Friday, December 30, 2011

कारपोरेट घरानों की जीत या जनता की हार



 इस वर्ष 2011 के शुरू मे धड़ाधड़ भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा CAG के प्रयासों के फल स्वरूप  हुआ था।एक एक कर राजनेता जेल भेजे गए। तह मे जाने पर जैसे ही लाभार्थियों मे रत्न टाटाअनिल अंबानीनीरा राडिया जैसे उद्योगपतियों और दलालों के नाम सामने आए और उनके विरुद्ध कारवाई की संभावना बनते दिखी वैसे ही कारपोरेट घरानों ने अपने अमेरिकी संपर्कों के सहयोग से पहले रामदेव फिर अन्ना को आगे करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू करा दिया। जम कर राजनेताओं और संसदीय संस्थाओं को कोसा गया। ऐसा वातावरण सृजित किया गया जैसे सभी भ्रष्टाचार की जड़ यह संसदीय लोकतन्त्र और राजनेता ही हैं। खाता-पीता सम्पन्न वर्ग जो एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर आराम फरमाता है और वोट डालने भी नहीं जाता है नेताओं के पीछे हाथ धोकर पड़ गया। कारपोरेट मीडिया ने इसी आराम तलब वर्ग के जमावड़े को जन-आंदोलन की संज्ञा दी। परंतु मैंने इसे देश मे तानाशाही लाने का उपक्रम बताया था।
उस समय अमेरिकी प्रशासन ने खुल कर अन्ना आंदोलन का समर्थन किया था। भाजपा सरकार से नियम/कानून विरुद्ध हिमाचल प्रदेश मे चाय बागान लेने वाले वकील साहब ने तब अमेरिकी सरकार के निर्णय का बड़ी ही बेशर्मी से स्वागत किया था। लेकिन अब 20 दिसंबर 2011 को उसी अमेरिकी सरकार के गुप्तचर संगठन CIA ने अन्ना को आर एस एस /हुर्रियत कान्फरेंस के समक्ष तौल दिया है।
जो लोग और खासकर वे विद्वान जो अन्ना/रामदेव का समर्थन करते रहे हैं इस बदलाव का कारण बता सकते हैं? शायद नहीं। जब अमेरिका अर्थ संकट से घिरा था उसके नागरिक असंतोष व्यक्त कर रहे थे -आकूपाई वाल स्ट्रीट उभार पर था तो अमेरिका ने बड़ी ही चतुराई से भारतीय कारपोरेट घरानों से मिल कर भारत मे रामदेव/अन्ना आंदोलन शुरू करा दिये जिससे यहाँ के लोग यहीं उलझे रहें और अमेरिका की आंतरिक दुर्दशा देख कर उससे खिचे नहीं। जून 2011 मे साईबेरिया की एक अदालत मे ISCON के संस्थापक द्वारा व्याख्यायित गीता जो योगीराज श्री कृष्ण की गीता से कहीं से भी मेल नहीं खाती है के विरुद्ध केस वहाँ की सरकार ने चला दिया। ISCON कोई धार्मिक संगठन नहीं है वह तो CIA की ही एक इकाई है लेकिन भारत के बुद्धिमान लोगों की बुद्धि का कमाल देखिये संसद मे भाजपा/सपा/राजद सभी के सांसद उस कृष्ण विरोधी/धर्म विरोधी गीता के बचाव मे एकत्र हो गए और हमारे विदेश मंत्री एस एम कृष्णा साहब ने रूसी सरकार पर दबाव डाला की अदालत उस गीता पर प्रतिबंध न लगाए। इत्तिफ़ाक से रूस मे प्रधानमंत्री ब्लादीमीर पुतिन साहब की चुनावों मे जीत को वहाँ की जनता ने धांधली करार दिया। भारत से संबंध मधुर बनाए रखने के लिए परेशान रूसी सरकार ने अदालत मे कमजोर पैरवी की और अदालत ने रूसी सरकार की याचिका खारिज कर दी। यह जीत भारत की जनता की नहीं अमेरिकी CIA की जीत है कि उसके सहयोगी संगठन को निर्बाध छूट मिल गई। इन्हीं दलों के साथ यू पी मे लोकायुक्त से परेशान बसपा ने भी 'संवैधानिक लोकपाल' का गठन नहीं होने दिया।

अन्ना आंदोलन के दौरान सभी भ्रष्टाचार -अभियुक्त जमानत पर रिहा हो गए। अब इस आंदोलन की जरूरत भी नहीं रह गई। अमेरिकी प्रशासन और CIA ने अन्ना टीम से हाथ खींच लिया। अतः यह पूरी तरह से कारपोरेट घरानों और अमेरिकी नीतियों की जीत है। देश की जनता की यह हार है। लोकपाल मे NGOs और कारपोरेट घरानों को जब तक नहीं शामिल किया जाता तब तक उसका गठन बेमानी ही है।

खाद्य सुरक्षा के नाम पर भूखों को फिर ठेंगा


 . 
भोजन के अधिकार की आड़ में पी.डी.एस को ठिकाने लगाने की तैयारी 

काफी ना-नुकुर, खींचतान और दांवपेंच के बाद आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पेश कर दिया. पिछले दो सालों से अधिक समय से सरकार के अंदर और बाहर इस कानून के मसौदे को लेकर बहस चल रही थी. दूसरी ओर, देश भर में खाद्य सुरक्षा यानी सभी नागरिकों को भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो रहे थे.

सरकार पर नैतिक और राजनीतिक दोनों दबाव थे. सचमुच इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार और भारत के आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के दावों के बीच देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की कुल तादाद बढ़कर २७ करोड़ से अधिक पहुँच गई है?

यही नहीं, दुनिया भर में भूखमरी के शिकार लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा अकेले भारत में रहता है. आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक (हंगर इंडेक्स) पर ८४ देशों में भारत कई अत्यधिक गरीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों से भी नीचे ६७ वें स्थान पर है.

