Friday, January 27, 2012

एक 'देशद्रोही' ने कैसे मनाया गणतंत्र दिवस



कितना अच्छा दिन है आज। हम गणतंत्र दिवस का जश्न मना रहे हैं। लाल किले से लेकर स्कूल-कॉलेजों में और मुहल्लों से लेकर अपार्टमेंटों तक में तिरंगा फहराया जा रहा है  बच्चों में मिठाइयां बांटी जा रही हैं। मेरे अपार्टमेंट में भी देशभक्ति से भरे गाने बज रहे हैं और मैंने उस शोर से बचने के लिए अपने फ्लैट के सारे दरवाज़े बंद कर दिए हैं। मैं नीचे झंडा फहराने के कार्यक्रम में भी नहीं जा रहा जहां अपार्टमेंट के सारे लोग प्रेज़िडेंट साहब और लोकल नेताजी का भाषण सुनने के लिए जमा हो रहे हैं। मैं इस छुट्टी का आनंद लेते हुए घर में बैठा बेटी के साथ टॉम ऐंड जेरी देख रहा हूं।
आप मुझे देशद्रोही कह सकते हैं। कह सकते हैं कि मुझे देश से प्यार नहीं है। मुझपर जूते-चप्पल फेंक सकते हैं। कोई ज़्यादा ही देशभक्त मुझपर पाकिस्तानी होने का आरोप भी लगा सकता है।
मैं मानता हूं कि मेरा यह काम शर्मनाक है  लेकिन मैं क्या करूं ? मैं जानता हूं कि जब मैं नीचे जाऊंगा और लोगों को बड़ी-बड़ी देशभक्तिपूर्ण बातें बोलते हुए देखूंगा तो मुझसे रहा नहीं जाएगा। वहां हमारे लोकल एमएलए होंगे जिनके भ्रष्टाचार के किस्से उनकी विशाल कोठी और बाहर लगीं चार-पांच कारें खोलती हैं  वह हमारे बच्चों को गांधीजी के त्याग और बलिदान की बात बताएंगे। वहां हमारे सेक्रेटरी साहब होंगे जिन्होंने मकान बनते समय लाखों का घपला किया और आज तक जबरदस्ती सेक्रेटरी बने हुए हैं, वह देश के लिए कुर्बानी देनेवाले शहीदों की याद में आंसू बहाएंगे। वहां अपार्टमेंट के वे तमाम सदस्य होंगे जिन्होंने नियमों को ताक पर रखकर एक्स्ट्रा कमरे बनवा लिए हैं और कॉमन जगह दखल कर ली है ऐसे भी कई होंगे जिन्होंने बिजली के मीटर रुकवा दिए हैं। ये सारे लोग वहां तालियां बजाएंगे कि आज हम आज़ाद हैं।

क्या करूं अगर मुझे ऐसे लोगों को देशभक्ति की बात करते देख गुस्सा आ जाता है। इसलिए मैंने फैसला कर लिया है कि मैं वहां जाऊं ही नहीं। हालांकि मैं जानता हूं कि मैं उनसे बच नहीं पाऊंगा। ये सारे लोग आज गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने के बाद कल शहर की सड़कों पर निकलेंगे और हर गली  हर चौराहे  हर दफ्तर  हर रेस्तरां में होंगे। मैं उनसे बचकर कहां जाऊंगा ?

कल को जब मैं ऑफिस के लिए निकलूंगा और देखूंगा कि टंकी में तेल नहीं है तो मेरी पहली चिंता यही होगी कि तेल कहां से भराऊं  क्योंकि ज़्यादातर पेट्रोल पंपों में मिलावटी तेल मिलता है (पेट्रोल पंप का वह मालिक भी आज गणतंत्र दिवस का जश्न मना रहा होगा  अगर वह खुद नेता होगा तो शायद भाषण भी दे रहा होगा)। खैर  अपने एक विश्वसनीय पेट्रोल पंप तक मेरी गाड़ी चल ही जाएगी इस भरोसे के साथ मैं आगे बढ़ूंगा और चौराहे की लाल बत्ती पर रुकूंगा। रुकते ही सुनूंगा मेरे पीछे वाली गाड़ी का हॉर्न जिसका ड्राइवर इसलिए मुझपर बिगड़ रहा होगा कि मैं लाल बत्ती पर क्यों रुक रहा हूं। मेरे आसपास की सारी गाड़ियां  रिक्शे  बस सब लाल बत्ती को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ जाएंगे  क्योंकि चौराहे पर कोई पुलिसवाला नहीं है। मैं एक देशद्रोही नागरिक जो आज गणतंत्र दिवस के समारोह में नहीं जा रहा कल उस चौराहे पर भी अकेला पड़ जाऊंगा  जबकि सारे देशभक्त अपनी मंज़िल की ओर बढ़ जाएंगे।

