Tuesday, November 30, 2010

दुर्लभ मौका आपने गवाँ दिया न्यायाधीष महोदय!


तो अलगू चैधरी और जुम्मन शेख वाली प्रेमचन्द की कहानी-‘पंच-परमेश्वर’ बच्चों को पाठ्यक्रम में पढ़ाने का अधिकार हमने खो दिया। कम से कम नैतिक अधिकार तो खो दिया। लेकिन यह मामला सिर्फ प्रेमचन्द या उनकी एक कहानी भर का नहीं है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने उनका उपन्यास ही हटा दिया था, यह तो सिर्फ एक कहानी भर है। लेकिन यह मसला इसलिए बड़ा है कि यहाँ कहानी या उपन्यास हटाने के बजाय जीवन मूल्यों में से एक मूल्य बदल दिया गया है। हो सकता है कभी इस अदालत पर एक कहानी की हत्या का मुकदमा दायर हो।

अयोध्या का फैसला, न्याय की थोड़ी-बहुत उम्मीद रखने वाले पूरे समाज के साथ किया गया धोखा है। हालाँकि इसमें कोई नई बात नहीं है। हमारे देश की हजारों अदालतों में लाखों लोग रोज अन्याय के शिकार होते हैं। बहुत से तो अपने साथ हुए अन्याय का कारण ही नहीं जानते। अपनी गरीबी, साधनहीनता, दुत्कार, घिसटते हुए जीवन और इलाज के अभाव से लेकर किसी भी वजह या बेवजह होने वाली मौत तक को वे विधाता का खेल और अपना दुर्भाग्य मानकर रो-धोकर वापस जिन्दगी में खप जाते हैं- अपनी बारी का इंतजार करते हुए। वे विश्व बैंक या अमेरिका या अपने वित्त मंत्री, स्वास्थ्य मंत्री के खिलाफ कभी अदालत नहीं जाते। ये तो बड़े ओहदेदार हुए, दरअसल तो वे कभी अपने सरपंच, पटवारी, दारोगा या क्लर्क के खिलाफ भी नहीं जाते।

जो थोड़े से अदालत की सीढ़ी चढ़ पाते हैं, वे थोड़े भी लाखों या करोड़ों में होते हैं, उनमें भी अधिकतर को न्याय नहीं मिलता। पहले चप्पलें घिसती हैं, फिर जिन्दगी ही घिस जाती है। जिन थोड़े से लोगों को अदालत से फैसला मिलता भी है, उनमें भी न्याय सबको मिलता हो, ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह हमारे आजाद देश की पवित्र कही जाने वाली न्याय प्रणाली ने हमें नहीं दी है।

न्याय व्यवस्था की दुरवस्था पर खुद बहुत से ईमानदार न्यायविद् लिख-कह चुके हैं और जिनका साबका जिंदगी में कभी भी कोर्ट-कचहरी से पड़ा है, उनमें से अधिकांश फिर वहाँ नहीं जाना चाहते। इस सबके बावजूद हमारे देश के सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी वर्गों के लोग आश्चर्यजनक संयम के साथ आजादी के बाद से अब तक मोटे तौर पर न्यायालय का सम्मान करते आए हैं- दाग़ी वकीलों की लूट-खसोट और न्यायाधीशों के बारे में जब-तब उछलते रहे भ्रष्टाचारों के बावजूद।

तो फिर अयोध्या के फैसले में ऐसा क्या है जिससे कि हमारे सहनशील नागरिकों की न्यायालय के प्रति आस्था को धक्का लगे? क्यों नहीं यह भी न्याय के नाम पर न्याय को लगातार स्थगित करती रहती, या फिर अन्याय का ही पक्ष ले लेती भारतीय न्याय व्यवस्था का एक और सामान्य कारनामा मान लिया जाए?

अयोध्या का फैसला या वृहद् जन समुदाय के मन-मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए अन्य मामले इसलिए अलग हैं क्योंकि ये एक सार्वजनिक मान्यता का निर्माण करते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर न्याय व्यवस्था की खामियों का शिकार होने के बावजूद लोग न्याय की उम्मीद इसलिए रखे रहते हैं क्योंकि बहुतों का होने के बावजूद न्याय के नाम पर अन्याय हासिल होने का उनका तजुर्बा उनका व्यक्तिगत तजुर्बा ही बना रहता है, वह सार्वजनिक नहीं हो पाता। जबकि अयोध्या जैसे मामले, जिनकी तरफ सारे देश की निगाहें लगी होती हैं, वे एक नज़ीर कायम करते हैं, वे जीवन के मूल्य तय करते हैं।

अयोध्या के फैसले में वह ताकत थी कि वह देश में मज़हब के नाम पर होने वाली राजनीति को करारा तमाचा मारता और एक नज़ीर कायम करता। भले बाद में मस्जिद बनती या मंदिर रहता या मामला सुप्रीम कोर्ट में लटका रहता, लेकिन बाद की पीढ़ियों तक के लिए एक जीवन मूल्य बनता कि न्याय ने सत्ता की खरीदी बाँदी होने से इन्कार कर दिया।

बहरहाल, जैसे कवि चन्द्रकान्त देवताले ने वैज्ञानिक अब्दुल कलाम को लिखी अपनी कविता में लिखा था कि उन्होंने भाजपा द्वारा परोसा गया राष्ट्रपति पद स्वीकार करके साम्प्रदायिक शक्तियों को लज्जित करने का दुर्लभ मौका गवाँ दिया, वैसे ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने भी यह दुर्लभ मौका गवाँ दिया, जो लाखों-करोड़ों में से किसी एक को जिन्दगी में सिर्फ एक बार बमुश्किल मिलता है।

देश के करोड़ों बगैर पढ़े-लिखे और पढ़े-लिखे लोग यही समझेंगे कि जरूर रामलला का जन्म वहीं हुआ होगा, जहाँ बाबर ने मंदिर ढहाकर मस्जिद बनाई तभी तो अदालत ने ऐसा फैसला दिया। उनमें वे भी होंगे जो बखूबी जानते हैं कि अदालतों के दिए फैसलों के आधार पर सच और झूठ की पहचान बहुत मुश्किल हो चुकी है। फिर भी वे इस फैसले को सच का फैसला मानेंगे क्योंकि एक तो इत्तफाकन वे धर्म से हिन्दू होंगे और दूसरे, वे लगातार दो दशकों से फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक ज़हर के जाने-अनजाने शिकार बन चुके होंगे। तजुर्बों से सीखे लोग नई पीढ़ी को ये नसीहत देना बंद कर देंगे कि ‘‘सच्चाई की आखिरकार जीत होती है।’’

राजनैतिक हित में विज्ञान की चाकरी

एक जमाने में कवि, शायर, ऋषि-महर्षि और मनीषी राजा की पसंद-नापसंद का ख़याल न करते हुए वही कहते थे जो उन्हें सही लगता था। खरा सच कहने से जिनकी जान पर ही बन आई, वे तो थे ही, लेकिन इतिहास में ऐसे नाम भी कम नहीं जिन्होंने भले घुमा-फिराकर, इशारों में सच कहा हो लेकिन राजा की मर्जी की वजह से झूठ तो नहीं कहा। अब बाजार के दौर में अनेक इतिहासकारों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों ने अपने पाले बदल लिए। इस फेहरिस्त में अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी जुड़ गया। खुदाई के दौरान प्राप्त हुईं जानवरों की हड्डियाँ, मुस्लिम शासकों के काल में इमारत निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सुर्खी और चूने के मसाले की मौजूदगी आदि अनेक तथ्य जो वहाँ कभी भी, किसी भी तरह के मंदिर की मौजूदगी के विरोधी सबूत थे, पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट में उपेक्षित कर दिए गए। पुरातत्व विभाग तो इस हद तक ही गया था कि एक निराधार ‘स्तंभ आधार वाली संरचना’ को उसने मंदिर होने की संभावना के रूप में पेश किया और ऐसे सारे सबूतों की ओर से आँखें मूँद लीं जो वहाँ मुगल कालीन निर्माण की ओर संकेत करते थे। लेकिन न्यायालय ने तो उससे कहीं आगे जाकर न केवल यह फैसला दे डाला कि वहाँ मंदिर था, बल्कि यह भी कि रामलला का जन्म भी वहीं हुआ था। राम के मिथकीय चरित्र को न्यायालय ने इतनी विश्वसनीयता व सहजता से स्वीकार कर लिया मानो उन्हें प्रसव कराने वाली दाई का शपथपत्र ही हासिल हो गया हो।

मैं इस लेख में उन ब्यौरों को नहीं दोहराऊँगा जो इसी अंक में अन्यत्र विस्तार से दिए जा रहे हैं। डी0 मंडल, सूरजभान और सीताराम राॅय जैसे ख्यातिप्राप्त पुरातत्ववेत्ता और रामशरण शर्मा, इरफान हबीब, के0एन0 पणिक्कर, के0एम0 श्रीमाली आदि अनेक इतिहासकारों ने अदालत में पेश की गई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की अयोध्या खुदाई की उस रिपोर्ट की इरादतन शरारतों और तथ्यों से खिलवाड़ करने का खुलासा किया है जिसकी बिना पर अदालत ने अयोध्या के विवादित स्थल को राम की जन्मभूमि घोषित कर दिया। यहाँ मैं पुरातत्व विज्ञान की उन बारीकियों या फिर कानून की उन उलझी हुई धाराओं में भी नहीं जाऊँगा जिनका परदा बनाकर इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश की गई है।

हाँ, पुरातत्व-विज्ञान और कानून की तरफ मेरे कुछ आम समझदारी के सवाल जरूर हैं जो मेरे ख़याल से इस मुद्दे के केन्द्र में रखे जाने चाहिए। सवाल यह है कि अगर कल कोई यह दावा करता है कि विवादित स्थल की जिस गहराई तक खुदाई हुई है, उससे और चंद फीट नीचे जैन मंदिर या बौद्ध स्तूप था तो क्या अदालत फिर से खुदाई करवाएगी? और चूँकि मौजूदा खुदाई में भी यह तथ्य तो सामने आया ही है कि अयोध्या के विवादित ढाँचे की कुछ विशेषताएँ सारनाथ के स्तूप से समानताएँ दर्शाती हैं और कुछ असमानताएँ, तो क्या कल हम फिर बौद्धों और हिन्दुओं में संघर्ष की जमीन तैयार होती नहीं देख रहे हैं? और फिर उस जमीन के नीचे से और कितने रक्तरंजित सामुदायिक संघर्षों के बीज निकलेंगे, इसकी कल्पना भी भयानक है।

आशय यह नहीं है कि हम इतिहास पर खाक डालें और अपने वर्तमान को मानवता और सौहार्द्रता से परिपूर्ण कर लें। इतिहास की ओर से आँखें मूँदकर कोई समाज न आगे बढ़ पाया है और न अपने आज का सामना कर पाया है। लेकिन इतिहास की तरफ किस नजरिये से, किस उद्देश्य से देखा जाए, इसकी समझदारी तो हमें बनानी होगी। हम पुराने वक्त को समझकर वहाँ से विवादों और नफरतों का वर्तमान में आयात करना चाहते हैं, या क्या हम वापस पुराने दौर में लौटकर अपनी पराजयों का फैसला पलटना चाहते हैं? या फिर हम अपने समाज के अतीत को विकास प्रक्रिया समझने का एक औजार बनाकर अतीत की वैमनस्यताओं और गलतियों से मुक्त कर इस धरती को जीने के लिए एक बेहतर जगह बनाना चाहते हैं?

जाहिर है कि अयोध्या के विवाद को उभारने के पीछे सदाशयताएँ या इतिहास के विवेचन की विशुद्ध वैज्ञानिक उत्सुक दृष्टि नहीं बल्कि संकीर्ण राजनीति का मुनाफाखोर नजरिया काम कर रहा है। अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले ने एक ऐसी जमीन तैयार करने में मदद की है जिस पर सिर्फ खून की सिंचाई होगी और नफरत की फसल उगेगी।

इसी तरह कानून का भी संक्षिप्त जायजा लें तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजेन्दर सच्चर की कुछ बातों का इस सिलसिले में उल्लेख जरुरी और अहम है। सच्चर साहब के मुताबिक लाहौर की मस्जिद शहीदगंज के मामले में 1940 में हुआ यूँ था कि वहाँ सन् 1722 तक एक मस्जिद थी। बाद में वहाँ सिखों की हुकूमत कायम हो जाने के बाद उस जगह का इस्तेमाल 1762 आते-आते गुरुद्वारे के तौर पर होने लगा। सन् 1935 में उस इमारत पर एक मुकदमा कायम हुआ कि उस जगह पर चूँकि एक मस्जिद थी इसलिए उसे मुस्लिमों को लौटा दिया जाए। मामले पर फैसला देते हुए सन् 1940 में प्रीवी कौंसिल ने कहा कि लोगों की धार्मिक भावनाओं के साथ पूरी सहानुभूति होते हुए भी चूँकि वह इमारत 12 वर्षों से अधिक समय से सिखों के कब्जे में है अतः लिमिटेशन एक्ट के तहत इसका अधिकार मुस्लिमों को नहीं दिया जा सकता।

जिस दूसरे पहलू की ओर सच्चर साहब ने इशारा किया है वह यह कि जब तक अयोध्या-बाबरी मामला कोर्ट में था तब तक एक पक्ष उस जगह पर कब्जा नहीं कर सकता। इस लिहाज से हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा मस्जिद को ढहा दिए जाने से उनका कानूनी दावा कायदे से खत्म हो जाना चाहिए।

फैसले के पहले की उम्मीदें

यह फैसला आने के बाद कई तरह की प्रतिक्रियाएँ आई हैं। फैसले के पहले तक आम लोगों की चर्चाओं में तोड़ी गई बाबरी मस्जिद का क्या होना चाहिए, इस पर अलग-अलग राय रहती थी। उग्र हिन्दुत्व के पैरोकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर सयाने किस्म के लोग, जो हिन्दू भी थे और मुसलमान भी, सोचते थे कि वहाँ कुछ राष्ट्रीय स्मारक या सार्वजनिक उद्यान या खैराती अस्पताल या सर्वधर्म समभाव का एक केन्द्र या ऐसा कुछ बना देना चाहिए ताकि देश के किसी भी तबके का उससे कोई धार्मिक भावना आधारित जुड़ाव न रहे और एक राष्ट्रीय भावना के तहत उसे देखा जाए। कुछ लोग तो उस स्थान पर गरीबों के लिए मुफ्त सुलभ शौचालय बनाने जैसे मशविरे के भी हक में थे। पहली नजर में धर्मनिरपेक्ष और भेदभावरहित लगते ये मशविरे दरअसल साम्प्रदायिक हिंसा से भयभीत समाज की वह प्रतिक्रिया थी जिसमें वह राष्ट्रवाद का सुरक्षित कवच ढँूढ़ रहा था। बेशक अगर ऐसा कोई फैसला किया जाता तो वह देश के करोड़ों मुसलमानों की भावनाओं के साथ न्याय नहीं कहा जा सकता था, लेकिन शायद फिर भी वह साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों के खिलाफ एक प्रगतिशील फैसला होता। कम से कम वह इस देश के अल्पसंख्यकों को यह भरोसा तो दे सकता था कि न्याय व्यवस्था भले उनके साथ न्याय न कर पाई हो लेकिन उसने हत्यारे हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकों का पक्ष तो नहीं लिया।