विडम्बना देखिए कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर १९९० से २००५ के बीच तेज वृद्धि दर के कारण जहां भारत के जी.डी.पी का आकार दुगुना हो गया और प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि दर्ज की गई, उसी दौरान देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की तादाद में कमी आने के बजाय उनकी संख्या में लगभग ६.५ करोड़ की और बढोत्तरी हो गई.

हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कोई ४८ फीसदी बच्चे और ४० फीसदी वयस्क भरपेट और पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन न मिलने के कारण कुपोषण के शिकार हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून से देश के उन करोड़ों लोगों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं जो आज़ादी के ६३ साल बाद आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं.

 लेकिन इतनी उम्मीदों, सरकार के भारी-भरकम दावों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बाद जो विधेयक संसद में पेश किया गया है, उसका मकसद कहीं से भी सबको भोजन का मौलिक अधिकार देना नहीं है.

इसके उलट सच यह है कि खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक न सिर्फ बहुत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है बल्कि यह देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून साबित होगा. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा के नाम पर यह भूखे लोगों का मजाक उड़ानेवाला विधेयक है जिसका असली मकसद खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में खादयान्नों के कारोबार से जुड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की मदद करना है.

इस कानून के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) में सुधार के नाम पर उसे पूरी तरह बर्बाद करने की तैयारी कर ली गई है जिससे सबसे ज्यादा फायदा बड़ी बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों को होगा.

असल में, यू.पी.ए सरकार इसके लिए बहुत दिनों से मौका खोज रही थी. यह किसी से छुपा नहीं है कि पी.डी.एस में सुधार के नाम पर उसे समेटने और बंद करने की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं. पी.डी.एस में सुधार की आड़ में उसे पहले ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) में बदलकर कमजोर और खोखला किया जा चुका है.

इसी नव उदारवादी एजेंडे को आगे बढाने के लिए अब खाद्य सुरक्षा विधेयक को एक मौके की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून को लागू करने के लिए सभी राज्यों को पी.डी.एस में सुधार करना होगा.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पी.डी.एस व्यवस्था में जितना भ्रष्टाचार और अराजकता है, उसे देखते हुए उसमें सुधार की और उसे भ्रष्टाचारमुक्त, प्रभावी और जन नियंत्रण में लाने की सख्त जरूरत है. लेकिन सरकार का इरादा उसमें सुधार करके उसे सशक्त और प्रभावी बनाने का नहीं है. इसके उलट वह पी.डी.एस में सुधार के बहाने उसमें अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) को घुसेड़ना चाहती है.

लेकिन इस विधेयक में सबसे खतरनाक प्रावधान यह किया गया है कि केन्द्र सरकार जिस दिन से और जिस क्षेत्र में अनाज की जगह कैश ट्रान्सफर, फ़ूड कूपन जैसी योजनाओं को लागू करना चाहेगी, राज्य सरकारों को उसे लागू करना होगा.

साफ़ है कि सरकार का असली इरादा लोगों को पी.डी.एस के माध्यम से अनाज मुहैया कराके खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि कैश ट्रांसफर और फ़ूड कूपन के बहाने खाद्यान्न के बड़े व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को मोटे मुनाफे की गारंटी करना है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पहले एन.डी.ए और अब यू.पी.ए सरकार पिछले कई वर्षों से राशन लाभार्थियों को अनाज के बजाय नकद पैसा या फ़ूड कूपन देने की पेशकश करते रहे हैं जिसका इस्तेमाल करके वह खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद ले.

ऊपर से देखने पर यह योजना बहुत आकर्षक लगती है कि लाभार्थी को राशन की दूकान और उसमें मिलनेवाले घटिया अनाज से मुक्ति मिल जायेगी और वह अपनी सुविधा और पसंद से अनाज खरीद सकता है.

लेकिन सच यह है कि सुधार के नाम पर गरीबों और भूखमरी से जूझ रहे लोगों को भ्रष्ट पी.डी.एस के बजाय खुले बाजार की मनमानी के भरोसे छोड़ा जा रहा है. आखिर कितने गरीब खुले बाजार से फ़ूड कूपन या नकद से अपनी इच्छा या पसंद से अनाज खरीद पाएंगे?

दूसरी ओर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर सरकार कैश ट्रांसफर या फ़ूड कूपन को आगे बढ़ाने जा रही है तो उसके अपने अनाज भण्डार का क्या होगा? अगर सरकार पी.डी.एस से अनाज का वितरण नहीं करना चाहती है तो उसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने और अनाज भण्डार रखने की भी क्या जरूरत है?

मतलब साफ़ है. सरकार का असली मकसद न सिर्फ पी.डी.एस को खत्म करना है बल्कि वह किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की जिम्मेदारी से भी मुक्ति चाहती है. इस तरह वह किसानों को भी बाजार और बड़े अनाज व्यापारियों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ना चाहती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे ज्यादा खुशी अनाज के कारोबार से जुड़े बड़े व्यापारियों और देशी-विदेशी कंपनियों को होगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि किसानों और राशन लाभार्थियों दोनों को बाजार के भरोसे छोडकर सरकार वास्तव में देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाने जा रही है.

यही इस विधेयक की असलियत है. सच यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में नया कुछ भी नहीं है. इसमें मौजूदा व्यवस्था को ही नए नाम से पेश कर दिया गया है.

बाकी कल...
 

Thursday, December 29, 2011

मध्यप्रदेश में महिला हुई सती

 .
roop_kanwar_sati
शिवपुरी न्यूज़भारत में एक बार फिर सतीप्रथा की सोच से प्रभावित महिला के प्राण त्यागने का मामला प्रकाश में आया है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में राधा व्यास (42 वर्ष) नामक महिला ने अपने पति कृष्ण गोपाल व्यास की अकाल मृत्यु का समाचार सुनते हुए मंदिर में जाकर अपने को आग के हवाले कर दिया. राधा को जिला चिकित्सालय में भर्ती कराया गया है जहां उनकी हालत गंभीर होती गयी और बेहतर इलाज के लिए  ग्वालियर ले जाते हुए रास्ते में राधा व्यास की २७ दिसम्बर को मौत हो गयी.  