अगले चौराहे पर पुलिसवाला मौजूद होगा  इसलिए कुछ गाड़ियां लाल बत्ती पर रुकेंगी। लेकिन बसवाला नहीं। उसे पुलिसवाले का डर नहीं  क्योंकि या तो वह खुद उसी पुलिसवाले को हफ्ता देता है या फिर बस का मालिक खुद पुलिसवाला है  या कोई नेता है। नेताओं  पुलिसवालों और पैसेवालों के लिए इस आज़ाद देश में कानून न मानने की आज़ादी है। मैं देखूंगा कि मेरे बराबर में ही एक देशभक्त पुलिसवाला बिना हेल्मेट लगाए बाइक पर सवार है  लेकिन मैं उसे टोकने का खतरा नहीं मोल ले सकता  क्योंकि वह किसी भी बहाने मुझे रोक सकता है  मेरी पिटाई कर सकता है  मुझे गिरफ्तार कर सकता है। आप मुझे बचाने के लिए भी नहीं आएंगे क्योंकि मैं ठहरा देशद्रोही जो आज गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने के बजाय कार्टून चैनल देख रहा है।

आगे चलते हुए मैं उन इलाकों से गुज़रूंगा जहां लोगों ने सड़कों पर घर बना दिए हैं  लेकिन उन घरों को तोड़ने की हिम्मत किसी को नहीं है  क्योंकि वे वोट देते हैं। वोट बेचकर वे सड़क को घेर लेने की आज़ादी खरीदते हैं  और वोट खरीदकर ये एमएलए-एमपी विधानसभा और संसद में पहुंचते हैं जहां एक तरफ उन्हें कानून बनाने का कानूनी अधिकार मिल जाता है  दूसरी तरफ कानून तोड़ने का गैरकानूनी अधिकार भी। कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता। इसलिए वे अपने वोटरों से कहते हैं  रूल्स आर फॉर फूल्स। मैं भी कानून तोड़ता हूं  तुम भी तोड़ो। मस्त रहो  बस मुझे वोट देते रहो  मैं तुम्हें बचाता रहूंगा।

इसको कहते हैं लोकतंत्र। लोग अपने वोट की ताकत से नाजायज़ अधिकार खरीदते हैं  अपनी आज़ादी खरीदते हैं - कानून तोड़ने की आज़ादी। यह तो मेरे जैसा देशद्रोही ही है जो लोकतंत्र का महत्व नहीं समझ रहा  जिसने अपने फ्लैट में एक इंच भी इधर-उधर नहीं किया  और उसी तंग दायरे में सिमटा रहा  जबकि देशभक्तों ने कमरे  मंजिलें सब बना दीं सिर्फ इस लोकतंत्र के बल पर। आज उसी लोकतांत्रिक देश की गणतंत्र होने की सालगिरह पर लोक और सत्ता के इस गठजोड़ को और मज़बूती देने के लिए जगह-जगह ऐसे ही कानूनतोड़क लोग अपने कानूनतोड़क नेता को बुला रहे है।

जनता के ये सेवक आज अपने-अपने इलाकों में तिरंगा फहराएंगे। एक एमएलए-एमपी और बीसियों जगह से आमंत्रण। लेकिन देशसेवा का व्रत लिया है तो जाना ही होगा। आखिरकार जब भाषण देते-देते थक जाएंगे तो रात को किसी बड़े व्यापारी-इंडस्ट्रियलिस्ट के सौजन्य से सुरा-सुंदरी का सहारा लेकर अपनी थकान मिटाएंगे। यह तो मेरे जैसे देशद्रोही ही होंगे जो अपने फ्लैट में दुबके बैठे है और जो रात को दाल-रोटी-सब्जी खाकर सो जाएंगे।

नीचे देशभक्ति के गाने बंद हो गए हैं  भाषण शुरू हो चुके हैं। जय हिंद के नारे लग रहे हैं। मेरा मन भी करता है कि यहीं से सही  मैं भी इस नारे में साथ दूं। दरवाज़ा खोलकर बालकनी में जाता हूं। नीचे खड़े लोगों के चेहरे देखता हूं। चौंक जाता हूं  अरे  यह मैं क्या सुन रहा हूं  ऊपर से हर कोई जय हिंद बोल रहा है लेकिन मुझे उनके दिल से निकलती यही आवाज़ सुनाई दे रही है - मेरी मर्ज़ी। मैं लाइन तोड़ आगे बढ़ जाऊं  मेरी मर्जी। मैं रिश्वत दे जमीन हथियाऊं  मेरी मर्ज़ी। मैं हर कानून को लात दिखाऊं  मेरी मर्ज़ी...