तात्कालिक शान्ति से ज्यादा जो देश में न्याय और धर्मनिरपेक्षता के भविष्य के प्रति चिंतित लोग थे, उनका स्पष्ट मानना था कि चाहे कितनी ही सख्ती से पेश आना पड़े, साम्प्रदायिक ताकतों को यह स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि इस देश में यह राजनीति बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उनका मत था कि मस्जिद की जगह पहले मस्जिद बने, जिन्होंने उसे तोड़ा और तोड़ने के लिए उकसाया, उन्हें उसकी सजा मिले, उसके बाद दोनों समुदायों के भीतर आम लोगों का मेलजोल बढ़ाया जाए और अगर सामुदायिक सहमति से कोई और रास्ता निकलता है तो उसकी तरफ समझबूझ कर आगे बढ़ा जाए।

यह न्याय का रास्ता था। अगर यह फैसला होता तो यह हर किस्म की फिरकापरस्त ताकतों को एक साफ इशारा होता। इससे हिन्दू, मुसलमान और हर समुदाय के भीतर उदार और इंसाफपसंद ताकतों को इज्जत मिलती। बाबरी मस्जिद के फैसले से कई टूटी चीजों को इतनी मजबूती से जोड़ा जा सकता था कि जो दरार 1992 में मस्जिद गिराकर चैड़ी की गई थी और जिसमें 2002 में गुजरात में खून उड़ेला गया था, वह भरनी शुरु हो जाती।

लेकिन यह साहस और जोखिम का रास्ता था। ऐसा जोखिम नोआखली और बँटवारे के दौरान गांधीजी ने उठाया था और अपनी जान देकर भी धर्मनिरपेक्षता का एक मूल्य बनाया था। साहस नैतिकता से पैदा होता है। शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम तुष्टीकरण करके, अयोध्या के मंदिर के ताले खुलवाकर और फिर उसके जवाब में रथयात्राओं व सरकार की शह पर मस्जिद तुड़वाकर जिस तरह की राजनीति आगे बढ़ी, उससे इस नैतिकता की उम्मीद करना मुश्किल है।

वास्तविक राजनीति को और उसके बदलावों को करीब से देख-परख रहे इंसाफ तलब लोगों को इलाहाबाद न्यायालय के फैसले से ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं। उनका मानना था कि पुरातत्व विभाग द्वारा 2002-03 में करवाई गई खुदाई और उसे साजिशाना तरीके से उलटने-पलटने का जो रास्ता भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने चुना था, काँग्रेस की सरकार कल्पनाशील और मौलिक तरह से कुछ बदलाव भले करे लेकिन वह भी न्याय के रास्ते पर चलने का जोखिम उठानेवाली नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यह होता कि तारीखें आगे खिसकती रहतीं और फिर यह सिरदर्द नई सरकार के माथे पर मढ़ दिया जाता। जो जनपक्षीय ताकतें कुछ कर सकती थीं, वे साम्प्रदायिकता के साथ जुड़ी राजनीति के घृणित चेहरे को बेनकाब करने का काम करने में जुटी रहीं और जुटी हुई हैं लेकिन संगठित राजनैतिक प्रयासों के सामने ये कोशिशें, कम से कम अब तक तो बेहद नाकाफी साबित हुई हैं।

फैसले के बाद

फैसले के बाद कुछ ने तो चैन की साँस ली कि चलो फिर से दंगा नहीं हुआ। कुछ ने न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता को भी सराहा कि उन्होंने कितना अच्छा फैसला किया कि सबको कुछ-कुछ मिल गया। फैसले के बाद रही शांति को भी लोगों ने अलग-अलग नजरिए से देखा। कुछ ने इसे भारतीय जनता और समाज की गहरी सौहार्द्रता और समझदारी बताया कि सबकुछ शांति से निपट गया। कुछ ने यहाँ तक भी दावा किया कि भारत की आम जनता ने साम्प्रदायिकता को नकार दिया है। चैनलों और अखबारों ने फैसला आने के पहले से लेकर फैसला आने के बाद तक विशेष प्रस्तुतियाँ दीं। युवाओं से उनकी राय ली गई और जब उन्होंने कहा कि उनकी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं है तो उसका अर्थ यह भी निकाला गया कि देखिए, आज का युवा कितना समझदार है, जो इन फालतू मामलों में दिलचस्पी नहीं ले रहा है।

इस तरह की थकी हुई प्रतिक्रियाएँ दुखी करती हैं। लेकिन गनीमत है कि सब ऐसा नहीं सोचते। मुल्क की राजनीति, नौकरशाही, फौज और अब न्यायालय तक में फैलाए जा चुके साम्प्रदायिक ज़हर के सामने सभी ने हथियार नहीं डाल दिए हैं। कुछ हैं, और वे कुछ भी बहुत हैं, जो भरपूर साहस और जोखिम के साथ भाजपा और आर0एस0एस0 की ही नहीं बल्कि काँग्रेस और बाकी राजनैतिक-सामाजिक समूहों की साम्प्रदायिक साजिशों से मोर्चा ले रहे हैं।

मीडिया के लिए अयोध्या का फैसला एक सनसनीखे़ज फ़ैसला था जो इरादतन या गैर इरादतन काॅमनवेल्थ खेलों के आसपास हुआ। काॅमनवेल्थ खेलों में हुए भ्रष्टाचार की आँच देशभर में महसूस की जाने लगी थी और अगर उसी वक्त अयोध्या का मुद्दा ध्यान न भटका देता तो दिल्ली में बैठी सरकार को अपने कुछ सिपहसालारों और अफसरों से हाथ तो धोना ही पड़ता और इज्जत तब भी न बचती। ऐसे में अयोध्या का फैसला आना फौरी तौर पर इस शिकंजे से निजात पाने का अच्छा बहाना बना और अयोध्या मामले में न्यायपालिका ने जो कारगुजारियाँ की थीं, उन पर जनता का ध्यान जा सके और वह मुद्दा आगे बढ़ सके, उसके पहले ही सारे देश को राष्ट्रमंडल खेलों ने फिर राष्ट्रीयता के बुखार में जकड़ दिया। मीडिया सब भूल गया और स्वर्ण पदकों के यशोगान में लग गया। वह बुखार अरुंधति राॅय के कश्मीर पर दिए बयान से और बढ़ गया, जो आखिर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा जय हिन्द कह दिए जाने से आसमान पर चढ़ गया। बस दो महीनों के भीतर राष्ट्रीय महत्त्व के प्रमुख मसलों को कैसे एक-दूसरे को काटने के लिए इस्तेमाल किया गया, यह अवसरवादी राजनीति की काबिलियत का एक नमूना भर है।

इसी तरह लोगों की शांति या युवाओं की निस्संगता को समाज की सहिष्णुता और समझदारी समझना एक गलती होगी। आर्थिक रूप से निचले तबके के अधिकतर मुसलमानों के मन में इस फैसले से भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में उनकी राय पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वे देश के अपनी तरह के हिन्दुओं की ही तरह पहले से ही न्याय व्यवस्था के बारे में कोई अच्छी राय नहीं रखते हो सकते। पिछले कुछ वर्षों में उनके साथ भारतीय राज्य द्वारा, और आमतौर पर भी जो अपमानजनक सुलूक कभी सिमी तो कभी पाकिस्तान परस्ती के बहानों के साथ बढ़ता रहा है, उसका दंश कुछ और गहरा हो जाएगा। इसी अपमान के साथ भीतर ही भीतर वे सुलगते रहते हैं और फिर मुस्लिमों के भीतर मौजूद फिरकापरस्त ताकतें उस गुस्से को ही हथियार बनाती हैं। हिन्दुओं के भीतर मौजूद साम्प्रदायिक ताकतें बेरोजगार या गरीब नौजवान हिन्दुओं को एक छद्म राष्ट्रीय गौरव के अलौकिक और सत्ता सामीप्य के अवसरों के लाभों के लौकिक आधारों पर नचवाती हैं।

मध्यमवर्गीय हिन्दू किसी तरह का नुकसान न होने से प्रसन्न है और मध्यमवर्गीय मुस्लिम भी। लेकिन इस फैसले ने एक मध्यमवर्गीय नागरिक की पहचान को उसके भीतर सिकोड़ दिया है और एक सहमे मुस्लिम की पहचान को गहरा कर दिया है। इस फैसले ने उसे इस देश का नागरिक होने की बनिस्बत इस देश का सहमा हुआ मुसलमान बना दिया है। जिस देश में वह पीढ़ियों से बराबरी की हैसियत से रहा, वहाँ उसका मन यह स्वीकारने को तैयार होने लगा है कि भारत में उसकी स्थिति दोयम दर्जे की रहने वाली है। आर्थिक रूप से भले वह बेहतर स्थिति में हो लेकिन सामाजिक अलगाव उसे धीरे-धीरे अपनी तरह के सहमे और क्षुब्ध लोगों के पास ले जाएगा। अधिकांश मध्यमवर्गीय मुस्लिम नौजवान या तो औरों की तरह ही किसी तरह अपने से और ऊँचे वर्ग में शामिल होने के कैरियर युद्ध में शामिल हैं, या फिर वे एक सही मौका तलाश कर देश के बाहर अमेरिका या यूरोप या खाड़ी के देशों में ही कहीं चले जाना चाहते हैं ताकि हिन्दुस्तान में रहते हुए उन्हें अपनी दूसरे दर्जे की पहचान बार-बार याद न आए।

मुस्लिम समुदाय के भीतर एक और समस्याजनक स्थिति यह है कि कई दशकों से इसके पास कोई प्रगतिशील नेतृत्व गैरमौजूद है। मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी व्यापक सामुदायिक व अन्य समुदायों में स्वीकृति हो, जो सत्ता के स्वार्थों का मोहरा न हो और जो कठमुल्लावाद को चुनौती दे सके। ऐसे में मुस्लिम समुदाय एक तरफ हिन्दू सम्प्रदायवादियों से और दूसरी तरफ शहाबुद्दीन या शाही इमाम जैसे प्रतिक्रियावादी स्वार्थी राजनैतिक तत्वों के बीच फँसा हुआ है। एक तरफ बदहाली और फौजी ज्यादतियों के खिलाफ कश्मीर में किए जाने वाले उसके संघर्ष को मुस्लिम आतंकवाद का लेबल चस्पा करके पेश किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मजबूर है कि वह हिंदुस्तान के प्रति हिंदुओं से भी ज्यादा वफादार दिखायी दे।

फैसले के असर और आगे की तैयारी

इस फैसले का असर तो सब पर पड़ रहा है चाहे कोई उसे तत्काल महसूस करे या बाद में। किसी भी तरह के व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलन के अभाव में मुस्लिमों के पास यह गुंजाइश भी कम है कि वे किसी तरह अपने मजहबी खोल से बाहर आकर देश के दीगर परेशानहाल तबकों के साथ किसी संघर्ष का हिस्सा बनें। मुस्लिम समुदाय के अलावा यह फैसला हम जैसों को भी बहुत क्षुब्ध करने वाला है जो इस देश में अपने-अपने स्तर पर छोटे-छोटे समूहों, संस्थाओं या मुट्ठीभर लोगों के आंदोलनों से साम्प्रदायिक फासीवाद के उभार को रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं। भले इससे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की हिफाजत में लगे लोगों के हौसले कमजोर नहीं होते हों लेकिन ऐसे हर फैसले से साम्प्रदायिकता की आँच में झुलस चुके और झुलस रहे लोगों का धर्मनिरपेक्षता और अमन की कोशिशों पर भरोसा कमजोर होता है।

जो फैसला आया है, वह जमीन तो बेशक तीन हिस्सों में बाँटता है लेकिन भरोसा सिर्फ हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों को देता है। वह 1949 में बाबरी मस्जिद के भीतर जबर्दस्ती रखी गई मूर्तियों को उनके सही स्थान पर प्रतिष्ठित करना ठीक मानता है और 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने में कोई हर्ज नहीं देखता। इस तरह यह फैसला भले जमीन का तीसरा हिस्सा मुस्लिम वक्फ बोर्ड को दे देता हो लेकिन हौसला वह साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादियों का बढ़ाता है। दरअसल यह फैसला एक तरह से इस देश के छलनी भविष्य की बुनियाद डालता है जहाँ अतीत वर्तमान को इंच-इंच खोदकर लहूलुहान कर सकता है। अयोध्या का फैसला अगर बदला नहीं गया तो केवल काशी-मथुरा या धार (मध्य प्रदेश) ही नहीं, हर शहर और हर मुहल्ले के मंदिर-मस्जिद खुदने शुरु हो सकते हैं। इस देश का इतिहास इतना पुराना है कि कोई ठिकाना नहीं कि किसके कितने गड़े मुर्दे कहाँ-कहाँ निकलेंगे।

यह तय है कि न्याय के नाम पर अन्याय करने वाले इतनी आसानी से इसलिए भी अन्याय कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें न अपने खिलाफ लगने वाले इल्जामों की परवाह है और न ही किसी जबर्दस्त विरोध की आशंका। वक्फ बोर्ड या सुप्रीम कोर्ट क्या करता है, इस बारे में न तो कुछ कहा जा सकता है और न ही उनसे उम्मीदें लगाकर खामोश बैठा जा सकता है। मसला कानूनी है और अदालती कार्रवाई चलनी ही चाहिए और वह भी इस तरह कि देश के लोगों तक भी ये तथ्य पहुँच सकें कि किस तरह न्यायाधीशों ने तथ्यों का मनचाहा निरूपण करके कानून का मखौल उड़ाया है।

लेकिन यह मसला सिर्फ कानूनी कार्रवाई करने से नहीं सुलझने वाला। जो राजनैतिक दल इस फैसले को संविधान की कब्र मानते हैं उन्हें तमाम मतभेदों के लिए अलग गुंजाइश रखते हुए इस मसले पर साझा रणनीति बनानी जरूरी है। इस रणनीति में केवल संसद के भीतर की जाने वाली बहस ही नहीं बल्कि अपने-अपने जनाधारों के भीतर इस मसले पर लोगों के दिमाग साफ करने की अनिवार्य कार्ययोजना होनी चाहिए। ट्रेड यूनियन, विद्यार्थी व युवा मोर्चे, महिला संगठन व सांस्कृतिक संगठनों को एक समन्वित योजना बनानी होगी।

राजनैतिक दलों के साथ ही अन्य जनतांत्रिक संगठनों को भी इस मसले की गंभीरता समझते हुए अपने मुद्दों की सीमा रेखा पार कर आगे आना होगा। देश की अमेरिकापरस्त ग्लोबलाइजेशन की नीतियों की वजह से शहरों में और गाँवों में हर जगह मजलूमों की, गरीबों की तादाद बढ़ रही है। बाँध विस्थापित हों या दलित या छोटे किसान या महिलाएँ या आदिवासी, सभी व्यवस्था से पीड़ित लोग आज अनेक छोटे-बड़े आंदोलनों की शक्ल में भारतीय राज्य के सामने सवाल उठा रहे हैं। संघर्षों ने इन आंदोलनकारियों को जनवादी और प्रगतिशील बनाया है। इनके बीच भी इस मसले को ले जाने और उन्हें इस मामले में शिक्षित करने की जरूरत है।

रास्ते और भी तमाम हो सकते हैं लेकिन देश में धर्मनिपेक्षता का विकल्प कोई नहीं हो सकता। समाजवाद तो हम बना नहीं पाए, जैसे तैसे यह ही एक उपलब्धि हमारी बची रही है कि हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हैं। अब इसे भी नहीं बचा सके तो हम स्वार्थी सत्ता द्वारा जल्द ही बर्बर युग में फेंक दिए जाएँगे।



-विनीत तिवारी
(लेखक सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
मोबाइल-09893192740

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हर साल शस्त्रापूजन गैर कानुनी व देशविरोधी नही है ???