शिवपुरी में राधा व्यास सतीकांड की कहानी 25 दिसम्बर की रात उस समय शुरू हुई जब उत्तर प्रदेश के मेरठ में हुए सड़क हादसे में घायल उनके पति कृष्णगोपाल व्यास की इलाज के लिए दिल्ली ले जाते वक्त रास्ते में  मौत हो गयी. पति के  मौत की खबर सुनते ही कृष्णगोपाल व्यास की पत्नि ने राधाव्यास  ने  मंदिर  जाकर खुद को आग के हवाले कर दिया. आग की लपटें और  चीख की आवाज सुनकर परिजनों ने राधा को बचाने का प्रयास किया और जिला चिकित्सालय में भर्ती कराया।

मामले की जाँच कर रहे एक स्थानीय पुलिस अधिकारी ने बताया कि 'राधा व्यास 90 फीसदी जल चुकी थीं. मरने के बाद उन्हें और उनके पति को एक साथ  जलाया गया. उन्होंने खुद को आग के हवाले क्यों किया, इस बारे में जाँच पूरा होने पर ही कुछ कहा जा सकता है.' स्थानीय लोगों के मुताबिक राधाव्यास ने सती प्रथा की मानसिकता के कारण ही अपने को आग के हवाले किया था.

गौरतलब है कि इतिहास के पन्नों में तो सतीप्रथा 1829 बंद हो गई थीलेकिन राजस्थान में रूपकंवर कांड से लेकर शिवपुरी में राधाव्यास कांड तक सतीप्रथा आज भी जिन्दा है,के उदाहरण आज भी सामने आ रहे हैं.फर्क केवल इतना है कि अब सतीप्रथा के प्रभाव में आकर प्राण त्यागने वाली महिलाओं को सरकारी कागजों में दुर्घटना का शिकार या आत्महत्या का प्रयास बताया जा रहा है।

इस मामले ने एक बार फिर सरकार के तमाम जागरुकता कार्यक्रमों की पोल खोलकर रख दी है और यह सिद्ध कर दिया है कि मध्यप्रदेश के छोटे शहरों में सैंकड़ों साल पुरानी परपंराओं का पालन आज भी किया जा रहा है,जबकि जिला प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है। देखना यह है कि अब मध्यप्रदेश सरकार इस मामले की लीपापोती के लिए क्या कदम उठाती है।

ई-मेल का खेल


.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के धर्म निरपेक्ष होने के दावे उस समय खोखले दिखाई पड़ते हैं जब मुसलमानों की देश भक्ति को शक की निगाहों से देखा जाता है। देश में जब भी आतंकवादी धमाके होते हैं तो मुसलमानों को शक की निगाहों से देखा जाता है। इस मामले में मुसलमानों को लपेटने में मीडिया की अहम भूमिका होती है। क्योंकि मामले को इतना लपेटकर पेश किया जाता है कि मुस्लिम चेहरों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। आप के सामने लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ माना जाने वाले मीडिया की कुछ तस्वीर पेश करते हैं-
7 सितम्बर 2011 को दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट को इस तरह से पेश किया किया जैसे कि सिर्फ एक समुदाय विशेष को टारगेट किया जा रहा है। धमाके के जाँच में जुटी जाँच एजेंसियों को कोई सबूत मिले बगैर ही हमलावरों का स्कैच जारी कर दिया गया। मुस्लिम नामों वाले संगठनों का हौव्वा खड़ा किया गया। जाँच के नाम पर मुसलमानों को परेशान किया गया। इस आतंकवादी घटना को अंजाम देने की जिम्मेदारी वाला ई मेल आतंकवादी संगठन हूजी की तरफ से आया, ऐसा बताया गया। बाद में पता चला कि यह ई मेल जम्मू कश्मीर के किश्तवाड़ से आया था। दिल्ली बम ब्लास्ट के आरोप में दो मुस्लिम छात्रों को गिरफ्तार किया गया। ई मेल की वास्तविकता को जाँचे वगैर पुलिस और मीडिया द्वारा इस ब्लास्ट का संबंध हूजी से जोड़ दिया गया। लेकिन कई सवालों को दबा दिया गया। मसलन यह कि विस्फोट हूजी ने अंजाम दिया तो उसने अपना नाम ग़लत क्यों लिखा। क्या इसके सदस्य इतने कायर हैं कि अपने संगठन का नाम नहीं लिख सकते। इससे पहले कई और धमाकों को लेकर भी हूजी पर आरोप लगते रहे हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट मामले में दूसरा ईमेल गुजरात के अहमदाबाद से आया बताया गया। इसमें मनु नाम के एक हिन्दू युवक का नाम सामने आया। ख़बरों के अनुसार अमरीकी जाँच एजेंसी एफ.बी.आई ने इस मामले में सईद-अल-हवरी का नाम चुना। इसमें बताया गया कि गुजरात के कई शहर आतंकवादियों के निशाने पर हैं। इस युवक के बारे में न तो किसी मीडियाकर्मी ने मामले को उठाया और न ही प्रशासन ने।
कल्पना कीजिए कि मनु या शनि शुक्ला के अलावा अगर कोई मुसलमान होता तो मीडिया का रवैया कैसा होता, इस ख़़बर को कई नज़रों से देखा जाता। किश्तवाड़ में पकड़े गए दो नौजवान जो मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जिनकी उम्र 18 साल से कम है उन पर आरोप लगाए गए कि इंटरनेट के माध्यम से धमकी भरा ईमेल भेजा। लेकिन ख़बरों में उनके नाबालिग होने का जिक्र नहीं किया गया। अंग्रेजी के एक बड़े अखबार ने 15 सितम्बर के प्रकाशन में कश्मीर और पश्चिम से इंडियन मुजाहिदीन और हूजी ईमेल के हवाले से गिरफ़्तारी की ख़बर प्रकाशित की। दोनों ख़बरों में शनि शुक्ला वाली खबर इस तरह है कि मजाक में ईमेल भेजने के सिलसिले में युवक को गिरफ्तार किए जाने की खबर दी गई थी।
तीसरा ईमेल जिसके बारे में कहा जाता है कि इंडियन मुजाहिदीन ने भेजा है जो छोटू मिनानी (chotoominani5@gmail.com) के नाम से भेजा गया है। इसके बारे में जाँच इस नतीजे पर पहुँची है कि इसे पश्चिमी बंगाल और झारखंड की सीमा पर स्थित पाकोड़ नामक स्थान से भेजा गया था। कोलकाता पुलिस ने शनि शुक्ला को इस मामले में गिरफ्तार किया जिसकी उम्र 14 साल है। अखबारों में उसके नाबालिग होने की खबर को महत्व दिया गया।
उल्लेखनीय है कि इंडियन मुजाहिदीन के नाम से भेजे गए उक्त ईमेल का सन्देश पिछले सभी ईमेल संदेशों से भिन्न था। इस मेल में कहा गया था कि दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट हमने किया था न कि हूजी और न ही अन्य किसी ने। इस ईमेल में साफ लिखा गया था कि हमने जानबूझकर बुधवार का दिन चुना क्योंकि इसी दिन कोर्ट में जनहित याचिकाओं की सुनवाई होती है, जिसकी वजह से कोर्ट में अधिक भीड़ होती है।
दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट के जाँच के मामले में नया मोड़ उस समय आया जब चश्मदीद गवाह ने यह खुलासा किया कि बम एक कोरियर पैकेट में सफेद कपड़े में लपेट कर रखा गया था। फिलहाल सरकारी अधिकारी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं। पुलिस और मीडिया ने मुसलमानों की छवि को खराब निश्चित रूप से किया है जिसकी वजह से एक टोपी और दाढ़ी वाले आदमी को शक भरी नजरों से देखा जाता है।
हालाँकि आतंकवादी हमले को हम किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। आतंकवाद का न कोई चेहरा, न कोई मजहब होता है। इसे रोकने के लिए जायज कदम उठाने चाहिए। आतंकवाद की आड़ में किसी विशेष वर्ग को टारगेट बनाने के बजाए लोगों को आपस में जोड़ने की बात करनी चाहिए। जिससे कि लोगों में भाई-चारा व प्रेम बना रहे और मुल्क में शांति कायम रहे।