मैं बालकनी का दरवाज़ा बंद कर वापस कमरे में आ गया हूं। ड्रॉइंग रूम में बेटी ने टीवी के ऊपर प्लास्टिक का छोटा-सा झंडा लगा रखा है। मैं उसके सामने खड़ा हो जाता हूं। झंडे को चूमता हूं  और बोलने की कोशिश करता हूं - जय हिंद। लेकिन आवाज़ भर्रा जाती है। खुद को बहुत ही अकेला पाता हूं। सोचता हूं क्या और भी लोग होंगे मेरी तरह जो आज अकेले में गणतंत्र दिवस का यह त्यौहार मना रहे होंगे। वे लोग जो इस भीड़ का हिस्सा बनने से खुद को बचाये रख पाए होंगे ? वे लोग जो अपने फायदे के लिए इस देश के कानून को रौंदने में विश्वास नहीं करते ? वे लोग जो रिश्वत या ताकत के बल पर दूसरों का हक नहीं छीनते ?

Monday, January 16, 2012

राजनीति का शिकार मुसलमान


 
यूं तो उत्तर प्रदेश का चुनावी मुद्दा भ्रष्टाचार सुशासन और विकास कहा गया लेकिन अक्सर राजनीति में होता वही जो कही नहीं जाती हुआ भी वही उत्तर प्रदेश के चुनाव में भ्रष्टाचार सुशासन और विकास जैसे आम जनता के ज्वलंत मुद्दे पर अपने को खड़ा करने में असफल राजनैतिक दलों का सुर बदल गया। और शूरू हो गया पुराना राग। अब राजनैतिक दल सांम्प्रदायिक भावनाओं को कुरेद कर अमानवीय राजनैतिक खेल खेलने का ताना बाना बुन रही है। सबसे दुःखद और चौकाने वाली बात यह है की स्वयं को धर्मनिरपेक्ष पार्टी का दावा करने वाली कांग्रेस के युवराज ने बाबरी मस्जिद पर बयान दे कर इस अमानवीय खेल कि शुरुआत की है। वहीँ भ्रष्टाचार पर बैकफुट पर पहंची बीजेपी मुसलमानों के आरक्षण के मामले को भुनाने को उतावली है।

भारत में मुसलमानों की हालत बद से बद्तर क्यों न हो लेकिन चुनाव के दौरान मुसलमान खास हो जाते हैं उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए तो बेहद खास। सबसे अहम सवाल यह है कि जब मुसलमानों के हालत पर दो रिपोर्ट आ चुकी है एक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट जिसमें मुसलमानों के बद्दतर हालत को बताया गया है वहीँ दुसरी रिपोर्ट में उपाय बताया गया है। और यह रिपोर्ट सालो पहले आई है ऐसे में आज जब चुनाव सर पे है तब केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद का बयान कि सत्ता में आने के बाद मुसलमानों को 9फीसदी का आरक्षण दिया जाएगा का मतलब क्या? क्या वह अब तक सत्ता के बाहर थे? दरअसल यह युवराज और केन्द्रीय मंत्रि का ढोंग है मुसलमानों को ठगने का। जो आजादी के बाद वे अब तक करते आए हैं।

भारतीय राजनीति में राजनैतिक दल मुसलमानों को वोट बैंक के सिवा कुछ समझते ही नहीं चुनाव आते खास बना कर वोट ले लेते हैं और फिर अछूत समझकर दरकिनार कर देते हैं। लेकिन इन सबके लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वे खुद हैं और उनके नाम पर राजनीति करने वाले नेता जिन्होनें कभी भी उन्हें देश कि मुख्यधारा से जुड़ने ही नहीं दिया, रही सही कसर कठमुल्लाओं ने पूरी कर दी उनका फतवा मानो पूरी कौम आजाद भारत में फतवे का गुलाम है। मुसलमानों को अगर इस तंग हाली से बाहर निकालना है तो खुद से सवाल करना होगा के क्या वे भीख लेना चाहते हैं या हक़। अगर हक़ लेना चाहते हैं तो उन ठग राजनेताओं को पहचानना होगा जो मजहब के नाम पर भाई को भाई से बांटते हैं और लालच देकर वोट खरीदने का अमानवीय खेल खेलते हैं।

चुनाव के बाद परिणाम क्या आएगा यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है लेकिन जरा सोंचिए अगर सत्ता ठगों के हाथ में चला जाएगा तो फुटपाथ पर बसेरा करने वालों का बसेरा कहां होगा?