कुछ सालों से कुछ सालों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता बाकायदा बन्दूकों, राइफलों एवम तलवारों को लेकर सड़कों पर निकलते रहते हैं। और कई स्थानों पर हवा में फायर करके समूचे वातावरण को भी आतंकित करते रहते हैं। ध्यान रहे कि शस्त्रापूजन की इस विधि का कहीं धार्मिक आधार नहीं है और न खतरनाक हथियारों को लेकर मार्च निकालने को कहीं से धार्मिक कहा जा सकता है। के कार्यकर्ता बाकायदा बन्दूकों, राइफलों एवम तलवारों को लेकर सड़कों पर निकलते रहते हैं। और कई स्थानों पर हवा में फायर करके समूचे वातावरण को भी आतंकित करते रहते हैं। ध्यान रहे कि शस्त्रापूजन की इस विधि का कहीं धार्मिक आधार नहीं है और न खतरनाक हथियारों को लेकर मार्च निकालने को कहीं से धार्मिक कहा जा सकता है। मुमकिन है कि देश के किसी कोने में सामाजिक परम्परा की तरह यह सिलसिला चलता आ रहा हो, जिस पर धार्मिकता की मुहर हिन्दुत्ववादी संगठनों की तरफ से लगायी गयी है। विडम्बना ही कही जाएगी कि पुलिस भी अपनी तरफ से इस मामले में कोई सक्रियता नहीं दिखाती और मीडियावाले भी खामोशी ही बरतते हैं।

याद रहे कि पिछले साल का ‘शस्त्रापूजन’ का यह कार्यक्रम भोपाल के कमला नगर इलाके में बने सरस्वती बाल मन्दिर जैसे बच्चों के स्कूल में हुए शस्त्रापूजन और इसी दौरान नरेन्द्र मोटवानी नाम से 50 साल उम्र के संघ के कार्यकर्ता की वहीं गोली लग कर हुई ठौर मौत से अधिक विवादास्पद बना था। (28 सितम्बर 2009) मालूम हो कि संघ के इस कार्यकर्ता की वहीं सरेआम दूसरे कार्यकर्ता की गोली से हुई मौत को ‘आत्महत्या’ साबित करने की उसके अपनों ने ही कोशिश की थी। नरेन्द्र मोटवानी के अन्तिम संस्कार में हाजिर संघ के एक अन्य वरिष्ठ ‘जीवनदानी’ कार्यकर्ता ने भी इसी बात को दोहराया था। इतनाही नहीं श्यामलाल गुर्जर नामक जिस दूसरे कार्यकर्ता की पिस्तौल की गोली से मोटवानी मारे गए थे, उसे वहीं से हथियार के साथ भगाने में उन लोगों ने ही मदद की थी। अगर मोटवानी के परिवार के लोगों ने दबाव नहीं बनाया होता और मीडिया के एक हिस्से द्वारा सक्रियता नहीं बरती गयी होती, तो इस अस्वाभाविक मौत का किस्सा अब तक दफन हो चुका होता। आज भी मोटवानी परिवार का यही कहना है कि उनकी हत्या हुई है।

घटनाा के पांच दिन बाद जब संघ का भगौडा कार्यकर्ता श्यामलाल गुर्जर पुलिस के हत्थे चढ़ा तो शस्त्रापूजन कार्यक्रम का दूसरा घिनौना पहलू सामने आया। जब उसे पूछा गया कि उसके पास 9 एमएम की पिस्तौल कहां से आयी, तब उसने कहा कि वह जब भोपाल से लगभग पचास किलोमीटर दूर सलकानपुर से लौट रहा था तब उसे जंगल में पड़ी मिली थी। गुर्जर का यह वक्तव्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित इस शस्त्रापूजन एवम पथसंचलन के बारे में एक और असुविधाजनक प्रश्न खड़ा करता है, यही कि इनमें तमाम गैरकानूनी एवम गैरलाइसेन्सी हथियार प्रयोग किए जाते हैं और संघ का नेतृत्व ऐसी हरकतों को वैधता प्रदान करता है।

वैसे जहां नरेन्द्र मोटवानी की अस्वाभाविक मौत ने शस्त्रापूजा से जुड़े विभिन्न पहलुओं को उजागर किया था, वहीं यहभी स्पष्ट है कि दशहरा के दिन की वही एकमात्रा विवादास्पद घटना नहीं थी। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्राी जनाब शिवराज सिंह चौहान ने भी अपने आधिकारिक निवास पर ‘शस्त्रापूजन’ किया , जहां इस बात की तस्वीरें भी प्रकाशित हुई कि मुख्यमंत्राी महोदय तमाम आटोमेटिक एवम सेमीऑटोमेटिक हथियारों को पूज रहे हैं। चर्चित सेक्युलर कार्यकर्ता श्री एल एस हरदेनिया ने पिछले साल इस सम्बन्ध में लिखा था:

‘‘आर्म्स एक्ट, 1959 के मुताबिक प्रतिबन्धित हथियारों और गोलाबारूद को पास रखना या उनका इस्तेमाल करना, भले ही अस्थायी तौर पर हो, केन्द्र सरकार की विशेष अनुमति के बिना, पूरी तरह प्रतिबन्धित है। निजी आवास पर ऑटोमेटिक हथियारों की पूजा, जिसमें सरकारी व्यक्ति को आवंटित बंगला भी शामिल है, का अर्थ है कि प्रतिबन्धित हथियारों को अस्थायी तौर पर पास रखना, जिस पर आर्म्स एक्ट के तहत कार्रवाई हो सकती है। इतनाही नहीं, हथियारों की पूजा करने के बाद , मुख्यमंत्राी ने हवा में गोलियां भी चलायी हैं।’’

यह कहना मुश्किल है कि सरकार के मुखिया द्वारा किए गए कानून के इस उल्लंघन को लेकर उन पर कोई मुकदमा कायम हुआ था या नहीं।

यही वह दिन था जब शहर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी -पुलिस अधीक्षक -के व्यवहार की भी जबरदस्त आलोचना हुई, जिन्होंने हवा में एके 47 चलायी और अपने छोटे बच्चे को भी ऐसा करने में मदद की। यह याद रखना जरूरी है कि हर गोली एक विस्फोटक पदार्थ होती है और इसलिए ऐसी कोईभी कार्रवाई जिससे किसी को नुकसान पहुंच सकता हो, वह भारतीय दण्ड विधान की धारा 286 के तहत अपराध में शुमार होती है। साफ बात है कि पुलिस अधीक्षक का यह कदम पूरी तरह गलत एवम विधिसम्मत नहीं था।

इसी दिन, जब संघ के कार्यकर्ता ‘पथसंचलन’ करते हैं, जहां वे हाथों में हथियारों को लेकर चलते हैं, छोटे बच्चों ने भी अपने हाथों में नंगी तलवारें ली थीं। आर्म्स एक्ट के तहत अवयस्क किसी भी तरह के हथियार रख नहीं सकते हैं। पिछले कुछ सालों से, हथियारों के साथ पथसंचलन का काम कमसे कम मध्य प्रदेश एवम आसपास के इलाकों में जोरदार हो रहा है। अभी पिछले साल की बात है जब इन्दौर में आयोजित पथसंचलन में शामिल संघ के कार्यकर्ताओं ने शहर के प्रमुख पार्क में खड़े होकर काफी देर तक हवाई फायर किया था, जहां पुलिस महज दर्शक बनी खड़ी थी। अन्दाज़ा ही लगाया जा सकता है कि ऐसे तमाम लोग/संगठन, जो संघ के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं, या वे ऐसे समुदायों से जुड़े होते हैं जिनको संघ द्वारा हमेशा निशाने पर लिया जाता है, उन पर ऐसी हरकतों का कितना डरावना असर पड़ता होगा।

साफ है, शस्त्रापूजन करनेवालों में भाजपा के एकमात्रा स्टार जनाब शिवराज सिंह चौहान नहीं थे। गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्राी नरेन्द्र मोदी ने भी अपने सरकारी आवास पर बन्दूकों एवम एनएसजी राइफलों की पूंजा की और इस सवाल को फिर खड़ा किया कि उनके ओहदे पर बैठे व्यक्ति को क्या ऐसा काम करना चाहिए ? मालूम हो कि वर्ष 2002 से ही वह नियमित इस काम को करते रहते हैं।

मेल टुडे की रिपोर्ट (29 सितम्बर 2009) बताती है कि

‘पूजा के वक्त जबकि नेशनल सिक्युरिटी गार्ड और राज्य के पुलिस दर्शक थी, सबमशीन गन्स, एके सिरीज की असॉल्ट राइफलें और प्रतिबन्धित बोअर पिस्तौलें पूजा स्थल पर रखी थीं। दरअसल ये वो हथियार हैं जो एनएसजी और अर्द्धसैनिक बलों और सेना को दिए जाते हैं। इन बन्दूकों, राइफलों के साथ तलवारें, त्रिशूल आदि भी रखे हुए थे।’

दो घण्टे तक पूजा चलती रही और इस दौरान किसी भी एनएसजी कमाण्डो के पास हथियार नहीं थे क्योंकि उनके हथियार उस रस्म में रखे गए थे।

गौरतलब है संघ के नवनियुक्त ‘युवा’ सुप्रीमो मोहन भागवत ने भी शस्त्रापूजन किया, जिसके लिए उन्होंने महात्मा गांधी की जयन्ती के दिन को चुना। दिल्ली के द्वारका में आयोजित इस कार्यक्रम में अगल बगल के इलाकों में फैली संघ की 200 से अधिक शाखाओं में जानेवाले स्वयंसेवक शामिल हुए थे, जिसमें लगभग 15,000 संघ स्वयंसेवक खाकी हाफपैण्ट, सफेद शर्ट और काली टोपी पहने उपस्थित थे।

क्या इस मुल्क के इन्साफपसन्द एवम अमनपसन्द नागरिकों या सचेत समूहों का यह फर्ज़ नहीं बनता है कि वह संविधान में उनके लिए प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इन सम्भावित गैरकानूनी कामों को रोकने के लिए जनहित याचिका दायर करें या अन्य तरीकों से अपनी आवाज़ बुलन्द करें।



- सुभाष गाताडे (युवा संवाद ब्लॉग) से साभार

आरएसएस का आदरभाव ! शहीदों के प्रति....?

कोई भी हिन्दुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेजों के विरुद्ध प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। श्री गुरूजी ने शहीदी परंपरा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा है:

नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखत: पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊँचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि, अंतत: वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटी थी।

यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस के इतिहास में उनका एक भी कार्यकर्ता अंग्रेज शासकों के खिलाफ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ।