मो.09540147251

Tuesday, December 27, 2011

यह स्तर है भारतीय पुलिस सेवा का


 
लखनऊ के पासपोर्ट अधिकारी जयप्रकाश सिंह नर्वदेश्वर लॉ कॉलेज के छात्र भी हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के सीतापुर रोड स्तिथ परिसर में परीक्षा दे रहे थे। परीक्षा में जयप्रकाश सिंह नक़ल भी कर रहे थे। उड़न दस्ता द्वारा नक़ल करते हुए पकडे जाने पर धमकाया कि तुम सब जानते नहीं हो मै आइ.पी.एस अफसर हूँ। तुम सबको देख लूँगा। इस छोटी सी घटना से आप सभी अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के अधिकारियों का वास्तविक स्तर क्या है?

ये सभी अफसर अपने को ईश्वर का साक्षात स्वरूप मानते हैं। घूस खाने से लेकर लम्पट एलेमेन्ट सबकुछ गैर कानूनी ढंग से करने के लिये हमेशा तैयार रहते हैं हाँ कुछ अफसर ईमानदार हो सकते हैं। लखनऊ के आस पास के जिलों में प्रशासनिक व पुलिस अफसरों के बड़े-बड़े फार्म हाउसेस हैं जो इनकी काली कमाई के स्पष्ट प्रमाण हैं। ये अफसर सुबह से लेकर रात तक जो भी कुछ खर्च करते हैं उसमें से उनके वेतन से एक नया पैसा खर्च नहीं होता है। छोटे जिलों में एक जिलाधिकारी के लिये शहर की तहसील का लेखपाल नियुक्त होता है। जो इनकी पत्नी का साप्ताहिक घरेलू सामान का सप्लाई मुफ्त में करता है। एक लेखपाल के अनुसार सौ पीस पीयर्स साबुन, सौ पीस मार्टीन जैसे आइटम खरीद के देने पड़ते हैं और दूसरा नौकर आस-पास की परचून की दुकान पर उक्त साबुन या आवश्यकता से अधिक सामान वापस कर मेमसाहब को पैसे देता है। जेल अधिकारीयों का काम होता है उनकी गाय को भूसा सप्लाई करना। यह सब प्रशिक्षण उनको किसी प्रशिक्षण महाविद्यालय मे नहीं दिया जाता है बल्कि स्वभावत: उनकी प्रशासनिक सेवा की यह सब हरकतें भी अंग हैं।