Friday, January 13, 2012

मुस्लिम समाज में पांव पसारती दहेज प्रथा





हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वाल्देन लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह (प्राथमिकता) दे रहे हैं. हालांकि ‘इस्लाम’ में दहेज की प्रथा नहीं है. एक तरफ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं शरीयत के अलमबरदार मुस्लिम समाज में पांव पसारती दहेज प्रथा के मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठे हैं.

क़ाबिले-गौर है कि दहेज की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनके पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ‘ताक़’ पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. उत्तर प्रदेश में तो हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है. जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गईं हैं, यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए गए हैं. इतना ही नहीं दावतें भी मुर्ग़े की ही चल रही हैं, यानि चिकन बिरयानी, चिकन कोरमा वगैरह. फ़िलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और ताम्बे- पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कार और मोटर साइकिल भी मांगी जा रही है, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वो तेल का ख़र्च भी उठा सके. जो वाल्देन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं.

मुरादाबाद की किश्वरी उम्र के 45 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके वाल्देन रिश्ते का इंतज़ार करते रहे. वो बेहद ग़रीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके वाल्देन दहेज देने की हैसियत रखते तो शायद आज वो अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए. घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी है. किश्वरी दिनभर बीड़ियां बनाती हैं और घर का काम-काज करती हैं. अब बस यही उनकी ज़िन्दगी है. उनकी अम्मी को हर वक़्त यही फ़िक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा? यह अकेली किश्वरी का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हज़ारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज रूपी लालच निग़ल चुका है.

राजस्थान के बाड़मेर की रहने वाली आमना के शौहर की मौत के बाद पिछले साल 15 नवंबर को उसका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ था, जिसके पहली पत्नी से तीन बच्चे भी हैं. आमना का कहना है कि उसके वाल्देन ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोले सोना, एक किलो चांदी के ज़ेवर कपड़े और घरेलू सामान दिया था. निकाह के कुछ बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी ज़ेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी. वे उससे एक स्कॉर्पियों गाड़ी और दो लाख रुपए और मांग रहे थे. आमना कहती हैं कि उनके वाल्देन इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रक़म देने के क़ाबिल नहीं हैं. आख़िर ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी.

राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का क़रीब एक साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक़्त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती. जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो पिछले साल 18 अक्टूबर को उसके ससुराल वालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया. अब वो अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हज़ारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है.

यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दहेज के बढ़ रहे मामलों के कारण मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसदी, गुजरात में 50 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसदी लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. उनका तर्क है कि हज़रत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फ़ातिमा को दहेज दिया था. ख़ास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान यह भूल जाते हैं कि पैग़ंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशक़ीमती चीज़ें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीज़ों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती. यह उपहार के तौर पर थीं. उपहार मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वो उपहार के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज के लिए लड़की के वाल्देन को मजबूर किया जाता है. लड़की के वाल्देन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े.

हैरत की बात यह भी है कि बात-बात पर फ़तवे जारी करने मज़हब के ठेकेदारों को समाज में फैल रहीं दहेज जैसी बुराइयां दिखाई नहीं देतीं. शायद इनका मक़सद सिर्फ़ बेतुके फ़तवे जारी कर मुस्लिम औरतों का जाना हराम करना ही होता है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफ़ी अरसे से आ रहे ज़्यादातर फ़तवे महज़ ‘मनोरंजन’ का साधन ही साबित हो रहे हैं. भले ही मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिलाने का फ़तवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के ख़िलाफ़ जारी फ़तवा. अफ़सोस इस बात का है कि मज़हब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते. हालांकि इसी साल मार्च में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने का फ़ैसला किया था. बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य ज़फ़रयाब जिलानी के मुताबिक़ मुस्लिम समाज में शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ़ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर ख़र्च का ज़्यादा बोझ न पड़े, जिससे ग़रीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके. इस्लाह-ए-मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीक़ा क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है जिसमें सबसे कम ख़र्च हो. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर ज़ोर दिया गया था

सिर्फ़ बयानबाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है. दहेज की कुप्रथा को रोकने के लिए कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. जुमे की नमाज़ के बाद इमाम नमाज़ियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि यह कुप्रथा किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा औरतों को भी जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दों से ज़्यादा औरतों को होता है.