-आरआरएस को पहचानें किताब से साभार

Monday, November 29, 2010

26/11 बदलते समय और परिस्थित की पृष्ठभूमि में-अज़ीज़ बर्नी

26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर होने वाले आतंकवादी हमले पर कल जब मैं अपना लेख लिख रहा था तो अंत तक पहुंचते-पहुंचते इतनी जगह नहीं रह गई कि मैं श्री एस एम मुशरिफ की किताब के हवाले से और अजमेर बम धमाकों की नज़ीर पेश करके जो कहना चाहता था, उसे पूरा कर पाता। लिहाज़ा आप से अपील करना ज़रूरी लगा कि कल का लेख ज़रूर पढ़ें।
असल में जिस खास बात पर मैं ध्यान आकर्षित कराना चाहता था वह यह कि हर बम धमाके के बाद संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी का जितनी तेज प्रतिक्रिया होती थी आखिर 26 नवम्बर 2008 को होने वाले इतने बड़े बम धमाका के बाद इतनी तीव्र प्रतिक्रिया क्यों नहीं हुइ? क्या उनका यह कार्यशैली कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करती? अजमेर बम धमाकों का हवाला देने का भी उद्देश्य यही था कि पुलिस के द्वारा से पहले जो कहानी पहले पेश की गई, वह गलत साबित हुई और पहले जिन आरोपियों को पहले अजमेर बम धमाकों में संलिप्त पाया गया था बाद में इनके अलावा कुछ और नाम सामने आये नये सिरे से की जाने वाले जांच ने जिन नामों को सामने रखा उसने पूरे परिदृश्य को बदल दिया। पहले संदेह जिस ओर जा रहे थे और बाद में जो परिणाम सामने आये उनमें बड़ा बदलाव था, इसी तरह मालेगांव बम धमाके की जांच को सामने रखा जाये तो घटना के तुरंत बाद जिन आरोपियों के नामों को सामने रखा गया था बाद की जांच ने जो आश्चर्यजनक रहस्योद्घाटन किये वह देश के आतंकवाद के इतिहास में एक नया अध्याय था और यह कहना गलत नहीं होगा कि मालेगांव बम धमाकों की जांच से शहीद हेमन्त करकरे ने आतंकवाद का जो चेहरा सामने रखा उनसे पहले उस पर किसी का ध्यान नहीं गया था। या कोई उस चेहरे को सामने रखने की हिम्मत नहीं जुटा सका था और यह भी हो सकता है कि तस्वीर के इस रूख को जान बुझ कर सामने आने ही न दिया गया हो, जो भी हो उन नामों के सामने आने के बाद से ही देशव्यापी स्तर पर जो हंगामा शुरू हुआ वह न जाने कब तक जारी रहता अगर इस बीच 26 नवम्बर 2008 को मुंबई पर आतंकवादी हमला न हुआ होता। अतएव अगली कुछ पंक्तियां लिखने से पहले मैं अपने पाठकों और भारतीय सरकार का ध्यान अक्तूबर-नवम्बर 2008 की परिस्थतियों की ओर आकर्षित कराना चाहूंगा। उन परिस्थितियों को समझने के लिए उस समय के परिदृश्य की एक झलक पेश कर रहा हूं, इतिहास के पन्नों पर दर्ज इन कुछ पंक्तियों के माध्यम से आसानी से समझा जा सकेगा कि किन किन विषयों पर उस समय देशव्यापी स्तर पर चर्चा हो रही थी और अगर यह आतंकवादी हमला न हुआ होता तो यह चर्चा किस अंजाम तक पहुंचती।
31 दिन पहलेः 26 अक्तूबर की खबर के अनुसार एटीएस की टीम जांच के लिए भोपाल गई और दो पूर्व सैन्य अधिकारियों से पूछताछ की गई।
इसी तारीख को भारतीय जन शक्ति पार्टी की अध्यक्ष उमा भारती ने कहा कि प्रज्ञा किसी भी हिंसात्मक घटना में संलिप्त नहीं हो सकती क्योंकि वह साध्वी है और साध्वी सिर्फ पूजा पाठ और शांति की बात करती है।
30 दिन पहलेः 27 अक्तूबर को जबलपुर में साध्वी के घर की तलाशी ली गई और एटीएस ने संवेदनशील सबूत जमा किये।
28 दिन पहलेः 29 अक्तूबर को प्रज्ञा के भाई ने मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट में एक स्वायत जांच आयोग की मांग की और उसके साथ दूसरे हिन्दू संगठनें भी खड़े नज़र आये।
27 दिन पहलेः 30 अक्तूबर भाजपा हिन्दू संगठनों के नाम आने पर बोखला गई और खुलेआम आरोपियों की रक्षा में खड़ी हो गई। भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मीडिया पर निशाना साधते हुए कहा कि ‘‘ मीडिया इस पूरे मामले को आरूषी हत्या केस की तरह पेश कर रही है’’ और प्रज्ञा के पक्ष में कहा कि जो लोग सांस्कृति राष्ट्रवाद पर विश्वास रखते हैं वह आतंकवाद में संलिप्त हो ही नहीं सकते। उन्होंने एटीएस के नारको टेस्ट पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया और कहा कि किसी खतरनाक आतंकवादी को भी इस तरह टार्चर नहीं किया जाता लेकिन एटीएस के मुखिया हेमन्त करकरे ने सारे आरोपियों पर मकोका लगा दिया। इसी बीच हिन्दू महासभा ने कर्नल पुरोहित और दूसरे आरोपियों को कानूनी मदद देने की घोषणा की।
25 दिन पहलेः 1 नवम्बर को साध्वी के ब्रेन मेपिंग टेस्ट में एटीएस साध्वी से कुछ भी उगलवाने में असफल रही। यह टेस्ट नागपरा पुलिस अस्पताल में उसी सप्ताह किया गया और फिर पुलिस ने दूसरे फारेंसिक टेस्ट की तैयारी शुरू कर दी।
उसी दिन खबर आई कि समीर कुलकर्णी को एटीएस ने मालेगांव धमाके के आरोपी के तौर पर पहले ही गिरफ्तार कर लिया है। समीर कुलकर्णी भोपाल के एक प्रिंटिंग प्रेस में काम करता था। पुलिस के अनुसार 37 वर्षीय कुलकर्णी अभिनव भारत का संस्थापक सदस्य था।
24 दिन पहलेः 2 नवम्बर के अनुसार भोंसला मिलेट्री स्कूल के प्रधानाचार्य को गिरफ्तार करके उससे पूछताछ की गई उसी तारीख को बाल ठाकरे ने भाजपा की इस बात की भत्र्सना की कि वह साध्वी का रक्षा नहीं कर रही है और उससे हिन्दू समाज के हृदय को आघात पहुंच रहा है। भाजपा और शिवसेना ने विभिन्न स्थानों से बेहतरीन वकीलों को जमा करके नासिक कोर्ट के सामने धरना दिया।
22 दिन पहलेः 4 नवम्बर एटीएस के अनुसार आरोपी प्रज्ञा सिंह ने स्वीकार किया कि उसीे ने अपनी मोटर साईकिल संदिग्ध रामजी जिसने बम रखा था, को दी थी लेकिन साथ ही उसने यह भी बताया कि उसे इसके प्रयोग के बारे में पता नहीं था कि रामजी का उस मोटर साईकिल को लेकर क्या पदजमदजपवद था यह (थ्तममकवउ) डस्माॅडल की बाईक थी।
उसी दिन साध्वी के पक्ष में अपने बयान से पलटते हुए भाजपा ने उसे कानूनी सहायता देने का फैसला किया इससे पहले भाजपा ने साध्वी के बारे में कड़ा रूख अपनाये हुई थी। उसी तारीख को जांच एजेंसी एटीएस ने मालेगांव धमाका के 8 आरोपियों पर मकोका लगाने का फैसला किया।
21 दिन पहलेः 5 नवम्बर मुंबई एटीएस ने आरोपी लेफ्टिनेंट पुरोहित को गिरफ्तार करके जांच करने की तैयारी शुरू कर दी और उसी तारीख को साध्वी पर भी मकोका लगाने की तैयारी शुरू कर दी गई।
20 दिन पहलेः 6 नवम्बर को कर्नल पुरोहित को गिरफ्तार कर लिया गया है। पुलिस को उसके मोबाईल से दूसरे संदिग्ध आरोपियों को किये गये कई एसएमएस मिले यह एसएमएस कोडवर्ड में किये गये थे जिनमें ब्ंज पे वनज व िजीम इंेबामज दूसरा ैपदही ींे ेनदहीए इसके अलावा ूम ंतम वद जीम तमकंत व ि।ज्ैए बींदहम जीम ेपउ बंतकयह वह एसएमएस था जो कर्नल पुरोहित के मोबाईल से रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय को भेजा गया था। इससे पहले पुलिस उपाध्याय को इस मामले में गिरफ्तार कर चुकी थी और उसको 15 नवम्बर तक पुलिस रिमांड पर ले लिया गया था।
19 दिन पहलेः 7 नवम्बर, को एटीएस के अनुसार कर्नल पुरोहित ने स्वीकार किया कि वह मालेगांव धमाके का सरगना था। उसके साथ साथ उन्होंने यह भी कुबूल किया कि उन्होंने धमाके का षड्यंत्र तैयार किया था और 29 सितम्बर के लिए विस्फोटक सामग्री सेना से उपलब्ध कराया था और हथियार भी उपलब्ध कराये थे, यह सारी चीजें अभिनव भारत के सदस्यों के हवाले की थीं।
उसी तारीख को आर्मी डिप्टी चीफ लेफ्टिनेंट जनरल ने बयान दिया कि कर्नल पुरोहित की गिफ्तारी सेना का मोराल गिरा है। उसी तारीख को तोगड़िया ने अभिनव भारत की निन्दा की।
18 दिन पहलेः 8 नवम्बर कर्नल पुरोहित से संबंधित मुंबई एटीएस ने दो और सैन्य अधिकारियों से पूछताछ की साथ ही एटीएस ने यह भी बताया कि कर्नल पुरोहित पर मकोका लगया जा सकता है। उसी तारीख को सबूत के सामने आने के बाद संघ परिवार ने कर्नल पुरोहित और दूसरे गिरफ्तार आरोपियों से किसी तरह का संबंध होने से इनकार किया जबकि उससे पहले धमाका करने वाले आरोपियों का खुलकर समर्थन कर रहा था।
उसी तारीख को कांग्रेस ने भाजपा पर आरोप लगाया कि भाजपा सेना का भगवाकरण कर रही है। यह बयान अभिषेक मनु सिंघवी ने दिया।
17 दिन पहलेः 9 नवम्बर को एटीएस का बयान आया कि एटीएस तीन वीएचपी लीडर, जो गुजरात से संबंध रखते हैं उनके बारे में जांच करना चाहती है क्योंकि उन तीनों का संबंध समीर कुलकर्णी से है जो अभिनव भारत का संस्थापक सदस्य है।
16 दिन पहलेः 10 नवम्बर को एटीएस ने एक और सनसनीखेज पर्दाफाश करते हुए कहा कि कर्नल पुरोहित का हाथ परभनी, जालना और नांदेड़ धमाका में है। एटीएस के सामने यह बात कर्नल पुरोहित के नारको टेस्ट के दौरान आई।
15दिन पहलेः 11 नवम्बर को गोरखपुर के एमपी योगी आदित्यानाथ ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिन्दू संगठनों के सदस्यों को झूठे मुकदमे में फंसा रही है।
14 दिन पहलेः 12 नवम्बर को केंद्र ने सभी राज्य सरकरों से बजरंग दल से संबंधित एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी। केंद्र का मानना था कि बजरंग दल के कार्यकर्ता विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों में संलिप्त हो सकते हैं।
13 दिन पहलेः 13 नवम्बर हरियाणा पुलिस ने मालेगांव धमाके के तार समझौता एक्सप्रेस बम धमाके से जुड़े होने की बात कही और संबंधित पुलिस अधिकारियों को पुछताछ के लिए मुंबई भेजा।
14 नवम्बरः एटीएस ने नासिक कोर्ट में रहस्योद्घाटन किया कि महंत दयानन्द पांडे ने पुरोहित को आरडीएक्स सप्लाई करने का आदेश दिया था।
12 दिन पहलेः दयानंद पांडे कानापुर धमाके में भी संदिग्धः एटीएस
11 दिन पहलेः 15 नवम्बर राजनाथ सिंह ने इस पूरे मामले को ‘एक बड़ा षड्यंत्र बताया’, उन्होंने कहा ‘ मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं कि साध्वी आदि इस षड्यंत्र में संलिप्त नहीं हैं’
पुरोहित ने समझौता एक्सप्रेस धमाके के लिए आरडीएक्स सप्लाई कियाः एटीएस
नासिक कोर्ट में पुरोहित ने एटीएस के माध्यम से किसी भी तरह से प्रताड़ित किये जाने के आरोप को खारिज कर दिया।
लालू ने आडवाणी को ‘ज्मततवत डंेा’ कहा।
9 दिन पहलेः 17 नवम्बर मालेगांव धमाके के तार अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद बम धमाके से जुड़े हैं ः एटीएस
8 दिन पहलेः 18 नवम्बर, आडवाणी और राजनाथ सिंह ने एटीएस पर आरोप लगाया कि एटीएस और कांग्रेस में सांठगांठ है और वह ‘न्दचतवमि पेवदंस’जांच कर रही है।
6 दिन पहलेः 20 नवम्बर, एटीएस ने मालेगांव बम धमाके के आरोपियों पर मकोका लगया।
साध्वी प्रज्ञा की मोटर साईकिल खरीदने वाला व्यक्ति 2007 में मारा गयाः एटीएस
5 दिन पहलेः 21 नवम्बर, मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगया कि वह ‘टवजम ठंदा चवसजपबे’ कर रही है।
‘पाकिस्तान जो काम 20वर्षों में नहीं कर सका वह भारतीय सरकार (ब्वदहतमे) ने 20 दिन में कर दिखाया’ मोदी
2 दिन पहलेः 24नवम्बर, पुरोहित ने सीबीआई को बयान दिया ‘वीएचपी लीडर अभिनव भारत के स्थापना में सबसे आगे थे उन्होंने कहा कि आरएसएस लीडर इंद्रेश कुमार ने पाकिस्तान की आईएसआई से 3करोड़ रूपये लिये। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने मालेगांव धमाका के लिए पुरोहित को उसका ब्तमकपज लेने से इनकार किया और कहा ‘उनके लोगों’ ने यह धमाका किया है न कि अभिनव भारत ने’।
उस दिन अर्थात दो दिन पहले ही पुलिस कंट्रोल रूम में शाम 5.20 पर करकरे को कत्ल करने का धमकी भरा फोन आया था जिसका खुलासा संयुक्त आयुक्त पुलिस राजेन्द्र सोना विनय अपने बयान में किया था। यह फोन काल सहकार नगर के एक पीसीओ, जिसका नम्बर 24231375 से आया था।
उसी दिन दयानन्द पांडे ने स्वीकार किया कि उसने आरडीएक्स उपलब्ध कराया था।
उसी दिन मकोका अदालत ने साध्वी प्रज्ञा सिंह, कर्नल पुरोहित और दयानन्द पांडे का एटीएस की ओर से रिमांड की मुद्दत बढ़ाने की मांग को खारिज कर दिया था क्योंकि उन तीनों ने एटीएस पर प्रताड़ित करने का अरोप लगाया था।
एक दिन पहलेः 25 नवम्बर, मकोका अदालत ने एटीएस को प्रताड़ित के आरोपों पर जवाब मांगा।
महाराष्ट्र के एटीएस से मानवाधिकार आयोग ने प्रताड़ित के आरोपों पर सफाई पेश करने को कहा।
कर्नल पुरोहित ने स्वीकार किया कि उसने इस साल आरएसएस प्रमुख सुदर्शन से जबलपुर में भेंट की और आरएसएस लीडर इंद्रेश कुमार के भूमिका की शिकायत की।

.............................................................(जारी)

शहीदों को सच्ची श्रद्धांजली-सभी मुजरिमों को सज़ा - अज़ीज़ बर्नी

मैंने बात कल जहां समाप्त की थी आज फिर वहीं से आरंभ कर रहा हूं। मालेगांव बम धमाकों की शहीद हेमंत करकरे द्वारा की जाने वाली जांच से पूर्व जिन्हें अभियुक्त समझा गया और जिनकी गिरफ़्तारियां की गईं, उनका विवरण कुछ इस प्रकार था:

आरंभ में महाराष्ट्र पुलिस ने बजरंगदल, लश्कर-ए-तय्यबा और जेश-ए-मुहम्मद पर आरोप लगाया था, परंतु यह केवल आरंभिक अंदाज़े थे। इसके पक्ष में कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किए जा सके थे, लेकिन बाद में 13 अक्तूबर 2006 को पुलिस ने कहा कि लश्कर-ए-तय्यबा और स्टुडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आॅफ़ इण्डिया (सीमी) इन धमाकों में शामिल हो सकती है। पुलिस को संदेह यह भी था कि इन धमाकों में हर्कतुल जिहाद-ए-इस्लामी भी लिप्त हो सकती है, अर्थात अब शक के दायरे में केवल मुस्लिम नामों वाले आतंकवादी संगठन ही थे।

स्पष्ट रहे कि 10 सितम्बर को पुलिस ने कहा था कि 8 दिसम्बर 2006 को जो आतंकवादी हमला हुआ था, उसकी कार्यशैली बिल्कुल ऐसी ही थी, जैसी कि मालेगांव के धमाके की थी। इस धमाके के बाद पुलिस ने बजरंग दल के 16 कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया था। यह ग्रुप बजरंगदल का थ्तपदहम ळतवनच (हाशिया ग्रुप) था। इस ग्रुप के ख़िलाफ कोई चार्जशीट दाख़िल नहीं की गई थी।

30 अक्तूबर को नूरुलहुदा, जिसका संबंध सीमी से था, गिरफ़्तार कर लिया गया। उसके साथ शब्बीर बैटरी वाला और रईस अहमद को भी गिरफ़्तार किया गया। उसके बाद 4 हज़ार पृष्ठों की जो चार्जशीट दाख़िल की गई, उसमें आर्मी अफ़सर लेफ़्टिनैंट कर्नल प्रसाद पुरोहित इस धमाके के षड़यंत्र का प्रमुख आरोपी था। कर्नल पुरोहित ने विस्फोटक पदार्थ उपलब्ध कराया था और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने विस्फोटक पदार्थ प्लांट कराने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। प्रज्ञा ठाकुर इंदौर की रहने वाली थी और बाद में सूरत हस्तांतरित हो गई। धमाके में प्रयोग होने वाली एलएमएल फ्ऱीडम मोटर साइकिल जिसमें बम रखा गया था, वह उसकी थी। उसको 24 सितम्बर को गिरफ़्तार किया गया था।

शिव नारायण कलसांगरा भी इंदौर का रहने वाला था और वह व्यवसाय से इलैक्ट्रिशियन था जो 24 सितम्बर 2008 को पकड़ा गया। श्याम भरवालाल साहू इंदौर का रहनेवाला था। उसकी मोबाइल की दुकान थी। उसको भी मालेगांव षड़यंत्र में 24 सितम्बर को गिरफ़्तार किया गया था।

समीर कुलकर्णी जो पुणे का रहने वाला था और एबीवीपी का पूर्व सदस्य था, वह इस धमाके का मास्टर माइंड था, उसको 28 अक्तूबर को पकड़ा गया।

रिटायर्ड मैजर जनरल उपाध्याय, जो कि पुणे का रहने वाला था, वह कुलकर्णी और कुछ फ़ौजियों के बीच सम्पर्क का काम करता था और विस्फोटक पदार्थ प्राप्त करने में सहायता कर रहा था उसको भी अक्तूबर में ही पकड़ा गया था। इनके अलावा सैलेश एसराइकर भौसला मिलिट्री स्कूल नासिक का एडमिनिस्ट्रेटर और रिटायर्ड कर्नल था, उसको पूछताछ के लिए 1 नवम्बर को हिरासत में लिया गया। रमेश गंधानी मिलिट्री इंटेलिजैंस का सदस्य था और भौसला मिलिट्री स्कूल में कर्मचारी था, उसको 1 नवम्बर को हिरासत में लिया गया। अशोक आहूजा अभिनव भारत का सदस्य था और 2 नवम्बर को जबलपुर से एटीएस द्वारा हिरासत में लिया गया। आहूजा समीर कुलकर्णी का बहुत क़रीबी था। इन सबके अलावा रामजी कलसांगरा जो इंदौर का रहने वाला था और उसका भाई शिव नारायण, जो कि 29 सितम्बर 2008 को मालेगांव में मौजूद थे, उनके बारे में पुलिस का कहना है कि उन्होंने भीकू चैक में बम रखा था। एक और नाम राम जयस्वानी का भी है जो जबलपुर का रहने वाला है।

