल-से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, 'इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'

इक सिपाही ने कहा, 'साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें'

बोला थानेदार, 'मुर्गे की तरह मत बाँग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टाँग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है'

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
'कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल'

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म, संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए


~अदम गोंडवी