अफ़सोस की बात तो यह भी है कि मुसलिम समाज अनेक फ़िरकों में बंट गया है. अमूमन सभी तबक़े ख़ुद को ‘असली मुसलमान’ साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है. बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मज़हब के ठेकेदार कुछ ‘सार्थक’ काम भी कर लें तो मुसलमानों का कुछ तो भला हो जाए.

भाजपा की क़ब्र येदियुरप्पा ने खोद दी कुशवाहा उसे दफ़नायेंगे ?


 
सपा कांग्रेस बढ़त में बीजेपी बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!

यूपी के चुनाव की सारी कहानी 2007 की तरह दोहराती नज़र आने लगी है लेकिन अन्ना के आंदोलन ने भ्रष्टाचार को देश में चर्चा का विषय बनाकर सारे समीकरण बिगाड़ दिये हैं। एक तरफ बहनजी अपने मंत्रिमंडल के 52 में से कुल 21 मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में बसपा से बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं और लगभग पचास से अधिक विधायकों का टिकट काट चुकी हैं तो दूसरी तरफ भाजपा द्वारा बाबूसिंह कुशवाहा जैसे महाभ्रष्ट बर्खास्त मंत्री को पार्टी में लिये जाने का खुद भाजपा में विरोध तेज़ होता जा रहा है। हालांकि कुशवाहा को टिकट और कोई पद ना दिये जाने की बात कहकर भाजपा ने यह मरा हुआ सांप अपने गले से निकालने का संकेत तो दे दिया है लेकिन वह इस कशमकश से नहीं निकल पा रही है कि कुशवाहा को निकालने से अति पिछड़े उससे पहले से और अधिक नाराज़ तो नहीं हो जायेंगे।

इससे पहले कर्नाटक में तत्कालीन मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरने पर भाजपा केवल सरकार बचाने के लिये उनको हटाने का एलान करने के बावजूद उनकी बगावत के डर से उनको हटाने से खुद पीछे हट गयी थी। येदियुरप्पा को लेकर कांग्रेस को काफी दिन तक भाजपा पर भ्रष्टाचार के मामले में दो पैमाने अपनाने का आरोप लगाने का मौका मिल गया था। यह अलग बात है कि आखि़रकार जब पानी सर से उूपर निकल गया तब येदियुरप्पा को मजबूर होकर भाजपा ने हटाया जिससे उसे उत्तराखंड में निशंक को हटाकर साफ सुथरी छवि के खंडूरी को लाने का श्रेय उतना नहीं मिला जितना दागी होकर भी येदियुरप्पा को उनके पद पर बनाये रखने का अपयष झेलना पड़ा। इससे भाजपा की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को भारी नुकसान पहुंचा था।

हैरत की बात है कि अभी येदियुरप्पा के मामले को लोग भूले भी नहीं थे कि भाजपा ने बसपा मंत्रिमंडल से बर्खास्त कुख्यात बाबूसिंह कुशवाहा को गले लगा लिया। बेशर्मी यह देखिये कि बाहर ही नहीं घर में भी भारी विरोध होने के बावजूद भाजपा के कुछ राज्यस्तरीय नेता कुशवाहा की जमकर ऐसे पैरवी कर रहे हैं जैसे कुशवाहा से वास्तव में कुछ लेकर खा लिया हो, और एक डील के तहत पेडवर्कर की तरह उनका बचाव करना उनका कर्तव्य हो? कम लोगों को पता होगा कि भाजपा ने केवल कुशवाहा को ही नहीं लिया बल्कि बर्खास्त मंत्री बादशाह सिंह, अवधेश वर्मा व ददन मिश्रा को भी लिया है। वर्मा व मिश्रा को तो वह बाकायदा चुनाव में भी उतार चुकी है।