आपने देखा कि आरंभिक संदेह किस तरह बाद की जांच में निराधार साबित हुआ और फिर जो नाम और चेहरे सामने आए, उनसे भारत में आतंकवादी हमलों के नए-नए रहस्योदघाटन होते चले गए। इस तरह भारत में रूनुमा होने वाले बम धमाकों के इतिहास में मालेगांव रहस्योदघाटनों से आरंभ हुई यह दास्तान जब अजमेर तक पहुंची तो परिस्थिति एकदम बदल चुकी थी। दो वर्ष पूर्व तक जिन्हें आरोपित ठहराया जाता रहा था, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया जाता रहा था, वह नाम अब कहीं सामने नहीं थे, बल्कि इन नए रहस्योदघाटनों से साबित हो रहा था कि संघ परिवार से जुड़े संगठन इनमें लिप्त हैं। यही कारण है कि मैंने अपने लेख को शीर्षक दिया था ‘‘26/11 किसका षड़यंत्र-क्या उठेगा परदा’’ इसलिए कि मैं देश की उन्नति तथा कल्याण के पेशेनज़र यह आवश्यक समझता हूं कि 26/11 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले का पूर्ण सत्य सामने आना चाहिए। मैं इस बात को रद्द नहीं करना चाहता और न ही इस मामले में कुछ कहना चाहता हूं कि यह षड़यंत्र पाकिस्तान में रचा गया। पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आइएसआई और आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तय्यबा इसमें शामिल थीं। मुझे इस पर भी कुछ नहीं कहना कि 10 आतंकवादी जिन्हें पाकिस्तान में प्रशिक्षण दिया गया था, उन्होंने इस आतंकवादी हमले को अंजाम दिया। यह सच ही होगा, अगर हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने पूर्ण जांच तथा प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्श निकाला है तो, परंतु मन में बार-बार यह प्रश्न अवश्य उठता है कि क्या इन 10 के अलावा कोई ग्यारहवां अपराधी नहीं था। क्यों इस बात पर बल दिया जाता है कि यह 10 आतंकवादी थे, जो पाकिस्तान के शहर कराची से समुद्र के रास्ते मुम्बई पहुंचे। इस आतंकवादी हमले के 2 वर्ष बाद भी जम्मू व कश्मीर के गवर्नर रहे जगमोहन जैसे व्यक्ति अगर इसी बात पर जमे हैं और इससे हट कर कुछ सोचना ही नहीं चाहते तो यह प्रश्न मन में और मज़बूत हो जाता है कि क्या कारण है कि कम से कम एक विशेष मानसिकता के लोग जांच को 11वें या 12वें या उसके बाद किसी व्यक्ति तक पहुंचने ही नहीं देना चाहते? क्या वह कुछ छुपाना चाहते हैं? क्या वह जो कुछ छुपाना चाहते हैं वह बहुत ही विस्फोटक है? मेरे लेख का सिलसिला अभी जारी है। मैं जगमोहन के लेख से वह कुछ पंक्तियां अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करने जा रहा हूं, जो दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘‘दैनिक जागरण’’ के सम्पादकीय पृष्ठ पर 26 नवम्बर 2010 को प्रकाशित किया गया:

‘‘दस आतंकी पाकिस्तान के कराची से स्टीमर पर सवार होकर निकलते हैं, बड़े आराम से गेटवे आॅफ इंडिया के क़रीब मुंबई में दाख़िल होते हैं और चार गुटों में बंटकर पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की तरफ बढ़ जाते हैं। एक गुट ताज पर क़ब्ज़ा कर लेता है, दूसरा लीओपोल्ड कैफे और ओबराय होटल पर धावा बोलता है, तीसरा छबद हाउस में घुस जाता है और चैथा छत्रपति रेलवे स्टेशन पर पहुंचता है। वे जहां भी जाते हैं, ख़ून की नदियां बहा देते हैं। बड़ी बर्बरता और क्रूरता से निर्दोष लोगों का क़त्लेआम करते हैं। तीन दिनों तक शहर पर आतंक का राज रहता है। जब तक उनमें से नौ मारे जाते हैं और एक ज़िंदा पकड़ लिया जाता है, वे 180 लोगों को मौत के घाट उतार चुके थे। इस त्रासदी की कहानी बयान करने के लिए आंसू भी कम पड़ जाते हैं।

इस अवसर पर अक्षमता का जो प्रदर्शन हुआ वह भी आतंकी घटना से कम त्रासद नहीं है। आतंकी हमला होने के बाद जिस तत्परता, स्टीकता और संबद्धता की आवश्यकता थी, वह कहीं दिखाई नहीं दी। आतंकियों ने जिस ख़तरनाक रफ्तार और योजना से हमले को अंजाम दिया, उसके विपरीत राज्य व केन्द्र सरकार का सुरक्षा तंत्र बिल्कुल लचर और लाचार नज़र आया। इसने ख़ुद को संभालने में काफ़ी वक़्त लिया। सामाजिक ढ़ांचे के अन्य घटकों ने भी ख़ुद को किसी लायक साबित नहीं किया। उदाहरण के लिए, ताज होटल पर आतंकियों का सामना कर रहे राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डो को दिखाने की चैनलों में होड़ मची थी। उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की कि इससे पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आक़ा सुरक्षा बलों की पूरी कार्यवाही देखते हुए आतंकियों को नए निर्देश दे सकते हैं।’’

देखा आपने फिर वही बात, 10 पाकिस्तानी आतंकवादी। 3 दिन तक हमारी सेना तथा पुलिस आतंकवादियों से लड़ती रही, नहीं मैं अपनी सेना अथवा पुलिस फोर्स को इतना कमज़ोर नहीं मानता। इन आतंकवादी हमलों के आरंभिक दौर में शहीद होने वाले तीन पुलिस अधिकारियों में से हर एक इतना बहादुर था कि अकेला ही 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों के लिए काफी था, परंतु हमारी सेना 10 पाकिस्कातनी आतंकवादियों से निपटने के लिए 72 घंटे तक जूझती रही और हम दो वर्ष बाद भी अपनी सेना को इतना कमज़ोर साबित करने का प्रयास करें कि उन्हें 10 आतंकवादियों से पार पाने में 17 जवानों का ख़ून बहाना पड़ा और इस बीच हमारे 166 नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठे और 308 घायल, इस बात का गले से उतरना ज़रा कठिन नज़र आता है। क्या डेविड कोल्मैन हेडली का नाम सामने आने के बाद भी हम 10 की गिनती से आगे नहीं बढ़ेंगे? क्या तहव्वुर हुसैन राना की फ़र्ज़ी इमैगरेशन एजेंसी के कारनामों के ख़ुलासे के बाद भी हम 10 की गिनती से आगे नहीं बढ़ेंगे? आख़िर किसे बचाना चाहते हैं हम? क्या छुपाना चाहते हैं हम? क्या यह देश तथा समाज के हित में है? मान लिया कि वह 10 आतंवादी इस हमले में शामिल थे, परंतु हम इसके आगे बात क्यों नहीं करना चाहते? हम बात को यहीं समाप्त क्यों कर देना चाहते हैं? हमारी ख़ुफ़िया एजेंसी, एटीएस की जांच हमें बताती है कि मालेगांव बम धमाका जहां 6 व्यक्ति मारे गए और 6 घायल हुए, अजमेर दरगाह का मामूली बम धमाका, जहां केवल 3 लोग मारे गए मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले के मुक़ाबले में बहुत साधारण था, जहां 166 लोग मारे गए थे, 308 ज़ख़्मी हुए, अर्थात मुम्बई बम धमाकों के मुक़ाबले में इन छोटे-छोटे बम धमाकों का षड़यंत्र रचने वालों के नाम और चेहरे सामने आते हैं तो उनकी संख्या 10 से कहीं अधिक सामने आती है। षड़यंत्र के तार बहुत दूर तक जाते नज़र आते हैं। पुलिस द्वारा पेश की गई पुरानी थ्योरी बेकार साबित हो जाती है, परंतु जब हम 26/11 की बात करते हैं तो 10 आतंकवादियों के नामों के बाद हमारे हांेठ सिल जाते हैं। हम इससे आगे बात करना ही नहीं चाहते और अगर कोई बात करने का प्रयास करे तो उसके देश प्रेम पर प्रश्न चिन्ह? वह ऐसा क्यों कर रहा है? यह क्या मज़ाक़ है, भारत के हर नागरिक को हर ऐसे मामले का आख़िरी सच जानने का अधिकार है। हम 10 रुपए के एक नोट द्वारा आरटीआई के तहत ऐसे सभी तथ्य जानने का अधिकार रखते हैं, जिनका संबंध हमारे समाज से है। फिर क्यों 26/11 पर बात करना अपराध समझा जाए? क्यों यह जानने का अधिकार न हो कि नरीमन हाउस की कहानी क्या है? अपनी सगी औलाद को छोड़ कर एक पराए बच्चे के लिए भारतीय महिला क्यों इस्राईल जाकर बस गई? क्यों नहीं उपलब्ध हैं शहीद हेमंत करकरे, अशोक काम्टे और विजय साॅलेस्कर की टेलीफ़ोन काॅल डिटेल्स? आख़िरी दिन, आख़िरी घंटा, आख़िरी क्षण किन-किन लोगों ने उनसे सम्पर्क स्थापित किया अथवा उन्होंने किस-किस से सम्पर्क स्थापित किया और कौन कौन लोग ठहरे थे ताज तथा ओबेराय में, उनकी काॅल डिटेल्स क्या हैं? सीसीटीवी फुटेज के एक-दो फोटो ही क्यों बार-बार सामने आते हैं। इस फुटेज के अन्य फुटेज क्यों नहीं मिलते? क्यों हमारी जांच का दायरा इससे आगे नहीं बढ़ता? आज फिर ख़त्म करना होगा इस लेख को इसी मुक़ाम पर, इसलिए कि इस काग़ज़ पर इससे आगे लिखने की गुंजाइश नहीं है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि इस सिलसिले का यह आख़िरी लेख है। मेरे इस विशेष लेख के तहत भी और इस विषय पर लिखी जाने वाली मेरी पुस्तकों के माध्यम से लिखने का यह सिलसिला जारी रहेगा, जद्दोजहद यही है कि उस समय तक ख़ामोश नहीं होना चाहिए जब तक कि हमारे देश पर हुए इस सबसे बड़े आतंकवादी हमले का सारे का सारा सच सामने न आ जाए, इसलिए कि यह हमारे देश की सुरक्षा और इसके विकास तथा उन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक है।

Sunday, November 28, 2010

अंग्रेज भक्त हैं हिन्दुवत्व के पैरोकार

सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज विरोधी था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहा:

कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजो को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेजों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यकता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेजो के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।

आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हों। संघ द्वारा छापी गयी डॉक्टर हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डॉक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है :

संघ स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।

गौरतलब है कि ऐसे समय में जब भगत सिंह, राजगुरु, अशफाकुल्लाह, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे सैकड़ों नौजवान जाति और धर्म को भुलाकर भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए अपने प्राण दे रहे थे, उस वक्त हेडगेवार और उनके सहयोगी देश का भ्रमण करते हुए केवल हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति तक अपने को सीमित रखते थे। यही काम इस्लाम की झंडाबरदार मुस्लिम लीग भी कर रही थी। जाहिर है इसका लाभ केवल अंग्रेज शासकों को मिलना था।



-आरआरएस को पहचानें किताब से साभार

Saturday, November 27, 2010

1942 भारत छोडो आन्दोलन में आरएसएस की भागीदारी ?

अगर आरएसएस का रवैया 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के प्रति जानना हो तो श्री गुरूजी के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढना काफी होगा:

सन 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रह। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयं सेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।

इस तरह स्वयं गुरूजी से हमें यह तो पता लग जाता है कि आरएसएस ने भारत छोडो आन्दोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन आरएसएस के किसी प्रकाशन या स्वयं गोलवलकर के किसी वक्तव्य से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि आरएसएस ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत छोडो आन्दोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गोलवलकर का यह कहना है कि भारत छोडो आन्दोलन के दौरान आरएसएस का 'रोजमर्रा का काम' ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह 'रोजमर्रा का काम' क्या था ? इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कन्धा मिलकर हिन्दू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना। इस महान सेवा के लिए कृतज्ञ अंग्रेज शासकों ने इन्हें नवाजा भी। यह बात गौरतलब है कि अंग्रेजी राज में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया।



-आर.एस.एस को पहचानें किताब से साभार

Friday, November 26, 2010

आरएसएस की भागीदारी ! स्वतंत्रता संग्राम में........?


Dr. Hedgevar

आर.एस.एस के संस्थापक, डॉक्टर के.बी हेडगेवार और उनके उत्तराधिकारी, गोलवलकर ने अंग्रेज शासकों के विरुद्ध किसी भी आन्दोलन अथवा कार्यक्रम में कोई भागीदारी नहीं की। इन आन्दोलनों को वे कितना नापसंद करते थे इसका अंदाजा श्री गुरूजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता है :

नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर इस देश में उत्पन्न परिस्तिथि के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी के पास गए थे। इस 'शिष्टमंडल' ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातंत्र्य मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हें, तो डॉक्टर जी ने कहा 'जरूर जाओ।' लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा ? उस सज्जन ने बताया ' दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है'। तो डॉक्टर जी ने उनसे कहा - ' आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो। घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए न संघ का कार्य करने के लिए बहार निकले।'

गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्योरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि आर एस एस का मकसद आम लोगों की निराश व निरुत्साहित करना था। खासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंग्रेजी शासन के खिलाफ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे।





लोकसंघर्ष!