Monday, December 26, 2011

हिन्दुत्व की राजनीति बाबरी से अन्ना तक


 
इस महीने (दिसंबर 2011) बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के उन्नीस साल पूरे हो गए। इस अवसर पर कुछ मुस्लिम संगठनों ने मस्जिद के पुनर्निर्माण की माँग फिर से उठाई। इस माँग के पूरी होने में कानूनी बाधाएं तो हैं ही, यह एक ऐसी राजनैतिक गुत्थी बन गया है जिसका कोई हल नजर नहीं आ रहा है। कई अलग अलग राजनैतिक ताकतें, इस मुद्दे का इस्तेमाल अपनी अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर रहीं हैं।
यहां हम एक बार फिर दुहराना चाहेंगे कि हिंदुत्व का हिंदू धर्म से कोई लेनादेना नहीं है। हिंदुत्व तो संघ परिवार की राजनीति का नाम है। हिंदुत्व, संकीर्ण सोच व सांप्रदायिक दृष्टिकोण की राजनीति है। हिंदुत्व, दरअसल, उच्च जातियों के हिंदुओं के उस तबके की सोच को प्रतिबिंबित करता है जो प्रजातंत्र का खात्मा कर देना चाहता है। हिंदुत्व का पैरोकार वर्ग अपेक्षाकृत समॢद्ध और अधिकांशतः शहरी है। हिंदुत्व की राजनीति का उद्देश्य, हिंदू राष्ट्र की स्थापना है जहां समाज के ऊँचे तबके का वर्चस्व होगा और जहां सामंती मूल्यों का बोलबाला होगा। जो खेल खेला जा रहा है वह है सामंती मूल्यों व जन्म आधारित उंचनीच को गौरवशाली परंपरा के नाम पर आधुनिक कलेवर में परोसना।
बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना केवल एक राष्ट्रीय स्मारक का विनाश नहीं था बल्कि उसके साथ ही भारतीय राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ जिसमें राजनीति के प्रांगण में अब तक दबे छिपे ढंग से काम कर रहीं सांप्रदायिक राजनैतिक ताकतें, खुलकर अपना कुत्सित खेल खेलने लगीं। इसके चलते अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा बढ़ी और भारतीय संविधान के मूल्यों का मखौल बना। बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना, दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने की ओर सांप्रदायिक राजनैतिक दलों का पहला कदम था।
बाबरी घटना के तुरंत बाद भाजपा राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया परंतु इससे समाज का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण न रूक सका। जमकर सांप्रदायिक हिंसा हुई और हाशिए से खिसककर भाजपा, राजनीति के मंच के केन्द्र में आ पहुँची। वह सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी। भाजपा के पितृसंगठन आऱएस़एस़ की समाज में स्वीकार्यता ब़ने लगी। अल्पसंख्यकों के विरूद्ध पूर्वाग्रह, सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन गया। मुसलमानों के अलावा ईसाई अल्पसंख्यक भी सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर आ गए। पॉस्टर ग्राहम स्टेन्स को जिंदा जला दिया गया और देश के कई हिस्सों में ईसाई मिश्नरियों के विरूद्ध हिंसा हुई। इसका चरमोत्कर्ष था कंधमाल में खूनी मारकाट।
मूलतः प्रजातंत्रविरोधी व हिंदू राष्ट्र की पक्षधर भाजपा पहली बार सन 1996 में केन्द्र में सत्ता में आई। उस समय सभी अन्य पार्टियों ने उसका साथ देने से इंकार कर दिया। सत्ता का लालच भी उन्हें न बांध सका परंतु बाद में, शनै:शनै: राजनैतिक पार्टियाँ, सत्ता की खातिर भाजपा से जुड़ने लगीं। उन्हें बाबरी मस्जिद ढाहने के आरोपियों से हाथ मिलाने में कोई संकोच नहीं हुआ। उन्हें उन लोगों से कोई परहेज न रहा जिन्होंने पूरे देश में भारी खूनखराबा मचाया था। भाजपा केन्द्र में सत्ता में आ गई और इससे विहिप, बजरंग दल, वनवासी कल्याण आश्रम आदि जैसे संघ परिवार के अन्य सदस्यों की बन आई। वे मनमानी पर उतर आए। राज्यतंत्र और पुलिस बलों का तेजी से सांप्रदायिककीकरण होने लगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी भगवाधारियों ने अपने हाथपैर फैलाने शुरू कर दिए। वैज्ञानिक सोच व तार्किकता के स्थान पर आस्था व विश्वास शिक्षा के आधार बनने लगे।
इससे भाजपा की ताकत और बढ़ी। चुनावों में जीत उसके लिए आसान होती गईं। संघ का प्रचार तंत्र केवल अल्पसंख्यकों का दानवीकरण नहीं करता, वह बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों के "खतरे" का भय भी उत्पन्न करता है। इससे संघ का प्रचार और धारदार बन जाता है और मध्यमार्गी भी संघ के झंडे तले जुटने लगते हैं। कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के साथ ही, दक्षिण भारत में भाजपा के पैर जमाने की शुरूआत हुई। भाजपा की राजनैतिक विचारधारा पूरे देश में अपनी जड़ें जमा रही है। उसकी जड़ें और मजबूत, और मोटी होती जा रहीं हैं।
बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के साथ ही कई प्रक्रियाएं शुरू हुईं। हिंसा पीड़ित न्याय पाने से वंचित कर दिए गए। उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक का जीवन जीने पर मजबूर कर दिया गया। बाद में, आतंकवाद का मुद्दा भी मुसलमानों के दानवीकरण का बहाना बन गया। ईसाई अल्पसंख्यक भी विशेषकर आदिवासी इलाकों में साम्प्रदायिक ताकतों के शिकार बनने लगे।
9/11 के बाद, अमरीकी प्रचारतंत्र अल्कायदा को आतंकवाद का स्त्रोत बताने लगा। मुसलमानों व इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ना शुरू कर दिया गया। अमरीकी मीडिया ने "इस्लामिक आतंकवाद" शब्द उगाया। तेल संसाधनों पर कब्जे की राजनीति में सफलता की खातिर आमजनों की विचारधारा और सोच में जहर घोलना शुरू कर दिया गया। भारत में भी मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार ने नई ऊँचाईयाँ छूईं। इस्लाम की शिक्षाओं और मुसलमानों को आतंकवाद के लिए दोषी ठहराया जाने लगा। यह झूठा प्रचार अत्यंत होशियारी से किया गया।
आऱएस़एस़-भाजपा की राजनीति अब एक नए दौर में प्रवेश कर रही है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ सामाजिक धु्रवीकरण को चरम पर पहॅुचा देने के बाद अब इन तत्वों ने अन्ना हजारे के आंदोलन के नाम पर प्रजातांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का अभियान शुरू कर दिया है। वे एक ऐसे तंत्र का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें "लोकपाल" नामक सर्वशक्तिमान संगठन, हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों व संस्थाओं पर नजर रखे। ऊपर से देखने से ऐसा लग सकता है कि लोकपाल से देश की समस्याएं सुलझेंगी। परंतु दरअसल इससे एक ऐसी संस्था अस्तित्व में आएगी जिसपर प्रजातांत्रिक नियमकानून लागू नहीं होंगे। कुछ लोग और संगठन, जो जनता का एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा कर रहे हैं और "अन्ना संसद के ऊपर हैं" जैसे बेमानी नारे लगा रहे हैं, असल में पर्दे के पीछे से देश के संचालन के सूत्र अपने हाथों में लेना चाहते हैं। अन्ना आंदोलन ने एक ऐसे सामाजिक वर्ग को जन्म दिया है जो यह मानता है कि पहचान से जुड़े मुद्दे (राम मंदिर) और भ्रष्टाचार जैसे मसले, जो कि असली बीमारी के लक्षण मात्र हैं, ही देश की मूल समस्याएं हैं। उन्हें दलितों, अल्पसंख्यकों व समाज के अन्य वंचित समूहों की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं है। पहचान आधारित मुद्दे और बाहरी लक्षणों से जुड़े मसले, राजनैतिक यथास्थितिवाद के हामी होते हैं और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले सभी समूह चाहे वे ईसाई कट्टरपंथी हों, इस्लामिक कट्टरपंथी हों या हिंदुत्ववादी भी यही चाहते हैं।
अब चूंकि राममंदिर मुद्दे की चमक खो गई है इसलिए सामाजिक राजनैतिक यथास्थितिवादी तत्वों ने भ्रष्टाचारविरोध का पल्ला थाम लिया है। यह एक चालाकी भरा कदम है। "मैं अन्ना हूँ" "हम जनता हैं" जैसे नारों से वंचित वर्ग स्वयं को अलगथलग महसूस कर रहे हैं। अन्ना आंदोलन के कर्ताधर्ताओं का संदेश साफ है। इस देश की व्यवस्था केवल "शाईनिंग इंडिया" वर्ग से निर्देशित होगी और वंचित वर्ग सदा हाशिए पर रहेंगे।
संघ हिंदुत्व राजनीति, समाज का धु्रवीकरण व सांप्रदायिकीकरण करने व मूल मुद्दों से समाज का ध्यान हटाने के लिए नित नई रणनीतियाँ अपनाता रहता है। जहाँ पहले रथ यात्राओं व सांप्रदायिक हिंसा ने समाज को धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत करने में भूमिका अदा की वहीं अब भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक मुद्दे का इस्तेमाल उस राजनीति को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है जिसका लक्ष्य सामाजिक असमानताओं को बनाए रखना है।