उधर सपा में बाहुबली डी पी यादव की नो एन्ट्री करने वाले भावी मुख्यमंत्री अखिलेष यादव चाहे जितनी अपनी कमर थपथपायें लेकिन इससे पहले उनकी पार्टी भी यूपी के भजनलाल बन चुके दलबदलू नरेश अग्रवाल, उनके पुत्र नितिन अग्रवाल लोकदल के पूर्व मंत्री कुतुबुद्दनी अंसारी, विधयक बदरूल हसन, सुनील सिंह भाजपा से गोमती यादव, बसपा से हाजी गुलाम मुहम्मद, राजेश्वरी देवी , महेश वर्मा और बुलंदशहर के उस कुख्यात गुड्डू पंडित को टिकट थमा चुकी है जिनपर बलात्कार और अपहरण तक के गंभीर आरोप हैं। इससे पहले मुलायम सिंह कुख्यात अमरमणि त्रिपाठी को जेल में बंद होने के बावजूद चुनाव लड़ा चुके हैं।

चर्चा यह भी है कि कुशवाहा को कांग्रेस अपने पाले में लाने की तैयारी कर चुकी थी लेकिन ऐनटाइम पर भाजपा ने यह दांव चल दिया जिससे सीबीआई के छापे मारकर अब कुशवाहा को जेल भेजने की तैयारी कांग्रेस कर रही है। बहरहाल यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा कि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं केवल हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और वाली बात है। बहरहाल आरएसएस से साम्प्रदायिकता के मामले में विरोध रखने वाले भी इस बात पर सहमत होंगे कि अगर भाजपा ऐसे दागी लोगों को चुनाव में उतारती है तो जनता उनको हरा दे। जानकार लोग जानते हैं कि यह काम बिहार की जनता पिछले चुनाव में करके कामयाबी के साथ दिखा भी चुकी है। वहां लगभग 90 प्रतिशत अपराधी प्रवृत्ति के लोग चुनाव में हार गये थे। यही हाल यूपी में भी हो सकता है।

अब गौर करते हैं उस समीकरण पर जिससे आकृषित होकर भाजपा जैसी पार्टी जाति और धर्म के आधर पर चुनाव जीतने को भ्रष्टाचार को कोई बड़ा मुद्दा नहीं मानती। आपको याद होगा कि 2007 में सपा सरकार को हराने के लिये बसपा का नारा था चढ़ गुंडो की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर। यह अकेला नारा बसपा को बहनजी को जिता ले गया। 2002 में सपा को 25.37 प्रतिशत वोट मिले थे तो 2007 में मिले 25.43 प्रतिशत लेकिन सीट 143 से घटकर 97 रह गयीं। उधर बसपा को 2002 के 23.06 के मुकाबले 2007 में 30.43 प्रतिशत वोट मिले जिससे बहनजी 7.37 प्रतिशत मतों के सहारे 98 सीटों से उछलकर सीधे 206 के रिकॉर्ड बहुमत पर पहुँच गयीं।

इससे पहले 1991 में भाजपा को 31.45 प्रतिशत वोट के साथ 221 सीट मिली थीं लेकिन 1993 में हिंदुत्व की सोशल इंजीनियरिंग हाथी ने फेल करके वोट बीजेपी को पहले से बढ़कर 33.30 प्रतिशत मिलने के बावजूद उसकी सीटें घटाकर 177 पर रोक दीं। इसमें मुसलमानों ने एक सूत्री प्रोग्राम भाजपा हराओ का फार्मूला लागू किया था। इस चुनाव में सपा बसपा का गठबंधन होने से सपा को वोट मात्र 17.94 प्रतिशत जबकि सीट 109 मिली थीं, जबकि बसपा को वोट 11.12 प्रतिशत लेकिन सीट 67 मिल गयीं थीं। यह उसकी सोशल इंजीनियरिंग की शुरूआत थी।

इससे यह पता लगता है कि 75 प्रतिशत मतदाता जाति धर्म और क्षेत्र से बंधे होने के बावजूद शेष 25 प्रतिशत तटस्थ व निष्पक्ष मतदाता से हर बार मात खा रहा है। इस चुनाव में भाजपा की यह गलतफहमी भी दूर हो जायेगी कि वह जिस सहानुभूति के लिये कुशवाहा को गले से लगा रही है उससे अति पिछड़ों के वोट उसको थोक में मिल सकते हैं। बीजेपी को इंडिया शाइनिंग की तरह यह खुशफहमी भी दूर करनी होगी कि वह यूपी की विधानसभा में कांग्रेस से चौथे स्थान की लड़ाई चुनाव में जीत सकती है।