26/11 किसकी साज़िश-क्या उठेगा परदा?- अज़ीज़ बर्नी

भारत पर हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले की दूसरी बरसी है आज। निश्चितरूप से हमारे पाठक ही नहीं, बल्कि पूरे भारत की जनता 26 नवम्बर 2008 को हमारे देश की आर्थिक राजधानी के रूप में प्रसिद्ध मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले को भूले नहीं होंगे, हो सकता है आज जब आप मेरा यह लेख पढ़ रहे हों, अन्य समाचारपत्रों तथा इलैक्ट्राॅनिक मीडिया में भी इस आतंकवादी हमले की चर्चा हो, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह भारत में हुए अन्य बम धमाकों की जांच के समाचार सुर्ख़ियां बनते रहे और उनकी प्रतिक्रिया में राजनीतिक व ग़ैर-राजनीतिक संगठन प्रदर्शन करते रहे, 26 नवम्बर को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले की चर्चा इस अंदाज़ में नहीं हुई और न ख़ुद को देश भक्त कहने वाले संगठनों की ओर से भी वास्तविकता को सामने लाने के लिए कोई विशेष आंदोलन चलाया गया। वैसे भी अगर नवम्बर 2008 के अंतिम सप्ताह तथा दिसम्बर की बात जाने दें तो इस आतंकवादी हमले पर जांच का सिलसिला उस तरह नहीं चला जिस तरह चलना चाहिए था और न ही मीडिया ने इसकी जांच के मामले को इतना महत्व दिया जितना कि दिया जाना चाहिए था। मैं फिर स्पष्ट कर दूं कि इस आतंकवादी हमले से संबंधित प्रकाशित की जाने वाली या दिखाई जाने वाली ख़बरों की चर्चा मैं इस समय नहीं कर रहा हूं। यह हमला कितना बड़ा था, कितने लोग हताहत हुए, कितने घायल, मैं इस तरह के समाचारों की भी चर्चा नहीं कर रहा हूं। शहीद हेमंत करकरे, अशोक कामटे और विजय सालस्कर जैसे पुलिस अधिकारी इसमें मारे गए, मैं इन समाचारों की भी चर्चा नहीं कर रहा हूं। आज मैं ऐसे सभी समाचारों से हट कर बात कर रहा हूं। प्रश्न यह है कि दो वर्ष बीत जाने के बाद भी भारत की धरती पर हुए इस सबसे बड़े आतंकवादी हमले की जांच के संबंध में आज तक क्या हुआ? हमलावर पाकिस्तान से आए थे, उनकी संख्या 10 थी, षडयंत्र पाकिस्तान में रचा गया, षडयंत्र रचने वाला ज़्ाकीउर्रहमान लखवी था, अजमल आमिर क़साब वह एक मात्र आतंकवादी है, जो इन आतंकवादी हमलों के बाद जीवित पकड़ में आया। डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राना के नाम बाद में जुड़े। डेविड कोलमैन हेडली पाकिस्तान और अमेरिका दोनों की नागरिकता रखता था। उसका संबंध पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई और अमेरिका की एफबीआई से था। यह सब अपनी जगह लेकिन इसके आगे क्या हुआ। हमारी टीम अमेरिका गई, क्या पता लगा कर लाई, नहीं मालूम। इस बीच भारत के प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह की अमेरिकी यात्रा भी हुई और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा भी भारत पधारे। शरम-अल-शैख़ ;म्हलचजद्ध में भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की मुलाक़ातें भी हुईं। इस आतंकवादी हमले की चर्चा भी हुई। ज़्ाकीउर्रहमान लखवी पर बात भी हुई। यह सब वह बातें हैं, जिसकी जानकारी आपको भी है, परंतु अब इससे आगे जो मैं लिखने जा रहा हूं, वह ज़रा नई बात है और इस पर मैं आपका विशेष ध्यान चाहता हूं।

मुम्बई में हुए इस आतंकवादी हमले के बाद उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख ने त्यागपत्र दिया, आर॰आर॰ पाटिल जो महाराष्ट्र के गृह मंत्री थे, हटाए गए, आर॰आर॰ पाटिल आज फिर महाराष्ट्र के गृह मंत्री हैं। विलासराव देशमुख केंद्र सरकार में कैबिनेट दरजे के मंत्री हैं, जब उनको हटाया गया था तब भारतीय जनता पार्टी या संघ परिवार ने ऐसी कोई ज़ोरदार मांग नहीं की थी कि उन्हें अपने पदों से हटाया जाए। मुम्बई पर हुआ आतंकवादी हमला उनकी ग़ैर ज़िम्मेदारी का परिणाम था, इसलिए उनको अपने पदों पर बने रहने का अधिकार नहीं है। यह फ़ैसला कांग्रेस पार्टी का था और जहां तक मुझे याद पड़ता है विलासराव देशमुख घटना स्थल का निरीक्षण करने के लिए जब गए तो अपने साथ अपने बेटे रितेश देशमुख जो फ़िल्म कलाकार हैं और एक फ़िल्म प्रोड्यूसर को भी ले गए, अधिक आपत्तिजनक इसी बात को माना गया, उनकी कोताही पर बहस चली हो, उनका त्यागपत्र सज़ा के रूप में लिया गया हो और यह मांग भारतीय जनता पार्टी, संघ परिवार या शिवसेना की ओर से की गई हो, ऐसा कुछ ख़ास नहीं था। बात इतनी पुरानी नहीं है कि विवरण उपलब्ध न हो सके। अशोक चव्हान के आदर्श सोसायटी में 3 फ़्लैट होने के आधार पर मान लिया गया कि वह भ्रष्टाचार में कहीं न कहीं लिप्त हैं, इसलिए उनसे त्यागपत्र की मांग की गई। परिणाम स्वरूप उन्हें अपने पद से हटना पड़ा। टेलीकाॅम मिनिस्टर ए.राजा स्पैक्ट्रम घोटाले में लिप्त पाए गए, उन्हें अपने पद से हटना पड़ा। प्रधानमंत्री के कार्यालय को भी आलोचना का निशाना बनाया गया। भारतीय जनता पार्टी ने 17 दिन तक संसद नहीं चलने दी। कई बार यह निवेदन किया गया कि कृप्या सदन की कार्रवाई जारी रहने दें, लकिन भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं का हंगामा कम नहीं हुआ, जब कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री यदयुरप्पा भी भूमि घोटाले में लिप्त पाए गए।

अजमेर बम धमाकों में इंद्रेश का नाम आने पर संघ परिवार का हंगामा करना और के॰एस॰ सुदर्शन का आरोप मंढना किसी से छुपे नहीं हैं, हम यह नहीं कहते कि भारतीय जनता पार्टी ने या संघ परिवार ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह ग़लत थी, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहए था, परंतु अगली बात जो हम कह रहे हैं उसके महत्व को समझते हुए भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के व्यवहार की समीक्षा करनी होगी। यह भ्रष्टाचार के मामले इस प्रकार के थे कि उन्हें ख़ामोशी से सहन नहीं किया जाना चाहिए था। इसलिए जो कुछ किया भारतीय जनता पार्टी ने उसे वह करना ही चाहिए था। परंतु अब विचार इस बात पर भी करना होगा कि यह भ्रष्टाचार अधिक बड़ा मामला था या 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुआ आतंकवादी हमला बड़ा मामला था। हर बम धमाके के बाद चिंता व्यक्त करने और जांच के मामले में सक्रिय होने वाला संघ परिवार इतने बड़े आतंकवादी हमले के बाद कितना सक्रिय हुआ, बीजेपी ने कितनी बार संसद की कार्यवाही ठप की इस मांग के साथ कि 26/11 के सभी अभियुक्तों का पर्दाफ़ाश होना चाहिए। इस संपूर्ण नैटवर्क को बेनक़ाब किया जाना चाहिए। उसने क्यों आवाज़ नहीं उठाई कि आख़िर अनिता उदय्या को गुप्त रूप से अमेरिका क्यों ले जाया गया। अमेरिका को क्या अधिकार था उसे इस तरह ले जाने और पूछताछ करने का। भारतीय यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की विशेष मीटिंग सुषमा स्वराज से भी हुईं। क्या इस देशभक्त पार्टी के नेताओं ने डेविड कोलमैन हेडली जो भारत पर आतंकवादी हमले का मास्टर माइंड था, उसके बारे में गुफ़्तगू की। क्या प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह से मांग की कि इस विषय पर गुफ़्तगू एजंेंडे में शामिल की जाए। क्या भारतीय जनता पार्टी ने आपत्ति जताई कि आर॰आर॰ पाटिल को दोबारा गृह मंत्री क्यों बनाया जा रहा है। क्या भारतीय जनता पार्टी और संध परिवार ने यह जानने का प्रयास किया कि 10 पाकिस्तानी आतंकवादियों के अलावा और कौन कौन इसमें शामिल था। कम से कम भारत में कौन कौन ऐसे व्यक्ति थे, जो इन आतंकवादी हमलों का षडयंत्र रचने या उन्हें अमली जामा पहनाने में शामिल रहे हांे। अक्षरधाम पर हमला हुआ, मक्का मस्जिद पर हमला हुआ, इन हमलों के तुरंत बाद से लगातार भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का व्यवहार क्या रहा और मुम्बई पर हुए इस आतंकवादी हमले के बाद उसका व्यवहार क्या रहा। आज उसकी तुलना करनी होगी। क्या उसने इस आतंकवादी हमले और इसके षड़यंत्र का पता लगाए जाने की वैसी ही जद्दोजहद की, जैसी की अन्य घटनाओं के बाद करती रही है? अगर नहीं तो इसका कारण क्या है।

शहीद हेमंत करकरे और इंस्पैक्टर मोहनचंद शर्मा दो चेहरे हमारे सामने हैं, दोनों को ही शहीद का दर्जा प्राप्त है। इंस्पैक्टर मोहनचंद शर्मा अधिक बड़ी दुर्घटना का शिकार हुए या हेमंत करकरे? इंस्पैक्टर मोहनचंद शर्मा का मुक़ाबला अधिक सख़्त था या हेमंत करकरे का? इन दोनों के मामले में संघ परिवार का व्यवहार क्या रहा यह सबके सामने है। क्या उसका कोई कारण समझ में आता है। बहरहाल मैं अपने लेख को आगे बढ़ाने से पूर्व अपने पाठकों तथा भारत सरकार का ध्यान निम्नलिखित समाचार की ओर दिलाना चाहता हूं, जिसका संबंध पूर्व इंस्पैक्टर जनरल पुलिस एस॰एम॰ मुशरिफ़ द्वारा लिखी गई पुस्तक श्श्ॅीव ापससमक ज्ञंतांतमश्श् (करकरे का हत्यारा कौन) से है। इस समाचार के बाद मेरे लेख का सिलसिला जारी रहेगा।

महाराष्ट्र के पूर्व इंस्पैक्टर आॅफ़ पुलिस एसएम मुशरिफ़ को मुम्बई उच्च न्यायालय ने उनकी विवादित पुस्तक ‘‘करकरे को किसने मारा’’ के कंटैंट के बारे में स्पष्ट करने के लिए बुलाया है, जिसमें आरोप लगाया है कि हिंदू कट्टरपंथियों और भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने मिलकर एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे को मारने का षड़यंत्र रचा था।

जस्टिस बीएच मारला पिल्लई और जस्टिस आरवाई गानू ने मुशरिफ़ को आदेश दिया है कि वह 1 दिसम्बर को हाईकोर्ट की डिवीज़न बंच के सामने हों। मारला पिल्लई ने कहा कि अगर कोई सरकारी अधिकारी न केवल यह कि खुले आम यह बयान दे, बल्कि उसको प्रकाशित भी कर दे तो उसकी जांच होनी चाहिए।

अदालत ने कहा कि अगर पुस्तक में सरकार को कुछ आपत्तिजनक लगा था तो वह उस पर प्रतिबंध लगा सकती थी। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। शायद आपमें साहस नहीं था। क्या आपने उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज की? मारला पिल्लई ने सरकारी वकील से पूछा और अदालत ने कहा कि अगर पुस्तक में आपत्तिजनक सामग्री थी तो उन्हें मुशरिफ़ के विरुद्ध कार्यवाही करनी चाहिए थी। बहरहाल अगर इसमें कोई मामला बनता है तो उसकी जांच की जानी चाहिए।

सरकारी वकील पांडवरंगपोल ने कोर्ट में पुलिस कमिश्नर संजीव दयाल की ओर से एक शपथपत्र दायर किया, जिसमें बिल्कुल स्पष्टरूप में कहा गया है कि करकरे की हत्या के मामले में अभिनव भारत समैत किसी हिंदू संगठन का हाथ नहीं है। शपथपत्र में कहा गया है कि जांच के दौरान ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है जिसमें इस मामले की चार्जशीट में नामज़द किए गए दो अभियुक्तों मुहम्मद अजमल क़साब और अबू इस्माईल के अलावा कोई और भी लिप्त है। यहां तक कि जिस कोर्ट में क़साब के मुक़दमे की कार्यवाही चली, उसमें भी आरोपपत्र दाख़िल करते समय किसी हिंदू सगठन के इस मामले में लिप्त होने का कोई प्रमाण नहीं मिला। शपथपत्र को पढ़ने के बाद जस्टिस मारला पिल्लई ने कहा कि अदालत यह नहीं कह रही है कि करकरे को किसी और ने मारा था, बल्कि हम यह जानना चाहते हैं कि कहीं भारत की धरती से संबंध रखने वाला कोई व्यक्ति इसमें लिप्त तो नहीं था, क्योंकि मिस्टर मुशरिफ़ आप ही की फ़ोर्स का एक अंग थे।

करकरे की मौत को भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के आदमियों तथा हिंदू कट्टरवादी संगठनों के सर थोपे जाने के विरुद्ध हाईकोर्ट में दो रिटपटीशन दाख़िल की गई हैं, जिनमें से एक बिहार के एमएलए राधाकांत यादव और दूसरी क्योतिबेदीकर ने दाख़िल की है।

मुझे एसएम मुशरिफ़ और विनीता काम्टे की पुस्तकों के संदर्भ में बहुत कुछ कहना है। इसी विषय पर मेरे पिछले क़िस्तवार लेख ‘‘मुसलमानाने हिंद ह्न माज़ी हाल और मुस्तक़बिल’’ की 100 वीं क़िस्त ‘‘शहीद-ए-वतन करकरे की शहादत को सलाम’’ और मेरी पुस्तक ‘‘क्या आर.आर.एस का षडयंत्र - 26/11’’ के संदर्भ में भी इस सच्चाई को सामने रखने का प्रयास करना है लेकिन इस संक्षिप्त लेख को अजमेर बम धमाकों के हवाले के साथ समाप्त करना चाहूंगा।

इसलिए अब एक नई नज़र अजमेर दरगाह बम धमाका और उसके बाद की परिस्थितियों पर:

11 अक्तूबर 2007 को अजमेर की दरगाह में धमाके हुए। इन धमाकों में 3 व्यक्ति हताहत तथा 20 घायल हुए।

पुलिस ने सबसे पहले लशकर-ए-तय्यबा को आरोपित ठहराया।

उस समय केंद्र सरकार ने कहा था कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई॰एसर्॰आईं इस तरह के धमाकों के द्वारा भारत-पाक वार्ता में रुकावट डालना चाहते हैं।

22 अक्तूबर 2007 को दोनों देशों के बीच वार्ता होनी है जिनमें प्दकव.चंा ंदजप जमततवत उमबींदपेउ पर विचार किया जाने वाला था। उसके बाद सीबीआई जांच में सामने आया कि अजमेर दरगाह में सुनील जोशी ने बम रखे थे, फिर अचानक समाचार आया कि संघ परिवार के सदस्य सुनील जोशी की हत्या कर दी गई। अधिक आश्चर्य की बात यह कि मध्यप्रदेश में जहां हत्या हुई, भाजपा की सारकार थी, लेकिन न तो हत्यारे का कोई सुराग़ मिला और न किसी की ओर से कोई मांग कि आख़िर पुलिस इतनी उदासीनता से क्यों काम ले रही है, फिर अजमेर धमाकों के लिए स्वामी असीमानंद को उत्तराखंड के हरिद्वार से गिरफ़्तार किया गया, जिसका संबंध वंदेमातृम ग्रुप से था। अन्य गिरफ़्तार किए जाने वालों में मुकेश वसहानी को गोधरा से गिरफ़्तार किया गया, उस पर भी दरगाह में बम रखने का आरोप है। देवेंद्र गुप्ता, लोकेश शर्मा, चंद्रशेखर लेवे को गिरफ़्तार किया जा चुका है। संदीप डांगे, रामजी कलसांगरे फ़रार हैं और संभवतः गुजरात में शरण लिए हुए हैं। 16 मई 2010 को इंदौर से राजेश मिश्रा नामक एक व्यापारी को गिरफ़्तार किया गया। इस तरह इस मामले में अब तक 7 अभियुक्तों की निशानदेही हुई है, जिनमें से दो फ़रार हैं, जबकि पहले राजस्थान पुलिस ने अजमेर दरगाह बम धमाकों में हूजी और लश्कर-ए-तय्यबा को आरोपित ठहराया था और अब्दुल हफ़ीज़ शमीम, ख़शीयुर्रहमान और इमरान अली को गिरफ़्तार किया था। इसके अलावा अपनी आरंभिक मुहिम में हैदराबाद, राजस्थान पुलिस ने कहा था कि 25 अगस्त के बम धमाकों में जो सिम काॅर्ड बरामद हुए थे, वह बाबूलाल यादव ने प्राप्त किए थे। पुलिस ने कहा था कि यह अपराधियों की चालाकी थी। यह सिमकार्ड नक़ली पहचान प्रयोग करके प्राप्त किए गए थे। पुलिस ने यह भी कहा था कि शाहिद बिलाल जोकि हूजी का कमांडर है अजमेर धमाकों के पीछे भी हो सकता है। इस तरह पुलिस ने हैदराबाद और अजमेर धमाकों के लिए शाहिद बिलाल का हाथ होने की आशंका व्यक्त की थी।