Tuesday, December 20, 2011

‘121 करोड़’ के कितने दावेदार?


 भारतीय संविधान में देश की सत्ता के संचालन के लिए संसदीय व्यवस्था को इसी मक़सद से समाहित किया गया ताकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सत्ता का संचालन आम जनता के हाथों से सुनिश्चित हो सके। इसी उद्देश्य से पूरे देश में चुनाव व्यवस्था राष्ट्रीयराज्यस्तरीयस्थानीय निकाय स्तर व पंचायत स्तर तक लागू की गई है। ज़ाहिर है इसी संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत् कोई भी जनप्रतिनिधि स्वयं को अपने क्षेत्र विशेष का नुमाईंदा अथवा जनप्रतिनिधि ही समझता है। यदि मोटे तौर पर हम बात करें तो देश की संसद पूरे भारतवर्ष के मतदाताओं की नुमाईंदगी करती है तथा संवैधानिक रूप से यही सांसद 121 करोड़ जनता के वास्तविक निर्वाचित प्रतिनिधि भी हैं। इसी प्रकार राज्य के विकास तथा शासकीय व प्रशासनिक संचालन हेतु किसी राज्य की निर्वाचित सरकार उस राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करती दिखाई देती है। उपरोक्त व्यवस्थाएं किसी बड़बोले या स्वयंभू राष्ट्र हितैषी नेता अथवा संगठन के दावों या वचनों पर आधारित नहीं हैं बल्कि यह हमारे भारतीय संविधान में दर्ज वह व्यवस्थाएं हैं जिनपर हम और हमारा देश गर्व महसूस करता है तथा दुनिया के तमाम देश इस लोकतांत्रिक व्यवस्था से प्रभावित भी होते हैं।

परंतु उपरोक्त तथ्यों से अलग हटकर आए दिन जिसे देखो वही नेता यह दावा पेश करने लगता है कि पूरा देश उसके साथ है या वही 121 करोड़ जनता की आवाज़ है। जब देखो तब इस प्रकार के आधारहीन दावे पेश किए जाने लगते हैं कि जनता निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, सत्तारुढ़ पार्टियों अथवा सरकार के विरुद्ध है और हमारे साथ है। परंतु ऐसे लोग अपने पक्ष में ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं पेश कर पाते जिससे यह पता चल सके कि यदि वास्तव में जनता अपनी निर्वाचित सरकार, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध है तो आखिर यही जनता किस प्रकार, किन कारणों से और किस आधार पर तथा किस व्यवस्था के अंतर्गत् इनके साथ है? और यदि थोड़ी देर के लिए यह बात मान भी ली जाए कि चलिए जनता ने अपने किसी प्रतिनिधि को गलती से निर्वाचित कर लिया या किसी ऐसी सरकार को गलती से चुन लिया जोकि जनकल्याण के कार्यों के बजाए देश को लूटने-खसोटने, बेचने-खाने व भ्रष्टाचार जैसे दुव्र्यसनों में मशगूल हो गई तो सवाल यह है कि क्या पूरे देश की ही जनता एक साथ ऐसे ग़लत फ़ैसले अक्सर लेती रहती है?