पुलिस का कहना है कि यादव के नाम से लिया गया सिमकार्ड शाहिद बिलाल और अन्य मुस्लिम आतंकवादियों ने 13 अक्तूबर 2007 को धोखा देने के लिए प्रयोग किया था, इसलिए पुलिस शाहिद बिलाल को ही अजमेर, मक्का मस्जिद और 25 अगस्त 2007 के धमाकों के लिए ज़िम्मेदार ठहराती रही है।

जारी................................कृप्या कल अवश्य पढ़ें।

Thursday, November 25, 2010

स्त्री को हम कुल्टा साबित करने की कोशिश करते हैं

मुजफ्फरनगर में अभी कुछ दिन पूर्व एक सर्वजातीय पंचायत हुई। पंचायत ने लड़कियों को मोबाइल इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी। इस फैसले से समाज में यह सन्देश गया कि लडकियां मोबाइल का उपयोग गलत कार्यों के लिए ही करती हैं। इसके विपरीत लड़के मोबाइल का सही उपयोग करते हैं। जितना यह फैसला गलत है, उतनी ही पंचायत की समझ भी गलत है। न लड़के गलत हैं न लडकियां हमारी पुरुषवादी मानसिकता ही गलत है। संविधान की दृष्टि से लिंगभेद का कोई औचित्य नहीं। व्यवस्था असफल है इसलिए काबिले टाइप की यह पंचायतें मानवीय संवेदनाओं से हटकर अनाप-शनाप फरमान जारी करती रहती है अन्यथा सरकार को ऐसी पंचायतों के ऊपर ही रोक लगा देना चाहिए।

सरकार महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने में असमर्थ है। हमारे देश में हर तीन मिनट पर एक महिला हिंसा का शिकार हो जाती है। प्रतिदिन 50 से अधिक दहेज़ उत्पीडन के मामले होते हैं। हर 29 वें मिनट पर एक महिला बलात्कार का शिकार होती है। सरकार 25 नवम्बर से 10 दिसम्बर तक उत्तर प्रदेश के 12 व उत्तराखंड के 5 जिलों में घरेलु हिंसा के खिलाफ अभियान चलने जा रही है।

आज जरूरत इस बात की है कि लडकियों को शिक्षित दीक्षित किया जाए और उनको स्वावलंबी बनाया जाए। समाज को भी अपने आदिम नजरिये बदलने की जरूरत है। आधुनिक समाज में या परिवार में लड़का और लड़की का भेद जारी रखने का भी कोई औचित्य नहीं है। भाषणों में हम स्त्री को हम दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी कहते हैं और व्यवहार में हम उसको कुल्टा साबित करने की कोशिश करते हैं। यही दोहरा माप दंड इस तरह के फैसले जारी करने को विवश करता है।



-लो क सं घ र्ष !

परिणाम बिहार-हमारी जीत, संघ परिवार की हार - अज़ीज़ बर्नी

मेरे सोचने का अंदाज़ ज़रा भिन्न है और कभी कभी मेरी बातें भी अजीब लगती होंगी, जैसे मेरा आज का यह लेख। क्यों मैंने अपने लेख को शीर्षक दिया ‘बिहार परिणाम-हमारी जीत, संघ परिवार की हार’? संघ परिवार तो बिहार के इन विधान सभा चुनावों में कहीं था ही नहीं और सच पूछिए तो हम भी कहां थे। वैसे भी अगर उम्मीदवारों की कामयाबी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो संघ परिवार के राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी ने तो ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की है। इससे पहले बिहार में उसे इतनी सीटें कभी नहीं मिलीं और अपनी तरफ नज़र डालें तो सीधे तौर पर हमें किसी तरह की कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई। हम तो हम धर्म निर्पेक्ष समझी जाने वाली पार्टियंा तक इस चुनाव में बेहैसियत नज़र आईं। फिर मैं राजनीतिज्ञों की तरह इस हार में भी जीत का पहलू क्यों तलाश कर रहा हूं? क्यों इसे अपनी जीत से संज्ञा दे रहा हूं? क्यों स्वीकार नहीं कर लेता कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी पहले से भी अधिक और एक बड़ी शक्ति के रूप में सामने आई है? जिस तरह तरुण विजय ने टेलीवीज़न चैनल पर कहा कि मुस्लिम बहुल सीटों पर भी उन्हें ही अधिक सफलता प्राप्त हुई है, भले ही यह सब नितीश कुमार के कारण हुआ हो, परन्तु अगर सच है तो फिर यह धर्मनिर्पेक्ष पार्टियों की सबसे बड़ी हार है। हां, मगर हम यह ज़रूर कह सकते हैं कि नितीश कुमार को हम आज भी धर्मनिर्पेक्ष ही मानते हैं। बावजूद इसके कि पिछले 5 वर्ष उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार चलाई और अब फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाने जा रहे हैं।

बहरहाल यह तो वह तस्वीर है जो हमें सीधे-सीघे और साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है। आइये अब ज़रा इस तस्वीर के दूसरे रुख़ पर बात करें जिसको ध्यान में रख कर मैंने आज के लेख को उपरोक्त शीर्षक दिया और उस विषय से हट कर गुफ़्तगू की जिस पर मैं आजकल लिख रहा हूं, अर्थात आतंकवादी घटनाऐं और उसके कारण। मैंने बिहार के इन चुनावों के दौरान इस इलेक्शन की बात तो दूर राजनीति पर भी एक शब्द नहीं लिखा और न बोला। मैं किसी तरह भी इस इलैक्शन को अपने लेख या भाषण से प्रभावित नहीं करना चाहता था। मैं जिस विषय पर काम कर रहा हूं वह मेरे पाठक ही नहीं, मेरे देश तथा भारतीय नागरिकों के सामने है। आतंकवाद के विरुद्ध जंग मेरा पहला लक्ष्य है। इसके साथ ही साम्प्रदायिकता को समाप्त करना, धर्मनिर्पेक्षता को मज़बूत बनाना, लोकतांत्रिक व्यवस्था को बल पहुचाना मैं अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करता हूं, इसलिए कि यही समाज तथा राष्ट्र के हक़ में है। आपने देखा बिहार का यह चुनाव आरंभ से अंत तक और अब परिणाम भी सबके सामने है। क्या सुनी कहीं कोई मंडल कमंडल की बात? उठा मंदिर और मंस्जिद का मुद्दा? कहां गई साम्प्रदायिकता और जातिवाद? जिस पार्टी का अस्तित्व ही साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ, जिसने 1901 में हिंदू महासभा और 1925 में आर.एस.एस इन्हीं उद्देश्यों के पेशेनज़र बनाई, जिसका राजनीतिक संगठन जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी का अस्तित्व इन्हीं साम्प्रदायिकता के आधार पर अमल में आया था। जिसका एजेंडा निम्नलिखित चार बिंदुओं तक सीमित रहा, (1)राम मंदिर का निर्माणः पहले दिन से ही बी.जे.पी का बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर का संकल्प रहा। इस मुद्दे को बी.जे.पी ने अपने लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र में भी हमेशा शामिल किया। (2)आर्टिकल-370ः भारतीय संविधान के आर्टिकल-370 के अन्तर्गत जम्मू-व-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा प्रदान किया गया है। इस आर्टिकल के अनुसार रक्षा, विदेशी मामलों, वित तथा कम्यूनीकेशन के मामलों के अलावा भारतीय संसद के अन्य क़ानून को लागू करने के लिए वहां की राज्य सरकार की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। बी.जे.पी हमेशा इस आर्टिकल-370 को समाप्त करने की बात करती रही है। (3)काॅमन सिविल कोड लागू करनाः जिसका उद्देश्य बुनियादी तौर पर मुसलमानों को भारतीय संविधान के अनुसार प्राप्त विवाह तथा विरासत जैसे मामलों में विशेष अधिकार समाप्त कर देना और भारत के सभी नागरिकों को एक ही क़ानून से हांकना है, जिसके लिए वह हमेशा संसद तथा संसद के बाहर आवाज़ उठाती रही है। (4)गऊ हत्याः वोट प्राप्त करने के लिए यह मुद्दा भी बी.जे.पी नेताओं के लिए सर्वोपरि रहा है।

और इसी एजेंडे की भट्टी में जला था गुजरात। जिसे अपनी राजनीति में सफलता गुजरात की टैस्ट लेबाॅरेट्री में दिखाई देती थी, जो 1992 में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद से लगातार 20 वर्षों तक राम मंदिर के नाम पर राजनीति करती रही। जिसकी नज़र में नरेंद्र मोदी ‘‘हिन्दू हृदय सम्राट’’ रहा। उसने देखा कि बिहार के इस चुनाव ने क्या सबक़ दिया। बिहार की जनता ने रिजैक्ट कर दिया उन तमाम इशूज़ को। उसकी समझ में अगर कोई बात आई तो केवल अपने राज्य का विकास, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, निर्भय माहौल और साम्प्रदायिक सदभावना। क्या यह सच नहीं है कि पिछले पांच वर्षों में बिहार हर तरह के साम्प्रदायिक विवादों से पाक रहा? राज्य की जनता को बेख़ौफ़ माहोल मिला? विकास कार्य हुए? जाति तथा धर्म को न तो रोज़मर्रा के जीवन में महत्व दिया गया और न ही चुनाव में। वोट ज़ात-बिरादरी के नाम पर इस तरह नहीं डाला गया, जिस तरह कि इससे पहले होता रहा था। यह देश के लिए सुखद भविष्य का संदेश है। अगर हम बिहार के इस इलैक्शन को भारत की बदलती हुई तस्वीर के रूप में देखें, जिस तरह दिल्ली में शीला दीक्षित की वापसी, उनके विकास कार्यों के आधार पर हुई जिस प्रकार नितीश कुमार विकास के आधार पर पहले से भी अधिक शक्तिशाली होकर अपने राज्य में वापस आए तो फिर यह सभी राजनीतिक दलों के लिए एक चिंता की घड़ी है कि क्या उन्हें अब भी धर्म तथा जाति के आधार पर आंकड़े इकट्ठा करने की आवश्यकता है? क्या इन्हें भावनाओं को भड़काने वाले मुद्दे दरकार हैं? क्या धार्मिक उपलब्धियों के लिए प्रयोग करना कारगर हो सकता है? दूरगामि दृष्टि से देखें तो भ्रष्टाचार पर क़ाबू पाने का आसान तरीक़ा भी यही है कि चुनाव केवल और केवल विकास के आधार पर लड़ा जाए, फिर आपको हज़ारों करोड़ रुपए दरकार नहीं होंगे। राजनीतिक दल चुनाव में सफलता के लिए और सत्ता में आने के बाद अगले चुनाव की तैयारियों के लिए जिस रक़म को जमा करना ज़रूरी समझते हैं, अगर वही रक़म विकास कार्यांे में ख़र्च हो जाए तो चुनाव के समय उसकी आवश्यकता ही पेश नहीं आएगी, सफलता खुद बख़ुद उनके क़दम चूमेगी।

हमने इसे संघ परिवार ही हार इसीलिए ठहराया कि उसने बिहार के इस चुनाव में और चुनाव परिणाम के सामने आने तक अपना हर इशू खो दिया। यहां तक कि नितीश कुमार ने साबित कर दिया कि जिस नरेंद्र मोदी पर उसे बड़ा गौरव है, उनका न आना बिहार में उनकी पार्टी के लिए भी अधिक कारगर साबित हुआ। अर्थात अब भारतीय जनता पार्टी को राजनीति में जिंदा रहना है तो संघ परिवार के बुनियादी ऐजेंडे को तलाक़ देनी होगी।

आइये अब एक और पहलू पर गुफ़्तगू करते हैं जिसे इस चुनाव और इसके परिणामों का सबसे नकारात्मक पहलू ठहराया जा सकता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा भारतीय जनता पार्टी को गले लगाने से पूर्व तक यह पार्टी सत्ता से दूर थी और उसे कोई विशेष राजनीतिक हैसियत भी प्राप्त नहीं थी, लेकिन एक बार जब उसे बड़े पैमाने पर सत्ता में हिस्सेदारी का अवसर मिला तो फिर उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मैं समझता हूं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह एक धर्मनिर्पेक्ष राजनीतिज्ञ होने के बावजूद कांग्रेस से अपनी नाराज़गी के चलते उससे बदला लेने और सत्ता की चाह में एक ऐसी ग़लती कर गए, जिसका ख़ामियाज़ा भारतीय जनता विशेषरूप से मुसलमान आज तक भुगत रहे हैं। ख़ुदा न करे आने वाले कल में नितीश कुमार के द्वारा भारतीय जनता पार्टी को गले लगाना, बिहार में और अधिक मज़बूत बनाना इसकी अगली कड़ी साबित हो, इसलिए कि इस पार्टी के दो चेहरे हैं। एक चेहरा वह है जो सबको साफ़-साफ़ नज़र आता है कि वह साम्प्रदायिक सोच रखते हुए भी एक राजनीतिक दल है, परंतु उसका एक दूसरा चेहरा भी है जिसमें वह राजनीतिक दल के चोले में एक ऐसी मुस्लिम विरोधी और विध्वंसक मानसिकता रखने वाला दल है, जिसका अस्तित्व केवल और केवल इसी उद्देश्य के पेशेनज़र है। मैंने जानबूझ कर इसे एक कट्टर हिंदूवादी सोच की पार्टी कहने से परहेज़ किया, इसलिए कि मैं मानता हूं कि हक़ीक़त यह है ही नहीं, यह तो हिंदुओं को प्रभावित करने के लिए एक ढ़िंडौरा भर है। अब बिहार में पहले से अधिक मज़बूत होकर आने की सूरत में, फिर सरकार में हिस्सेदारी पा लेने की सूरत में वह इसका प्रयोग किस तरह करेगी, इस पर नज़र रखनी होगी। किस तरह सेना मंे कर्नल पुरोहित जैसे तत्व पैदा हुए, किसने उनकी सोच बनाई, किस प्रकार गृहमंत्रालय एक विशेष अंदाज़ में काम करता रहा? साम्प्रदायिक दंगों की बात हो या आतंकवादी हमलों की उसका दृष्टिकोण एक विशेष समुदाय के विरोध में ही दिखाई देता रहा। मानव विकास तथा संसाधन विभाग में जड़ें जमाने का अवसर मिला तो पाठ्यक्रम में परिवर्तन और शिक्षा को भगवा रंग देने का प्रयास किसी से छुपा नहीं रहा। कुल मिला कर हमें यह समझना होगा कि इस पार्टी का ज़ाहिरी एजेंडे के साथ एक छुपा एजेंडा भी होता है और वह छुपा एजेंडा एक लम्बे लक्ष्य को ध्यान में रख कर अमलीजामा पहनाया जाता रहता है, अर्थात वह दयानंद पांडे के लैपटाॅप से निकले मिशन-2025 जैसा होता है। जिस प्रकार सत्ता प्राप्ति के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा गुजरात को उन्होंने न केवल साम्प्रदायिकता के लिए इस्तेमाल किया, बल्कि बम धमाकों की जांच के बाद जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि इन राज्यों में आतंकवाद को कितना बढ़ावा दिया गया। हमें नितीश कुमार की कारकर्दगी पर भरोसा है, उन्होंने जिस प्रकार पिछले पांच वर्षों में इस पार्टी के एजेंडे पर लगाम रखी, वह आगामी पांच वर्ष भी रखेंगे। परंतु गुप्तरूप से यह लोग क्या करते रहेंगे, क्या हर बात पर नज़र रखना आसान होगा? यह चुनाव नितीश कुमार के चेहरे को सामने रख कर विकास के आधार पर लड़ा गया। परिणाम सामने है। नितीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड को 115-116 सीटें प्राप्त हुईं और टेलीवीज़न चैनलों पर समीक्षकों ने यहां तक भी कहना शुरू कर दिया कि नितीश अब भाजपा के मुहताज नहीं हैं। अगर आने वाले कल में किसी भी वजह से उनकी भाजपा से नहीं निभती तो उनके लिए कठिन नहीं होगा, कुछ दूसरों की सहायता प्राप्त करके अकेले दम पर सरकार बना लेना। नितीश इस बात से इनकार करेंगे, वह सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करेंगे, परंतु इस राजनीति का कोई भरोसा है क्या? कब क्या रंग बदले, पहले से कुछ भी नहीं जा सकता। हम ऐसा क्यों नहीं सोचते कि अगर संख्या में वृद्धि नितीश कुमार के दल की हुई है तो यह वृद्धि भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या में भी हुई है। अगर बदलने का अवसर नितीश कुमार के पास है तो यह अवसर भारतीय जनता पार्टी के पास भी है। निःसंदेह संख्या के मामले में वह बिहार में अपनी सरकार किसी भी सूरत में बनाने के बारे में नहीं सोच सकती, परंतु अपनी बढ़ी हुई ताक़त को और अधिक बढ़ाने और कुछ नए साथियों की तलाश में लग जाने के प्रयास तो कर सकती है। पांच वर्ष एक लम्बी अवधि है। नितीश कुमार सरकार चलाएंगे और उनके साथी मोदी क्या गुल खिलाएंगे इसको समझने और उस पर नज़र रखने की आवश्यकता है। हमने एक बार नितीश कुमार को यह सुझाव दिया था, उस समय जब हम दोनों एक बड़ी जनसभा को संबोधित कर रहे थे कि वह अकेले मैदान में उतरें, सफल हांेगे और सरकार बनाएंगे, अगर उन्हें हमारी बात याद हो तो आज के परिणाम यह स्पष्ट करते हैं कि अगर नितीश कुमार अकेले अपने दम पर चुनाव लड़े होते तो भी वह स्पष्ट बहुमत के साथ जीत कर आए होते, सरकार बनाने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती और न साझेदारी की सरकार चलाने की मजबूरी होती। साथ ही केंद्र से अधिक बेहतर संबंध बनाने का अवसर होता। शरद यादव केन्द्र में मंत्री होते। वैचारिक दृष्टि से नितीश कुमार से तालमेल न रखने वाली पार्टी (बी.जे.पी) इतनी शक्तिशाली न होती। अतिसंभव है कि इस स्थिति में भाजपा की सीटें आरजेडी से कम होतीं, भले ही लालू, पासवान और कांगे्रेस की सीटों में कुछ वृद्धि हो जाती।

अब अंतिम चंद पंक्तियां। आखिर मैंने इसको हमारी जीत क्यों ठहराया? निःसंदेह इस चुनावी मैदान में हम कहीं भी नहीं थे, भले ही कुछ पार्टियों ने अपना उम्मीदवार बनाया हो, कुछ जीत कर आ गए हों, परन्तु ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ। बावजूद इसके इसे हमने अपनी कामयाबी इसलिए ठहरया कि हमने इस चुनाव में संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के निर्धारित ऐजेंडे को पराजित कर दिया है। उन्हें यह सोचने और समझने पर मजबूर कर दिया कि यह देश जिसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलना है, साम्प्रदायिक सदभावना तथा राष्ट्रीय एकता में विश्वास रखता है, उनकी धार्मिक घृणा से भरी सोच पर नहीं। मुस्लिम दुश्मनी पर नहीं।

विकास शिगूफा था, असल में विपक्ष ही साफ नहीं था

नीतीश कुमार शुक्रवार को अपनी दूसरी पारी की शुरुआत करेंगे। पिछले पांच सालों में बिहार में कोई नया बिजलीघर चालू नहीं हुआ। पहले से लगे बिजलीघरों की उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ी। बाढ़ और सुखाड़ के कारण पिछले तीन सालों से खेती-किसानी चौपट है। कृषि प्रधान इस राज्‍य से खेतिहर मजदूरों व छोटे किसानों का पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा। सरकारी योजनाओं में लूट-खसोट जारी है। नौकरशाही केंद्रित भ्रष्‍टाचार चरम पर है। इसे सरकार भी मान रही है। बिहार की सड़कों की चर्चा भले ही पूरे देश में हो रही हो, लेकिन मुजफ्फरपुर की सड़कें तो पांच सालों में पैदल चलने लायक भी नहीं बन पायीं। फिर भी बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को इस राज्‍य की बागडोर सौंप दी है। इस उम्मीद के साथ कि आज नहीं तो कल उनकी तकदीर बदलेगी। बिहारियों के बारे में कहा जाता है कि वे कभी नाउम्मीद नहीं होते। आस की डोर थामे वे पूरी जिंदगी काट लेते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो लालू-राबड़ी पंद्रह सालों तक इस राज्‍य पर शासन नहीं कर पाते। लालू प्रसाद से बंधी उम्मीद की डोर टूटने में पंद्रह साल लगे थे। नीतीश कुमार को पांच साल ही मिले। उनसे इतनी जल्‍दी नाउम्मीद कैसे हुआ जा सकता है। विकास नहीं हुआ तो क्‍या हुआ, विकास की आस तो जगी है। लगातार पंद्रह सालों तक लालू-राबड़ी से मिली निराशा झेल चुके बिहार के लोग महज पांच सालों में नीतीश कुमार से निराश कैसे हो जाते। लिहाजा उन्होंने उनको और पांच साल देने का फैसला किया है।

बिहार के लोगों में जो उम्मीद जगी है, उसमें मीडिया का भी बड़ा योगदान है। मीडिया ने नीतीश कुमार की जितनी बड़ी छवि गढ़ी है, बिहार की जनता ने उससे कई गुना बड़ा जनादेश उनको दिया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार विधानसभा में अब तकनीकी तौर पर विपक्ष वजूद ही समाप्‍त हो गया है। मुख्‍य विरोधी दल का दर्जा पाने के लिए किसी एक दल के खाते में कुल सीटों का दस प्रतिशत सीट होना चाहिए। लेकिन चुनावी नतीजे बता रहे हैं कि राजद-लोजपा 25 सीटों पर ही निपट गये। प्रथम मुख्‍यमंत्री श्रीकृष्‍ण सिंह और राबड़ी देवी के बाद नीतीश कुमार पहले मुख्‍यमंत्री है, जिन्हें लगातार दूसरी बार बिहार का मुख्‍यमंत्री बनने का अवसर मिला है। इस भारी जीत की चुनौतियां कितनी भारी हैं, इसे नीतीश कुमार से अधिक और कौन समझ सकता है। यही वजह है कि नतीजे आने के तुरंत बाद नीतीश कुमार जब मीडिया से मुखातिब हुए, तो चुनौतियों के बोझ तले दबे दिखे। उन्होंने कहा, मैं काम करने में भरोसा रखता हूं। मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। मैं दिन-रात मेहनत करूंगा। बिहार के लोगों ने मुझमें जो विश्वास जताया है, वही मेरी पूंजी हैं। अब बात बनाने का समय नहीं है। काम करने का समय है।

नीतीश कुमार की बातों में भारी जनादेश से उपजा मनोवैज्ञानिक दबाव और बेहतर भविष्‍य का संकल्‍प साफ नजर आता है। उन्हें एक ऐसे सदन में रह कर सरकार चलाना है, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका में सरकार ही होगी। अकूत ताकत तानाशाही की ओर भी ले जाती है और नयी इबारत लिखने का हौसला भी देती है। ऐसे में नीतीश कुमार अपना संकल्‍प कैसे पूरा करेंगे, यह एक बड़ा सवाल है।


-Mohalla live

अयोध्या फैसले पर पुरातत्वविद, इतिहासकार और समाजशास्त्री

अयोध्या फैसले पर वक्तव्य


30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद उच्च-न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दिए फैसले में इतिहास,तर्क और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की जो गति हुई है वह गहन चिंता का विषय है. सर्वप्रथम यह दृष्टिकोण,कि बाबरी मस्जिद किसी हिन्दू मंदिर के स्थान पर बनाई गई थी और जिसका तीन में से दो न्यायाधीशों ने समर्थन किया है, उन साक्ष्यों पर गौर नहीं करता जो इस तथ्य के विपरीत हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा स्वयं कराई गई खुदाइयों में सामने आये हैं: जानवरों की हड्डियों की सर्वत्र मौजूदगी और साथ ही साथ सुर्खी और चूने के गारे का इस्तेमाल (जो सब मुस्लिम उपस्थिति के अभिलक्षण हैं) वहाँ मस्जिद के नीचे किसी हिन्दू मंदिर के मौजूद रहे होने की सम्भावना को नकारते हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वे की विवादास्पद रिपोर्ट जिसने 'आधार स्तंभों' की बिना पर इसके विपरीत बात कही, ज़ाहिर तौर पर कपटपूर्ण थी क्योंकि कोई खम्भे पाए ही नहीं गए, और 'आधार स्तंभों' की कथित मौजूदगी पुरातत्ववेत्ताओं के बीच विवाद का विषय रही है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि एएसआई द्वारा करवाई गई खुदाई से जुड़ी साइट नोटबुकें, कलाकृतियाँ और अन्य भौतिक प्रमाण विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा परीक्षण हेतु उपलब्ध कराए जाएँ.

इस तथ्य के बारे में भी कोई सुबूत पेश नहीं किया गया है कि भगवान राम की जन्मस्थली वहीं है जहाँ मस्जिद थी ऐसी हिंदू मान्यता, 'आदिकाल' से तो क्या हाल के वर्षों से थोड़ा पहले मौजूद भी थी. यह फैसला इसलिए गलत तो है ही कि यह इस मान्यता की प्राचीनता को स्वीकार करता है, बल्कि यह बात बेहद तकलीफदेह भी है कि इस स्वीकरण को मिल्कियत की हकदारी का फैसला करने के तर्क में तब्दील किया गया. यह न्याय और निष्पक्षता के सभी सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है.

इस निर्णय की सबसे आपत्तिजनक बात यह है कि यह हिंसा और बाहुबल को जायज़ ठहराता है. यह फैसला 1949 में हुई जबरन घुसपैठ को तो मान्य करता है जिसमें मस्जिद की गुम्बदों के नीचे मूर्तियाँ रखी गईं, पर अब यह बिना किसी तार्किक आधार के यह मान्य करता है कि उस स्थानान्तरण ने मूर्तियों को उनकी उचित जगह दिलाई. और भी आश्चर्यजनक बात यह है कि यह फैसला (जी हाँ, उच्चतम न्यायालय के ही आदेशों की अवज्ञा करते हुए) 1992 में हुए मस्जिद के विध्वंस को ऐसे कृत्य के तौर पर स्वीकार करता है जिसके नतीजे मंदिर बनाने की दुहाई देने वालों को मस्जिद के मुख्य हिस्से हस्तांतरित करके स्वीकार करने पड़ेंगे.

इन सारी वजहों से हम इस फैसले को हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को लगे आघात के तौर पर देखते हैं. इस मामले में आगे जो भी हो, देश जिसे खो चुका बदकिस्मती से वह तो ठीक होने से रहा.



रोमिला थापर

के.एन.श्रीमाली

डी.एन.झा

के.एन.पणिक्कर

अमिय कुमार बागची

इक़तिदार आलम खान

शीरीं मूसवी

जया मेनन

इरफ़ान हबीब

सुवीरा जैसवाल

केशवन वेलुथात

डी. मंडल

रामकृष्ण चटर्जी

अनिरुद्ध राय

अरुण बंदोपाध्याय

ए. मुरली

वी.रामकृष्ण

अर्जुन देव

आर.सी.ठकरान

एच.सी.सत्यार्थी

अमार फारुक़ी

बी.पी.साहु

बिस्वमय पती

लता सिंह

उत्सा पटनायक

ज़ोया हसन

प्रभात पटनायक

सी.पी.चंद्रशेखर

जयती घोष

अर्चना प्रसाद

शक्ति काक

वी.एम.झा

प्रभात शुक्ल

इंदिरा अर्जुन देव

महेंद्र प्रताप सिंह

और अन्य



(सहमत द्वारा जारी)

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(वक्तव्य की मूल अंग्रेजी प्रति नीचे दी जा रही है)
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SAHMAT



29, Feroze Shah Road,New Delhi-110001
Telephone- 23381276/ 23070787
e-mail-sahmat8@ yahoo.com
Date 1.10.2010

Statement on Ayodhya Verdict


The judgement delivered by the Lucknow Bench of the Allahabad High Court in the Ram Janmabhoomi-Babri Masjid Dispute on 30 September 2010 has raised serious concerns because of the way history, reason and secular values have been treated in it. First of all, the view that the Babri Masjid was built at the site of a Hindu temple, which has been maintained by two of the three judges, takes no account of all the evidence contrary to this fact turned up by the Archaeological Survey of India’s own excavations: the presence of animal bones throughout as well as of the use of ‘surkhi’ and lime mortar (all characteristic of Muslim presence) rule out the possibility of a Hindu temple having been there beneath the mosque. The ASI’s controversial Report which claimed otherwise on the basis of ‘pillar bases’ was manifestly fraudulent in its assertions since no pillars were found, and the alleged existence of ‘pillar bases’ has been debated by archaeologists. It is now imperative that the site notebooks, artefacts and other material evidence relating to the ASI’s excavation be made available for scrutiny by scholars, historians and archaeologists.

No proof has been offered even of the fact that a Hindu belief in Lord Rama’s birth-site being the same as the site of the mosque had at all existed before very recent times, let alone since ‘time immemorial’. Not only is the judgement wrong in accepting the antiquity of this belief, but it is gravely disturbing that such acceptance should then be converted into an argument for deciding property entitlement. This seems to be against all principles of law and equity.

The most objectionable part of the judgement is the legitimation it provides to violence and muscle-power. While it recognizes the forcible break-in of 1949 which led to placing the idols under the mosque-dome, it now recognizes, without any rational basis, that the transfer put the idols in their rightful place. Even more astonishingly, it accepts the destruction of the mosque in 1992 (in defiance, let it be remembered, of the Supreme Court’s own orders) as an act whose consequences are to be accepted, by transferring the main parts of the mosque to those clamouring for a temple to be built.

For all these reasons we cannot but see the judgement as yet another blow to the secular fabric of our country and the repute of our judiciary. Whatever happens next in the case cannot, unfortunately, make good what the country has lost.



Romila Thapar

K.M. Shrimali

D.N. Jha

K.N. Panikkar

Amiya Kumar Bagchi

Iqtidar Alam Khan

Shireen Moosvi

Jaya Menon

Irfan Habib

Suvira Jaiswal

Kesavan Veluthat

D. Mandal

Ramakrishna Chatterjee

Aniruddha Ray

Arun Bandopadhyaya

A. Murali

V. Ramakrishna

Arjun Dev

R.C. Thakran

H.C. Satyarthi

Amar Farooqui

B.P. Sahu

Biswamoy Pati

Lata Singh

Utsa Patnaik

Zoya Hasan

Prabhat Patnaik

C.P. Chandrasekhar

Jayati Ghosh

Archana Prasad

Shakti Kak

V.M. Jha

Prabhat Shukla

Indira Arjun Dev

Mahendra Pratap Singh

and Others


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