दूसरा सवाल यह कि यदि जनता अपने जनप्रतिनिधि व अपनी निर्वाचित सरकार के विरुद्ध है भी तो आख़िरकार वही जनता है किसके साथ? क्योंकि सत्ता के विरुद्ध बेलगाम होकर मुंह खोलने वाले सत्ता विरोधी,विपक्षी तथा सत्ता के विरुद्ध साजि़श रचने में लगे तमाम तथाकथित स्वयंसेवी व राष्ट्रवादी संगठन लगभग सभी कहीं न कहीं जनता से मुखातिब होकर यह कहते हुए दिखाई देते हैं कि पूरा देश उन्हीं के साथ है। 121 करोड़ जनता उनके साथ है। गोया जनता की हालत एक ‘फुटबॉल’ जैसी दिखाई देने लगती है।

उदाहरण के तौर पर इन दिनों देश में जनलोकपाल बनाम लोकपाल मुद्दा ज़ोरदार बहस का विषय बना हुआ है। इसी के साथ-साथ विदेशों में जमा भारतीय लोगों का काला धन वापस लाने के लिए भी भारी शोर-शराबा मचा हुआ है। सांप्रदायिकता व जातिवाद से जुड़े तमाम मुद्दे भी जनता के बीच हैं। मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी जैसी समस्याएं भी देश के सामने हैं। परंतु इन सब को लेकर जिस प्रकार की बहस राजनैतिक दलों के मध्य चल रही है तथा इसके अतिरिक्त तमाम गैर राजनैतिक संगठनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इनमें से कई विषयों पर का$फी सक्रिय दिखाई दे रहे हैं लगभग वे सभी यह दावा ठोक रहे हैं कि जो कुछ भी वह कह रहे हैं वही जनता की आवाज़ है। चाहे वह अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में जनक्रांति पैदा करने का दावा हो अथवा बाबा रामदेव द्वारा भरी जाने वाली सत्ता विरोधी हुंकार हो। काफी दिनों से देश व मीडिया इसी बहस में उलझा पड़ा है तथा देश की जनता को भी इस उलझन में डाले हुए है कि दरअसल देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी आवाज़ बनता कौन दिखाई दे रहा है? वह निर्वाचित जनप्रतिनिधि जिसके गुणों से प्रभावित होकर तथा अपने क्षेत्र व देश के विकास की उम्मीद रखकर स्वयं कष्ट उठाकर व लंबी क़तारों में लगकर जिसके पक्ष में मतदान किया या फिर वह जोकि ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की तरह से देशहित व जनहित का दावा करते हुए स्वयंभू रूप से हमारी आवाज़ बनने की अप्रमाणित रूप से कोशिश कर रहे हैं?

यह सिलसिला किसी एक दल या राज्य को निशाना बनाकर नहीं चल रहा है बल्कि यदि गौर से देखें तो पूरे देश में ही सरकार व सत्ता को अस्थिर करने के प्रयासों की इस प्रकार की एक लहर सी चलती दिखाई दे रही है। हां, चूंकि कांग्रेस पार्टी इस समय देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल है व केंद्र की सत्तारुढ़ यूपीए गठबंधन सरकार का सबसे बड़ा घटक दल भी है तथा इसके अतिरिक्त देश के अधिकांश राज्यों में भी सत्तारुढ़ है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी को निशाना बनाकर ही यह एक सुनियोजित साजि़श रची जा रही हो। परंतु दरअसल इस समय यह राष्ट्रीय स्तर की एक ‘त्रासदी’ कही जा सकती है। क्योंकि अधिकांश प्रदेशों में चाहे वह किसी भी राजनैतिक दल द्वारा संचालित राज्य हों सभी राज्यों में विपक्षी दल अथवा समाजसेवी संगठन अथवा तमाम गैर सरकारी संगठन, सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं। बेशक प्रत्येक राज्य में विरोध के स्वर बुलंद करने के कारण अलग-अलग क्यों न हों परंतु मकसद लगभग सभी जगह एक ही होता है और वह यह कि सत्ता को नीचा दिखाया जाए, उसे बदनाम किया जाए, उसे अस्थिर किया जाए तथा किसी प्रकार इनके हाथों से सत्ता छीनकर उस पर खुद कब्ज़ा किया जाए। और जब यह चक्र पूरा हो जाता है तो पुन: जनता को ही अपना हथियार बनाकर कल के सत्ताधारी आज विपक्ष में आकर फिर अपनी भी भूमिका उसी अंदाज़ में शुरु कर देते हैं यानी उन्हें हटाओ और हमें बनाओ क्योंकि देश हमारे साथ है।

इन हालात में सोचने का विषय यह है कि बात-बात में जनता को या 121 करोड़ लोगों को अपने साथ बताने वाले लोग क्या देश की जनता को बिल्कुल ही मूर्ख समझते हैं या फिर भोली-भाली जनता को वरगला कर वे स्वयं को देश का सबसे बड़ा बुद्धिमान व्यक्ति समझने लगते हैं? आखिर किस आधार पर नेतागण इस तरह की बात कहते सुनाई देते हैं कि पूरा देश उनके साथ है? यहां मैं एक उदाहरण के साथ यह प्रमाणित करने का प्रयास करुंगी कि देश की जनता न तो मूर्ख है न ही इतनी बेवकूफ जितना कि चंद ऐसे लोगों द्वारा समझा जा रहा है जोकि समय-समय पर यह दावा ठोक देते हैं कि पूरा देश उनके पीछे खड़ा है और उनका वचन ही जनता की आवाज़ है।

पिछले दिनों चौधरी भजनलाल की मृत्यु के कारण रिक्त हुई हरियाणा में हिसार लोकसभा संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव संपन्न हुआ। उनके पुत्र कुलदीप बिश्रोई हरियाणा जनहित कांग्रेस से चुनाव लड़े। पूरा देश समझ रहा था कि भारतीय मतदाता चूंकि भावुक भी होते हैं लिहाज़ा चौधरी भजनलाल द्वारा राज्य को दी गई उनकी सेवाओं का एहसान अदा करने की गरज़ से भावनात्मक रूप से कुलदीप बिश्रोई के पक्ष में ही मतदान करेंगे। परंतु चूंकि सत्तारुढ़ कांग्रेस इस उपचुनाव में जनहित कांग्रेस को ‘वाकओवर’ नहीं देना चाहती थी लिहाज़ा उसने अपना प्रत्याशी जयप्रकाश के रूप में खड़ा किया। उधर राज्य की सत्ता के दूसरे सबसे बड़े दावेदार इंडियन नेशनल लोकदल ने अजय चौटाला को यह सोचकर मैदान में उतारा कि यदि किसी तरह हमने बाज़ी मार ली तो राज्य में अगले चुनाव में उनकी सत्ता वापसी के रास्ते काफी हद तक साफ हो जाएंगे। उपरोक्त तीनों ही प्रत्याशियों की चुनावी जंग में शुरु से लेकर अंत तक कुलदीप बिश्रोई का पलड़ा भारी रहा। मीडिया भी पूरी तरह से यह भविष्यवाणी कर रहा था कि कुलदीप बिश्रोई नंबर एक पर चल रहे हैं।

इसी बीच अन्ना हज़ारे ने भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए इसी हिसार उपचुनाव में जनता से कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध मतदान करने की अपील कर डाली। चुनाव नतीजों में कुलदीप बिश्रोई के जीतने पर टीम अन्ना के हौसले बुलंद हो गए तथा टीम अन्ना कांग्रेस की हार का श्रेय स्वयं लेने लगी। और साथ ही यह दावा भी किया जाने लगा कि राज्य से अब कांग्रेस के सफाए की जो शुरुआत हुई है वह राष्ट्रीय स्तर पर भी परिलक्षित होगी तथा टीम अन्ना अब कांग्रेस को निगल जाएगी। परंतु इस चुनाव के कुछ ही दिनों बाद इसी क्षेत्र में रतिया नामक एक विधानसभा क्षेत्र में भी उपचुनाव हुआ जहां कांग्रेस पार्टी भारी मतों से विजयी हुई। इस क्षेत्र की जनता ने कांग्रेस पार्टी को इसलिए जिताया क्योंकि राज्य के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रतिया वासियों से क्षेत्र के अभूतपूर्व विकास का वादा किया था। उधर कांग्रेस पार्टी द्वारा चुनाव जीतने के मात्र एक सप्ताह के भीतर ही हुड्डा ने उसी क्षेत्र में एक विशाल धन्यवाद रैली आयोजित कर रतिया के विकास के लिए एक ऐसे पैकेज की घोषणा कर डाली जिसकी शायद क्षेत्र की जनता उम्मीद भी नहीं कर रही थी।

अब जनता के इस प्रकार के निर्णय से क्या प्रतीत होता है? जनता किसके साथ है? क्या क्षेत्र के विकास के पक्ष में ऐसे फैसले लेने वाले मतदाताओं को हम बेवकूफ कह सकते हैं? निश्चित रूप से जनता भ्रष्टाचार, घपलों-घोटालों जैसी बातों से बेहद दु:खी ज़रूर है। परंतु इन सब के साथ-साथ यह जनता उनके क्षेत्र का विकास करने वाले नेताओं को भी बखूबी पहचानती है। लिहाज़ा आम जनता को अपने पीछे खड़ा हुआ बताने वाले लोगों को इस प्रकार के बेतुके दावे कर जनता को गुमराह करने से बाज़ आना चाहिए। देश की जनता विशेषकर मतदाता वास्तव में पहले से अब कहीं अधिक समझदार, जागरूक व निर्णय लेने में सक्षम होते जा रहे हैं। बिना किसी के बताए या दावा ठोके वे स्वयं यह जानते हैं कि वह कब किसके साथ हैं और कब किसके साथ नहीं।

Monday, December 19, 2011

अदम गोंडवी हमारे बीच नहीं रहे


 
हिंदी साहित्यकारों में अभिनव दुष्यंत कहे जाने वाले यशस्वी कलमकार अदम गोंडवी [रामनाथ सिंहहमारे बीच नहीं रहे | दिनांक 18-12-2011 को उनका निधन हो गया | वे हमारे आदर्श, हमारे पथ प्रदर्शक थे | गीतकार भारत भूषण के निधन के बाद साहित्य के प्रेमियों के लिये ये लगातार दूसरा बड़ा आघात है | काव्य की दो प्रबल वेगवती धाराएं सूख गयीं हैं | उनकी सजल रसधार से सिंचित, पल्लवित साहित्य के नवाकुंर दरख़्त बन रहे हैं | हम आशा करते हैं कि वो इस झंझावात से डगमगायेंगे नहीं और उनकी विरासत को बखूभी सहेजकर रखेंगे | अलविदा अदम गोंडवी जी | 'धरती की सतह पर' 'समय  से  मुठभेड़जारी  रहेगी | उनकी कुछ गजलें प्रस्तुत हैं |
1.
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे|

ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे|

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे |

2.
गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे|

जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?

जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?

तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?

3.
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है|

4.
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये |

5.
मानवता का दर्द लिखेंगें माटी की बू बास लिखेंगें
हम अपने इस कालखंड का, एक नया इतिहास लिखेंगें।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमंतों के हरम सजा कर,
उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगें।

प्रेमचंद की रचनाओं को एक सिरे से ख़ारिज करके
ये ओशो के अनुयायी हैं कामसूत्र पे भाष्य लिखेंगें ।

एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से
तुलसी इनके लिए विधर्मी देरिदा को ख़ास लिखेंगें ।

इनके कुत्सित सम्बन्धों से पाठक का क्या लेना देना
ये तो अपनी जिद पे अड़े हैं अपना भोग विलास लिखेंगें।